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भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी के संकट में नया हमला

कोविड-19 से निपटने के सिलसिले में सरकार की आलोचना करने वाले महत्वपूर्ण पोस्ट को हटाने को लेकर सोशल मीडिया कंपनी को दिये गये केंद्र सरकार के हालिया निर्देश के बाद मोहम्मद तसनीमुल हसन अपने इस लेख में ख़ास तौर पर इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक सिद्धांत के संदर्भ में भारत में बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की प्रगति की जांच-पड़ताल कर रहे हैं। वह इस बात को रेखांकित करते हैं कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) में जिस तरह के स्वतंत्र और लोकतांत्रिक समाज की परिकल्पना की गयी है, उसके लिए सोशल मीडिया सेंसरशिप अभिशाप क्यों है।
भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी के संकट में नया हमला

भारत में कोरोनावायरस संकट की दूसरी लहर का प्रकोप जारी है। जानकारों का मानना है कि इस प्रकोप का उच्च स्तर पर पहुंचना अभी बाक़ी है। इस दूसरी लहर में "डबल म्यूटेंट" कोविड-19 वैरिएंट B.1.617 सामने आया है, जिसने भारत की चरमराई स्वास्थ्य व्यवस्था पर से पर्दा उठा दिया है क्योंकि एक तरफ जहां अस्पताल में बेड नहीं हैं और वहीं दूसरी तरफ ऑक्सीजन की भी व्यवस्था नहीं है।

ग़ौरतलब है कि भारत ने जनवरी 2021 में अपने ऑक्सीजन के निर्यात को 734 प्रतिशत बढ़ा दिया थाऔर टीकों की तक़रीबन 193 मिलियन खुराक का निर्यात कर दिया था। पिछले महीने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रीहर्षवर्धन ने अन्य देशों में किये गये चिकित्सा संसाधनों के उस निर्यात को सही ठहराते हुए दावा किया था कि देश से वायरस का ख़ात्मा अपने "आख़िरी चरण" में है। हालांकि, 24 अप्रैल के आख़िर में 2 प्रतिशत से कम आबादी के पूर्ण टीकाकरण के साथ कोरोनावायरस के कुल पुष्ट मामले 16 मिलियन से ज़्यादा थे।

भारत सरकार ने कथित तौर पर ट्विटर और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म को उन 100 से ज़्यादा पोस्ट और यूआरएल को हटाने का निर्देशित दिया है जिनमें भारत की दूसरी कोविड-19 लहर से निपटने की आलोचना की गयी है। इस निर्देश ने सोशल मीडिया कंपनियों,ख़ासकर ट्विटर को अभिव्यक्ति का गला घोंटने के लिए मजबूर कर दिया है और जैसा कि पिछले उदाहरणों से पता चलता है कि ऐसा करना सरकार का शगल बन गया है। इसे 'डिजिटल तानाशाही' के तौर पर भी देखा जा सकता है,अगर सोशल मीडिया कंपनियां सरकार के इस आदेश का पालन नहीं करती हैं तो उन्हें सरकार की तरफ़ से दिये जाने वाली सज़ा के ख़तरों का सामना करना पड़ेगा।

हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री,आदित्यनाथ ने राज्य में ऑक्सीजन की कमी को लेकर "अफ़वाहें" फ़ैलाने वाले लोगों के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम(एनएसए),1980  के इस्तेमाल को सही ठहराया है (संयोग से 2018 और 2020 के बीच इलाहाबाद हाई कोर्ट ने राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम(एनएसए)के तहत नज़रबंदी के दर्ज 120 मामलों में से 94 मामले को रद्द कर दिया है)।

ये दोनों मामले एक दूसरे से अलग उदाहरण नहीं हैं,बल्कि इस तरह के मामले पिछले कुछ सालों से राज्य का एक सोचा-समझा नीतिगत मंसूबा बन गया है।

सवाल है कि आख़िर ऐसी कौन सी बात है,जो सरकार को इस जानलेवा महामारी के दौरान भी बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने के लिए प्रेरित कर रही है ? क्या "भारत में इस गंभीर समस्या की रौशनी में अभिव्यक्ति के अधिकार को निलंबित किया जाना चाहिए" वाले इस तर्क की गुंज़ाइश अपने जैसे लोकतांत्रिक देश में बनती है ?

लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी

लॉरी हैनिकेन और क्रिस्टियन माइंटी ने लिखा है कि 1688 की शुरुआत में राइट्स ऑफ इंग्लिश बिल लाया गया था,जिसमें इस बात का प्रावधान था कि,"संसद में भाषण और बहस या कार्यवाही की स्वतंत्रता को किसी भी अदालत या फिर संसद के बाहर नहीं घसीटा जाना चाहिए या इसे लेकर किसी तरह की पूछताछ भी नहीं की जानी चाहिए ।" फ्रेंच डिक्लेयरेशन ऑफ द राइट्स ऑफ मैन एंड सिटीजन, 1789 के अनुच्छेद 11  के अनुसार, “विचारों और मतों की आज़ाद अभिव्यक्ति मनुष्य के अधिकारों में सबसे क़ीमती अधिकार है। हर नागरिक,अपनी स्वतंत्रता से बोल, लिख और छाप सकता है, लेकिन इस स्वतंत्रता के किसी भी तरह के उस ग़लत इस्तेमाल के लिए वह ज़िम्मेदार होगा,जो क़ानूनी तौर पर परिभाषित होगा।"

संयुक्त राष्ट्र के यूनिवर्सल डिक्लेयरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स, 1948 के अनुच्छेद 19 में कहा गया है, “सभी को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है; इस अधिकार में बिना किसी हस्तक्षेप के राय रखने और किसी मोर्चे की परवाह किये बिना किसी भी माध्यम से जानकारी और विचारों को हासिल करने,उसकी तलाश करने और प्रदान करने की स्वतंत्रता शामिल है।”

जोहान्स मॉर्सिंक ने अपनी किताब में इस बात का ज़िक्र किया है कि सोवियत संघ ने एक संशोधन प्रस्ताव रखा था,जो नाज़ी और फ़ासीवादी समूहों को इस अधिकार से वंचित कर देता। इसने प्रस्ताव बनाने वालों को इस बात पर विचार करने के लिए मजबूर कर दिया था कि असहिष्णु समूहों के प्रति एक सहिष्णु और न्यायपूर्ण समाज को कैसा होना चाहिए। इस तरह,जैसा कि मर्सिंक ने इस बात को सामने रखा है कि उस प्रस्ताव के अनुच्छेद 19 और 7 के साथ उन्होंने सभी को जो दो अधिकार देकर पेश आ रही दुविधा को हल कर दिया था,वे दो अधिकार थे- अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार (अनुच्छेद 29 की सीमा के अधीन) और नफ़रत पैदा करने वाली अभिव्यक्ति के ख़िलाफ़ सुरक्षा पाने का अधिकार। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का प्रावधान है। इस अधिकार को अनुच्छेद 19 (2) में दिये गये जिन आधारों की बुनियाद पर प्रतिबंधित किया जा सकता है, वे हैं: भारत की संप्रभुता और अखंडता के हितों में, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता या न्यायालय की अवमानना, मानहानि या अपराध के सम्बन्ध में।

अभिव्यक्ति की आज़ादी का संकट

संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में जैसा कि तैयार किये गये पहले मसौदा में मूल रूप से कहा गया था, "उपखंड (ए) के खंड (1) में कोई भी चीज मौजूदा क़ानून के संचालन को प्रभावित नहीं करेगा, जहां तक यह निंदा वाले लेख लिखने, झूठी निंदा, मानहानि, न्यायालय की अवमानना,कोई भी ऐसा मामला,जो शालीनता या नैतिकता के ख़िलाफ़ है या जो सुरक्षा को कमज़ोर करता है,  या सत्ता को उखाड़ फेंकने की कोशिश से सम्बन्धित है या राज्य को इससे सम्बन्धित किसी भी तरह के क़ानून बनाने से रोकता है।"

इसके ही आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य (AIR 1950 SC 124) के मामले में यह आदेश दिया था कि अनुच्छेद 19 (2) के तहत 'राज्य की सुरक्षा' के आधार पर सार्वजनिक व्यवस्था के विचार को उचित नहीं ठहराया जा सकता। अदालत ने साप्ताहिक पत्रिका, क्रॉस रोड्स (जो नेहरू की नीतियों की आलोचना को लेकर मशहूर थी) पर तत्कालीन मद्रास सरकार की तरफ़ से राज्य में प्रवेश करने के प्रतिबंध को ख़त्म करते हुए कहा था कि इस तरह का विस्तारित प्रतिबंध असंवैधानिक है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर केवल सीमित दायरे के प्रतिबंध की ही अनुमति है।

इसके अलावा, बृजभूषण और अन्य बनाम दिल्ली राज्य (AIR 1950 SC 129) मामले में एक अंग्रेज़ी साप्ताहिक, ऑर्गनाइज़र के बारे में कहा गया था कि वह सांप्रदायिक लेख प्रकाशित कर रही थी और इस तरह, दिल्ली के चीफ़ कमिश्नर ने प्रकाशक को सेंसरशिप से पहले के सभी लेखन-सामग्रियों को प्रस्तुत करने का निर्देश दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में तब कहा था कि पूर्व अनुमति अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक आदर्श को संकुचित करती है, क्योंकि किसी पत्रिका के सेंसरशिप से पहले इस तरह की अनुमति उसकी स्वतंत्रता पर नियंत्रण होगा।

चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने इन दोनों ही मामलों में राज्य के ख़िलाफ़ फ़ैसला दिया था,इसलिए संसद में वह पहला संवैधानिक (संशोधन) अधिनियम,1951 लाया गया था,जिसने हमें अनुच्छेद 19 (2) का मौजूदा संस्करण दिया, जिसमें 'सार्वजनिक व्यवस्था,'विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध' और 'अपराध के लिए उकसाने' को आधार के रूप में जोड़ा गया था।  

इस संशोधन के बाद राज्य की शक्ति का दायरा व्यापक हो गया था, जिस कारण सर्वोच्च न्यायालय ने केदार नाथ बनाम बिहार राज्य (AIR 1962 SC 955) के मामले में अपने ऐतिहासिक फ़ैसले में अभिव्यक्ति की आज़ादी के कथित उल्लंघन के लिए राजद्रोह के दंडनीय अपराध की चुनौती को ख़ारिज  कर दिया था। अदालत ने इस आधार पर देशद्रोह को अपराध माना कि 'सार्वजनिक व्यवस्था' और 'राष्ट्रीय सुरक्षा' अनुच्छेद 19 (2) के तहत उचित सीमा है।

इसमें कोई शक नहीं कि इन निर्दिष्ट आधारों के मुताबिक़ आख़िर यह 'उचित सीमा' किस चीज़ से बनती है,अदालत की तरफ़ से इस सवाल का निर्धारित किया जाना अब भी बाक़ी है।

न्यायिक विश्लेषण से पता चलता है कि इनमें से तीन आधारों,यानी ‘भारत की संप्रभुता और अखंडता, 'राज्य की सुरक्षा', और 'सार्वजनिक व्यवस्था'  के आधार पर क्रांतिकारी भाषण का विनियमन एक बड़ी संवैधानिक चिंता है। इस तरह, हाल के सालों में सरकार की आलोचना करने वालों का मुंह बंद करने के लिए देशद्रोह का मुकदमा दायर करने के उदारहणों के मामले में कई गुना इज़ाफ़ा हुआ है।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बोलने की आज़ादी पर अंकुश लगाया जा सकता है ? बहुसंख्यक हितों में ऐसा अक्सर होता है,जैसा कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में इसके कई उदाहरण मिल जाते हैं। असल में क़ानूनी प्रावधानों का एक ऐसा जटिल जाल है,जिसमें विभिन्न तरीक़ों से बोलने को प्रतिबंधित किया जाता है, ख़ासकर कलाकारों को इस लिहाज़ से जागरूक और स्पष्ट होना चाहिए।

इस साल की शुरुआत में हिमांशु किशन मेहरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (WP (Cr।) 48/2021) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अमेज़न प्राइम वीडियो प्लेटफ़ॉर्म पर प्रसारित एक वेब सीरिज, तांडव के उन निर्माताओं को अंतरिम ज़मानत देने से इनकार कर दिया,जो धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आरोपों का सामना कर रहे थे। ऐसे मामलों में आमतौर पर भारतीय दंड संहिता,1860 (IPC) की धारा 153A (वर्गों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना) या 295A [धर्म/ धार्मिक आस्थाओं का अपमान) जैसी धारायें लगायी जाती हैं।

बाद में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ग़ैर-मामूली टिप्पणी करते हुए अमेज़न इंडिया के कार्यकारी अधिकारी, अपर्णा पुरोहित की अग्रिम ज़मानत याचिका को खारिज कर दिया,"पश्चिमी फ़िल्म निर्माताओं ने प्रभु यीशु या पैग़म्बर का मज़ाक उड़ाने से परहेज़ किया है।" यह कथन तथ्यात्मक रूप से ग़लत इसलिए है,क्योंकि प्रभु यीशु या पैग़म्बर पर हमलावर माने जाने वाली फ़िल्मों की भरमार है।

इस सिलसिले में भारत के उस कॉमेडियन के मामले का उल्लेख नहीं करना एक तरह की अनदेखी होगी,जिसने इस साल पूरा जनवरी माह उस चुटकुले के चलते जेल में बिताया,जो उसने कभी सुनाया ही नहीं था।

क्या सोशल मीडिया पर किये जा रहे पोस्ट का रोका जाना तर्कसंगत है ?

इस सवाल का जवाब आदर्श रूप से नकारात्मक होना चाहिए। श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ ((2013) 12 एससीसी 73) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फ़ैसले ने इस अधिकार के उचित प्रतिबंधों के आधार की व्याख्या करके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे का यह टिप्पणी करते हुए भली-भांति विस्तार कर दिया है कि “महज़ चर्चा या किसी विशेष कारण की वकालत करना, चाहे वह अप्रिय ही क्यों न हो’, ये बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी के ‘मुख्य तत्व’ हैं।

हालांकि, पिछले साल ही दिल्ली दंगों की रिपोर्टिंग के सिलसिले में केबल टेलीविज़न नेटवर्क नियम,1994 के तहत दो मलयालम समाचार चैनलों को केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा 48 घंटे के लिए निलंबित कर दिया गया था।

दूसरी ओर,पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने सुदर्शन टीवी चैनल के उस नियोजित कार्यक्रम,‘बिंदास बोल’ के पूर्व प्रसारण पर अंतरिम रोक लगाने से इनकार कर दिया था, जिसे “सरकारी सेवा में मुसलमानों की घुसपैठ की साज़िश के एक बड़े खुलासे" के तौर पर प्रचारित किया गया था। इस रोक के पीछे अदालत की तरफ़ से पेश किया गया तर्क यह था कि वह महज़ 49 सेकंड के प्रोमो क्लिप प्रसारण के आधार पर ऐसा आदेश नहीं दे सकती, और अदालत ने सलाह दी कि विचारों के प्रकाशन या प्रसारण पर पूर्व प्रतिबंध लगाने में सावधानी बरती जानी चाहिए।

हालांकि, अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार असीम नहीं है, क्योंकि सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ ((2016) 7 SCC 221) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फ़ैसले में कहा, "किसी व्यक्ति के बोलने की आज़ादी का अधिकार दूसरे व्यक्ति की प्रतिष्ठा के अधिकार के साथ संतुलित होना चाहिए।" यह आईपीसी की धारा 499 और 500 के तहत मानहानि के दंडनीय अपराध की संवैधानिकता को बनाये रखता है। इसमें गंभीर खामियां इसलिए हैं, क्योंकि सरकारों और कॉरपोरेट निकायों ने इसे अपने एजेंडा पर आलोचनात्मक विषय-वस्तु से किये जा रहे हमले को बेअसर करने का हथियार बना लिया है।

महामारी से निपटने में भारतीय राज्य की नाकामी ने हमें बढ़ते कोरोनावायरस का सामना करने के लिहाज़ से दुनिया का सबसे ख़राब देश बना दिया है। हालांकि,अपने नागरिकों की बात सुनने और अपनी जवाबदेही तय करने के बजाय सरकार इस समय लोगों को सोशल मीडिया पर इस तबाही के बारे में बात करने से रोकने पर तुली हुई है। 

अभिव्यक्ति की आज़ादी पर इस तरह का हमला संवैधानिक स्वतंत्रता के संतुलन के धीरे धीरे समाप्त होने पर होता है; फिलहाल उच्च न्यायपालिका इस असंगत प्रक्रिया में उलझी हुई दिखती है।

हालांकि,हर किसी को यह एहसास तो होना ही चाहिए कि आज़ादी जब एक बार खो जाती है, तो वह हमेशा के लिए खो जाती है, और कोई शक नहीं कि सेंसरशिप तो एक स्वतंत्र समाज की बुनियाद के ही ख़िलाफ़ है।

(मोहम्मद तसनीमुल हसन दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में क़ानून के छात्र हैं और स्टूडेंट्स फ़ॉर लिबर्टी फ़ेलोशिप फ़ॉर फ़्रीडम इन इंडिया का हिस्सा हैं। इनके विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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