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हमारे समय के हीरो? 

रामजन्मभूमि आंदोलन को भड़काने वालों की आधुनिकता के साथ असहजता उन लोगों के लिए एक चुनौती है जो गणतंत्र में विश्वास करते हैं।
रामजन्मभूमि
चित्र सौजन्य: विकिपीडिया

किसी शहर की घेराबंदी की स्थिति में एक कवि कैसे प्रतिक्रिया व्यक्त करता है? एक कवि के लिए, यहां तक कि घेराबंदी के बीच कोई भी संकट आगे की कठिन यात्रा को लंबा कर सकता है। फिलिस्तीनी कवि महमूद डारविश की कविता मेमोरी फॉर फ़ॉरगेटेबिलिटी 1982 में लेबनान पर इज़राइली आक्रमण का पीछा करती है जिसमें बेरुत, जहाँ वे खुद रहते थे पर बमबारी की गई थी। उन्होंने लिखा था कि "बेरूत, इजरायल के टैंकों और आधिकारिक तौर पर लकवाग्रस्त अरब से घिरा हुआ था,"। बेरुत बड़े धैर्य से जमा हुआ था क्योंकि वह "अरब की राजधानी की उम्मीद के सच्चे अर्थ की आभा की रक्षा" करने का प्रयास कर रहा था। इस पुस्तक में, डारविश, फैज़ अहमद फैज़ के साथ बातचीत करता है, जो उस समय बेरुत में थे।

कलाकार कहां हैं?

कौन से कलाकार, फ़ैज़, मैं पूछता हूँ।

बेरूत के कलाकार।

आप उनसे क्या चाहते हैं?

शहर की दीवारों पर इस युद्ध को चित्रित किया जा सके।

तुम्हें क्या हो गया है, मैंने कहा। क्या तुम दीवारों को ढहती नहीं देख रहे हो?

कविता लेखन हमेशा (स्मृति) और इतिहास (विस्मृति) के बीच एक संबंध स्थापित करती हैं। हम भारत में स्मृति और विस्मृति के बीच फंसे पड़े हैं। न तो कोई बमबारी हो रही है, न ही बेगुनाहों का खून सड़क पर बहाया जा रहा है, न ही सड़कों पर हिंसक भीड़ है। फिर भी एक भयानक चुप्पी छाई हुई है, जो सामान्य हालात की हमारी अनूठी व्याख्या पेश करती है। मीडिया चैनलों के शौरगुल के ज़रीए शांत किया जा रहा है, जो लगता है कि देश में जो कुछ भी चल रहा है उसे "सामूहिक, स्वैच्छिक रूप से भूलने की बीमारी" की तरह बौया जा रहा है। धीरे मगर चुपचाप नहीं, एक खुशहाल नागरिकता उभरी है, जो इन चैनलों के माध्यम से जो कुछ भी उगला जा रहा है, उसे वैसे ही निगलने के लिए तैयार है।

शासकों, लोकतंत्र और नागरिकता के कथित पहरेदारों के बीच इस बढ़ते तालमेल ने अजीबो-गरीब घटना को जन्म दिया है, जिसमें कार्यपालिका चलाने वाले, सत्ता की बागडोर थामने वाले और विधायिका पर हावी होने वालों का कभी हिसाब नहीं रखा जाता है। कोई भी इन प्रमुख वर्गों पर उनके द्वारा लिए गए सनकी फैसलों पर सवाल नहीं उठा सकता है, चाहे वे फैसलें प्राचीन राजाओं के शासन के समान ही क्यों न हो: फिर बाज़ार में उपलब्ध मुद्रा की 90 प्रतिशत संख्या को अचानक रद्द कर देना, चंद घंटों के नोटिस पर लॉकडाउन लगा देना, इस तरह के हर फैंसलें ने लाखों लोगों के जीवन को प्रभावित किया है। जबकि शासकों को आलोचनाओं से बचाने का काम किया जाता है, शक्तिहीन विपक्ष को रोजाना रगड़ा मारा जाता है, जैसे कि सारी जिम्मेदारी उसी के कंधों पर टिकी हुई है।

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के समारोह ने एक साथ कई ऐसे संदेश दिए हैं।

इस सामूहिक उन्माद में, कोई भी वह सब याद नहीं करना चाहता या याद दिलाना नहीं चाहता था कि जहां भूमि पूजन हो रहा था, वहां सुप्रीम कोर्ट के शब्दों में "अवैध, असंवैधानिक और आपराधिक कृत्य" हुआ था। शायद उन्माद का यह सामूहिक रूप उस याद को भुलाने का एक तरीका था कि उस आपराधिक कृत्य के अपराधी अभी भी भय-मुक्त घूम रहे हैं।

लगभग तीस साल पहले किया गया "अवैध, असंवैधानिक और आपराधिक कृत्य" 500 साल पुरानी मस्जिद के विध्वंस के रूप में बरपा था। यह एक बहिष्कृत, घृणा से भरी विचारधारा के अनुयायियों द्वारा लंबे समय से चलाए जा रहे अभियान की परिणति थी। देश भर में चले इस अभियान के दौरान हजारों बेगुनाहों का खून बहा दिया गया था। यहां इस बात से इनकार करने का कोई फायदा नहीं है कि यूरोप में 20 वीं सदी के शुरुआती दशकों में पनपी इस विचारधारा को यहां भी अपनाया गया, जिस विचारधारा की वजह से लाखों लोग अन्य तरीकों से मारे गए थे।

विध्वंस के समय के एक प्रमुख दैनिक ने इसे "रिपब्लिक को गंदा करने" के रूप में वर्णित किया था। तीस साल से भी कम समय के बाद, उस पुराने गणतंत्र को हमारी आंखों के सामने उजाड़ा जा रहा है क्योंकि एक नया धार्मिक रूढ़िवाद यहां पनप गया है। जाहिर है, मंदिर-निर्माण, मस्जिद-तोड़ो कार्यक्रम की शुरुआत धर्मनिरपेक्षता को औपचारिक अलविदा और हिंदू राष्ट्र के भव्य स्वागत के रूप में की गई है। आखिरकार, 16 करोड़ से अधिक लोगों ने 5 अगस्त के इस तमाशे को 200 से अधिक चैनलों पर देखा: जो लोगों से नए पर मिट्टी डालने और पुराने विचार को नए विचार के रूप में अपनाने के बारे में कहता है। देश के गणतंत्र के विकास की 70 साल की यात्रा छोटी है लेकिन इसने लंबी दूरी तय की है।

यहां हमारे पास एक प्रधानमंत्री जो मुख्य अतिथि है, समारोहों के मास्टर हैं और आधिकारिक यजमान (एक धार्मिक अनुष्ठान के संरक्षक) भी हैं, जहां नवजात गणतंत्र में एक और मंदिर के उद्घाटन के लिए पूरी तरह से अलग परिणाम निकले हैं। यह असंगत सा लग सकता है, लेकिन जमीन हमारे पैरों के नीचे खिसक गई है।

आज बने नए सामान्य माहौल में, जिस पर अधिकारिक मुहर लगी हुई है, उस भारत ने 1200 साल की "गुलामी" झेली थी, न कि सिर्फ औपनिवेशिक शासन के 200 वर्ष। यह आरएसएस का विचार था जिसे बार-बार दोहराया गया कि "मुसलमान" भारत के लिए पराए है, जबकि अंग्रेजों के उपनिवेशीकरण और भारत के "मुस्लिम अतीत" -से उपनिवेशों के बीच के अंतर को मिटा दिया गया।

हिंदू राष्ट्रवाद को दी जा रही प्रमुखता आधुनिकता के विचार के साथ उसकी असहजता और बेचैनी को उजागर करती है जो रामजन्मभूमि आंदोलन के उदाहरणों से कभी छिपी नहीं थी। मन की बात कार्यक्रम में मोदी ने आधुनिकता पर कई कटाक्ष किए हैं। उन्होंने दावा किया था कि भारतीय "सैकड़ों वर्षों" की सेवा के कारण साक्ष्य-आधारित शोध को स्वीकार नहीं कर सकते हैं।

मुसलमान और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक धीरे-धीरे एक ऐसे हाशिए पर पहुँच गए है जहाँ वे अपने को निरर्थक महसूस करने लगे हैं। जीवन के "भारतीय" तरीके को अपनाने के लिए कहा जाना सिर्फ काफी नहीं था। अब उन्हें दिखाया जा रहा है कि उनके पूजा स्थल भारत की धार्मिक पहचान के अभिन्न अंग नहीं हैं।

सतीश देशपांडे, जो दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाते हैं, ने 2015 में लिखा था कि "सामान्यीकृत उत्पीड़न की कहीं अधिक टिकाऊ व्यवस्था" को गढ़ने का प्रयास चल रहा हैं, जिसमें मुसलमानों को "खुद के ही अधीनस्थ होने के स्थायी भागीदार बनने के लिए मजबूर किया जा रहा हैं"। सतीश के अनुसार, उनकी नागरिकता को सीमित करने वाली शर्तों के लागू होने के बाद, "पुरानी मनगढ़ंत कहानी कि इसके बाद खुशी से साथ रहने, सह-अस्तित्व, सामजस्यपूर्ण संस्कृति, हिंदू धर्म की अंतर्निहित सहिष्णुता, इत्यादि, को बार-बार गर्व से दोहराया जा सकता है-"। हम शायद अब वहां पहुँच रहे हैं।

लोकतंत्र का निर्माण साझा घृणा और बहिष्कार के बजाय साझा आदर्शों और लक्ष्यों पर किया गया था, लेकिन भारत के इतिहास के अद्भुत और महत्वपूर्ण क्षण के बारे में कोई भी बात नहीं कर सकता है वह भी बिना मीडिया की पुष्टि के जो कई लोगों में घेराबंदी की भावना व्यक्त करता है।

सोच-विचार वाले लोगों को क्या करना चाहिए? मिखाइल लेर्मोंटोव ने 1840 में "हीरो ऑफ आवर टाइम" में लिखा था, न कि किसी व्यक्ति के रूप में, बल्कि हमें इसे "हमारी पूरी की पूरी पीढ़ी की बुराई के एकत्रीकरण" के रूप में मानना चाहिए। या जैक्स-लुई डेविड जैसे कलाकार है जो नेपोलियन प्रथम के शानदार अभिषेक के प्रसिद्ध कलाकार हैं, हम अपने समय में अपनी "इच्छा की जीत" को हासिल कर सकते हैं या, जैसा कि डारविश ने कहा था: 'यहां पहाड़ियों के ढलानों पर, सांझ और कैनन का सामना कर रही है, शाम की टूटी हुई छाया के बगीचों के करीब, हम वही करते हैं जो कैदी करते हैं, हम उम्मीद करते हैं।'

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं, व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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