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किसानों की मांगें सही हैं: खाद्य क्षेत्र पर कॉर्पोरेट नियंत्रण बढ़ता जा रहा है

पोषक तत्वों का संचार करना कृषि और खाद्य क्षेत्र पर कंपनियों के बढ़ते प्रभाव का एक और संकेत है। इससे उपभोक्ताओं और कृषकों को नुकसान पहुंचेगा।
Farmers

जब किसानों ने दस माह पूर्व दिल्ली की सीमाओं पर अपने विरोध प्रदर्शन को शुरू किया था तो उनका सबसे बड़ा आरोप यह था कि नये कृषि कानून खाद्य उत्पादन पर कॉर्पोरेट क्षेत्र के आधिपत्य के आगाज के बतौर हैं। सरकार इसे लगातार सिरे से खारिज करती रही, लेकिन अब यह आरोप तेजी से सटीक जान पड़ रहा है। उदाहरण के लिए, केंद्र सरकार ने इस साल चावल, दूध और खाद्य तेलों को अनिवार्य तौर पर सुदृढ़ करने के लिए एक मसौदा प्रस्ताव जारी किया है। यदि यह स्वीकृत हो जाता है तो इन नियमों के भारत में उपभोग किये जाने वाले अन्य मुख्य उपजों पर भी लागू किये जाने की पूरी-पूरी संभावना है।

अच्छे स्वास्थ्य के लिए सुदृढ़ीकरण मार्ग कहीं से भी पोषण लक्ष्यों को हासिल करने के लिए न तो स्वास्थ्यकर और न ही किफायती तरीका है। सामजिक एवं वैज्ञानिक अध्ययनों से संकेत मिलता है कि जब भोजन को सुदृढ़ किया जाता है तो पोषण स्तर गिरने लगता है। हालाँकि, बड़े व्यवसायों हित तब सधता है जब औद्योगिक प्रक्रियाओं के माध्यम से खाद्य पदार्थों में पोषक तत्वों का संचार किया जाता है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के निदेशक ने हाल ही में मध्याह्न भोजन योजना (देखरेख में भोजन कराने) के सन्दर्भ में कहा था कि बच्चों में पोषण स्तर में सिर्फ कृमि-मुक्त करने से ही, उनके द्वारा खाए जाने वाले चावल को सुदृढ़ किये बिना भी पोषण स्तर में सुधार हुआ है। उनका कहना था कि भारत में सुदृढ़ीकरण से होने वाले व्यक्तिगत लाभों को अभी तक पूरी तरह से नहीं समझा गया है, क्योंकि इसको लेकर अभी तक स्वतंत्र वैज्ञानिक अध्ययनों को संचालित नहीं किया गया है। 

द अलायन्स फॉर सस्टेनेबल एंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर अथवा आशा किसान स्वराज ने, जो कि प्राकृतिक या जैविक खेती और स्वास्थ्यकर भोजन को बढ़ावा देने वाले करीब 400 संगठनों का एक समूह है, ने सरकार को दो पत्र लिखे हैं। इस अभियान को अर्थशास्त्री जयति घोष एवं कृषि कार्यकर्ता कविता कुरुघंटी सहित लगभग 170 लोगों ने अपना समर्थन दिया है। इनमें से एक पत्र भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) से “मौजूदा एवं विकसित स्वतंत्र विज्ञान पर कायम रहने का आग्रह करता है जो इन जटिल समस्याओं के लिए न्यूनतावादी दृष्टिकोण पर सवाल उठा रहा है।” उनका कहना है कि भारत के खाद्य एवं स्वास्थ्य की स्थिति को देखते हुए, विशिष्ट पोषक तत्वों के इक्का-दुक्का एवं कृत्रिम उपायों से कुपोषण की समस्या का समाधान होने नहीं जा रहा है। उन्होंने सरकार चेताया है कि यदि खाद्य पदार्थों को जिस प्रकार से उगाया और प्रसंस्कृत किया जाता है में बदलाव लाने के बजाय भोजन की किलेबंदी की जाती है तो इससे गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। उन्होंने लिखा है कि “कई चावल खाने वाले देशों के डेटा के मेटा-विश्लेषण से पता चलता है कि आयरन, विटामिन ए, या फोलिक एसिड से भरपूर चावल से एनीमिया पर कोई फर्क नहीं पड़ता है और विटामिन ए की कमी में बेहद मामूली बदलाव देखने को मिला है।”

अतिरिक्त पोषक तत्व आबादी के किसी भी वर्ग के लिए स्वास्थ्यकर, किफायती एवं संतुलित आहार का स्थान नहीं ले सकते। इसके अलावा, ‘पोषक तत्वों से युक्त’ खाद्य पदार्थों के औद्योगिक स्तर पर उत्पादन  करने से खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र में शामिल छोटी और कुटीर इकाइयों का व्यापार बड़े व्यवसायों के हाथ में चला जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अनिवार्य किलेबंदी के लिए बड़ी मात्रा में खाद्य पदार्थों संसाधित करने के लिए बड़ी इकाइयों की जरूरत पड़ती है। सरकार को लिखे अपने पत्र में लेखकों का कहना है कि “एक मध्यम-आकर की मिल के लिए किलेबंदी के माध्यम से चावल के उत्पादन की अनुमानित लागत 3.2 करोड़ रूपये बैठती है (जैसा कि चावल की किलेबंदी पायलट योजना और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत इसके वितरण के बारे में उल्लेख किया गया है।)

पोषण एवं कृषि विशेषज्ञों ने विकसित हो रही खाद्य प्रणालियों को लेकर परेशान करने वाले सवाल खड़े किये हैं। सबसे पहले, गेंहूँ या चावल जैसे खाद्यान्नों का अत्यधिक पॉलिश कर मूल्यवान पोषक तत्वों को निकाल लिया जाता है। फिर, पॉलिशिंग के दौरान निकाले गए पोषक तत्वों को अन्य खाद्य पदार्थों में मिलाया जायेगा। उदाहरण के लिए, सूखे अनाज को संसाधित करते समय अलग किये गये चोकर को बिस्कुट में मिलाया जाता है और इसे किलेबंदी कहा जाता है। अनाज के अन्य भागों जैसे कि गेंहू के कीटाणुओं को “अतिरिक्त पोषक तत्व” के रूप में बेहद प्रसंस्कृत भोज्य पदार्थों में पेश किया जाता है। 

ये सारी कवायद सह-उत्पादों और खोए हुए पोषक तत्वों को पैकेज्ड फ़ूड से हटाने और पुनः प्रस्तुत करने के में खत्म हो जाती है, जिसे एक अतिरिक्त लागत पर किया जाता है। इसलिए इसका आशय है भोजन की लागत में बढ़ोत्तरी करना। इसका आशय बड़े व्यवसायों को जमकर लाभ कमाने के अवसरों को उपलब्ध कराना भी है। इसमें एक है, खाद्यान्न में मौजूद पौष्टिक बाहरी परतों को अलग करना।  यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके लिए मशीनरी के इस्तेमाल की आवश्यकता पड़ती है, जो अंतिम उत्पाद की लागत में अभिवृद्धि करती है जबकि दूसरी तरफ श्रम की लागत को कम करती है। इस प्रकार से भोजन का प्रसंस्करण और उसके सुदृढ़ीकरण की अर्थव्यवस्थायें अपने मुकाम तक पहुँचती है। उपभोक्ताओं को इस प्रकार से पोषण को हटाने और भोजन में पोषक तत्वों को दुबारा से शामिल करने के लिए अलग से भुगतान करना पड़ता है। इससे तो कहीं बेहतर होगा कि अपने पोषण मूल्य के लिए मशहूर मुख्य उपजों की स्वदेशी किस्मों को ही पेश किया जाए।

किसान और कृषि संगठन अपनी आय को बढ़ाने के लिए लगातार उपभोक्ताओं के साथ सीधा संपर्क तलाश रहे हैं। दुग्ध व्यवसाय से जुड़े किसान अक्सर उपभोक्ताओं को सीधे आपूर्ति करते हैं। कई स्वंय-सेवी समूह फसलों के लिए छोटे-स्तर पर प्रसंस्करण और मूल्य-संवर्धन के काम से जुड़े हुए हैं। अनिवार्य किलेबंदी से उन सभी को आर्थिक तौर पर नुकसान उठाना पड़ेगा।

सरकार ने भारत में खाद्य तेल के उत्पादन को बढ़ाने और आयात को कम करने के लिए पाम आयल की खेती करने की कवायद को भी शुरू करने का फैसला लिया है। पाम आयल के पेड़ सस्ते खाद्य तेल के गैर-परंपरागत स्रोत हैं। पारंपरिक देशी तेल की किस्मों की तुलना में पाम आयल स्वास्थ्य मानकों पर काफी निचले दर्जे पर आते हैं, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि कॉर्पोरेट की अगुआई वाली मार्केटिंग के जरिये किलेबंदी, कम कीमतें या अन्य अनुमानित फायदों को बढ़ावा देकर इसकी भरपाई करने की कोशिश की जाने वाली है। भारत की खाद्य सुरक्षा चिंताओं ने इसे खाद्य तेलों के सबसे बड़े आयातक के रूप में बना दिया है।

पाम आयल की खेती ने पूर्वोत्तर और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में बड़े पैमाने पर खाद्य तेल के वृक्षारोपण से होने वाले पर्यावरणीय क्षरण को लेकर चिंताओं को जन्म दिया है। वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने भी जैव-विविधता से संपन्न क्षेत्रों में विदेशी एवं आक्रामक पाम आयल के पेड़ लगाने के खिलाफ चेतावनी जारी की है। पाम आयल के बागान तिलहन की अन्य किस्मों की तुलना में अधिक पानी का इस्तेमाल करते हैं, मिटटी के कटाव को बढ़ाते हैं, और इनके प्रसंस्करण के कारण प्रदूषण होता है।

बड़े व्यवसाय द्वारा खाद्य प्रणाली को बाधित करने की एक और मिसाल हिमाचल प्रदेश में सेव उत्पादकों की हालिया समस्याओं में देखी जा सकती है। राज्य में मौजूद कई बागबान मालिकों ने हाल ही में बाग की उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग की है और एक प्रमुख व्यापारिक घराने को सेव की कीमतों में पिछले वर्ष की तुलना में 16 रूपये प्रति किलो की कम की दर घोषित करने के लिए आरोपीत किया है। उनका कहना है कि इस गिरावट ने अन्य खरीदारों को भी अपनी प्रस्तावित कीमतों को कम करने के लिए प्रोत्साहित किया है। इससे पहले, सोलन जिले के गाँवों में टमाटर के किसानों को एक प्रमुख कंपनी द्वारा खराब गुणवत्ता वाले बीज की आपूर्ति किये जाने के कारण नुकसान उठाना पड़ा था।

इन सभी कारणों को देखते हुए, किसान सही हैं यदि उन्हें महसूस होता है कि पिछले साल दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में नए कृषि कानूनों के खिलाफ शुरू किया गया उनका विरोध प्रदर्शन आखिरकार सही साबित हुआ है।

लेखक कैंपेन टू प्रोटेक्ट अर्थ नाउ के मानद संयोजक हैं। व्यक्त किये गए विचार निजी हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Farmers are Right: Corporate Control over Food Sector is Growing

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