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गरीब छात्रों के लिए अभिशाप बनेगी बाज़ार परक शिक्षा

सरकार का असली मकसद तो सरकारी अनुदान से मुक्ति पाना है और उच्च शिक्षा को कार्पोरेट घरानों को सौंपना है जिससे उच्च शिक्षा भी मुनाफा बनाने वाली इंडस्ट्री बन सके।
Save Education, Save Democracy, Save Nation
Image Courtesy : Deccan Herald

दो सौ साल की गुलामी के बाद जब देश आजाद हुआ तो हमारे सामने कई चुनौतियाँ और सपने थे। उन चुनौतियों और सपनों को पूरा करने के लिये सँविधान को मुख्य आधार बनाया गया। जनता के मुख्य अधिकार शिक्षा पर विशेष बल देने पर जोर दिया गया और माना गया कि जब तक शिक्षा देश के जन जन तक नहीं पहुँचेगी तब तक देश के सर्वांगीण विकास की परिकल्पना असम्भव है। इसके लिये शिक्षा सँस्थानों की स्वायत्तता और शिक्षा में सरकारी निवेश पर विशेष जोर देने की बात कही गयी। जिससे गरीब और दबे पिछड़े लोग कम फीस में शिक्षा प्राप्त करके देश के विकास में अपना योगदान प्रदान कर सकें। लेकिन दुर्भाग्य से शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी निवेश में लगातार कमी आयी है। खासतौर पर खुली अर्थव्यवस्था और भूमण्डलीकरण के दौर के आने के बाद। अचानक विश्व बैंक का दखल विभिन्न देशों की नीतियों को प्रभावित करने लगा। निजीकरण की बाढ़ सी आने लगी। मुनाफा आधारित अर्थव्यवस्था को सरकार से तरजीह मिलने लगी। बिना निजीकरण के मुनाफा आधारित अर्थ व्यवस्था की परिकल्पना असम्भव है।

जहाँ मुनाफा होगा वहाँ शोषण होगा, एकाधिकार और आम लोगों के लिये उपभोग की वस्तुओं का दाम बढ़ना तय है। वैसे कहा जाता है कि निजीकरण की प्रक्रिया से प्रतिस्पर्धा की भावना को बढ़ावा मिलता है और विकास के लिये यह बहुत जरुरी है। यह मिथ्या प्रचार ही लगता है क्योंकि अगर भारत की बात करें तो निजीकरण की प्रक्रिया से एकाधिकार, उपेक्षा, शोषण और महंगाई को बढ़ावा ही मिला है। देश के वँचितों को इस नीजीकरण की प्रक्रिया से फायदे की जगह भारी नुकसान हो रहा है चाहे वह कृषि का क्षेत्र हो, स्वास्थ्य का क्षेत्र हो या शिक्षा का क्षेत्र हो। एक तरह से यह निजीकरण की प्रक्रिया दो तरह के भारत निर्माण में अपनी प्रमुख भूमिका निभा रही है। वो भी समय था जब सरकारी स्कूल निजी स्कूलों से अच्छा माना जाता था और अमीर गरीब सब एक जगह कम फीस देकर पढ़ते थे और अच्छी शिक्षा प्राप्त करते थे। सरकार धीरे धीरे पूँजी निवेश में कमी करने लगी और सरकारी स्कूल दीन-हीन हाल में पहुँचते गये। पुराने अच्छे शिक्षक सेवानिवृत्त होते चले गये और सँविदा पर शिक्षक रखे जाने लगे। परिणामस्वरूप निजी सँस्थानों की चाँदी हो गयी और देश में पब्लिक स्कूलों की बाढ़ सी आ गयी। स्कूली शिक्षा महंगी होती गयी। गरीब लोगों के बस का नहीं रह गया कि वो अपने नौनिहालों को इन पब्लिक स्कूलों में पढ़ा सकें। अमीर लोगों ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजना लगभग बन्द सा कर दिया। सारे के सारे निजी स्कूल या तो नेताओं के हैं या बड़े बड़े व्यापारियों के हैं। भारी फीस बच्चों से अच्छी शिक्षा के नाम पर वसूली जा रही है। अब गरीब परिवारों को अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना असम्भव है। इन नीतियों का विरोध करने वाली ट्रेड यूनियन्स को लगातार कमजोर करने का काम किया गया जिससे शिक्षा के अधिकारों की रक्षा करने की आवाजें आजकल लगभग मृतप्राय हो गयी हैं। इसको एक उदाहरण से समझा जा सकता है। एक जमाना था जब बैंक की नौकरी सबसे प्रतिष्ठित नौकरीयों में से एक थी। जब निजीकरण का जमाना आया और अन्तर्राष्ट्रीय बैंक भारत के दरवाजे पर दस्तक दे रहे थे उस समय कैसे इनको एन्ट्री दी जाय उस समय सरकार के सामने सबसे बड़ी बाधा बैंक की ट्रेड यूनियन्स थी। कर्मचारियों को जबरदस्ती वीआरएस देकर छंटनी की गई। किस तरह से इन ट्रेड यूनियन्स को कमजोर किया गया। एक इतिहास है। आज प्राइवेट बैंक की भरमार है और गिने चुने सरकारी बैंक ही बचे हैं। उनकी क्या हालत है किसी से छिपी हुई नहीं है। ऐसा ही कुछ स्वास्थ्य क्षेत्र में भी हुआ। दवाइयाँ महंगी हुई हैं और निजी अस्पतालों की खुली लूट जारी है। सरकारी अस्पताल बेहाल हैं। सरकारें दरअसल ट्रेड यूनियन्स से डरती हैं और इनको हमेशा ठिकाने लगाने की जुगत में रहती हैं। जिस तरह से पूरे भारत वर्ष की शिक्षा व्यवस्था सँक्रमण काल से गुजरते हुये निजीकरण और व्यापारिकरण की तरफ बढ़ रही है उसके लिये पूर्ववत और वर्तमान सरकारें जिम्मेदार हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी निजीकरण की प्रक्रिया सतत जारी है। अब सरकार का अन्तिम दाँव सरकारी फन्डिंग के तरीके को बदल कर हेफा के तहत लोन आधारित फन्डिंग करना है। जिसमें यूजीसी की जगह एक निजी बैंकिंग सँस्था शैक्षिक सँस्थानों को उधार आधारित फन्डिंग करेगी। सँस्थान उधार आधारित फन्डिंग से जो इन्फ्रास्ट्रक्चर उत्पन्न करेगी उससे कमाई करके लिये गये उधार को एक निश्चित ब्याज दर पर वापस करेगी।

अभी हाल में ही सामान्य वर्ग को सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण दिया गया है। यह छात्रों के एड्मीशन पर भी लागू होगा। स्पष्ट है कि अगले सत्र में छात्रों की सँख्या बढ़ेगी तो उसके लिये और सँसाधन, शिक्षक और कर्मचारियों की जरूरत होगी। मतलब और फँड की व्यवस्था करनी होगी। सँस्थानों को हेफा के तहत फन्ड लेने को कहा जा रहा हैः

स्वायत्तता का मुद्दा एक साज़िश

आटोनामस (स्वायत्त) कालेज का मुद्दा शिक्षा के निजीकरण की प्रक्रिया का एक भाग भर है। इसके साथ जुड़ी हुयी है रैंकिंग जिससे जुड़ी हुयी है फन्डिंग। शिक्षा संस्थानों को अपना खर्च खुद उठाने के लिये बाध्य करना लगता है सरकार की नीयत सी बन गयी है। इसके लिये स्व वित्तपोषित विषयों का खुलना लगातार जारी है। जिसके परिणाम स्वरूप फीस में कई गुना वृद्धि होना तय है। देश के अधिकतर विश्वविद्यालय एमओयू पर हस्ताक्षर कर चुके हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में भी एमओयू का मुद्दा कार्यकारी परिषद में रखा जा चुका है जिसको वीसी अगली मीटिंग में पास कराने की कोशिश करेंगे। इस एमओयू में सँस्थानों को मनमर्जी से बच्चों की फीस बढ़ाने का प्रस्ताव है। इसके पास होते ही सँस्थान मनमर्जी से बच्चों की फीस बढ़ाने के लिए स्वतन्त्र होंगे। भविष्य में जो छात्र फीस नहीं दे सकेंगे उनके  लिये एजुकेशन लोन उपलब्ध होगा। गरीब पिछड़े परिवेश वाले बच्चों का पढ़ना मुश्किल हो जायेगा। फायदा किनका होगा? विदेशी बैंकों का जो कम ब्याज दर पर लोन मुहैया करायेंगे। भारतीय बैंको के बस का इतने कम ब्याज पर लोन देना सम्भव नहीं होगा। जो गरीब बच्चे लोन नहीं ले पायेंगे उनके लिये आनलाइन कोर्सेस होंगे। यही तो विश्व बैंक की परिकल्पना थी। पिटे हुए विदेशी बैंकों को तन्दरुस्त करना। हमारी सरकारें लगातार शिक्षा के आमूलचूल परिवर्तन के नाम पर विश्वबैंक के जाल में फँसती रही है। सरकार ने अभी हाल में ही एक अध्यादेश में कहा है कि सातवें वेतन आयोग का जो अतिरिक्त भार आयेगा उसमें से 30 प्रतिशत हर सँस्थान को खुद वहन करना होगा। अगर देखें तो इससे सातवें वेतन आयोग के क्रियान्यवन में मुश्किल आयेगी। वैसे भी फन्डिंग से सभी चीजें जुड़ी हुयी हैं चाहे वो सर्विस कन्डीशन्स हों या नियुक्तियाँ हों, प्रमोशन हों या पेन्शन हो। फन्डिंग भी रैंकिंग के हिसाब से होगी। अगर निम्न रैंक्ड सँस्था है तो सरकार उसको बन्द करने की सँस्तुति दे सकती है। ऐसी स्थिति में गाँव देहात के शिक्षा सँस्थानों का बन्द होना तय है। सनद रहे कि रैंकिंग निश्चित नहीं है, एक निश्चित अन्तराल के बाद परफारमेन्स के आधार पर रैंकिंन्गस का बदलना तय स्ववित्तपोषित कोर्सेस खुलेंगे। फीस बढ़ेगी। सर्विस कन्डिशन्स बदलेंगी। विश्वविद्यालय और यूजीसी अधिनियम में बदलाव होंगे। हर सँस्थान में दो तरह की शिक्षा व्यवस्था होगी, दो तरह के छात्र होंगे और दो तरह की शिक्षा पद्धति होगी। कुछ समय के बाद सँस्थानों को आटोनामस से डीम्ड का स्टेटस लेने की छूट होगी।

अब आती है असली बात जो है स्वायत्तता के सँदर्भ में। सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी एक्ट के तहत इस स्वायत्तता को खत्म करने की तैयारी है। सरकार सारा नियन्त्रण अपने पास रखना चाहती है। गुजरात मॉडल एक्ट इसका अच्छा उदाहरण है। सरकार शिक्षा के केन्द्रीयकरण की ओर तेजी से बढ़ रही है। क्या पढ़ाना है, किससे पढ़ाना है, क्या सिलेबस बनाना है, अगर कोई पसन्द ना हो उसको मोबाइल कर देना है, कोई इलेक्टेड बाडी सँस्था में नहीं होगी, मुक्त सोच और आवाज के लिये कोई जगह नहीं होगी। सरकारें अपने राजनीतिक एजेन्डे के तहत शिक्षा व्यवस्था को नचायेंगी।

महिलाओं, दलित, ट्राइब्स का ग्रास एनरोलमेंट अनुपात गुजरात में निम्नतम स्तर पर है। इस शिक्षा के मॉडल को देशव्यापी स्तर.पर आत्मसात करने पर क्या होगा? सोचनीय प्रश्न है। सामाजिक न्याय के मामले पर यह शिक्षा मॉडल बिल्कुल खामोश है। निजीकरण, व्यापारीकरण के जरिये शिक्षा को तबाह करने की ओर सरकार वर्ल्ड बैंक के तत्वावधान में पूरे मन से अग्रसर है। आज जो कुछ भी उच्च शिक्षा के साथ हो रहा है बारहवें प्लान को पढ़कर ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकते हैं। खतरे सामने हैं, सरकार मजबूत है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार की जरूरत नहीं है बिल्कुल है। लेकिन जो भी ढांचा लाया जाये उसका खुलकर गुणदोषों के आधार पर विचार विमर्श हो और उसको समयबद्ध तरीके से लागू किया जाये। दिल्ली विश्वविद्यालय का उदाहरण लें तो जिस तरह से एफवाइयूपी, सेमेस्टर और सीबीसीएस क़ो बिना मँत्रणा किये पास किया गया, सबके सामने है। सीबीसीएस को सरकार द्वारा लाना और लागू करना, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक खतरनाक कदम था। सीबीसीएस में वर्कलोड को स्थिर नहीं रख सकते। इसका सबसे बड़ा कुप्रभाव तदर्थ शिक्षकों पर हुआ है। हर वर्ष शिक्षा पद्धति को बदलना कहाँ की समझदारी है पहले वार्षिक स्कीम से सेमेस्टर फिर सेमेस्टर से चार सालाना फिर चार सालाना से सीबीसीएस। यह विद्यार्थियों और शिक्षकों के साथ मज़ाक नहीं तो और क्या है। अगर सरकारों की नीयत में खोट नहीं है उसको इतने बड़े बदलाव को लाने की जल्दी क्या थी। क्यों नहीं ठीक से रायशुमारी और बहस कर और उचित समयान्तराल में इसको लागू करने का प्रयास किया गया। आज यह बात सत्यापित हो गयी है कि पुराना वार्षिक कार्यक्रम ही छात्रों के हित में था। छात्रों को विषय को समझने का भरपूर समय मिलता था। निजी संस्थानों में शिक्षकों और विद्यार्थियों के क्या हालात हैं, यह किसी से छुपा नहीं है। वहाँ शिक्षकों की क्या हालत है उनको कितनी तनख्वाह मिलती है? भारत वर्ष में कितने विद्यार्थी हैं जो बाहर विदेशों जाकर पढ़ते हैं? हमारे यहाँ विद्यार्थियों का ग्रुप साइज कितना होता है? हमारे यहाँ इंफ्रास्ट्रक्चर का क्या हाल है? शिक्षक और विद्यार्थी अनुपात क्या है?

यह सरकार द्वारा मृतप्राय बुर्जुआ प्राइवेट शिक्षा संस्थानों को पुनर्जीवित करने का एक प्रयास और अच्छे खासे सरकारी संस्थानों को बर्बाद करने का प्रयास भी है।

आज सरकारों ने शिक्षा को अपनी नीतियों से ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जहाँ से समाधान का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा है। हर तरफ तबाही का आलम है चाहे वो शिक्षकों की बात हो, विद्यार्थियों की बात हो या कर्मचारियों की बात हो। शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक,विद्यार्थी और कर्मचारी एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे के बिना किसी की कोई गति नहीं है। आज निजीकरण और व्यापारिकरण की सरकारी नीतियों ने इन सभी को कहीं न कहीं बुरी तरह से प्रभावित किया है। लगातार उठती आवाजों के बावजूद सरकार मूकदर्शक बनी हुयी है और निजीकरण परक नीतियाँ लादने को तत्पर है। सरकार का असली मकसद तो सरकारी अनुदान से मुक्ति पाना है और उच्च शिक्षा को कार्पोरेट घरानों को सौंपना है जिससे उच्च शिक्षा भी मुनाफा बनाने वाली इन्डस्ट्री बन सके।

छात्रों की बात

मैं पहले अपनी बात विद्यार्थीयों से शुरू करुँगा। जब मैं विद्यार्थीयों की बात कर रहा हूँ तो इसमें समाज के सभी वर्गों के विद्यार्थियों की बात समाहित है चाहे वो किसानों के बच्चे हों, गरीबों के बच्चे हों या दलित आदिवासियों के बच्चे हों। इस महंगाई के जमाने में सुदूर क्षेत्रों से गरीब परिवारों के बच्चे सरकारी सँस्थानों में पढ़ने आते हैं। सब जगह छात्रावास की सुविधा नहीं है। किराये पर मकान लेकर रहते हैं। एक कमरे का किराया कम से कम 8000 रुपये है। कई बच्चे मिलकर एक कमरे को शेयर करते हैं। ऊपर से खाने पीने, किताब कापी का खर्चा कम से कम 7000 रुपया है। ऊपर से कालेज की फीस। जब माता पिता अपने बच्चों को पढ़ाई के लिये कालेज भेजते हैं तो उनको सिर्फ कालेज की फीस ही नहीं देनी पड़ती बल्कि महंगाई के जमाने में उसे अन्य खर्चे भी करने पड़ते हैं। अधिकतर सँस्थानों में हॉस्टल सुविधा नहीं है। बच्चों को किराये के मकान में रहना पड़ता है। कुल मिलाकर विद्यार्थियों को कम से कम 15,000 से 20,000 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। तीन साल का कोर्स करने में एक विद्यार्थी के ऊपर तीन से चार लाख के बीच खर्च आता है। अगर फीस बढ़ेगी तो क्या हाल होगा आसानी से समझ सकते हैं। एक गरीब माँ बाप कैसे अपना पेट काटकर अपने बच्चों को पढ़ाता है सोचनीय प्रश्न है। अगर ऐसे में विद्यार्थियों को सुविधा न मिलें, प्रयोगशाला न मिले, पर्याप्त मात्रा में शिक्षक न मिलें तो यह उन विद्यार्थीयों के साथ भी अन्याय है।

आज क्लास रुम अध्यापन एकदम खत्म होने को है। एक तरफ शिक्षकों की कमी के चलते तथा दूसरी तरफ रैंकिंग की प्रथा चलने के कारण। आज अलग अलग तरह की रैंकिंग एजेन्सियाँ बाजार में आ गयी हैं। सबके अपने पैरामीटर्स हैं। उनके द्वारा दिये गये पैरामीटर्स को येन केन प्रकारेण पूरा करने की होड़ लगी है। सरकारी पैसे की खुलेआम बरबादी हो रही है। प्राचार्यों के आदेशानुसार सारे शिक्षक रैंकिंग की प्रक्रिया को पूरा करने में लगे रहते हैं। जब कक्षा नहीं होती तो ये बच्चे ट्यूशन पर भी खर्चा करते हैं। सरकारें अपनी नितियों से स्पष्ट करती जा रही हैं कि वो ज्यादा से ज्यादा स्ववित्तपोषित आधार पर विषयों को खोलना चाहती है जिससे सँस्थान के विद्यार्थियों से मनमानी फीस वसूल कर सकें। बदले में सरकार अपनी फँडिंग इन सँस्थानों को कम कर सके। गरीब विद्यार्थियों के लिये पढ़ाई एक दूभर विषय बनता जा रहा है। एक एक क्लास में सौ सौ विद्यार्थी पढ़ते हैं। उचित सँसाधन पढ़ने के लिये मौजूद नहीं हैं। लैब स्टाफ नहीं हैं। हैं भी तो विद्यार्थियों की सँख्या के हिसाब से बहुत कम। रिसर्च स्कालर्स को फन्डिंग कम होने की वजह से रिसर्च करने में बाधायें आ रही हैं। बिना इन चीजों पर ध्यान रखते हुये नीतियों का गठन हो रहा है जिससे सरकारी सँस्थानों को निजी किया जा सके और मनमानी फीस वसूली जा सके। आज कम सरकारी फीस के होने के बावजूद गरीब परिवारों को उनके बच्चों को साहूकारों अथवा बैंक से कर्ज लेकर पढ़ाना पड़ रहा है। पूर्ण निजीकरण की स्थिति में क्या हाल होगा सोचनीय प्रश्न है। गरीबों परिवारों के बच्चों का  पढ़ना मुहाल हो जायेगा।शिक्षा सँस्थान सिर्फ कुलीन लोगों की जागीर बन कर रह जायेंगे।

शिक्षकों की स्थिति

शिक्षक जो कि एक लम्बी तपस्या के बाद इस क्षेत्र में पदार्पण करता है। स्नातकोत्तर होने के बाद वो नेट पास करता है फिर रिसर्च करता है ।लगभग तीस साल की आयु में वो शिक्षण के क्षेत्र में आता है। इसके अलावा कोई ऐसा प्रोफेशन नहीं है जिसमें इतनी लेट एन्ट्री हो। फिर उसको कई साल तदर्थ/सँविदा/ठेके पर पढ़ाना पड़ता है वो भी औने पौने पारिश्रमिक पर। कोई सुविधा नहीं, एलाउन्स नहीं। औसतन पैंतीस से पैंतालीस साल के बीच की उम्र में स्थायी हो पाता है।तदर्थ अवस्था में वह गुलामी करने को मजबूर है।

रोज रोज बदलती सरकारी नीतियाँ इसके लिये पूरी तरह से जिम्मेदार हैं। जिससे स्थायी पद भरे नहीं जा सके हैं और जिस तरीके से आगे की निजीकरण परक नीतियाँ आ रही हैं जैसे कि कान्ट्रैक्चुअलाइजेशन, लगता है भरना सम्भव भी नहीं होगा। सामाजिक न्याय को धता बता कर फिर से विभागवार रोस्टर को लागू करने की कोशिशें जारी हैं। सौ सौ विद्यार्थीयों को एक एक शिक्षक पर लाद दिया गया है। इनका इन्टर्नल एसेसमेन्ट, इनका टेस्ट इत्यादि इत्यादि। सब कुछ याँन्त्रिक सा हो गया है। क्वालिटी एजुकेशन के लिये जगह ही नहीं बची है। दिल्ली विश्वविद्यालय में कुछ तदर्थ शिक्षक तो बिना स्थायी हुये ही सेवानिवृत्त हो गये। स्थायी शिक्षकों की स्थिति कोई जुदा नहीं है। पदोन्नति वगैरह न होने से उनमें घोर निराशा है। पदोन्नत 2008 से एपीआई, तीसरे, चौथे सँशोधनों और नये रेगुलेशन के बीच फँसकर रह गयी है। लाइब्रेरियन, फिजीकल एजुकेशन और एकेडिमिक स्टाफ को नानटीचिंग करने की नीतिगत बदलाव है ही 2004 के बाद पेन्शन शिक्षकों से छीन ली गई। नयी पेन्शन योजना का सामाजिक सुरक्षा से कोई लेना देना नहीं है बल्कि यह म्यूचुअल फन्ड की तरह ही एक बचत योजना मात्र है। कितनी बचत होगी यह भविष्य के शेयर मार्केट की स्थिति पर निर्भर करेगा। कोई व्यक्ति जीवन भर बचत करेगा और बुढ़ापे में उसको पता लगेगा कि उसके बचत की वैल्यू कुछ भी नहीं। तब तक निजी कम्पनियाँ आपके बचत के पैसे पर कब्जा जमाकर बैठेंगी और उससे मुनाफा कमायेंगी। मतलब सब तरफ से उद्योगपतियों की पौ बारह और कर्मचारी के लिये कुछ नहीं। अमेरिका परस्त  मुनाफा आधारित इस व्यवस्था में सामाजिक सुरक्षा की स्थिति बहुत कमजोर हो चुकी है। कई देशों में आन्दोलन के बाद इस नयी पेंशन योजना को पलटा जा चुका है।

शिक्षकों की सँख्या कम होने की वजह से मजबूरन दूसरे क्लेरिकल टाईप कामों में फँसने से अध्यापन कार्य बाधित हो रहा है। जिसका सीधा असर विद्यार्थियों पर पड़ रहा है और शिक्षकों का भी मोराल घट रहा है। जल्द से जल्द खाली पदों को भरा जाये और निजीकरण परक नियमों में सतत बदलाव की वजह से शिक्षकों को जो समस्यायें झेलनी पड़ रही हैं उन बाधाओं को त्वरित रुप से दूर करने का प्रयास हो। विद्यार्थियों के साथ न्याय हो सके इसके लिये शिक्षकों को उनका न्यायोचित अधिकार दिलाना जरूरी है।

कर्मचारियों का हाल

शिक्षा सँस्थानों के कर्मचारी भी आजकल बुरे दौर से गुजर रहे हैं। ठेका प्रथा की शुरुवात के बाद कर्मचारियों को 15,000 रुपये की मासिक आय पर ठेके पर नियुक्त किया जा रहा है। पुराने कर्मचारी सेवानिवृत्त हो रहे हैं जो स्थायी कर्मचारी बचे भी हैं उनकी प्रमोशन नहीं हो रहा है। जो कर्मचारी पिछले कई वर्षों से तदर्थ रूप में काम कर रहे थे उनको तदर्थ से हटाकर ठेके पर कर दिये गये हैं। भर्ती की उम्र 28 साल तय कर देने की वजह से इनकी नौकरी को खतरा पैदा हो गया है। दस दस बारह बारह साल सँस्थानों को देने के बाद ये कर्मचारी कहाँ जायेंगे सोचनीय प्रश्न है। इनकी सेवा शर्तें ऐसी हैं कि ये अपने साथ हुये अन्याय के खिलाफ मुँह भी नहीं खोल सकते। कभी कभी प्रशासन की मनमानी झेलने को भी बाध्य होते हैं। लैब्स में कर्मचारियों की सँख्या कम होने से प्रयोगात्मक कार्यों में बाधा आ रही है।

शिक्षा व्यवस्था के बुरे हाल का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बेरोजगारी के जमाने में चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों के लिये भी एमबीए और पीएचडी धारक बड़ी सँख्या में अप्लायी कर रहे हैं। पूरे देश में बेरोजगारी का क्या आलम है ये बताने की जरूरत नहीं है।

अगर शिक्षा व्यवस्था में कुछ गुणात्मक बदलाव की पहल सरकार को करनी है तो उसको बाजार परक गरीब विरोधी नीतियों को छोड़कर नये सिरे से इसके विभिन्न पहलुओं पर विचार करना होगा। शिक्षा में सरकारी फन्डिंग को बढ़ाना होगा (कम से कम दस प्रतिशत), शिक्षकों और कर्मचारियों को बड़ी सँख्या में स्थायी करना होगा। सँसाधनों का विस्तार करना होगा। शिक्षा व्यवस्था के विभिन्न अव्यवों को भी एक जुट होकर सरकार पर भारी दबाव बनाने की जरुरत है। यूजीसी को प्राचार्यों को बुलाकर आटोनामी पर वर्कशाप करने की जगह शिक्षा के बिगड़ते हालात को कैसे दुरूस्त करें इसपर वर्कशाप और परिचर्चा आयोजित करनी चाहिये। अगर जल्दी ही कारगर कदम नहीं उठाये गये तो और ज्यादा भयावह परिणामों की आशँका है। मगर सरकार  ऐसे ही नहीं मानने वाली है। उसके लिये देश भर की ट्रेड यूनियन्स को मिलकर सरकार पर दबाव बनाना होगा। छात्रों, शिक्षकों, कर्मचारियों को एक होकर सड़कों पर  उतरना होगा और शिक्षा को देशव्यापी मुद्दा बनाना होगा। आन्दोलन करने पड़ेंगे जिससे सरकार पर दबाव बने और वो माँगे मानने को तैयार हों।

(लेखक एक शिक्षक हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़े हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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