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क्या बेरोज़गारी की समस्या इतनी जल्दी हल हो पाएगी?

कामकाजी उम्र की आबादी का हिस्सा जो वास्तव में काम कर रहा है, वह अभी भी महामारी से पहले के दौर की तुलना में कम है।
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बेरोजगारी के संबंध में जारी नया डेटा को आशावाद, और करीब-करीब बड़ी उपलब्धि के रूप में दिखाया जा रहा खासकर मुख्यधारा के मीडिया में, जो नरेंद्र मोदी सरकार के तहत अर्थव्यवस्था के बारे में कुछ अच्छी खबरों को चित्रित करने के दबाव में काम कर रहा है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के अनुसार, सिमें तंबर ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में बेरोजगारी दर अगस्त की 8.3 फीसदी से गिरकर 6.43 फीसदी हो गई है।

बेशक़, यह एक अच्छी खबर है क्योंकि लोग, विशेषकर युवा, पिछले कई सालों से लगातार बेरोजगारी से पीड़ित थे, यदि इस पर ध्यान से गौर करें तो नज़र आएगा कि इसमें ऐसा कुछ दिखाने के लिए बहुत कम है कि यह लंबे समय से भूले हुए 'अच्छे दिन' की शुरुआत है। आइए हक़ीक़त जानने के लिए इन संख्याओं को खोलते हैं। 

श्रम भागीदारी दर में गिरावट

श्रम भागीदारी दर, काम करने वाले (रोजगार शुदा लोग) या काम की तलाश (बेरोजगार) करने वाले लोगों की संख्या को मिलाकर कुल कामकाजी उम्र की आबादी के हिस्से के तौर पर ली गई संख्या से बनती है। आमतौर पर, यदि कोई आर्थिक संकट न हो तो, श्रम भागीदारी दर तब बढ़ जाती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह संभावना होती है कि अर्थव्यवस्थाएं अधिक रोजगार पैदा करेंगी, जिससे लोगों को समय के साथ रोजगार के अधिक अवसर मिलते हैं। आखिर एक अच्छी सरकार तो यही करेगी।

लेकिन नीचे दिए गए चार्ट को देखें, जिसे सीएमआईई से लिया गया है, जो पिछले तीन वर्षों में श्रम भागीदारी दर की तुलना करता है- पूर्व-महामारी (अक्टूबर 2019) और वर्तमान (सितंबर 2022) के बीच यह तुलना की गई है। कुल मिलाकर, यह दर लगभग 43 प्रतिशत से गिरकर 39 प्रतिशत से अधिक हो गई है।

शहरी क्षेत्रों में, यह लगभग 41 प्रतिशत से गिरकर लगभग 37 प्रतिशत हो गई है, जबकि ग्रामीण इलाकों में, यह 44 प्रतिशत से घटकर 41 प्रतिशत कम हो गई है। 

अक्टूबर 2019 की तुलना आज की स्थिति से करना, नौकरियों की स्थिति का मूल्यांकन करने का एक बेहतर तरीका है क्योंकि दो महामारी के वर्षों (2020 और 2021) के दौरान, नौकरियों का संकट गंभीर रूप से तेज हो गया था - बेरोजगारी बढ़ गई थी और श्रम भागीदारी कम हो गई थी। इसलिए आज की स्थिति का उन वर्षों से तुलना करना उचित या समझदारी नहीं है।

याद रखें कि श्रम भागीदारी दर रोजगारशुदा लोगों के साथ-साथ उन बेरोजगारों से भी बनती है जो नौकरी की तलाश में रहते हैं। यह संभव है कि बेरोज़गारी दर गिर सकती है और फिर भी श्रम भागीदारी दर गिर सकती है - यह तब हो सकता है जब लोग निराश हो जाएं और  नौकरी की तलाश करना बंद कर दें। इस किस्म के 'बेरोजगार' लोग 'श्रम बाजार से बाहर' चले जाते हैं। इसलिए, केवल बेरोजगारी दर को मापने से पूरी तस्वीर नहीं मिलती है।

श्रम भागीदारी दर का पहले तीन साल की तुलना में अब कम होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि नौकरी के सीमित अवसर मौजूद हैं-शायद पहले से भी कम हैं। अक्टूबर 2019 में रोजगारशुदा व्यक्तियों की संख्या 40.41 करोड़ थी जबकि सितंबर 2022 में यह संख्या 40.42 करोड़ हो गई थी। इसका मतलब है कि पिछले तीन वर्षों में कोई महत्वपूर्ण नौकरियां पैदा नहीं हुई हैं।

शहरी इलाकों में तो स्थिति और भी खराब है। अक्टूबर 2019 में, शहरों और कस्बों में 12.88 करोड़ व्यक्ति रोजगरा में थे। इस साल सितंबर में यह संख्या घटकर लगभग 12.6 करोड़ रह गई जो लगभग 28 लाख व्यक्तियों की गिरावट को दर्शाता है। इस तथ्य के बावजूद कि कामकाजी उम्र की आबादी हर साल लगातार बढ़ रही है, वास्तव में कामकाजी लोगों की संख्या में गिरावट आई है!

ग्रामीण इलाकों में अक्टूबर 2019 में काम करने वाले व्यक्तियों की संख्या 27.54 करोड़ थी जो सितंबर 2022 में 27.82 करोड़ हो गई थी। यानी लगभग 28 लाख की वृद्धि हुई है। तीन साल में ग्रामीण इलाकों में रोजगार के मामले में यह सब वृद्धि हुई है।

कम वेतन, असुरक्षित नौकरियां नौकरीपेशा लोगों को परेशान कर रही हैं

नौकरियों के संकट का एक और आयाम यह भी है कि जिन्हें 'रोजगारशुदा' गिना जा रहा है, वे ज्यादातर कम वेतन पर काम कर रहे हैं, अनियमित काम कर रहे हैं और नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं है। जैसा कि न्यूज़क्लिक में पहले बताया गया था कि वेतन या अधिकतर वेतन 10,000 रुपये से 15,000 रुपये के बीच होता है। पहले के अध्ययनों से पता चला है कि व्यक्तियों का एक बहुत बड़ा हिस्सा 10,000 रुपये से कम कमाता है। वास्तव में, बढ़ती मुद्रास्फीति के कारण वास्तविक मजदूरी में गिरावट आई है।

यह बेरोजगारी से कैसे जुड़ा है? सबसे पहले तो, बड़े पैमाने की बेरोजगारी मजदूरी कम होने  का कारण बनती है क्योंकि हमेशा लोग कम मजदूरी में काम करने के इच्छुक होते हैं। हताशा कम वेतन और काम की कठिन परिस्थितियां इस किस्म की स्वीकृति को प्रेरित होती है। दूसरे, नियमित नौकरियों की कमी लोगों को केजूयल काम करने के लिए मजबूर करती है, जो अक्सर कई 'नौकरियों' को जोड़ते हैं, जिससे छोटी कमाई होती है। यह लोगों को 'स्व-रोजगार' के लिए भी मजबूर करता है, जिसका अर्थ अक्सर खुदरा व्यापार (सब्जियों आदि जैसे दैनिक उपभोग की वस्तुओं को बेचना) होता है, जो कम कमाई और अनिश्चित काम होता है। तीसरा, कम मजदूरी कई लोगों को पूरी तरह से नौकरी करने से हतोत्साहित करती है, जिसके परिणामस्वरूप कम श्रम भागीदारी दर होती है जिसे पहले बताया गया है।

यह स्थिति आम लोगों की तरक्की और उनके जीवन को नष्ट कर देती है, हालांकि कंपनी के मुनाफे के आंकड़ों के अनुसार, कॉर्पोरेट क्षेत्र कम वेतन के बिल और उच्च मुद्रास्फीति से हासिल मुनाफे के कारण सुनहरे दौर का आनंद उठा रहा है।

ऐसा लगता होता है कि केंद्र सरकार इस या उस कार्यक्रम/परियोजना के बारे में समय-समय पर कुछ शोर मचाने से संतुष्ट हो जाती है, जिससे कुछ हल्की-फुल्कि संख्या में नौकरियां पैदा होती हैं। लेकिन हक़ीक़त में, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार नौकरियां पैदा करने के अपने सबसे लोकप्रिय वादे को पूरा करने में विफल रही है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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