अमृत काल: बेरोज़गारी और कम भत्ते से परेशान जनता
पिछले पांच सालों में आर्थिक मंदी, महामारी और इस पर खस्ताहाल प्रतिक्रिया के चलते लगातार आर्थिक संकट गहराता जा रहा है। ऊपर से इस दौरान नरेंद्र मोदी सरकार को भी लोगों की स्थिति से कोई फर्क नहीं पड़ा, इससे भी हालात खराब होते गए। शायद लगातार चुनावी सफलता से मदमस्त सरकार लोगों की रहने की स्थितियों में सुधार को भुला चुकी है।
आज के सरकारी विमर्श में नौकरियों की तो चर्चा तक नहीं होती, जबकि बेरोजगारी दर 7 फीसदी के भयावह स्तर पर स्थिर हो चुकी है। ऐसा अक्टूबर 2018 से जारी है (जैसा नीचे चार्ट में बताया भी गया है। चार्ट के लिए आंकड़े सीएमआई द्वारा किए गए सर्वे से लिए गए हैं.)
"वी" आकार में अर्थव्यवस्था के सुधार होने या इसके पटरी पर वापस आने की बात बेमानी हैं, क्योंकि लोगों के लिए पर्याप्त मात्रा में नौकरियां ही उपलब्ध नहीं हैं। इस बीच काम करने लायक आबादी का प्रतिशत तेजी से गिरा है। इस वर्ग में वह लोग शामिल हैं, जो या तो काम कर रहे हैं या काम तलाश रहे हैं। 2017 जनवरी में यह स्तर 45 फ़ीसदी पर था, जो मार्च 2022 में गिरकर 40 फ़ीसदी पर आ गया। (नीचे चार्ट देखें)
इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि नौकरियों की कमी और बिना काम के बैठे रहने के चलते ज़्यादा से ज़्यादा लोग हतोत्साहित हो रहे हैं और वे नौकरी के "बाज़ार" को छोड़ रहे हैं। इनमें से एक बड़ा हिस्सा युवा लोगों का है, जिन्होंने या तो कोई कोर्स करना शुरू कर दिया है या कोई दूसरा अध्ययन शुरू कर दिया है, ताकि भविष्य में बेहतर नौकरियों के लिए वे खुद को तैयार कर सकें।
इन पांच सालों में भारत में कुल रोज़गार प्राप्त लोगों की संख्या, जनवरी 2017 के 40.1 करोड़ के आंकड़े से कम होकर 39.6 करोड़ पर आ गई है। जबकि इस बीच में भारत की आबादी 130.5 करोड़ से बढ़कर 137.4 करोड़ पर पहुंच गई है। यह आंकड़े जनगणना कार्यालय के अनुमानों पर आधारित हैं।
आय और नौकरियां
सीएमआईई के आंकड़ों के हालिया विश्लेषण दो अहम आयामों पर प्रकाश पड़ता है: अलग-अलग वर्ग के लोगों की आय और रोज़गार पर असर।
सबसे गरीब़ वार्षिक आय वर्ग (जिन परिवारों की सालाना आय एक लाख रुपये कम है)- इस वर्ग में 2019-20 में 9.8 फ़ीसदी परिवार आते थे। यह महामारी के पहले की बात है। 2021-22 तक इनकी संख्या बढ़कर 16.6 फ़ीसदी पहुंच गई। इस वर्ग में बेरोज़गारी दर कम है। सितंबर-दिसंबर 2019-20 में यह 4.1 फ़ीसदी थी, जो 2021-22 में इन्हीं महीनों में बढ़कर 4.8 फ़ीसदी पहुंच गई। लेकिन इस वर्ग में कार्य भागादारी दर बेहद कम है। यह महामारी के पहले 38.1 फ़ीसदी थी, जो 2021-22 में घटकर 31.3 फ़ीसदी रह गई। इस वर्ग में एक परिवार की औसत आय सालाना 53,000 रुपये है। मतलब यह लोग बमुश्किल ही गुजारा कर पा रहे हैं। साफ़ है कि बेरोज़गादी दर ही अपने आप में अपर्याप्त है।
निम्न मध्यम वर्ग (जिन परिवारों की आय एक से दो लाख रुपये के भीतर है): यह कुल परिवारों का 45 फ़ीसदी हिस्सा है। यह वर्ग, कुल रोज़गार प्राप्त लोगों में एक तिहाई हिस्सेदारी रखता है। महामारी के दौरान इसमें थोड़ी बढ़ोतरी हुई थी, लेकिन 2021 के अंत तक यह अपनी पिछली स्थिति में वापस आ गया। इसमें सबसे गरीब़ वर्ग की तुलना में श्रम भागीदारी दर थोड़ी बेहतर है, लेकिन अमीर वर्गों की तुलना में यह बदतर है।
मध्यम वर्ग (जिन परिवारों की वार्षिक आय 2 से 5 लाख रुपये के भीतर)- इन परिवारों की संख्या, कुल परिवारों की आधी है। वहीं आधे बेरोज़गार भी इसी वर्ग से हैं। यही वह वर्ग है, जो नौकरियां जाने से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है। इसमें श्रम भागीदारी 43 फ़ीसदी, मतलब ऊंची है। लेकिन बेरोज़गारी दर भी यहां 9 फ़ीसदी है।
ज़्यादा अमीर वर्ग- उच्च मध्यम वर्ग (जिन परिवारों की आय 5 से 10 लाख रुपये है) और अमीर (जिनकी आय 10 लाख रुपये से ज्यादा है), उनकी श्रम भागीदारी दर ज़्यादा बेहतर है, यह 46 फ़ीसदी है, यहां बेरोज़गारी दर भी 5 फ़ीसदी ही है। महामारी के दौरान इनकी बेरोज़गारी दर बेहद तेजी से ऊपर गई थी। लेकिन अब यह लोग वापसी कर चुके हैं। यही वह वर्ग है जो अर्थव्यवस्था के कमजोर "V आकार" वाले सुधार का गवाह बना है।
स्थिति की गहराई की झलक
गलतियां भी शामिल हैं। अकादमिक जगत में फीसदी हिस्सेदारी के जरिए वर्गीकरण लिया जाता है, लेकिन इस सर्वे में एक परिवार की वार्षिक आय के आंकड़े लिए गए हैं।
लेकिन इससे आय और नौकरियों के मामले में संघर्ष कर रहे भारत की बहुत कुछ स्थिति साफ हो जाती है।
सबसे हैरान करने वाली चीज कम आय का स्तर है। इस सर्वे के मुताबिक़, 57 फ़ीसदी परिवार सालाना 2 लाख रुपये कम कमाते हैं। मतलब महीने का 16,666 रुपये से भी कम। बिल्कुल, कई लोग तो इससे भी बहुत कम कमा पाते होंगे। 17 फ़ीसदी लोग महीने के 8,333 रुपये से कम कमाते हैं।
जैसा बताया गया है कि औसत वार्षिक आय एक लाख सत्तर हजार रुपये या चौदह हजार रुपये प्रति महीने है। सर्वे में यह पता नहीं चल पाया है कि इस आय को पाने के लिए कितने घंटे काम करना पड़ता है। लेकिन दूसरे सर्वे पर्याप्त सबूत देते हैं कि इसके लिए 8 घंटे से ज्यादा काम करना होता है।
इससे भी कथित "छुपी हुई बेरोज़गारी या प्रछन्न बेरोज़गारी" की स्थिति का पता चलता है। यह तब है जब लोगों को बहुत कम वेतन पर काम करने को मजबूर किया जा रहा है, क्योंकि उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। या तो वे भूखे रहें या फिर जो मिल रहा है, उसमें काम करें। यह अवधारणा सिर्फ़ गरीब़ वर्ग तक सीमित नहीं है। यहां तक कि तथाकथित मध्यम वर्ग, उच्च वर्ग भी बहुत कम वेतन के लिए काम कर रहे हैं और मोदी द्वारा प्रचारित अच्छे दिनों का इंतज़ार कर रहे हैं।
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