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ग्रामीण भारत की पीड़ाः मनरेगा में काम के लिए 9 करोड़ लोगों ने पिछले साल आवेदन दिया

सिमटती कृषिगत आय, कम होती मज़दूरी और काम की कमी बड़ी संख्या में लोगों को इस योजना के तहत काम करने के लिए मजबूर कर रही है।
मनरेगा

ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक़ वर्ष 2017-18 में लगभग 9 करोड़ मज़दूरों को ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (एमजीएनआरईजीएस-मनरेगा) में काम करने के लिए आवेदन कर चुके हैं। ये ग्रामीण कार्य बल का 42% है। जिन लोगों ने इसके लिए आवेदन किया उनमें से करीब 1.4 करोड़ लोग (लगभग 15%) वास्तव में काम कर रहे 7.6 करोड़ में शामिल हो गए हैं।

 

पीएम नरेंद्र मोदी के शासन काल में एमजीएनआरईजीएस में काम तलाशने वाले लोगों की संख्या अचानक बढ़ गई। साल 2014 में लगभग 7.3 करोड़ से बढ़कर 2017-18 में क़रीब 9करोड़ हो गई है। इस तरह काम तलाशने वालों की क़रीब 23% की बढ़ोतरी हुई।

 

इस ग्रामीण रोज़गार योजना के तहत काम के लिए निम्न भुगतान किया जाता है और यह अनियमित और अस्थिर है। यह बेहद ही कठिन काम होता है जैसे सड़कें बनाना, तालाब का खुदाई और इसी तरह के अन्य काम। इसके बावजूद ग्रामीण भारत के लोग बड़ी संख्या में लगातार इसमें काम की तलाश कर रहे हैं। लगातार दूसरे साल अच्छे मॉनसून और रिकॉर्ड स्तर तक कृषिगत उत्पादन के बावजूद काम तलाशने वालों की इतनी बड़ी संख्या यह बताती है कि ग्रामीण भारत में काम की कितनी कमी है।

 

दूसरी तरफ प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के सहयोगी लोगों को आश्वस्त करते रहे हैं कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी, प्रत्येक वर्ष 1 करोड़ नौकरियां दी जाएगी और किसान अपनी उत्पादन लागत के मुक़ाबले 50% अधिक क़ीमत प्राप्त करेंगे। काम की तलाश करने वाले लोगों के ये आंकड़ें बताते हैं इन वादों में से कुछ भी पूरा नहीं किया गया है।

 

हाल ही में 31 मार्च को ग्रामीण विकास मंत्रालय ने विभिन्न राज्यों में इस योजना के तहत मज़दूरी को संशोधित किया था जिसे 1 अप्रैल से प्रभावी होना था। औसत प्रतिदिन मज़दूरी मात्रRs.182.9 है। वर्ष2017-18 में औसतन लोगों को इस योजना के तहत केवल 46 दिन ही का काम मिला। यह बेहद कम कार्य दिवस है जिसमें 7.6 करोड़ लोग रहे और उन्होंने अपना जीवनयापन किया।

 

दो राज्यों को छोड़कर अन्य सभी राज्यों में एमजीएनआरईजीएस के तहत मज़दूरी राज्य में कृषि मजदूरों के वैधानिक न्यूनतम मज़दूरी से कम है। महाराष्ट्र और तमिलनाडु में एमजीएनआरईजीएस के तहत मज़दूरी राज्य के न्यूनतम मज़दूरी से ज़्यादा है जहां न्यूनतम मज़दूरी पहले ही काफी कम है। बता दें कि महाराष्ट्र में 1 9 4 रुपए और तमिलनाडु में 1 9 5रुपए है।

 

बीजेपी शासित राज्यों जैसे बिहार, उत्तराखंड, झारखंड सहित कम से कम 10 राज्यों में एमजीएनआरजीएस मज़दूरी में कोई संशोधन नहीं हुआ है। यह पिछले साल की तरह ही जारी रहेगा। जबकि कुछ अन्य बीजेपी शासित राज्यों जैसे गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में मज़दूरी मात्र 2 रुपए प्रति दिन के हिसाब से बढ़ा दी गई है!

ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा दिए गए आंकड़ों के मुताबिक़ वर्ष 2017-18 में इस योजना के तहत केवल 46 दिन का काम उपलब्ध कराया गया था। हालांकि जिस अधिनियम के तहत काम दिया जाता है उसके अनुसार 100 दिन का काम मुहैया कराना है।

इस पृष्ठभूमि में देखा गया है कि औसत रूप से मज़दूरी प्रतिदिन 183 रुपए और प्रतिवर्ष केवल 46 दिन का काम मिलने के बावजूद काम की मांग लगातार जारी है। सरकार की पूर्ण विफलता का इससे बेहतर सबूत नहीं हो सकता है कि वह न्यूनतम मज़दूरी और उत्पादन की कम क़ीमत का समाधान करने में असफल रही है जिसके चलते किसान लगातार विरोध प्रदर्शन करते रहे हैं और यहां तक कि वे आत्महत्या तक कर लेते हैं।

वास्तव में ग्रामीण इलाकों में अधिकांश लोग अल्पकालिक तौर पर दूसरे दूसरे काम करते हैं। कटाई के मौसम में वे कटाई और इससे संबंधित काम करते हैं। ये काम वे अपने घर के पास या दूसरे राज्यों में जहां वे काम के लिए पलायन करते हैं वहां करते हैं। वे कुछ महीनों के लिए निर्माण परियोजनाओं, या ईंट भट्टों या अन्य ऐसे काम कर सकते हैं। वे पास के शहरों साइकिल रिक्शा चलाने, घरेलू नौकरों के रूप में काम करने या इसी तरह के अन्य काम के लिए जाते हैं। और जब उनके इलाक़े में एमजीएनआरईजीएस के तहत काम उपलब्ध हो जाता है तो वे इसमें दो या तीन सप्ताह तक काम करते हैं।

ये सरकार शुरूआत से ही इस योजना की विरोधी थी और इसके तहत मिलने वाले फंड को वर्ष 2014-15 में घटा दिया, यह महसूस किया कि ऐसा करना राजनीतिक रूप से असंभव है और तब से इस योजना की समर्थक बन गई। हाल ही में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने ये कहते हुए अपनी पीठ थपथपाई कि उसने वर्ष 2013-14 के मुक़ाबले इस योजना के लिए वित्त पोषण में 37% तक की वृद्धि की थी। 2017-18 में ये वृद्धि मुख्य रूप से पिछले साल के ख़र्च की क्षतिपूर्ति करने के लिए थी। इस सरकार द्वारा इस योजना की सराहना करना भी एक कलंक जैसा है क्योंकि भारत में आज की दो समस्याओं - बेरोज़गारी और कृषि आय में कमी को समाप्त या कम करने में पूरी तरह असफल रही है।

 

 

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