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जाति के सवाल पर गांधी से अंबेडकर पूरी तरह ख़फ़ा थे मगर जब दोनों को जोड़ दिया जाए तो क्या होगा?

गांधी और अंबेडकर के बीच जाति के सवाल पर टकराव से कोई इंकार नहीं मगर एक दूसरे को जोड़ने वाले धागे को तलाशेंगे तो जाति की परेशानी को ज़्यादा मज़बूती से हल करने का रास्ता निकल सकता है।
gandhi and ambedkar

गाँधी और अंबेडकर के बीच जाति के सवाल को लेकर गहरा टकराव है। यह टकराव कोई साल- दो साल तक नहीं रहा बल्कि जीवन भर बना रहा। यह टकराव मामूली नहीं बहुत तीखा था। हम चाहें तो केवल इन टकरावों से खुद को जोड़ सकते हैं मगर इसका कोई फायदा नहीं होगा। यह महज दो व्यक्तियों को आमने - सामने रखकर की गयी बहस की तरह बनकर रह जाएगा। इस मंथन से कुछ ऐसा नहीं निकलेगा जो सुनहरे भविष्य की हमारी कल्पनशक्ति और संघर्ष में कुछ सार्थक दृष्टि जोड़ सके। यह सार्थक दृष्टि तभी मिलेगी जब हम गाँधी और अंबेडकर के रायों के बीच समागम करा पाएं।

गाँधी और अंबेडकर में एका खोजने से पहले इस सवाल का जवाब देना जरूरी है जहाँ पर गाँधी को वर्णव्यवस्था का समर्थक बताया जाता है। तो इस सवाल का जवाब यह  है कि गाँधी अपने जीवन के शुरूआती दौर में वर्णव्यवस्था के समर्थक के तौर पर दीखते हैं मगर बाद में जाकर वह खुलकर कहते हैं कि जातिव्यवस्था हिन्दू धर्म में पाप की तरह है। वह उन शादियों में जाना पसंद नहीं करेंगे जहां पर अंतर्जातीय विवाह नहीं होते। साल 1942 में गाँधी हरिजन में एक लेख लिखते हैं जिसका शीर्षक है कि 'caste must go and the sin of untouchability' . इस लेख में वह जाति के खात्मे की बात करते हैं। इस सवाल के जवाब के बाद अब हम अपनी बात को आगे बढ़ाते हैं।

सबसे पहली बात यह समझने वाली है कि  गांधी और अंबेडकर ऐसी समाजिक व्यवस्था के पैरोकार थे, जिसमें हर व्यक्ति के पास अपनी सहज क्षमताओं के विकसित करने की संभावनाएं ज्यादा हो। इस लिहाज से दोनों जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ थे। मगर दोनों का नजरिया अलग - अलग था। गांधी मानते थे कि जाति व्यवस्था के चलते  श्रेष्ठता और हीनता का भाव पैदा होता है। केवल दलित ही नहीं बल्कि सवर्ण भी इस व्यवस्था के पीड़ित हैं।  जाति व्यवस्था में शारीरिक मेहनत को हीन नजरो से देखा जाता है। यहीं से शोषण और अमानवीयता पैदा होती है। इसे खत्म करने के लिए जरूरी है कि हर एक व्यक्ति के भीतर चाहें वह जिस भी जाति का हो, उसके भीतर मौजूदा शुद्धत्ता और अशुद्धता का पूर्वाग्रह खत्म हो। शारीरिक श्रम को लेकर मौजूद हीन भावना खत्म हो। अगर ऐसा होता है तो जातिगत भेदभाव खत्म होने का रास्ता निकलेगा।

अंबेडकर को गाँधी के विचारों से गहरी असहमति थी। अंबेडकर यह स्वीकार करने लिए कत्तई तैयार नहीं थे कि सवर्ण हिन्दू भी जाति व्यवस्था से पीड़ित हैं। अंबेडकर यह भी मानाने को तैयार नहीं थे की केवल जाति को लेकर मन में मौजूद श्रेष्टता और हीनता की धारणा खत्म कर जाति व्यवस्था खत्म हो जाएगी। शारीरिक श्रम से जुड़ी गरिमा हासिल कर जातिगत भेदभाव खत्म हो जायेगा।

अंबेडकर का मानना था कि जाति को लेकर गाँधी के विचार पूरी तरह से सतही हैं। उन्होंने यह साबित किया था कि जाति व्यवस्था भारतीय सामज  जड़ों में समाई है।  जीवन का हर अंग इससे प्रभावित है। किसी भी तरह सत्ता पर पहुंचने का फैसला इस बात से होता है कि आप किस जाति से हैं। फैसला लेने वाले किसी भी पद पर कौन बैठेगा, इसका निर्णय इस बात से होता है कि आपकी जाति क्या है? धन- सम्पति, राजनीतिक सत्ता, ज्ञान सबका बंटवारा इस बात से तय होता है कि आपकी जाति क्या है? इस तरह से पूरे भारतीय समाज को सवर्ण जातियां नियंत्रित करती हैं और दलित जातियां हाशिए पर मौजूद हैं। वंचना का शिकार हैं। इसलिए अंबेडकर का कहना था जब तक निचली जातियों की आर्थिक हैसियत मजबूत नहीं होती है, इनके साथ समाजिक न्याय नहीं किया जाता है, समानता को मकसद बनाते हुए समाज में मौजूद गैर-बराबरी दूर करने की कोशिश नहीं की जाती है, तब तक जातिगत भेदभाव को दूर करने का रास्ता नहीं निकल सकता।

समागम के पहलू देखिये। यह बात ठीक है कि जाति को लेकर अंबेडकर के विचार ज्यादा धारदार और तार्किक हैं।  मगर फिर भी यह बात समझने वाली है कि ऐसा न जाने कितने उदाहरण हैं जो यह बतातें हैं कि दलितों की आर्थिक हैसियत सुधरने के बावजूद भी उनके साथ जातिगत भेदभाव बना रहता है। ऊँचा पद हासिल करने के बाद भी कई सवर्ण जातियों के ज्यादातर लोग भीतर ही भीतर दलित जातियों से चिढ़ते रहते हैं। यह क्या बताता है? यह बताता है कि जातिगत भेदभाव को खत्म करने के लिए उन विचारो पर भी जोर देने की जरूरत है, जिसकी वकालत गांधी करते हैं। यह धारणाओं के स्तर से गहरे तौर पर जुड़ा है। पूर्वाग्रह के स्तर पर बहुत गहरे तौर पर मौजूद है। अंबेडकर के समाजिक न्याय में जब गाँधी द्वारा दिए गए एक - दूसरे के प्रति धारणाओं को खत्म करने का विचार जुड़ता है तो जातिगत भेदभाव को दूर करने को लेकर और गहरा और मजबूत रास्ता निकलता है।

अंबेडकर का ज्यादातर जोर राज्य पर था। अंबेडकर का जातिगत संघर्ष बताता है कि अंबेडकर यह मानते थे कि जब तक राज्य जाति आधारित भेदभाव को खत्म करने का बीड़ा नहीं उठाएगा तब तक जाति नहीं खत्म होने वाली। इसलिए अंबेडकर ने ब्रिटिश हुकूमत और आजादी के बाद की भारतीय राज्य दोनों के साथ जाति के मसले पर राजनीतिक तौर पर जुड़ने की कोशिश की। राज्य पर यह दबाव बनाने की कोशिश की कि राज्य जाति आधारित भेदभाव को खत्म करने के लिए जरूरी कदम उठाए।

मगर गांधी का राज्य पर ज्यादा यकीन नहीं था। गांधी को लगता था कि राज्य ऊपर से वैसी नैतिकता थोपने का काम करता है, जिसे स्वीकार करने के लिए समाज तैयार नहीं होता है। इसलिए समाज में गहरा बदलाव तब होगा जब समाज के भीतर समाज सुधार के गहरे कदम उठाये जायेंगे। अब अगर यहाँ पर गाँधी और अंबेडकर दोनों को मिला दिया जाए तो केवल जातिगत भेदभाव के खात्मे पर नहीं भारत की कई बड़ी परेशानियों के हल के रास्ते निकल सकते हैं।   भारत में सारी परेशनियों का  हल राजनीतिक सत्ता परिवर्तन से देखा जाता है। आजादी के बाद यही हो रहा है। अगर इसके साथ लगातार समाजिक सुधार के आंदोलन भी होते तो सोचकर देखिये कि कितना बड़ा बदलाव होता। यही गायब हो गया। जनमानस की सारी जागरूकता केवल यही तक सीमित हो गयी है कि कैसे सत्ता बदलेगी? कैसे वैसी सत्ता आएगी, जिसमें उसकी दिलचस्पी है। जनमानस न मौजूदा समय के गहरे सवालों से परिचित हैं, इसके हल के बारे में सोचता है और न ही ऐसा कोई समाजिक संघर्ष होता है जो इसे बदलने के लिए पहल करे।

इसके अलावा और भी ढेर सारी बातें हैं, जहां गाँधी और अंबेडकर के बीच गहरे मतभेद दीखते हैं।  मगर फिर भी उनके बीच एक सूत्र बनाने की कोशिश की जाए तो वह समाज के मौजूदा परेशानियों को हल करने में बहुत अधिक कारगर साबित होंगे।  लेकिन उन सबको एक लेख में समेटना बहुत मुश्किल है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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