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महंगे ईंधन से थोक की क़ीमतें बढ़ीं, कम मांग से कम हुई खुदरा क़ीमतें

बाज़ार में इन दो प्रकार की क़ीमतों में यह विचित्र अंतर अर्थव्यवस्था की जर्जर स्थिति और लोगों की परेशानी को दर्शाता है।
inflation
Image courtesy : Reuters

हाल ही में जारी आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, नवंबर में थोक क़ीमतों पर आधारित महंगाई दर 14.2 फीसदी की रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई थी। नवंबर 2021 की क़ीमतों में नवंबर 2020 की क़ीमतों के मुक़ाबले हुई वृद्धि को साल-दर-साल की वृद्धि कहा जाता है। इस बीच, सरकार ने नवंबर माह के उपभोक्ता क़ीमतों पर मुद्रास्फीति के आंकड़े भी जारी किए अहीन। इनमें साल दर साल 4.9 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। इसलिए, थोक क़ीमतों में उपभोक्ता क़ीमतों की तुलना में बहुत अधिक वृद्धि हुई है – यह एक ऐसी विचित्र लेकिन वास्तविक स्थिति है जिसने अर्थशास्त्रियों और आम लोगों को समान रूप से अपना सिर खुजलाने पर मजबूर कर दिया है। मूल्य वृद्धि (या मुद्रास्फीति) सरकारी एजेंसियों द्वारा संकलित मूल्य सूचकांकों से ली गई है।

जैसा कि नीचे दिया गया ग्राफ दिखाता है, कि थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) पर आधारित मुद्रास्फीति आम तौर पर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) से कम रही है, केवल संक्षिप्त और छोटी वृद्धि को छोड़कर। लेकिन 2021 की शुरुआत से ही, इसने उपभोक्ता मूल्य-आधारित सूचकांक को निर्णायक रूप से पीछे छोड़ दिया है। आइए देखें, यह विचलन क्या दर्शाता है, और ऐसा क्यों हो रहा है?

गणना करने के विभिन्न तरीके, लेकिन यही सब नहीं है…

सामान्य और काफी हद तक सही व्याख्या यह है कि थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) की गणना अलग-अलग तरीके से की जाती है। दोनों सूचकांकों में अलग-अलग वस्तुओं को अलग-अलग भार दिए गए हैं। उदाहरण के लिए, खाद्य वस्तुओं के लिए डब्ल्यूपीआई की गणना करते समय केवल 15.3 प्रतिशत का भार दिया जाता है जबकि सीपीआई में इन्हे  प्रतिशत का भार दिया जाता हैं। इसका मतलब स्पष्ट है कि इस तरह से गणना करने से थोक मूल्य सूचकांक में, खाद्य वस्तुओं की क़ीमतों में वृद्धि सीपीआई की तुलना में बहुत कम दिखाई देगी।

लेकिन ईंधन और बिजली का मामला लें। सीपीआई में इनका भार मात्र 6.8 प्रतिशत है जबकि डब्ल्यूपीआई में इनका भार 13.2 प्रतिशत है। यह सीपीआई में इस्तेमाल होने वाले भार से लगभग दोगुना है।

इसका मतलब यह है कि अगर खाद्य क़ीमतें बढ़ती हैं, तो सीपीआई-आधारित मुद्रास्फीति बहुत अधिक बढ़ जाएगी, लेकिन अगर पेट्रोल और डीजल की क़ीमतें बढ़ती हैं, तो डब्ल्यूपीआई आधारित मुद्रास्फीति और अधिक बढ़ जाएगी। यही कारण है कि डब्ल्यूपीआई आधारित मुद्रास्फीति दर में तेजी आ रही है।

इसी तरह, भार में अन्य अंतर भी मौजूद हैं, और औसत मुद्रास्फीति दरों की गणना पर उनका अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। वास्तव में, क़ीमतों पर डेटा स्वयं दो मापों के मामले में अलग-अलग एकत्र किया जाता है। सीपीआई के लिए, लगभग 2,300 शहरी और ग्रामीण बाजारों से डेटा एकत्र किया जाता है। जबकि डब्ल्यूपीआई के लिए, विभिन्न उत्पाद बनाने वाली सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की इकाइयों से डेटा लिया जाता है। सीपीआई में विभिन्न सेवा क्षेत्र की लागतें भी शामिल हैं, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, आदि, लेकिन डब्ल्यूपीआई इनसे संबंधित नहीं है।

बाज़ार में कम मांग क़ीमतों को नीचे रखती है

कुछ विश्लेषकों के अनुसार, सीपीआई-आधारित मुद्रास्फीति को कम रखने के मामले में एक और चिंताजनक कारक है। ऐसा लगता है कि जब उद्योग और उच्च अर्थव्यवस्था रिकवर कर रहे हैं, वहीं यह रिकवरी क़ीमतों को भी बढ़ा रही है। इसे मापें तो पाएंगे कि औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (IIP) अक्टूबर 2021 में 133.7 को छू गया था, जो फरवरी 2020 (134.2) के पूर्व-महामारी के स्तर से कुछ ही कम है। लेकिन आम आदमी की दुनिया अभी भी महामारी+लॉकडाउन के बोझ से जूझ रही है और इसलिए मांग अभी तक पुराने स्तर पर वापस नहीं आई है।

उदाहरण के लिए, उपभोक्ता व्यय अभी भी रिकवर नहीं हुआ है, जिसके कारण विभिन्न वस्तुओं की मांग कम हो गई है, यहां तक कि खाद्य वस्तुओं की भी मांग कम है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2021-22 की दूसरी तिमाही में निजी अंतिम उपभोग व्यय सकल घरेलू उत्पाद या सकल घरेलू उत्पाद का 54.5 प्रतिशत था, जबकि पहली तिमाही में यह 55.1 प्रतिशत था। यह बहुत स्वस्थ स्थिति नहीं है - यह व्यापक संकट को दर्शाता है। ऐसा क्यों है? क्योंकि मजदूरी अभी भी कम है, नौकरियां अभी भी कम हैं, और नौकरियों की प्रकृति अभी भी असुरक्षित और अस्थायी है। इस सब के चलते लोग ज्यादा खर्च नहीं कर पा रहे हैं। वास्तव में, बढ़ा हुआ कर्ज भी इस बात का संकेत है कि लोग किसी तरह जीवित रहने के लिए उधार ले रहे हैं।

यह याद रखना चाहिए कि डब्ल्यूपीआई में दिखाई देने वाली उच्च क़ीमतें अंततः उपभोक्ताओं पर थोप दी जाएंगी, जिससे सीपीआई-आधारित मुद्रास्फीति में भी वृद्धि होगी - यह होना ही है। उदाहरण के लिए, पेट्रोल और डीजल की ऊंची क़ीमतों (उत्पाद शुल्क में कॉस्मेटिक कटौती के बावजूद) का अर्थव्यवस्था पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा और खाद्य वस्तुओं सहित परिवहन लागत बढ़ जाएगी। इससे सीपीआई-आधारित मुद्रास्फीति में भारी वृद्धि होगी। बोझ, हमेशा की तरह, आम लोगों पर थोप दिया जाएगा।

बाज़ार, इलाकों में क़ीमतें क्या है वह मायने रखती है

आम लोगों के लिए यह सब सच हो सकता है लेकिन यह दूर की गूढ़ बात लगती है। क्या इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि सरकार और उसके अर्थशास्त्री कौन सी कैलिस्थेनिक्स या विकास की विद्या में लिप्त हैं? फ़र्क इस बात से पड़ता है कि क़ीमतें लगातार ऊपर और ऊपर जा रही हैं। [नीचे ग्राफ देखें]

जैसा कि देखा जा सकता है, उपभोक्ता की खाद्य क़ीमतें (लाल रेखाएं) पिछले सात वर्षों में नवंबर 2014 से नवंबर 2021 तक लगातार बढ़ी हैं। चूंकि ये आम व्यक्ति के परिवार के बजट का लगभग आधा हिस्सा हैं, इसलिए यह वृद्धि विनाशकारी रही है। कम वेतन और बढ़ती बेरोजगारी के साथ, परिवारों को विभिन्न प्रकार के खर्चों में कटौती करनी पड़ी है, बच्चों को कम लागत वाले सरकारी स्कूल में दाखिला कराने से लेकर उन खाद्य पदार्थों में कटौती करने पर मज़बूर कर दिया जो उनकी पहुंच से बाहर हो गई हैं, जैसे दाल या दूध या विशिष्ट सब्जियां आदि। ऐसे भी चरण आए जब खराब होने वाली वस्तु (प्याज, टमाटर, सरसों का तेल, आदि वस्तुओं) की क़ीमतों में अचानक आग लग गई और आम आदमी की पहुँच से बाहर हो गई। यही वह समय होता है जब परिवार खर्च में कटौती करते हैं और किसी और सस्ती चीज का इस्तेमाल करने लगते हैं। लेकिन सरसों के तेल के बदले क्या किया जा सकता है। image

नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा हर चीज के निजीकरण पर जोर देने और 'राशन' प्रणाली जैसे उपयोगी कार्यक्रमों में अधिक सरकारी पैसा लगाने से इनकार करने के कारण, लोग बाजार के भेड़ियों के शिकार बन रहे हैं। अगर ऐसा नहीं है तो सरकार राशन व्यवस्था के ज़रिए आम लोगों को सरसों और अन्य खाद्य तेलों को नियंत्रित दामों पर बेचकर ऐसा कर सकती थी और जो आसान भी होता। लेकिन फिर, सत्तारूढ़ दल के हित कहीं और निहित हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें। 

Fuel Drives Wholesale Prices Up, Low Demand Keeps Retail Prices Down

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