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भारत के स्वतंत्रता संग्राम में मुसलमानों की भूमिका

ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ सड़कों पर लड़ने वाले सैकड़ों और हज़ारों भारतीय मुसलमानों के नाम गिनाना लगभग असंभव है।
independence day
'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: News Nation English

सभी देशभक्त भारतीयों के लिए, यह सबसे बुरा समय है, यह मूर्खता का युग है, यह अविश्वास का युग है, यह अंधकार का सीजन है, यह निराशा से भरी सर्दी है, हमारे सामने ऐसा कुछ नहीं जिससे किसी महाकाव्य की व्याख्या की जा सके जैसी कि, चार्ल्स डिकेंस ने अपने उपन्यास ‘द टेल ऑफ़ टू सिटीज़’ में फ्रांसीसी क्रांति की क्रांतिकारी उथल-पुथल का वर्णन किया था। हालाँकि, भारत में वर्तमान स्थिति किसी क्रांतिकारी ज्वार के बारे में नहीं है। आज भारत जिन धाराओं का सामना कर रहा है, वे तीव्र रूप से प्रति-क्रांतिकारी हैं।

हिंदुत्व और उसके सहयोगी ताकतें सत्ता में विराजमान हैं और भारतीय संविधान और उसकी प्रस्तावना को उलटने पर आमादा हैं। उनका मुख्य काम धर्मनिरपेक्षता को कमजोर करना है। और ऐसा करने के लिए, उन्होंने भारतीय मुसलमानों के योगदान को कम करने आंकना चुना है।

जब आप इस लेख को पढ़ रहे होंगे, तब सैकड़ों और हजारों भारतीयों को भारतीय मुसलमानों के अंतर्निहित 'राष्ट्र-विरोधी' होने के बारे में व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के माध्यम से सांप्रदायिक पढ़ाई कराई जा रही होगी। हालाँकि, इतिहास पर एक सरसरी नज़र डालने से पता चलता है कि भारतीय मुसलमानों ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में एक शानदार भूमिका निभाई, बल्कि उपनिवेश-विरोधी राष्ट्रीय संघर्ष की वेदी पर खुशी-खुशी अपना जीवन लगा दिया।

1857 का महान विद्रोह मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में हिन्दुओं और मुसलमानों का सबसे शक्तिशाली संयुक्त आंदोलन था, जिसने अंग्रेजों को भारत से बेदखल कर दिया था। जफर को भारत के पूर्वी क्षेत्रों से मुख्य रूप से भर्ती किए गए भारी हिंदू उच्च-जाति के सिपाहियों (लोकप्रिय रूप से जिन्हे पुरबिया कहा जाता है) द्वारा विद्रोह के नेता के रूप में चुना गया था। यद्यपि विद्रोह असंख्य कारणों से विफल हो गया, यह मुस्लिम समुदाय था जिसे अंग्रेजों ने मुख्य साजिशकर्ता के रूप में चुना था। दिल्ली के मुसलमानों के लिए, जो विद्रोह का केंद्र था, जो त्रासदी हुई, वह भीषण और भयावह थी।

कुछ अमीर परिवारों को छोड़कर, सभी मुसलमानों को वाल्ड सिटी से बाहर निकाल दिया गया और नवंबर 1859 तक वे शहर नहीं लौट सके थे। महत्वपूर्ण मुस्लिम दरगाहों को अंग्रेजों ने बदला लेने के लिए अपमानजनक तरीके से अपवित्र कर दिया था। जामा मस्जिद को ध्वस्त करने की बात चल रही थी, अकबराबादी मस्जिद को नष्ट कर दिया गया था, फतेहपुरी मस्जिद को ब्रिटिश समर्थक लाला चुन्ना मल को बेच दिया गया था और ज़ीनत-उल-मस्जिद को बेकरी के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा था।

विद्रोह की आग ठंडी होने के बाद, अंग्रेजों को भविष्य में उठने वाली एक आम ब्रिटिश विरोधी भावना से प्रेरित हिंदुओं और मुसलमानों के संयुक्त प्रयास के बारे में पता चला। परिणामस्वरूप, ब्रिटिश सेना में मिश्रित रेजिमेंटों की व्यवस्था को भंग कर दिया गया और उसे मिश्रित जातीय समूहों के साथ 'क्लास कंपनी मॉडल' के माध्यम से प्रतिस्थापित कर दिया गया था। 

ब्रिटिश शासन के अगले चरण में, बहुत कम संख्या में धनी और शिक्षित भारतीयों को विधान परिषदों में परामर्शी लेकिन नपुंसक वाली सदस्यता दी गई थी। 1862 में अस्तित्व में आई बंगाल विधान परिषद में चार सदस्य थे: जिसमें बर्दवान के राजा प्रताप चंद, राममोहन रॉय के पुत्र रामप्रसाद रॉय, द्वारकानाथ टैगोर के चचेरे भाई प्रसन्ना कुमार टैगोर और एक अकेला मुस्लिम सदस्य मौलवी अब्दुल लतीफ था। शुरू से ही, परिषद बुर्जुआ-जमींदार गठबंधन के हितों को साधने वाली थी। 

पहले कार्यों में से जो एक किया गया उसमें परिषद एक विधेयक लाई जिसने बंगाल के बाटाईदार/किरायेदारी अधिनियम 1859 के अनुच्छेद X में संशोधन करने का प्रयास किया था, जिसके तहत गरीब बंगाली काश्तकार और बटाईदारों को 'स्थायी रूप से बसे हुए' होने के कारण जमींदारों द्वारा अत्यधिक वसूली से कुछ राहत मिली थी।' परिषद के सभी चार सदस्यों में से केवल मौलाना अब्दुल लतीफ ही थे जिन्होंने इस भयानक विधेयक के खिलाफ मतदान किया और बाकी ने ब्रिटिश बागान मालिकों का साथ दिया था। 

1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) की स्थापना के दो वर्षों के भीतर, बॉम्बे के बदरुद्दीन तैयबजी इसके अध्यक्ष बने। बदरुद्दीन और उनके भाई कमरुद्दीन तैयबजी दोनों कांग्रेस की स्थापना में गहराई से शामिल हुए थे और 1885 में पहली कांग्रेस बैठक के लिए चुने गए चार मुस्लिम प्रतिनिधियों में से थे। यह भी ध्यान रखना दिलचस्प होगा कि बदरुद्दीन तैयबजी ने उस प्रस्ताव को पारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी जिसमें कहा गया था कि 'कांग्रेस अपने हिंदू और मुस्लिम प्रतिनिधियों की एकराय के बिना किसी विषय पर चर्चा को कभी भी मंजूरी नहीं देगी'।

स्वदेशी काल के दौर में, मुस्लिम स्वदेशी नेता भी अपने हिंदू भाइयों की तरह देशभक्त थे। यदि हम ढाका के नवाब सलीमुल्लाह जैसे प्रमुख जमींदार तत्वों की संदिग्ध भूमिका को अलग कर दें, तो हमें सामान्य और बहुसंख्यक मुसलमानों की भारी भागीदारी मिलेगी। पबना और खुलना के मुस्लिम किसानों ने जुलाई 1905 में एक रैली के दौरान भाईचारे के नारे से दिल को छू लिया था। उसी वर्ष, 23 सितंबर को, कलकत्ता के हिंदू-मुस्लिम छात्रों ने एक साथ मार्च किया और दस हजार की मजबूत रैली का आयोजन किया जहां मुस्लिम स्वदेशी अब्दुर रसूल ने घोषणा की, ''हम यहां हिंदू और मुसलमान दोनों एक ही मातृभूमि-बंगाल के हैं।''

हुगली में, बंदे मातरम और अल्लाह-हो-अकबर के नारे साथ-साथ लगाए गए। मुस्लिम स्वदेशी उद्यमों जैसे गजनवी की यूनाइटेड बंगाल कंपनी, बंगाल होजरी और बंगाल स्टीम नेविगेशन कंपनी ने आंदोलन के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 1906 की महान ईस्ट इंडिया रेलवे हड़ताल के दौरान अबुल हुसैन और लियाकत अली अत्यंत प्रमुख आंदोलनकारी थे। हड़ताल के दौरान, मुस्लिम लोकोमोटिव ड्राइवरों ने कुरान की कसम खाई और दिसंबर 1907 में बहिष्कार में शामिल हो गए थे। हड़ताल फरवरी के मध्य तक चली और केवल सेना से उधार लिए गए यूरोपीयन ड्राइवरों के माध्यम से इसे तोड़ा गया था।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद, जब भारत में जन राजनीति के युग की शुरुआत हुई, मुसलमानों की भागीदारी में बिल्कुल भी कोई कमी नहीं थी। पूर्ण स्वतंत्रता (पूर्ण स्वराज) का प्रस्ताव पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1921 के अहमदाबाद अधिवेशन में मौलाना हसरत मोहनियाल ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के स्वामी कुमारानंद के साथ पेश किया था। बी.टी. रणदिवे ने सोशल साइंटिस्ट पत्रिका में प्रकाशित अपने लेख इंडियाज फ्रीडम स्ट्रगल में दर्ज़ किया है कि ''यह गांधी थे जिन्होंने इसका विरोध किया था''। इसी तरह, जून 1922 में, लखनऊ में आयोजित खिलाफत समिति और जमीयत-उल-उलेमा के एक संयुक्त सत्र ने एक क्रांतिकारी  प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें कहा गया था कि, "भारत और मुसलमानों के सर्वोत्तम हितों की मांग यही है कि कांग्रेस 'स्वराज' शब्द की जगह 'पूर्ण स्वतंत्रता' को अपनाए।  यह याद रखना चाहिए कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने दिसंबर 1929 में ही पूर्ण स्वतंत्रता के प्रस्ताव को अपनाया था।

1920 में ताशकंद में बनी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के केंद्र में मुख्य रूप से मुस्लिम हिजरत शामिल थे जिन्होंने संस्थापक ओटोमन खिलाफत की तह को छोड़ दिया था और भारतीय जनता की सामाजिक-आर्थिक मुक्ति को अपना लक्ष्य बना लिया था। इसलिए, कुछ प्रारंभिक मुस्लिम कम्युनिस्टों ने उस वक़्त की बह रही बयार के खिलाफ जाकर कांग्रेस के नेतृत्व के सामने कठिन और दूरदर्शी प्रश्न खड़े किए थे। मुजफ्फर अहमद, जिन्हें प्यार से काकाबाबू के नाम से जाना जाता था, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सबसे समर्पित सदस्यों में से एक थे, उन्होंने इस आधार पर हिंदू-मुस्लिम एकता की अवधारणा पर सवाल उठाया कि इस गठबंधन को बनाने वाले नेताओं ने गलत तरीके से यह मान लिया था कि आम लोगों का हित को केवल धर्म के मुहावरे के माध्यम से ही व्यक्त किया जा सकता है।

उन्होंने सांप्रदायिक एकता के आह्वान के बावजूद लोगों को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने और सांप्रदायिक अलगाव की मानसिकता (संप्रदायिक भेदबुद्धि) बनाने के ऐसे आंदोलनों के नेताओं को लताड़ा, इसलिए कि धार्मिक पहचान को अधिक माना गया और वर्ग और उत्पादन के साधनों से संबंध जैसे प्रश्न को छोड़ दिया गया था। काकाबाबू ने राजनीति के सांप्रदायिकरण के पीछे वर्ग के सवाल को भी समझा।

उन्होंने तर्क दिया कि सांप्रदायिकता सत्ताधारी और आधिपत्य रखने वाले वर्गों की एक दोधारी रणनीति थी जिसका उद्देश्य विभिन्न उच्च वर्ग के गुटों की आंतरिक सौदेबाजी की स्थिति को मजबूत करना था, जबकि गरीबों की सामूहिक सौदेबाजी की शक्ति को कमजोर करना था, और इसलिए बाद वाले सांप्रदायिक राजनीति में उलझ गए क्योंकि उन्हें तत्कालीन मौजूदा स्थिति में बेदखली और अभाव का सामना करना पड़ रहा था।

यह बाद वाला बिंदु, जो काकाबाबू की चेतावनी भी थी, आज के भारत के मामले में अत्यंत प्रासंगिक बन जाता है।

कांग्रेस के भीतर भी ‘महान व्यक्तित्व’ जैसे खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे सच्चे मुस्लिम नेताओं की कोई कमी नहीं थी। सितंबर 1926 में, खान ने खुदाई खितमतगारों की स्थापना की, जो एक भारी पश्तून वाहिनी थी, जिसकी सदस्यता हिंदुओं, ईसाइयों और सिखों के लिए भी खुली थी। इसके सदस्यों को रेड शर्ट भी कहा जाता था, लेकिन फासीवादी काली शर्ट और आज के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सफेद शर्ट के विपरीत, उनके पास कोई हथियार नहीं था, एक लाठी भी नहीं थी। उन्होंने केवल शांति, एकता और अहिंसा का संदेश फैलाया।

नमक सत्याग्रह के दौरान खान सबसे अधिक सक्रिय हो गए थे। उनकी गिरफ्तारी के कारण दो से तीन सौ खुदाई खितमतगार मारे गए थे। हिंसा ने उन्हें पूरी तरह से अहिंसा के पंथ को अपनाने के लिए प्रेरित किया था। गांधी के आह्वान पर वे बारडोली गए, जहां उन्होंने अहिंसा को इस्लाम से जोड़ा। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कांग्रेस के भीतर काम करते हुए उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रमुख मुस्लिम नेताओं में से एक रहे हैं। 35 साल की उम्र में, उन्होंने 1923 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे कम उम्र के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया था। इसके साथ ही, उन्हें औपनिवेशिक इंडिया में कई बार कारावास का सामना करना पड़ा।

यहां तक कि भारत का क्रांतिकारी आंदोलन भी शहीद अशफाकउल्लाह खान कुर्बानी से ओत-प्रोत है, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) के सदस्य के रूप में अपना जीवन त्याग दिया था।

जय हिंद के देशभक्ति के नारे को ज़ैन-उल-अबिदीनलियास आबिद हसन ने लोकप्रिय बनाया था, जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस के करीबी सहयोगी और भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) के एक अधिकारी थे।

अंत में, उन सैकड़ों और हजारों भारतीय मुसलमानों के नाम गिनाना असंभव है, जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ सड़कों पर लड़ाई लड़ी थी। हालाँकि, इस दावे की सत्यता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनमें से कई ने भारत में रहना पसंद किया, जिसे वे अपना एकमात्र घर मानते थे। भारत उनका घर बना हुआ है और हमेशा रहेगा, चाहे हिंदुत्व की ताकतें इतिहास को फिर से लिखने की कितनी भी कोशिश कर लें।

लेखक कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के विश्व इतिहास विभाग में शोधार्थी हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Role of Muslims in India’s Freedom Struggle

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