भारत में बेरोज़गारी मापने के पैमानों के साथ क्या समस्या है?
हमारे देश में श्रम शक्ति के बहुत छोटे से हिस्से को ही पूर्णकालिक आधार पर काम मिला हुआ है। श्रम शक्ति का ज्यादातर हिस्सा या तो किसानों या छोटे-छोटे दूकानदारों जैसे स्वरोजगार के कामों में लगा हुआ है, जिनमें काम की किसी खास मात्रा में साझेदारी करने वाले परिवार के सदस्यों की संख्या आसानी से बढ़-घट सकती है या फिर कामगारों में बड़ी संख्या ऐसे कैजुअल मजदूरों की है, जिन्हें किस दिन काम मिलता है और किस दिन नहीं मिलता है, यह कोई तय नहीं है। दूसरे शब्दों में कामगारों की उसी संख्या पर काम की मात्रा घट या बढ़ सकती है। ऐसे में कामगारों की उतनी ही संख्या के हिस्से का काम बढ़ जाए तो उसे बेरोजगारी का घटना माना जा सकता है और उनके हिस्से में काम की मात्रा घट जाए तो उसे, बेरोजगारी का बढऩा कहा जाएगा। यही नहीं, काम की मात्रा और काम पर लगे लोगों की संख्या में कोई घनिष्ठ संबंध भी नहीं है। इसलिए, यह सवाल उठता है कि ऐसे हालात में बेरोजगारी के रुझान का माप कैसे किया जा सकता है?
इसी समस्या के चलते, भारत में लंबे अरसे से सरकारी आंकड़ों में, बेरोजगारी के लिए अनेक अलग-अलग मापों का उपयोग किया जाता रहा है। यहां हम इन सभी मापों पर चर्चा नहीं करेंगे। बहरहाल, इनमें से किसी एक माप को उठाकर हम, इन सभी मापों की समस्या को समझ सकते हैं। मिसाल के तौर पर हम ‘‘करेंट वीकली स्टेटस’’ रोजगारी की अवधारणा को ले सकते हैं। अगर किसी व्यक्ति को, उससे जब जानकारी इकट्ठी की जा रही हो, उससे पहले के एक सप्ताह में, काम की तलाश करने के बावजूद, एक घंटे का भी कोई उपादेय काम नहीं मिला हो, तो उस व्यक्ति को ‘‘करेंट वीकली स्टेटस’’ के पैमाने पर बेरोजगार माना जाएगा, वर्ना उसका ‘‘करेंट वीकली स्टेटस’’ बारोजगार या रोजगारशुदा का होगा। अब मान लीजिए कि किसी खास साल के सर्वे के समय किसी व्यक्ति को, पिछले हफ्ते में चार घंटे का काम मिला हो, लेकिन इसके कुछ साल बाद के सर्वे के समय, उसी व्यक्ति को पिछले हफ्ते में सिर्फ दो घंटे का ही काम मिला हो, तो जाहिर है कि इन दो कालखंडों के बीच उसकी बेरोजगारी पहले से बढ़ गयी होगी। और अगर उस व्यक्ति की स्थिति, अकेले एक व्यक्ति स्थिति न होकर, उसके जैसे लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली स्थिति हो, तो जाहिर है कि यह उक्त दो कालखंडों के बीच बेरोजगारी की स्थिति बिगड़ जाने को ही दिखा रहा होगा। लेकिन, ‘‘करेंट वीकली स्टेटस’’ का सरकारी पैमाना, बेरोजगारी जहां की तहां ही दिखा रहा होगा।
मजदूरों की प्रतिव्यक्ति आय का एवजी पैमाना
चूंकि यही स्थिति बेरोजगारी के करीब-करीब हरेक सरकारी माप के साथ है, इसलिए उनमें से कोई भी माप बेरोजगारी के रुझानों को पकड़ने के लिए खास काम का नहीं है। तब बेरोजगारी के रुझानों को कैसे पकड़ा जा सकता है? जब श्रम शक्ति के लिए प्रतिव्यक्ति काम की मात्रा घट रही हो यानी जब बेरोजगारी वास्तव में बढ़ रही हो, तो यह मानना पूरी तरह से तार्किक होगा कि एक औसत मजदूर की हर एक घंटे के काम पर आय में, बढ़ोतरी तो नहीं ही हो रही होगी। लेकिन, चूंकि इसी अवधि में प्रति मजदूर काम के घंटों में कमी हो रही होगी, इसका अर्थ यह हुआ कि इन दोनों के गुणनफल यानी श्रम शक्ति की प्रतिव्यक्ति वास्तविक आय में, कमी हो रही होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर बाकी सब कुछ समान रहता है तो, श्रम शक्ति की प्रतिव्यक्ति वास्तविक आय का घटना, बेरोजगारी के बढ़ने का संकेतक होगा।
इसी प्रकार, जब बेरोजगारी घट रही होगी तो, श्रम शक्ति की प्रतिव्यक्ति आय में बढ़ोतरी होनी चाहिए। इसलिए, बेरोजगारी की दर के रुझान का एक तार्किक संकेतक यह होगा कि बाकी सब जस का तस रहने की स्थिति में, श्रम शक्ति की प्रतिव्यक्ति आय में बढ़ोतरी हो रही है या गिरावट हो रही है। लेकिन, समस्या यह है कि बाकी चीजें जस की तस नहीं रहती हैं। खासतौर पर यह कि जब मजदूरों की प्रतिव्यक्ति आय घट रही होती है और कुल उत्पाद में आर्थिक सरप्लस का हिस्सा बढ़ रहा होता है, इस सरप्लस पर ही पलने वाले पूंजीपति वर्ग के लग्गे-भग्गों, जैसे वकीलों, बिजनेस एक्जिक्यूटिवों, विज्ञापन एजेंसियों आदि के वर्ग का आकार भी बढ़ रहा होता है और आम तौर पर उन्हें भी ‘‘श्रम शक्ति’’ के हिस्से के तौर पर ही गिन लिया जाता है। दूसरे शब्दों में श्रम शक्ति की गिनती में सिर्फ मजदूरों, किसानों, खेत मजदूरों, दस्तकारों, करीगरों, मछुआरों आदि को ही नहीं जोड़ा जाता है, उनमें वकीलों, एक्जिक्यूटिवों आदि को भी गिन लिया जाता है। इसलिए, जहां सिर्फ मेहनतकशों की प्रतिव्यक्ति आय के उतार-चढ़ाव को, बेरोजगारी के रुझान का समुचित संकेतक माना जा सकता है, वहीं ‘‘श्रम शक्ति’’ गिने जाने वाले सभी तबकों को मिलाकर प्रतिव्यक्ति आय की गणना, ऐसे संकेतक के रूप में भ्रमित करने वाली साबित हो सकती है।
वास्तविक आय के संकेतक के रूप में प्रतिव्यक्ति खपत
बहरहाल, इस समस्या से निपटने का भी एक रास्ता है। यह मानना तार्किक होगा कि जब ‘‘श्रम शक्ति’’ के संपन्नतर वर्ग के हिस्से की, जो वास्तव में अतिरिक्त मूल्य में से हिस्सा पाने वालों का तबका होता है, प्रतिव्यक्ति वास्तविक आय बढ़ रही हो या जहां की तहां बनी रहे, तो इस तबके की खाद्यान्न की प्रतिव्यक्ति खपत, घट तो नहीं ही रही होगी। इसलिए, जब खाद्यान्न की प्रतिव्यक्ति खपत में गिरावट देखने को मिले, उससे हम निश्चित रूप से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि श्रम शक्ति में आने वाले वास्तविक मेहनतकशों की प्रतिव्यक्ति आय, पहले से घट गयी होगी।
इसका अर्थ यह हुआ कि खाद्यान्न की प्रतिव्यक्ति खपत या उपलब्धता में उतार-चढ़ाव को, ऐसी किसी स्थिति में जहां खाद्यान्नों की आपूर्ति में कोई दूसरी कोई सीधी बाधा नहीं हो, बेरोजगारी की दर के रुझानों का उपयुक्त संकेतक माना जा सकता है। इस पर इस आधार पर आपत्ति की जा सकती है कि इस तरह तो हम बेरोजगारी को, भूख के रुझान का करीब-करीब समानार्थी ही बना देंगे। लेकिन, अगर खाद्यान्न की आपूर्ति में स्वतंत्र रूप से पैदा हुई किसी तंगी की वजह से भूख में बढ़ोतरी नहीं हो रही हो तो, यह मेहनतकश जनता के हाथों में क्रय शक्ति में बढ़ती तंगी को ही प्रतिबिंबित कर रहा होगा, जो बेरोजगारी के बढऩे का ही लक्षण होगा। और नवउदारवादी नीतियों के करीब-करीब पूरे दौर में ही, भारतीय खाद्य निगम के हाथों में, इस काम के लिए जितने भंडार जरूरी माने जाते हैं, उससे ज्यादा भंडार जमा रहे हैं, इसलिए खाद्यान्नों की आपूर्ति में स्वतंत्र रूप से किसी कमी के पैदा होने का कोई सवाल नहीं उठता है। इसे देखते हुए, बेरोजगारी के रुझानों का हमारा प्रस्तावित संकेतक, काफी वैध संकेतक हो जाता है।
नवउदारवादी दौर में खाद्यान्न उपभोग में गिरावट
बेशक, खाद्यान्नों की उपलब्धता में साल-दर-साल उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। लेकिन, हमारे लिए प्रासंगिक है, इनका रुझान। और इसके लिए हम दो त्रैवार्षिकियों के बीच औसत सालाना प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता की तुलना करते हैं, जिसमें एक त्रैवार्षिकी पहले की ली जाती है और दूसरी, अपने अध्ययन के अंतिम वर्षों की।
1989-91 की त्रिवार्षिकी में यानी भारत में आर्थिक उदारीकरण से ऐन पहले, खाद्यान्न की प्रतिव्यक्ति औसत सालाना शुद्घ उपलब्धता, 180.2 किलोग्राम थी। लेकिन, 2016-18 की त्रिवार्षिकी में, यानी महामारी से ठीक पहले के दौर में, जिसके लिए एक हद तक पुख्ता आंकड़े उपलब्ध हैं, यह उपलब्धता घटकर 178.7 किलोग्राम रह गयी है। इसलिए, हमारे तर्क के हिसाब से नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के दौर में, बेरोजगारी की दर बढ़ी है। लेकिन, इससे कोई यह न समझे कि यह गिरावट तो सिर्फ इसलिए दिखाई दे रही है कि हमने तुलना के लिए एक खास त्रैवार्षिकी को ही लिया है। इसलिए, हम यह स्पष्ट कर देना चाहेंगे कि नवउदारवाद के पूरे के पूरे दौर में ही, किसी भी त्रैवार्षिकी में खाद्यान्न की प्रतिव्यक्ति शुद्घ उलपब्धता, 1989-91 की त्रैवार्षिकी से ज्यादा नहीं रही है।
ये भी देखें: घातक है बेरोज़गारी की महामारी
इसलिए, इस निष्कर्ष से कोई इंकार ही नहीं कर सकता है कि इस दौर में प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में गिरावट आयी है।
एक और भी तथ्य है जो इस निष्कर्ष की पुष्टि करता है। यूपीए-प्रथम की सरकार के दौरान महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के शुरू किए जाने के बाद से, इस योजना के अंतर्गत कुछ रोजगार मुहैया कराया जा रहा था, जो मेहनतकशों की आय में और इसलिए खाद्यान्न की उनकी मांग में भी, इजाफा करता था। अगर इसके बावजूद, नवउदारवादी दौर में प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में गिरावट हुई है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि अगर मगनरेगा नहीं चल रहा होता, तो प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में और ज्यादा गिरावट हुई होती।
मनरेगा के बावजूद कैसे बढ़ी बेकारी?
इसी बात को दूसरी तरह से भी कहा जा सकता है। हम, नवउदारवादी पूंजीवादी व्यवस्था की अपनी गतिक्रिया से पैदा होने वाले रोजगार और रोजगार के पूरक स्रोत के रूप में मगनरेगा से पैदा होने वाले रोजगार में अंतर कर सकते हैं। मगनरेगा द्वारा मुहैया कराए गए रोजगार को जोडऩे के बावजूद, अगर नवउदारवादी दौर में बेरोजगारी में बढ़ोतरी हुई है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि रोजगार मुहैया कराने की नवउदारवादी व्यवस्था की सामथ्र्य, हमारे एवजी के पैमाने से जितनी नजर आती है, उससे भी सीमित रही है। और अगर रोजगार मुहैया कराने के लिए हम नवउदारवादी पूंजीवादी व्यवस्था के ही भरोसे बैठे रहे होते, तो बेरोजगारी में बढ़ोतरी जितनी दिखाई दे रही है, उससे भी ज्यादा रही होती।
बेरोजगारी में बढ़ोतरी की इस परिघटना के दो-दो कारण हैं। पहला तो यह कि, कामगार आबादी में प्राकृतिक बढ़ोतरी के ऊपर से, शहरों में उजरती रोजगार की तलाश में उजड़े हुए किसानों की बड़ी संख्या भी पहुंच रही है। यह इसलिए हो रहा है क्योंकि नवउदारवादी व्यवस्था में, सरकार द्वारा कृषि लागतों के लिए मुहैया करायी जाने वाली सब्सीडियां खत्म किए जाने और नकदी फसलों के मामले में समर्थन मूल्य की व्यवस्था के खत्म किए जाने के जरिए, किसानी खेती का गला घोंटा जा रहा है। दूसरे, प्रौद्योगिकी-सह-ढांचागत बदलावों पर लगी सारी बंदिशें हटाए जाने और इसके साथ ही अर्थव्यवस्था के दरवाजे आयातित मालों से प्रतियोगिता के लिए खोले जाने द्वारा मिलकर, ठीक ऐसे बदलावों को थोपा जा रहा है, जो सामान्य रूप से श्रम प्रतिस्थापनकारी होते हैं और इसलिए, रोजगार में बहुत मामूली बढ़ोतरी ही पैदा करते हैं, जीडीपी में वृद्घि की दर चाहे जितनी ही ज्यादा क्यों न हो।
ये दोनों कारक मिलकर यह सुनिश्चित करते हैं कि नवउदारवादी पूंजीवादी व्यवस्था में बेरोजगारी की दर बढ़ती ही रहे। लेकिन, बेरोजगारी में इस बढ़ोतरी को भारत में, परंपरागत सरकारी आंकड़े पकड़ ही नहीं पाते हैं। फिर भी, अगर हम बेरोजगारी के उस तरह के एवजी माप को देखें, जो हमने यहां सुझाया है, तो बेरोजगारी में इस बढ़ोतरी का कुछ अंदाजा तो लग ही जाता है।
अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।