मुद्दा: फ़रमानी नाज़, हर हर शंभू और फ़तवे की राजनीति
मैं न कहता था कि संघी और मुसंघी बिल्कुल एक जैसे होते हैं। फ़रमानी नाज़ के मामले ने इसे एक बार फिर सिद्ध किया है। कहा जा रहा है कि कुछ मौलाना-उलमा नाराज़ है कि नाज़ ने ‘हर हर शंभु’ गाना क्यों गाया। उन्होंने उनके ख़िलाफ़ फ़तवा जारी कर दिया। हालांकि फ़तवे को लेकर भी विवाद है। और इसे जारी करने और कराने की भी अपनी राजनीति है, जिसे मैं आगे समझाऊंगा।
और इस फ़तवे के आने के बाद से हिंदी (हिंदू) चैनल वालों की बांछें खिल गई हैं और उन्होंने फ़रमानी नाज़ को स्टूडियो में बैठाकर उनके लंबे-लंबे इंटरव्यू करने शुरू दिए हैं। वो एंकर जो हिन्दुओं के स्वयंभू ठेकेदारों की ओर से आमिर ख़ान की नई फ़िल्म लाल सिंह चड्ढा के बायकॉट के हैशटैग और घोषणाओं पर प्रसन्न मुद्रा में दिखाई दे रहे थे, वो एंकर जो रत्ना पाठक के एक बयान को हिंदू विरोधी बताकर रत्ना पाठक के आगे ‘शाह’ लगाकर पूरा ज़ोर देकर चिल्ला रहे थे। क्योंकि वे नसीरूद्दीन शाह की पार्टनर हैं। वीडियो जारी कर उनकी आलोचना कर रहे थे, वे ही फ़रमानी नाज़ को लेकर आंसू बहा रहे हैं। उनके बहाने महिलाओं के हक़-हक़ूक (मुस्लिम महिला) की बातें कर रहे हैं। मोदी और योगी जी के नाम अपील जारी करा रहे हैं।
वाह भई वाह...इसे कहते हैं धर्म की सियासत, दोहरा मापदंड। पाखंड। माफ़ कीजिए, शायद ये शब्द असंसदीय नहीं होंगे। मैंने काफ़ी संयम बरता है।
पहले कुछ बातें संघी और मुसंघियों दोनों से। क्योंकि हिंदू कट्टरपंथियों को दिक्कत रहती है कि मुसलमान भक्ति या देशभक्ति के गीत नहीं गाते, नारे नहीं लगाते। हिंदुओं से घृणा करते हैं। और एक ख़ुदा के अलावा किसी सत्ता को स्वीकार नहीं करते। और मुसंघियों यानी मुस्लिम कट्टरपंथियों को दिक्कत रहती है कि अल्लाह और उसके रसूल के अलावा किसी का नाम भी ज़बां पर आ गया था आपने शिर्क कर दिया, आप धर्म भ्रष्ट हो गए, काफ़िर हो गए..आदि आदि।
वो एक मशहूर शेर है—
ज़ाहिद-ए-तंग-नज़र ने मुझे काफ़िर जाना
और काफ़िर ये समझता है मुसलमान हूँ मैं
बिल्कुल यही हाल है। मेरे एक मुस्लिम शायर दोस्त आरिफ़ गांधी हमेशा कहते थे कि हिंदू सांप्रदायिकता के राक्षस की जान मुस्लिम सांप्रदायिकता के तोते में होती है। एक की गर्दन मरोड़ दो दूसरा खुद मर जाएगा। हालांकि मैं इस वक्तव्य से कभी सहमत नहीं रहा, क्योंकि मेरी नज़र में यह पूरा सच नहीं है। यह इस मुद्दे का सरलीकरण है। मेरी बात आज भी वही और सही है, लेकिन फिर भी फ़रमानी नाज़ के मुद्दे पर उनकी बात याद आती है।
फ़रमानी नाज़ का कसूर क्या है, जो उनके ख़िलाफ़ फ़तवा जारी हुआ है। उन्होंने एक हिंदू भगवान के लिए एक गीत गया है। बस। शिव शंकर हिंदुओं के आदि देव कहे जाते हैं। सावन का महीना उनका ही महीना कहा जाता है। उन्हें प्रसन्न करने के लिए कांवड़ चढ़ाई जाती है, व्रत रखे जाते हैं। गीत गाए जाते हैं। उन्हीं की शान में फ़रमानी नाज़ ने गीत गाया- हर हर शंभू...। और यू-ट्यूब पर अपलोड किया। उनका यू-ट्यूब पर एक भक्ति चैनल है।
ख़ैर किसी भी कलाकार के लिए वास्तव में कोई धर्म महत्वपूर्ण नहीं होता। नहीं होना चाहिए। उसके लिए उसका सुर ही ईश्वर होता है। वो उसी की धुन में गाता है। सुर लगाता है।
तभी तो फ़रमानी नाज़ ने ऐसे कट्टरपंथियों को जवाब देने के लिए मदीने का सफ़र नज़्म गाकर भी अपलोड की है।
कुछ लोग इसे उनकी मजबूरी या डर भी कह सकते हैं। हां, डर होगा, हो भी सकता है। और क्यों न हो, जब कट्टरवादी हिंदू-मुसलमान इन दिनों बिल्कुल बौराए हुए हैं।
लेकिन मुसलमानों पर हर समय सवाल उठाने वाले हिंदू कट्टरपंथियों और बात-बात पर फ़तवे जारी करने वाले मुल्ला-मौलवियों को ये जानना चाहिए कि हिंदुस्तान के मशहूर भक्ति गीत यानी भजन जो आज भी जो उनके घरों और मंदिरों तक में बजते हैं वो मुस्लिम शायरों ने लिखे और मुस्लिम गायक ने गाए हैं।
सोशल मीडिया पर पूरी एक लिस्ट है। आप भी चेक कर सकते हैं-
मन तड़पत हरि दर्शन को आज
गायक : मोहम्मद रफ़ी
गीतकार : शक़ील बदायुंनी
संगीतकार : नौशाद
फ़िल्म : बैजू बावरा (1952)
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इंसाफ़ का मंदिर है, ये भगवान का घर है
गायक -मोहम्मद रफ़ी
गीतकार : शकील बदायुंनी
संगीतकार : नौशाद
फ़िल्म -अमर (1954)
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हे रोम रोम में बसने वाले राम
गायक : आशा भोसले, रफ़ी
गीतकार : साहिर लुधियानवी
संगीतकार : रवि
फ़िल्म : नीलकमल (1968)
जय रघुनन्दन जय सियाराम
गायक: मोहम्मद रफ़ी
गीतकार: शक़ील बदायुंनी
संगीतकार- रवि
फ़िल्म -घराना (1961)
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आना है तो आ राह में
गायक - मोहम्मद रफ़ी
गीतकार - साहिर लुधियानवी
संगीत - ओ पी नय्यर, खय्याम
फ़िल्म - नया दौर (1957)
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जान सके तो जान, तेरे मन में छुपे भगवान
गायक - मोहम्मद रफ़ी
गीतकार - जांनिसार अख्तर
संगीतकार - ओ पी नय्यर
फ़िल्म - उस्ताद (1957)
यही नहीं आपको मालूम है कि महाभारत पर बने दूरदर्शन के मशहूर धारावाहिक के डायलॉग किसने लिखे- राही मासूम रज़ा ने
आज भी बनारस की सुब्ह और हमारे तमाम शुभ कामों की शुरुआत बिसमिल्लाह ख़ां की शहनाई से होती है।
ख़ैर आज़ादी के आंदोलन से लेकर आज के देशभक्ति गीत तक अनगिनत उदाहरण हैं जिसे देकर हिंदू-मुस्लिम एकता, भाईचारे और कला-साहित्य की मिसाले दी सकती हैं।
अमीर खुसरों की रचनाएं पढ़िए। वह हिंदी साहित्य के आदि कवि कहे जाते हैं।
मीर तकी मीर ने यहां तक कह दिया कि—
'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया
नाराज़ होने वाले तो ग़ालिब के इस शेर से भी नाराज़ हो गए थे कि
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू क्या है
मुस्लिम कट्टरपंथियों की आपत्ति थी कि इस्लाम में तो जिस्म को जलाने का तसव्वुर नहीं है, दफ़नाने का है। ख़ैर
ग़ालिब तब भी कहते हैं—
ख़ुदा के वास्ते ज़ाहिद उठा पर्दा न काबे का
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफ़िर-सनम निकले
बताया जाता है कि तुलसीदास से भी ब्राह्मण नाराज़ हो गए थे कि उन्होंने देव भाषा संस्कृत की रामायण का कैसा देसी भाषा अवधी में अनुवाद कर दिया। कैसे यह आम लोगों को समझ आने लगी।
इसी तरह ब्राह्मण, चित्रकार राजा रवि वर्मा से नाराज़ हो गए थे कि उन्होंने उनके देवताओं की मानवीय सूरत क्यों बना दी। क्यों मंदिर से निकाल कर कैलेंडर बनाकर घर-घर पहुंचा दिया।
अब कोई सलमान ख़ान या शाहरूख ख़ान के फ़िल्मों में हिंदू बनने पर ऐतराज़ करने लगे तो क्या कहा जाए। ख़ैर इन लोगों को जानना चाहिए कि महाराष्ट्र में गणपति महोत्सव में हिंदू-मुस्लिम सभी शामिल होते हैं।
ख़ैर यह फेहरिस्त बहुत लंबी है। यहां सिर्फ़ कुछ धार्मिक उदाहरण रखे गए हैं। लेकिन समझने वाली बात यह है कि ये विवाद बार बार क्यों खड़े होते हैं। सीधा जवाब है राजनीति।
ताज़ा मुद्दा है जिसमें फ़तवे की राजनीति और देश की राजनीति घुलमिल गई है। हमें इसे समझने की कोशिश करनी चाहिए।
पहले तो यह समझना चाहिए कि फ़तवा दरअसल है क्या?
लोगों को ग़लतफ़हमी है कि ये कोई आदेश है। हालांकि इसे पेश ही ऐसे किया जाता है कि इसे आदेश या फ़रमान समझना भी ग़लत नहीं है। मद्दाह के उर्दू-हिंदू शब्दकोश में भी हुक्म और फ़रमान ही अर्थ दिए है। रेख़्ता डिक्शनरी में भी यही लिखा है—किसी मुसलमान धर्म-गुरु द्वारा धर्म-संबंधी किसी विवादास्पद बात के संबंध में दिया हुआ शास्त्रीय लिखित आदेश, किसी धार्मिक विषय में किसी धर्मगुरु आदि का लिखित आदेश, निर्णय या घोषणा, जाति पंचायतों और धार्मिक संगठनों द्वारा जारी किए गए फ़रमान या आदेश।
लेकिन असल में फ़तवा का मतलब होता है धर्म अनुसार सलाह, नसीहत या क़ानूनी राय और व्यवस्था देना। और ये बिन मांगे नहीं दी जाती। बल्कि मांगने पर दी जाती है। यानी फ़तवा देने की नहीं लेने की चीज़ है। इसमें आप देवबंद या अन्य आलिम-उलमा के पास जाते हैं (उलमा आलिम का ही बहुवचन है, हिंदी वाले अक्सर उलमाओं लिख देते हैं। आलिम का अर्थ है विद्वान और उलमा का अर्थ है विद्वान जन) और उनसे पूछते हैं कि फ़ला काम इस्लाम के अनुसार या शरीअत की रौशनी में सही है या नहीं।
जैसे आप पूछें कि इस्लाम के अनुसार झूठ बोलना सही है, किसी का हक़ मारना सही है या शराब पीना जायज़ है, तो उलमा क्या कहेंगे, यही कि इस्लाम या शरीअत के मुताबिक झूठ बोलना ग़लत है, किसी का हक़ मारना ग़लत है, शराब पीना हराम है। यही आप कहेंगे। कहेंगे या नहीं...!, यही सब धर्म या आपका समाज कहता है। यही इस्लाम कह रहा है, लेकिन आप सनसनी बनाएंगे, हेडलाइन लगाएंगे कि देवबंद ने फ़तवा जारी कर दिया कि शराब पीना हराम है, अरे भाई यही तो आपका धर्म भी कह रहा है, सरकार भी कह रही है कि शराब पीना ठीक नहीं है, इससे कैंसर हो सकता है आदि आदि।
यहां मैं यह भी बता दूं कि इस्लाम के अनुसार फ़तवा हर मौलवी या इमाम जारी नहीं कर सकता है। फ़तवा कोई मुफ़्ती ही जारी कर सकता है। मुफ़्ती बनने के लिए शरिया क़ानून, कुरान और हदीस का गहन अध्ययन ज़रूरी होता है।
ख़ैर कुछ सवाल और कुछ जवाब बेहद हास्यपद होते हैं लेकिन हमें समझना चाहिए कि वो एक किताब या एक धार्मिक क़ानून के हवाले से पूछे जा रहे हैं और उसका उत्तर देने वाला अपने मन से कोई उत्तर नहीं दे सकता। आप अपने-अपने धर्मों या परपंराओं के अनुसार किसी सवाल जवाब सोचेंगे तो कई बार आपको भी अपना ही जवाब अटपटा या आज के समय के अनुकूल न लगे।
लेकिन जैसे मैंने कहा कि पूछने और बताने वाले की भी एक मंशा और राजनीति होती है। आज के संदर्भ में तो ज़रूर। और यहीं मुझे फिर अपने दोस्त आरिफ़ फिर याद आते हैं वे बेबाकी से कहते थे कि हम बहुत पाखंडी लोग हैं, जब चोरी करेंगे, डाका डालेंगे तो शरीअत अदालत नहीं जाएंगे, मुल्ला-मौलवी के पास नहीं जाएंगे कि हमने चोरी की है, डाका डाला है, शरिया के मुताबिक हमारी सज़ा क्या होगी, तब संविधान के मुताबिक क़ानूनी अदालत में जाएंगे और अपील करेंगे कि हमारी सज़ा कम या माफ़ कर दी जाए, लेकिन जब तलाक़ का मामला होगा, दूसरी तीसरी शादी का मामला होगा, या ऐसा ही कोई अपने फ़ायदे का मामला होगा तो शरीअत की राह देखेंगे, मुफ़्ती के पास जाएंगे कि बताइए क्या नियम कायदे हैं।
इस तरह नफ़ा-नुक़सान देखकर या एजेंडा सेट करके फ़तवे का सहारा लिया जाता है, जो बिल्कुल सही नहीं हैं और ये कुल मिलाकर सब पुरुषवाद या पितृसत्ता का मामला है जो अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए समय-समय पर धर्म का सहारा लेती है।
यही वजह है कि फ़रमानी नाज़ ने पुरजोर आवाज़ में पूछा है कि “मेरे दुख को क्या किसी ने समझा। मुझे तलाक दिए बिना पति ने दूसरी शादी कर ली। उस समय तो किसी ने कुछ नहीं बोला। किसी ने मेरे पति को नहीं समझाया कि ये सही नहीं है। तब मेरे दुख को किसी ने नहीं समझा मगर आज मैं गाने गाकर अपने बेटे को पाल रही हूं तो लोगों को आपत्ति हो रही है। ऐसा क्यों है?”
आपको बता दें कि फ़रमानी नाज़ बेहद ग़रीब परिवार से हैं। वह उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर की रहने वाली हैं। उन्हें बेहतरीन गला मिला है। वे इंडियन आयडल में भी शामिल हुई थीं। उनका एक छोटा बेटा है। जिसकी ज़िम्मेदारी अकेले उनके सर है। इसलिए वे अपने भाई व अन्य सहयोगियों के साथ गाना गाकर यू-ट्यूब और फेसबुक इत्यादि पर डालने लगीं। और देखते ही देखते वे मशहूर हो गईं। वे आज काफी मेहनत कर रही हैं। कई मीडिया संस्थानों को दिए गए अपने इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि “मुझे इतनी अच्छी आवाज मिली है तो अपने हुनर के बल पर आगे बढ़ रही हूं”। उन्होंने कहा कि मर्यादा में रहकर गाने गाती हूं। किसी धर्म का कभी अपमान नहीं किया। कव्वाली करते तो भजन भी गा लेते हैं।
फरमानी ने कहा कि यूट्यूब पर मेरा एक भक्ति चैनल है। हमने कई भक्ति गीत गाए हैं। राधा-कृष्ण का भजन गाया है। अब विवाद क्यों हो रहा है?
यही हम कह रहे हैं कि अब विवाद क्यों। फ़रमानी कई भक्ति गीत गा चुकी हैं। दरअसल विवाद की वजह है वही हिंदू-मुस्लिम राजनीति। और जैसा पहले कहा कि इसका सहारा बनती है फ़तवेबाज़ी।
इस्लाम में इसी फ़तवेबाज़ी का फ़ायदा नकली नाम पते से सवाल पूछकर भारतीय राजनीति में खूब उठाया जाता है। कोई भी व्यक्ति एक चिट्ठी, एक पोस्टकार्ड भेजकर भी देवबंद या किसी अन्य धार्मिक स्कूल के मौलाना, उलमा से कोई सवाल पूछ सकता है और फिर जवाब मिलने पर उसे सार्वजनिक करके उसकी हेडलाइन बना और बनवा सकता है।
अब यही फ़रमानी नाज़ के मामले में हुआ है। अभी तो ये भी नहीं पता कि किसने सवाल पूछा और किसने जबाव दिया। अभी तो ठीक से सवाल भी नहीं पता कि सवाल क्या है। यह कि इस्लाम में गाना गाना सही है या नहीं, या विवाद हिंदू भक्ति गाने पर है।
वैसे भी आज की तारीख़ में इस तरह की सवाल पूछने का कोई मतलब, कोई तुक ही नहीं बनती कि इस्लाम में गाना सही है या नहीं। और अगर किसी को कोई शक हो तो हज़रत दाऊद के बारे में पढ़ ले। जानकारी मिलती है कि यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम के अब्राहमिक धर्मों में हज़रत दाऊद या डेविड एक राजा, पैगंबर और संगीतकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इस पर और तफ़सील में आप पाकिस्तान में बनी 2007 में बनी फ़िल्म “ख़ुदा के लिए” देख सकते हैं। जिसमें नसीरुद्दीन शाह ने भी रोल किया है। इसी फ़िल्म का मशहूर डायलॉग है कि “इस्लाम में दाढ़ी है, दाढ़ी में इस्लाम नहीं”।
ख़ैर ये फ़तवे, ये फ़रमान ये सब आज की राजनीति यानी मुसलमानों को टार्गेट करने की परियोजना के लिए बिल्कुल सटीक हैं और इसमें मुसलमानों के कथित धर्मगुरु या उलेमा भी ख़ूब रोल निभाएंगे। इन मुद्दों को खूब हवा दी जाएगी और हर रोज़ धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील आवाज़ों और कलाकारों के ख़िलाफ़ फ़तवे देने वाली पार्टी और मीडिया इसका भरपूर फ़ायदा उठाएंगे।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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