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गांधी : जनसाधारण की अंतरचेतना के प्रतिबिंब

महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर विशेष : बापू के विचारों से सहमति -असहमति हो सकती है, लेकिन एक बात तो तय है कि बापू ने लोगों पर विश्वास किया और आमजन ने भी बापू पर विश्वास किया था।
gandhi ji
 फोटो साभार : wikimedia  

विचार , वाणी और कर्म का संतुलन महात्मा गांधी के संपूर्ण व्यक्तित्व में अद्भुत विश्वसनीयता पैदा करता है, जिससे संपूर्ण मानवता आज भी प्रभावित है। बापू का का सबसे बड़ा गुण था कि वे लोगों पर विश्वास करते थे। गांधी जी की जीवनी के लेखक लुई फिशर ने लोगों को प्रभावित करने के लिए गांधीजी के एक गुण का विशेष रूप से उल्लेख किया है, वे कहते हैं ‘गांधी जी लोगों में बुरा देखने से इंकार करते थे।  लोगों को इस रूप में नहीं देखते थे, जैसे वे थे, बल्कि उस रूप में देखते थे, जैसा वे बनना चाहते थे। इसी कारण वह सब  में अच्छाइयां ही देखते थे और इसी कारण वे अक्सर इंसानों को बदल कर रख देते थे।'

बापू के विचारों से सहमति -असहमति हो सकती है, लेकिन एक बात तो तय है कि बापू ने लोगों पर विश्वास किया और आमजन ने भी बापू पर विश्वास किया था। इसी कारण से सारी दुनिया में उन पर विश्वास करने वाले लोगों की संख्या में आज भी लगातार इज़ाफ़ा होता ही जा रहा है।

यह कहा जाता है कि बापू बहुत अच्छे वक्ता नहीं थे, बोलते भी बहुत धीरे थे, उस जमाने की अन्य सफल नेताओं की तरह  वह बहुत बड़े वकील भी नही थे, परंतु जब बात प्रभाव पर आती है तो गांधी अपने समकालीन अन्य सभी नेताओं से बहुत आगे हैं। गांधी के विरोधी भी गांधी के प्रभाव से नहीं बच पाए थे और यह प्रक्रिया आज भी निरंतर जारी है। गांधी का प्रभाव इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि वह केवल सत्य के पोषक नहीं है बल्कि अहिंसक- सत्य के पोषक है।

गांधी के बारे में रोम्यां  रोला ने लिखा है गांधीजी को देखकर मुझे सबसे अधिक सुकरात की याद आई। बिना किसी प्रकार के दिखावे के वह ऐसी शक्तिशाली बात कह जाते हैं जो दुनिया का स्वरूप बदल सकती है।

गांधी के प्रभाव को यदि देखा जाए तो इससे ब्रिटिशर्स भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाए। ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल, गांधी से इतनी घृणा करते थे कि उन्हें नंगा फकीर कहा करते थे। लॉर्ड वेवेल ने लिखा है गांधी बहुत ही चालाक, दो मुंहे और मकसद को समर्पित राजनीतिज्ञ हैं। वहीं दूसरी तरफ जब एक देशद्रोह के मामले में गांधी को अहमदाबाद के जिला एवं सेशन कोर्ट में जज ब्रूमफील्ड की अदालत में गांधी को पेश किया गया तो गांधी के सम्मान में ब्रूमफील्ड खड़े हो गए थे।

शायद यह दुनिया की  पहली अदालत रही होगी जब किसी आरोपी के सम्मान में कोई जज खड़ा हो गया होगा। ब्रूमफील्ड यहीं नहीं रुकते हैं और वह कहते हैं कि 'इस  बात को भूल पाना नामुमकिन है कि आज तक इस अदालत के रूबरू आए लोगों में कोई भी आपके दर्जे का हो या आइंदा कोई और होगा।'

गांधी  जनमानस की अंतरचेतना को प्रभावित करते हैं तथा साथ ही आत्ममंथन के लिए भी मजबूर करते हैं। गांधी ने वकालत की पढ़ाई के लिए  इंग्लैंड जाते समय अपनी मां से प्रतिज्ञा की थी कि वह मांस मदिरा का सेवन नहीं करेंगे। फिर गांधी अपनी प्रतिज्ञा पर अड़े रहते हैं उनके मित्र उलाहना देते हैं कि ' निरक्षर माता से यहां की परिस्थिति जाने बिना की हुई प्रतिज्ञा की भी कोई कीमत है क्या?’ पर गांधी के लिए कीमत थी, जो उन्हें दृढ़ता प्रदान कर रही थी।  

गांधी में भी बाह्य और आंतरिक घर्षण के उपरांत ही चमक पैदा हुई थी। इसका स्पष्टीकरण गांधी स्वयं देते हैं, वह कहते हैं कि बाह्य  व्यक्तित्व बनाने से ज्यादा जरूरी आंतरिक दृढ़ता है जो उन्हें उद्देश्य तक पहुंचाने में सहायक होगी। मिली पोलक ने लिखा है कि वह 'एल्कोहलिक' न हो करके 'वर्कोहलिक' थे।

गांधी ने अपने लंदन प्रवास के दौरान खाना बनाना सीखा, पैसे बचाने के लिए पैदल चलने का अभ्यास किया। कम खर्च में लंदन में कैसे रहा जा सकता है, इसके लिए उन्होंने सारे नुस्खे अपनाएं। उन्होंने 6 महीने में इतनी लैटिन और फ्रेंच सीख ली थी की रोमन लॉ की पुस्तक अंग्रेजी कमेंट्री के साथ पढ़ लेते थे। गांधी ने लंदन में शाकाहारी समाज का हिस्सा बनकर शाकाहार के बारे में अनेक भाषण दिए और लेख भी लिखा।

लंदन में गांधी को नस्लीय भेदभाव का कभी अनुभव नहीं हुआ पर वही गांधी जब दक्षिण अफ्रीका पहुंचते हैं तो वहां  रंगभेद  और नस्लीय भेदभाव को गहराई से अनुभव करते हैं और उनकी सोच को  गहरा झटका लगता है , इसी लिए दक्षिण अफ्रीका में वे एक बड़े संघर्ष की शुरुआत करते हैं। दक्षिण अफ्रीका में गांधी अमानवीयता और नस्लीय भेदभाव क्या है, उसको पहले समझते हैं, महसूस करते हैं  और फिर उसके बाद उसके विरूद्ध संघर्ष का बिगुल फूंक देते हैं।

दक्षिण अफ्रीका के उनके  संघर्ष , विभिन्न प्रकार के सामाजिक और राजनैतिक प्रयोग और उस से उत्पन्न घर्षण की दृढ़ता ने ही मोहनदास को  भारत आने के बाद महात्मा गांधी बना दिया। उपरोक्त तथ्य इस बात की तस्दीक करते हैं कि गांधी में भी परिवर्तन धीरे-धीरे हुआ, उनका जीवन इस रूप  में जनसाधारण के लिए सदैव प्रेरणादाई रहा है। गांधी स्वयं कहते हैं मैं झेंपू था 'सभा को संबोधित नहीं कर सकता था, विलायत छोड़ने से पहले इस प्रयास में खूब खिल्ली उड़ी' अलविदा भोज में कुछ बोल नहीं सका। कहते हैं यह झेंपूपन दक्षिण अफ्रीका पहुंचने पर ही गया।'

 गांधी ने जनसाधारण की आर्थिक बदहाली, अपमान और पीड़ा को बहुत ही गहराई से महसूस किया था और वह चाहते थे कि  भारत अपनी रीढ़ के बल खड़ा हो जाए। हिंद स्वराज का उनका क्रांतिकारी उद्घोष उन्होंने इसीलिए किया था।सदियों की गुलामी और साम्राज्यवादी शासन ने हिंदुस्तान के चरित्र पर ही सबसे बड़ा आघात किया था। इस चरित्र को फिर से  गढ़ने  की प्रक्रिया का नाम ही महात्मा गांधी है। आज़ादी के बाद गांधी को भी भुलाने की पूरी कोशिश हुई है।

इस देश में सत्ताधारी नेताओं ने गांधी को भी रस्म अदायगी में ही तब्दील करने की पूरी कोशिश की है । लेकिन अगर ध्यान से देखा जाए तो क्या यह देश गांधी को भुला सकता है? आज भी संकट के समय में सत्य, अहिंसा, विनम्रता और असहयोग के उनके चार सूत्रों को समाज बार-बार उलट-पुलट कर देखता है।
आज के हमारे विकास का मॉडल और आर्थिक प्रगति का जनसाधारण और जन सरोकार से दूर का रिश्ता है। आज जब आर्थिक केंद्रीकरण और राजनीतिक सत्ता के केंद्रीकरण की प्रवृत्ति अपने चरम पर है।

वर्तमान की बैंकिंग प्रणाली,  नौकरी केंद्रित और महंगी होती जा रही शिक्षा , समाज और संसाधनों का बेतरतीब शोषण ऐसे कारण बन रहे हैं कि गांधी के प्रति आमजन और युवाओं में उनके द्वारा दिए गए सिद्धांतों  के प्रति आस्था फिर से बढ़ने लगी है। शहर के नाम पर भारत मे अव्यवस्थित , गंदगी से भरे हुए कंक्रीट के जंगल जो थोड़े से ही बरसात में  नदी- नालों में तब्दील हो जाते हैं को ही बसाने का कार्य हुआ है। बड़े-बड़े बनते हुए बहुमंजिला टावरों में किसी को पता नहीं है कि भविष्य में इनमें पानी कहां से आएगा।

ऐसे ही शहरो को बसाने के लिए हम सभी ने गंगा-यमुना जैसी सैकड़ों नदियों को सीवर लाइन में तब्दील कर दिया और फिर उनकी सफाई के नाम पर भी अरबों खरबों का वारा-न्यारा कर रहे हैं। जाने -अनजाने में हमने ऐसी व्यवस्था खड़ी कर दी है कि जो अब हमारे लिए ही भारी  है। गांव से पलायन जारी है और धीरे-धीरे वह खाली हो रहे हैं।

 बेरोजगारी के बढ़ने से युवाओं में लगातार तनाव बढ़ रहा है, साथ ही हिंसा भी बढ़ रही है। बार-बार ये आने वाली वैश्विक आर्थिक मंदी इस बात की पुष्टि करती है कि अमेरिका और यूरोप के विकास का मॉडल फेल हो चुका है। वर्तमान विकास का मॉडल मनुष्य और पृथ्वी दोनों के साथ हिंसा  कर रहा है। फिर विकल्प तो केवल गांधी  ही हैं। देर- सबेर  संपूर्ण दुनिया को परिवर्तित रूप में ही सही गांधी को तो अपनाना ही पड़ेगा।

(लेखक बरेली कॉलेज, बरेली के विधि विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

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