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क्या तमिलनाडु में ‘मंदिरों की मुक्ति’ का अभियान भ्रामक है?

दावा किया जा रहा है कि राज्य सरकार मंदिरों के पैसे लूट रही है और उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया है, इन दावों के बीच तमिलनाडु के मंदिरों की 'मुक्ति' का अभियान पूरे ज़ोर-शोर से चल रहा है।
Jaggi Vasudev
 फ़ोटो:साभार: न्यूज़ मिनट

दक्षिणपंथी ताक़तों ने राज्य के नियंत्रण से ‘तमिलनाडु के मंदिरों की मुक्ति’ को लेकर अपने अभियान को आगे बढ़ा दिया है। विश्व हिंदू परिषद (VHP) और संघ से जुड़े अन्य संगठन लंबे समय से इस अभियान में सबसे आगे रहे हैं, स्व-घोषित ‘सद्गुरु’, जग्गी वासुदेव अब इस अभियान की अगुवाई कर रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में कई दक्षिणपंथी संगठनों की तरफ़ से की गयी मांग को ध्यान में रखते हुए इन मंदिरों को मुक्त करने का वादा किया है।

यह अभियान इस बात के दावे के साथ पूरे शबाब पर है कि राज्य सरकार इन मंदिरों के पैसे लूट रही है और इन मंदिरों को उनके हाल पर छोड़ दिया है, लेकिन इतिहास कुछ और बताता है। सरकार मंदिरों के नवीनीकरण और जीर्णोद्धार के लिए सरकारी ख़ज़ाने से ख़र्च कर रही है और सरकारी नियंत्रण में इन मंदिरों की संख्या लगातार बढ़ती रही है।

जानकारों का कहना है कि मंदिरों से बतौर दान हासिल होने वाली आय, अचल संपत्ति, जिसमें मंदिरों और मठों के स्वामित्व वाली लाखों एकड़ ज़मीन शामिल हैं, उन पर निहित स्वार्थों की नज़र है।

एचआर एंड सीई अधिनियम, 1959 के ज़रिये स्थापित हिंदू धार्मिक एवं धर्मार्थ दान बंदोबस्त (HR&CE), 17 जैन मंदिरों और कई मठों सहित 44, 000 से ज़्यादा मंदिरों को नियंत्रित करता है।

भ्रष्टाचार का एक बड़ा मुद्दा होने के नाते इस एचआर एंड सीई को अपने कामकाज में भारी सुधार करने की ज़रूरत है। लेकिन, जानकारों का कहना है कि बोर्ड को ख़त्म कर देना और मंदिरों को निजी प्रबंधन के हाथों में सौंप देना ठीक नहीं है।

भ्रामक अभियान

इस अभियान में मुख्य रूप से कुछ ही मुद्दों को उठाया जा रहा है और राज्य सरकार पर श्रद्धालुओं के हितों के ख़िलाफ़ कार्य करने का आरोप लगाया जा रहा है। ‘तमिलनाडु के मंदिरों की मुक्ति’ के समर्थन में चल रही एक वेबसाइट का दावा है, “ मंदिरों पर कब्ज़ा करने की ईस्ट इंडिया कंपनी की नीति आज़ादी के 74 साल बाद भी जारी है।”

दिल्ली साइंस फ़ोरम (DSF) के डी.रघुनंदन इस तरह के आरोप को खारिज करते हैं और ईस्ट इंडिया कंपनी की मंदिरों पर नियंत्रण करने वाली ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में बताते हुए कहते हैं, “16 वीं और 17 वीं शताब्दी में विजयनगर साम्राज्य सहित साम्राज्यों के पतन के बाद पैदा हुई राजनीतिक अस्थिरता ने मंदिर प्रबंधन या ट्रस्ट की जगह ‘पांडा व्यवस्था’ के लिए रास्ता साफ़ कर दिया था। इसके बाद, निजी पक्षों को मंदिरों की दौलत को बेईमानी से हड़पने जाने से रोकने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने मंदिर प्रशासन को अपने हाथ में ले लिया था।”

ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश साम्राज्य ने अपने शासन के दौरान बिना कोई नुकसान पहुंचाए इन मंदिरों पर अपना नियंत्रण जारी रखा। मंदिरों के प्रबंधन का राज्य की तरफ़ से संभाला जाना दक्षिण भारत के लिए एक ऐसी अनूठी बात है, जो तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी में भी मौजूद थी।

रघुनंदन बताते हैं, "इस दौरान मंदिर फलते-फूलते रहे और श्रद्धालुओं और मंदिरों के अधिकारों की रक्षा भी होती रही।"

1817 के 'मद्रास रेगुलेशन 7' के अधिनियम का मक़सद इस बात पर नज़र रखना था कि मंदिरों को मिलने वाले अनुदान और चंदे का सही इस्तेमाल किया जा रहा है या फिर ये ख़ज़ाने मंदिरों को नियंत्रित करने वाले निजी लोगों के कल्याण में ख़र्च किये जा रहे हैं।

इस मंदिर मुक्ति अभियान के प्रवर्तकों का एक अन्य प्रमुख आरोप इन मंदिरों से मूर्तियों की चोरी है। हक़ीक़त तो यह है कि सिर्फ़ पुजारी ही इन मंदिरों के गर्भगृह में प्रवेश कर सकते हैं, जबकि दक्षिणपंथी ताक़तें सरकार पर इन मंदिरों के दुरुपयोग का आरोप लगाती रही हैं। मूर्ति तस्करी के कई मामलों के सरगना, सुभाष कपूर को 2011 में गिरफ़्तार किया गया था। 

‘मंदिरों की देखभाल करती सरकार’

एचआर एंड सीई विभाग के तहत मंदिरों की संख्या 2012-13 में 36, 451 थी, जो 2020-21 में बढ़कर 36, 615 हो गयी है। संख्या में होने वाली इस बढ़ोत्तरी का श्रेय उन स्थानीय समुदायों को दिया जाता है, जिन्होंने स्थानीय मुद्दों के चलते मंदिरों को छोड़कर नया मंदिर बना लिया, इन मुद्दों में प्रबंधन समितियों के बीच दुश्मनी भी शामिल है।

रघुनंदन बताते हैं, “मंदिरों पर राज्य का नियंत्रण जिस वजह से आज़ादी के बाद भी जारी रहा, उसी वजह से ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी इन मंदिरों पर नियंत्रण किया था। एचआर एंड सीई विभाग ने दो द्रविड़ पक्षों की कट्टरपंथी नीतियों के अपनाने के बावजूद 17, 000 से ज़्यादा मंदिरों का नवीनीकरण किया है।”

एचआर एंड सीई विभाग के नीतिगत काग़ज़ात में 2020-21 में पारंपरिक त्योहारों और पूजाओं के आयोजन सहित मंदिरों के सुचारू संचालन को सुनिश्चित करने को लेकर संपन्न हुए बड़ी संख्या में विभिन्न कार्यों को सूचीबद्ध किया गया है। सरकार ने ‘तिरुप्पणी’(संरक्षण, जीर्णोद्धार और नवीनीकरण) के लिए सरकार से आवंटित धन और वित्त आयोग से मिलने वाले अनुदान वाले एक अनुभाग की स्थापना की है।

सरकार ने मंदिरों पर नियंत्रण रखते हुए इस बात को भी सुनिश्चित कर दिया है कि विभिन्न सामाजिक-आर्थिक हैसियत वाले लोग भी इन मंदिरों में पूजा-अर्चना कर सकें।

रघुनंदन कहते हैं, “मंदिरों को निजी प्रबंधन के हाथों सौंप देने से ऐसा हो सकता है कि मंदिरों में प्रवेश करने के लिए श्रद्धालुओं से शुल्क लिये जायें। ऐसे में सभी के लिए मौजूदा समान अवसर ख़त्म हो सकता है, क्योंकि निजी संस्थान अपने संरक्षक पर निर्भर होते हैं, जिसका नतीजा यह होता है कि संरक्षकों को विशेषाधिकार मिल जाता है और बाक़ियों पर प्रतिबंध क़ायम कर दिया जाता है।"

हालांकि, दक्षिणपंथी ताक़तों ने एचआर एंड सीई विभाग पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है, जबकि रघुनंदन का कहना है, "निजी प्रबंधन का इतिहास भ्रष्ट रहा है और इन निजी बोर्डों के कुप्रबंधन के चलते ही कई मंदिर बर्बाद हो गये है।"

'मंदिरों पर कब्ज़े की साज़िश'

तमिलनाडु के मंदिर और मठ का भवन, भूमि और शैक्षणिक संस्थानों पर स्वामित्व है और वे इनका प्रबंधन भी करते हैं। उनका कुल 4, 78, 272.34 एकड़ ज़मीन पर स्वामित्व है, जिसमें से 2.22 लाख एकड़ मंदिरों की ज़मीनें हैं और 56, 000 एकड़ ज़मीनें अलग-अलग मठों की हैं। 22, 600 इमारतें हैं और 33, 665 खाली जगहें हैं, जबकि ऐसी संपत्तियों से 2018-19 तक नौ वर्षों के दौरान होने वाली आय 1, 219.65 करोड़ रुपये हैं।

रघुनंदन का कहना है, “राज्य हिंदू धर्म के संरक्षक के रूप में कार्य करता रहा है और धर्म के फलने-फूलने के लिए भुगतान भी करता रहा है। यह विभिन्न जातियों के उन लोगों के लिए पाठशाला भी चलाता है, जो पुरोहित बनने की इच्छा रखते हैं, जबकि एक निजी मंदिर सिर्फ़ उच्च जाति के पुजारियों को ही इसकी अनुमति दे सकता है।”

5, 466 उप-मंदिर, निगमित और अनिगमित मंदिरों सहित कुल 44, 121 मंदिरों में से तक़रीबन 34, 000 मंदिरों की वार्षिक आय 10, 000 रुपये से कम है, जबकि सिर्फ़ 33 मंदिरों की आय 10 लाख रुपये या फिर इससे कुछ ज़्यादा है और बाक़ी 672 मंदिरों की आय 2 लाख रुपये से 10 लाख रुपये के बीच है। पूजा और त्योहारों के संचालन के लिए समृद्ध मंदिरों से मिलने वाली इस आय के अलावा सरकार भी पैसे ख़र्च करती है।

रघुनंदन बताते हैं, “पिछले 70 सालों से इन दक्षिणपंथी ताक़तों की वेतन देने और मंदिरों के नवीनीकरण करने वाली सरकार से कोई शिकायत नहीं रही। असल में मौजूदा अभियान भ्रामक है और उन मंदिरों पर कब्ज़ा करने की एक साज़िश है, क्योंकि इन मंदोरों के पास बहुत पैसे हैं। यह विशुद्ध रूप से निहित स्वार्थों की लड़ाई है।”

एचआर और सीई का कामकाज महज़ मंदिरों के प्रबंधन तक ही सीमित नहीं है। यह विभाग पांच कला और विज्ञान महाविद्यालय, एक पॉलिटेक्निक, 15 उच्च माध्यमिक और आठ उच्च विद्यालयों सहित 54 शैक्षणिक संस्थान का संचालन करता है। इस विभाग के तहत करुणई इलम, वृद्धाश्रम, मानसिक रूप से विकलांग लोगों के लिए कई केन्द्रों के साथ-साथ छह सिद्ध और दो एलोपैथी अस्पतालों सहित 43 सामाजिक कल्याण संस्थान भी संचालित होते हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

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