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संघर्ष-क्षेत्र में जीने का अनुभव

"रयूमर्स ऑफ़ स्प्रिंग: अ गर्लहुड इन कश्मीर" फ़राह बशीर के 90 के दशक में श्रीनगर में बिताए अनुभवों का ज़िक्र करने वाली किताब है।
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"रयूमर्स ऑफ़ स्प्रिंग: अ गर्लहुड इन कश्मीर" फ़राह बशीर के 90 के दशक में श्रीनगर में बिताए किशरावस्था के अनुभव बताती किताब है। आज जब भारतीय सैनिक व उग्रपंथी कश्मीर के सभी शहरों में जूझ रहे हैं और हिंसा एक नया सामान्य नियम बन चुका है, तब एक युवा लड़की के लिए बहुत आम से काम, जैसे- परीक्षाओं के लिए पढ़ना, बस स्टॉप तक जाना, अपने बालों में कंघी करना, सोना, यह काम भी चिंता और डर के साये में होते हैं।

पिछले कुछ सालों में कश्मीर में उपजे बेहद भयावह स्तर के तनाव और चिंता के बीच फ़राह बशीर बेहद साधारणता से अपनी किशोर वय से कुछ अनुभव साझा कर रही हैं- चाहे वे प्रतिबंधित रेडियो स्टेशन में पॉप गानों पर नाचना हो, अपना पहला प्रेम पत्र लिखना हो, पहली बार सिनेमा जाना हो, इन सारी घटनाओं को वे बेहद डराने वाली साधारणता के साथ पेश करती हैं।

स्वतंत्र रिसर्चर, लेखक, महिला अधिकार कार्यकर्ता सहबा हुसैन के साथ बात करते हुए बशीर अपने संस्मरण और दूसरी घटनाओं को याद कर रही हैं।

सहबा हुसैन : आपका जन्म और परवरिश कश्मीर में हुई। "रयूमर्स ऑफ़ स्प्रिंग" आपकी पहली किताब है, एक ऐसा संस्मरण, जो हिला देने वाली साधारणता, साहस और लावण्यता के साथ लिखा गया है। इसे पढ़ते हुए महसूस होता है कि कैसे कश्मीर में सैन्यकरण और उग्रवाद के चलते आम लोगों की रोजमर्रा की जि़ंदगी प्रभावित होती है। इस किताब का विचार कब गढ़ना शुरू हुआ?

फ़राह बशीर : मैं 14 साल की उम्र में जर्नल रखती थी। नब्बे के दशक की शुरुआत में हमारे स्कूल लगातार नहीं खुलते थे, ऐसे में हमारी डॉयरी बिना इस्तेमाल के ही खाली रह जाती थी। हर पन्ना, 2 दिन के लिए 2 हिस्सों में बंटा हुआ रहता था। मैंने लगातार पन्ने पर पन्ने भरना शुरू कर दिया। जब मैंने यह काम पहली बार चालू किया, तब हर घंटे पर जिंदगी बदल रही थी और पूरी जिंदगी को समेटना संभव नहीं था। तो मैंने छोटी-छोटी जानकारियां इकट्ठा करना शुरू कर दिया। जैसे- अपनी बहनों और रिश्ते के भाई-बहनों के साथ कैरम गेम में हारना या मेरे एक रिश्तेदार का अंतिम संस्कार, जिसमें मैं रो नहीं पाई थी। मैंने अपनी यादों का खाता रखा है। 

कुछ साल बाद, मैंने शौकिया कविता लिखना भी शुरू कर दिया। एक बार मुझे शोकगीत लिखने की प्रबल इच्छा हुई। मैंने इसे बहुत दबाने का प्रयास किया, लेकिन मैंने शोकगीत लिखे और तीन दिन बाद मेरी दादी बोबेह का निधन हो गया। उसी हफ़्ते मैंने जो 88 कविताएं लिखी थीं, उन्हें जला दिया। लेकिन चीजों का बही-खाता लिखने का काम जारी ऱखा। चाहे यह किसी की शारीरिक बनावट, उसके बोलने के तरीके या अजीबो-गरीब़ आदतों  का परीक्षण हो, मेरा दिमाग यादों का समेटने के लिए प्रशिक्षित हो गया। 

आखिरकार 2005 से 2008 के बीच जब मैं सिंगापुर में ग्लोबल पिक्चर्स डेस्क, रॉयटर्स के लिए काम रही थी, तब मैं इराक़ और फिलिस्तीन से आने वाली ख़बरों का संपादन करती थी, मेरी कई यादें अचानक उभरने लगीं। मैंने उस वक़्त का इस्तेमाल कश्मीर पर बहुत पढ़ने के लिए किया और समझने की कोशिश की, कि नई दिल्ली के खिलाफ़ हथियारबंद विप्लव शुरू होने के बाद हम किन हालातों में रह रहे हैं। जब मैं काम कर रही थी, तो मुझे याद है कि मैंने एक शिकारा पर बैठी विचारमग्न लड़की की तस्वीर टाइम्स स्कवॉयर को भेजी थी (तब रॉयटर्स के पास उस तक सीधा प्रवेश था)। तब मेरे एक संपादक ने टिप्पणी करते हुए कहा कि जब मूल तस्वीर का आकार कई गुना बड़ा किया जाएगा, तब यह काफ़ी विकृत दिखेगी। उस वक़्त मेरे पास इसका जवाब नहीं था। लेकिन मैं भीतर से जानती थी कि मैं उस पल में अपने तरीके से दुनिया का ध्यान कश्मीर में लोगों द्वारा भुगते गए और भुगते जा रहे हालातों की तरफ़ केंद्रित करना चाहती थी। 2008 में जब मैंने रॉयटर्स छोड़ा, तब मैंने लिखना शुरू कर दिया। मैंने 2 पांडुलिपियां खारिज़ कर दीं। लेकिन मेरा निश्चय मजबूत होता गया, खासकर 2010 और 2016 में यह काफ़ी दृढ़ हुआ। किशोरों की हत्या ने मुझे एक अवयस्क लड़की का इतिहास खोजने के लिए प्रेरित किया, जो दूसरी लड़कियं की तरह युद्ध से बच के आई थी।

सहबा हुसैन: किताब नब्बे के दशक में श्रीनगर में बिताए आपके किशोरवस्था के दिनों के बारे में है। क्या आपके पास उग्रवाद से पहले की श्रीनगर की यादें हैं?

फ़राह बशीर : हर तरीके से यह यादें प्रचंड हैं। मैं डॉउनटॉउन श्रीनगर के ओल्ड क्वार्टर्स में बड़ी हुई। यहां बड़े होने का मतलब है कि पारंपरिक चीजों को सुनना, अनूठे तरीकों और परंपरांओं का पालन करना, जिनमें से कई रेशम मार्ग से होते हुए हज़ारों किलोमीटर दूर से आई हैं। वहां इतिहास और मौजूदा राजनीति का गहरा भान है। वह इलाका राजनीतिक गतिविधियों का भी केंद्र है। चाहें 80 के दशक के आखिर में चुनावों में फर्जीवाड़ा या 80 के दशक के मध्य में पिच खोदने वाली बात हो या "लॉयन ऑफ़ डेज़र्ट" के रिलीज़ होने के बाद हुए विरोध प्रदर्शन, यहां राजनीतिक हवा हमेशा प्रबल रही है। 

90 के दशक से बहुत पहले अनिश्चित्ता और अस्थिरता हमारी ज़िंदगी का हिस्सा रही है। 1989 के बाद यह इलाका बहुत ज़्यादा अशांत हो गया। वहां परवरिश का मतलब है हमारे जैसे बच्चों और वयस्कों के लिए माहौल काफ़ी ज़्यादा संवेदनशील हो गया। यह वह दशक था, जब हर घंटे पर जिंदगी और घटनाएं बदल जाती थीं। ना केवल वहां खुद का अस्तित्व ख़तरे में था, बल्कि उन सालों में हमें अपनी संस्कृति और ज़मीन की निरंतरता बनाए रखने की भी चुनती थी। 

एक युवा लड़की के लिए वह घटनाएं डरावनी, उनसे बचकर छुप जाने और निकल जाने का बेहद व्यग्र अनुभव था। लेकिन वहां भाषायी प्रवाह की कमी थी, जिसके ज़रिए बड़े पैमाने पर हो रहे बदलाव को समझने के लिए सवाल गढ़े जा सकें। उन घटनाओं के बारे में बात करने से पहले कई साल तक उन प्रक्रियाओं को आत्मसात करना पड़ा था। 

सहबा हुसैन: आपने किताब में खुद के बाल तोड़ने और खुद के ऊपर अथाह दर्द की जो कहानी बताई थी, इससे मैं जड़ होकर रह गई, क्योंकि मैं श्रीनगर में साइकियाट्रिक हॉस्पिटल में डॉक्टरों से मिली हूं, जो किशोर लड़के और लड़कियों के लिए इसी तरह की काउंसलिंग कर रहे थे। आपके इस पर क्या विचार हैं कि क्या कश्मीर में सदमे से हने वाले अनुभव इतने सामान्य हैं कि उन्हें परिवार, समुदाय और समाज वाले समझते हैं? आपके मुताबिक़ सदमा झेल चुके लोगों को उबरने के लिए क्या जरूरी है?

फ़राह बशीर : महिलाओं की ज़िंदगी उस सामाजिक इतिहास का हिस्सा है, जिसे नज़रंदाज नहीं किया जा सकता। युद्ध या संघर्ष में रहने के बावजूद, इस दुनिया की सारी सांसारिक और सामान्य चीजें आम लोगों की जिंदगियों में हैं। एक समाज की गहराई को जानने के लिए, यह पता करने के लिए कि सैन्यकरण ने समग्र तौर पर लोगों के साथ क्या किया है, आम महिलाओं की जिंदगियों का परीक्षण किया जाना जरूरी है। उनके शरीर का इस्तेमाल लोगों को शर्म महसूस कराने और दबाने के लिए हो सकता है। बड़े प्रभावों के बीच इस तरह के नुकसान का कोई ब्योरा ही नहीं रखा गया। 

सहबा हुसैन: आपने कश्मीर कब छोड़ा और इसका आपके और आपके परिवार के लिए क्या मतलब है?

फ़राह बशीर : कोई भी कभी अपना घर नहीं छोड़ता। दूसरे हज़ारों युवा लड़कों और लड़कियों की तरह मैं भी पढ़ने गई थी। हमारे माता-पिता ने हर चीज के ऊपर अध्ययन को प्राथमिकता दी। मेरी मां अक्सर कहती थीं, "पारनेह खाएतेरे अगराई चीन पेय्यी गाकजुन, गाकजुन गाकज़ी। (अगर पढ़ने के लिए किसी को चीन भी जाना पड़े, तो जाना चाहिए)" चीन के सबसे पास सिंगापुर है, तो शायद इसलिए मुझे उन्होंने वहां भेजा।

सहबा हुसैन: क्या आपने अनुच्छेद 370 के ख़त्म होने के बाद कश्मीर की यात्रा की है? इस निरसन और कश्मीर-कश्मीरियों पर इसके प्रभाव पर अपने विचार बताइये?

फ़राह बशीर : अपनी उम्र के आठवें दशक में चल रहे मेरे माता-पिता और मेरा सारा परिवार-रिश्तेदार वहां रहते हैं। मैं वहां गई हूं। जैसा हम सभी जानते हैं कि अनुच्छेद 370 को पिछले सात दशकं में पूरी तरह खोखला कर दिया गया था। लेकिन इतने लंबे वक़्त से सीधे केंद्र के शासन में चल रही घाटी के लिए, उनकी राजनीतिक पहचान, जैसे उनका संविधान या झंडा छीनना उनके बचे-खुचे प्रतिनिधित्व को भी छीनना और उन्हें अलग-थलग करना है। 

सहबा हुसैन: आख़िर में क्या आप अपना किताब लिखने का अनुभव साझा कर सकती हैं?

फ़राह बशीर : एक किशोर लड़की के तौर पर विवादास्पद क्षेत्र में बड़ा होना दोहरा संघर्ष होता है: अपने इलाके के सैन्यकरण का मतलब समझना और युद्धकालीन नए सामाजिक व्यवहार को समझना, ताकि ज़िंदगी को आगे बढ़ाया जा सके। इसको दर्ज किया जाना बेहद अहम है कि पिछले 150 सालों के तत्कालीन कश्मीरी इतिहास की सबसे अहम घटनाओं के दौरान एक किशोर लड़की किस अनुभव से गुजर रही थी (पिछली अहम घटनाएं अमृतसर संधि और 1931 का विद्रोह था।) लड़की होना और किशोरावस्था, दोनों ही जानी-पहचानी और सार्वभमिक अवधारणाएं हैं। इसके बावजूद युद्ध की चिंता और डर के चलते यह अवधारणाएं दिल को चीरने वाले अनुभव बन गए। 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

 Growing Up in a Conflict-Stricken Territory

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