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भारतीय अर्थव्यवस्था : हर सर्वे, हर आकंड़ा सुना रहा है बदहाली की कहानी

NCRB के आत्महत्या के आंकड़े, आरबीआई के कंज्यूमर कॉन्फिडेंट सर्वे के आंकड़े और मनरेगा फंड के खात्मे के आंकड़े को मिलाकर पढ़िए तो अर्थव्यवस्था की बदहाली में बदलाव के आसार नहीं दिखते हैं।
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साल 2020 के लिए प्रकाशित नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं भारत में साल 2020 में 1 लाख 53 हजार 52 लोगों ने आत्महत्या की। साल 2019 के मुकाबले यह 10 फ़ीसदी अधिक है। साल 1967 के बाद यह चौथा ऐसा साल है जहां पर सबसे अधिक मौतें आत्महत्या की वजह से हुई हैं। हर 10 लाख की आबादी पर निकाला जाए तो 11.3 लोगों ने जिंदगी से परेशान होकर जिंदगी को अलविदा कह दिया। आत्महत्या के इन आंकड़ों में 16.5 फ़ीसदी वे हैं जो महीने की सैलरी पर अपना जीवन गुजारते थे, 15.7 फ़ीसदी वे हैं जो दिन भर की मेहनत करके अपना पेट भरते थे। साल 2019 के मुकाबले साल 2020 में अपनी दुकान खोलकर और खुद का व्यापार कर जिंदगी जीने वाले लोगों के आत्महत्या के आंकड़े में 26.1 फ़ीसदी  और 49 फ़ीसदी इज़ाफ़ा हुआ है।

अगर आत्महत्या के कारणों को टटोलें तो सबसे अधिक 69 फ़ीसदी आत्महत्या का कारण गरीबी है। उसके बाद बेरोजगारी का नंबर आता है जिसकी वजह से 24 फ़ीसदी लोगों ने आत्महत्या कर ली। आत्महत्या के सबसे अधिक दर्दनाक आंकड़े पढ़ने लिखने वाले विद्यार्थियों के बीच से आए हैं जहां हर साल 7 से 8 फ़ीसदी बच्चे आत्महत्या कर लेते थे लेकिन 2020 में इनमें 21 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा देखने को मिला है। इसका भी सबसे बड़ा कारण गरीबी से पनपा छात्र जीवन पर कई तरह का दबाव बताया जा रहा है। साल 2019 में दूसरे के जमीन पर मजदूरी करके जीवन यापन करने वाले कृषि क्षेत्र के 4324 मजदूरों ने आत्महत्या की थी। इसमें 18 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है। यह आंकड़ा 5 हजार को पार कर चुका है।

तमाम तरह की परेशानियां मिलकर आत्महत्या का कारण बनती हैं। उन्हें आंकड़ों में जिक्र करना नामुमकिन है। फिर भी उन तमाम तरह तरह की परेशानियों में सबसे बड़ा कारण आर्थिक दबाव का होता है। आत्महत्या के आंकड़े भी यही बता रहे हैं कि जब जिंदगी में पैसा कमाने का साधन छीन लिया गया तो बहुत लोग आत्महत्या करने के लिए मजबूर हुए। इसका मतलब यह है कि आत्महत्या में हुआ इजाफा कहीं ना कहीं भारत की बदहाल गरीबी की तरफ भी इशारा करता है। यह बदहाल गरीबी सीधे तौर पर भारत की अर्थव्यवस्था से जुड़ी हुई है। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के आंकड़े बताते हैं कि कमाई के साधन छिन जाने की वजह से तकरीबन 23 करोड लोग एक ही साल गरीबी रेखा से नीचे चले गए। 

इस बदहाली से उभरना बहुत कठिन है। लेकिन अर्थव्यवस्था के विकास को मापने वाले संकेत को आसार हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था सुधर रही है। IMF जैसी वैश्विक संस्था का अनुमान है कि भारत की जीडीपी ग्रोथ साल 2021-22 में 9.5 फ़ीसदी रहेगी। जो दूसरे देशों की विकास दर के मुकाबले कम है। लेकिन साल 2022-23 में 8.5 फीसदी रह सकती है, जो दूसरे देशों से बेहतर जीडीपी ग्रोथ को बताती है। 

लेकिन ठीक इसके उलट मिजाज भारत के रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित कंज्यूमर कॉन्फिडेंट सर्वे के आंकड़े बताते हैं। यह आंकड़े अर्थव्यवस्था के मिजाज को बताते हैं जिस मिजाज को नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो से मिलने वाले आत्महत्या के आंकड़े बता रहे हैं।  

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कंज्यूमर कॉन्फिडेंट सर्वे में देश के बड़े-बड़े शहरों में जाकर लोगों से बातचीत की जाती है। लोगों से पूछा जाता है कि इस साल और आने वाले साल में भारत की अर्थव्यवस्था को वह किस तरह से देखते हैं। उनके लिहाज से महंगाई बढ़ी है या घटी है? रोजगार कम हुआ है या बड़ा है? आमदनी और रोजगार के साधन में बढ़ोतरी होगी या कमी होगी? इस तरह के तमाम सवाल उन लोगों से पूछे जाते हैं जो रोजाना अर्थव्यवस्था के चक्र का सामना करते हैं। अगस्त और सितंबर महीने में देश के 13 बड़े शहरों में जाकर आरबीआई ने तकरीबन 5000 से ज्यादा परिवारों से ऐसे सवाल पूछ कर कंज्यूमर कॉन्फिडेंट सर्वे का आंकड़ा पेश किया है। 

रोजगार के क्षेत्र में कंज्यूमर कॉन्फिडेंट माइनस 60 से 80 फ़ीसदी के बीच है। यानी तकरीबन 60 से 80 फ़ीसदी को लगता है कि भारत में रोजगार की स्थिति बेहतर नहीं है। अगले साल रोजगार की बेहतरी की संभावना करने वाले महज 8% लोग हैं। महंगाई के मामले में 90 फ़ीसदी लोगों को लगता है कि इस साल महंगाई कम नहीं होने वाली। तकरीबन 80 से 90 फ़ीसदी लोगों को लगता है कि अगले साल भी महंगाई कम नहीं होने वाली। तकरीबन 50 से 60 फ़ीसदी लोगों को लगता है कि उनकी आमदनी पिछले साल के मुकाबले कम हुई है। तकरीबन 20 से 40 देखो लगता है कि आने वाले साल में उनकी आमदनी बढ़ेगी। तकरीबन 50 से 60 फ़ीसदी लोग कह रहे हैं कि उन्होंने इस साल गैर जरूरी चीजों पर बहुत कम खर्चा किया है। करीबन 20 फ़ीसदी लोग ऐसे हैं जो यह कह रहे हैं कि वह आने वाले साल में इस साल की अपेक्षा गैर जरूरी चीजों पर बहुत कम खर्च करेंगे। 

इन आंकड़ों का मतलब क्या है? इन आंकड़ों का यही मतलब है कि भले ही इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड से लेकर तमाम तरह के एक्सपर्ट कहें कि भारत की अर्थव्यवस्था सुधार की गति पर है लेकिन लोगों का मानना है कि भारत की अर्थव्यवस्था नहीं सुधरने वाली। लोगों को भारत की अर्थव्यवस्था में रोजगार की संभावना नहीं दिख रही है। महंगाई पहले से ज्यादा बदतर स्थिति में दिख रही है। उन्हें ऐसा भी नहीं लगता कि आने वाले समय में महंगाई की मार कम होगी। गैर जरूरी चीजों पर उन्होंने खर्च करना कम कर दिया है। अगर भारत की अर्थव्यवस्था सुधर रही होती तो लोगों का भरोसा भी उस पर होता। वह गैर जरूरी चीजों पर खर्च कम ना करते। ऐसा नहीं सोचते कि आने वाले साल में इस साल के मुकाबले और कम खर्च करेंगे। आरबीआई द्वारा प्रकाशित कंजूमर कॉन्फिडेंट सर्वे कह रहा है कि साल 2012 के बाद यह ऐसा साल है जहां पर लोगों का विश्वास अर्थव्यवस्था के सुधार में बहुत कम हुआ है।

प्रभात पटनायक से लेकर तमाम बड़े अर्थशास्त्री अर्थव्यवस्था में सुधार करने के लिए बार-बार यह लिख चुके हैं कि सबसे गरीब दबे कुचले लोगों तक रोजगार के अवसर पहुंचाए जाएं। उनकी जेब में पैसा डाला जाए। तभी जाकर अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी। भारत में अमीरों से ज्यादा गरीबों की संख्या है। 94 फ़ीसदी लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। बहुत बड़ी आबादी रोजाना काम करके अपनी जिंदगी गुजारती है। जब तक इनकी जेब में पैसा नहीं पहुंचेगा तब तक अर्थव्यवस्था को गति नहीं मिलेगी। लेकिन इनकी क्या हालत है?

मनरेगा के तहत कोरोना के दौरान 11 करोड़ लोगों को दिन भर का रोजगार मिला था। मनरेगा का नियम है कि ग्रामीण क्षेत्र के किसी भी अकुशल मजदूर को काम मांगने पर 100 दिन का काम भी आ जाएगा। इस योजना की इस साल हालत यह हो चुकी है कि इसका पूरा बजट खत्म हो चुका है। सरकार ने वित्त वर्ष 2022 के लिए जितना बजट मनरेगा को दिया था उस से तकरीबन 8686 करोड़ रुपए अधिक का बिल बन चुका है। जबकि यह अभी अक्टूबर का महीना चल रहा है। देश के 35 केंद्र शासित और राज्यों में से 21 राज्यों के पास मनरेगा का किसी तरह का फंड नहीं है। वह नेगेटिव बैलेंस में चल रहे हैं। यानी इन जगहों पर अगर पैसा नहीं आया तो मनरेगा के तहत तमाम मजदूरों को काम नहीं मिलने वाला। अगर वह मजदूरी करेंगी भी तो उन्हें मजदूरी नहीं मिलने वाली। किसान मजदूर शक्ति संगठन के संस्थापक निखिल डे कहते हैं मनरेगा के फंड के खात्मे की वजह से जो पहले से ही बदहाल हैं गरीबी में जी रहे हैं उन पर बहुत बड़ी मार पड़ेगी। साल 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर मनरेगा का बकाया मजदूरों को नहीं दिया जा रहा है तो इसका मतलब है कि संविधान के तहत बनने वाले अनुबंध को तोड़ा जा रहा है। मनरेगा के तहत मजदूरी का ना दिया जाना "भीख के आधुनिक रूप" की तरह लगता है। आंकड़े कहते हैं कि तकरीबन 13 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जो मनरेगा के तहत काम मांग रहे हैं लेकिन उन्हें काम नहीं मिल रहा है। निखिल डे कहते हैं कि मनरेगा के तहत काम मांगने पर काम दिया जाना सरकार की अनिवार्य जिम्मेदारी है। यह आंकड़ा 13% से बहुत ज्यादा है। 13% का आंकड़ा तो पंजीकृत मजदूरों के बीच से निकला है। जो मजदूर पंजीकृत नहीं है, वह भी काम मांगते हैं। उनका कोई आंकड़ा नहीं मिला है।

इस तरह से इस हफ्ते मिली इन तीन तरह के आंकड़ों को मिलाकर पढ़ा जाए तो भारत की अर्थव्यवस्था की तस्वीर उतनी सुनहरी नहीं लगती जितनी सुनहरी बताने की कोशिश विशेषज्ञ और वैश्विक संस्थाएं कर रहे हैं। अर्थव्यवस्था की बदहाली इतनी ज्यादा है कि जीडीपी ग्रोथ के चाहे जैसे आंकड़े दिए जाए लेकिन लोग उस पर भरोसा नहीं करने वाले।

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