सीनियर एडवोकेट की पदवी देने में हाईकोर्ट कर रहे हैं सुप्रीम कोर्ट के इंदिरा जयसिंह केस में दिए गए फ़ैसले की अवहेलना
वकीलों में आर्थिक असमानता और विभाजन को सुप्रीम कोर्ट ने बहुत सही ढंग से ‘इंदिरा जयसिंह बनाम् सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया (2017) 9 SCC 766’ में एकाधिकारवादी बताया था। कोर्ट ने बिना लाग-लपेट के कहा था, "भारत में वकालत का पेशा तेजी से आगे बढ़ता हुआ पेशा है, लेकिन इस दौरान सफलता सिर्फ़ कुछ ही लोगों तक सीमित रही है, इनमें से ज़्यादातर को वरिष्ठ अधिवक्ता (सीनियर एडवोकेट) के तौर पर नियुक्ति मिली है।"
सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला ब्रिटेन में पदवियों से संबंधित सुधारों की चर्चा भी करता है, तब वहां गठित आयोग ने वकालत के पेशे में एकाधिकार को ख़तरा बताया। तब जो सुधार किए गए, उनके चलते ही पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता आई। इसके बाद पदवियों में लिंग और विषय योग्यता रखने वाले लोगों की विविधता आई।
इंदिरा जयसिंह ने भी इसी भावना के साथ यह मुक़दमा दायर किया था। मामले में आए फ़ैसले से सीनियर एडवोकेट के दर्जे को दिए जाने के लिए एक निष्पक्ष प्रक्रिया का निर्माण हुआ।
इंदिरा जयसिंह केस के दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया गया
यह दुख की बात है कि आज सुप्रीम कोर्ट अपने ही फ़ैसले का पालन करता दिखाई नहीं दे रहा है। यह फ़ैसला निर्देशित करता है कि एक साल में दो बार सीनियर एडवोकेट पद के लिए आवेदन मंगवाए जाएंगे। लेकिन अगस्त, 2018 से ही ऐसे आवेदन नहीं मंगवाए गए हैं।
खुद उच्च न्यायालयों ने इस प्रक्रिया मे देर की है। इसलिए वकीलों को तय समय में पदवी मिलने का अधिकार लागू नहीं हो पाया है। सबसे अहम बात, उन्होंने फ़ैसले की एक अहम चीज नज़रंदाज कर दी। दरअसल किसी वकील को सीनियर एडवोकेट की पदवी दी जाए या नहीं, इस पर मतदान करने की जरूरत नहीं है। इस प्रक्रिया से बचने के लिए ही अंकों वाली प्रणाली लाई गई थी। अगर कोई जरूरी अंक हासिल कर लेता है, तो मतदान करने की जरूरत ही क्या है? हर प्रत्याशी पर मतदान करने से अंक प्रणाली के उद्देश्य का दमन होता है।
मैंने कोर्ट में अपनी याचिका में कहा था कि मतदान प्रणाली सुंदरता की किसी प्रतिस्पर्धा के लिए ज़्यादा बेहतर होती है। क्योंकि वहां देखने वाले के निजी मत के हिसाब से सुंदरता तय होती है। वकीलों के मामले में इस तरह के मतदान ना तो तार्किक है और ना ही इसकी जरूरत है। दूसरी तरफ़ पदवी दिए जाने की व्यवस्था, पूरी तरह पेशेवर दक्षता पर आधारित होनी चाहिए।
जब दिल्ली हाईकोर्ट ने प्रत्याशियों पर मतदान कराने का फ़ैसला लिया, तो जानते हैं क्या हुआ? जिन लोगों के पास 80 अंक थे, उन्हें पदवी नहीं दी गई। जबकि जिनके 65 अंक थे, उन्हें सीनियर एडवोकेट बना दिया गया। यह बताता है कि मतदान एक ऐसी व्यवस्था है, जिसके ज़रिए किसी को पसंद ना करने वाला जज, बिना तर्क दिए उसके खिलाफ़ मतदान कर सकता है।
मैंने कोर्ट में अपनी याचिका में कहा था कि मतदान प्रणाली सुंदरता की किसी प्रतिस्पर्धा के लिए ज़्यादा बेहतर होती है। क्योंकि वहां देखने वाले के निजी मत के हिसाब से सुंदरता तय होती है। वकीलों के मामले में इस तरह के मतदान ना तो तार्किक है और ना ही इसकी जरूरत है। दूसरी तरफ़ पदवी दिए जाने की व्यवस्था, पूरी तरह पेशेवर दक्षता पर आधारित होनी चाहिए।
पदवी दिए जाने में होने वाली यह हां और ना, एडवोकेट एक्ट, 1961 की धारा 16 से निकली है। इस प्रावधान के मुताबिक़, वकीलों को दो समूह/वर्गों- एडवोकेट और सीनियर एडवोकेट में बांटा गया है। 1961 के पहले ऐसा कोई वर्गीकरण नहीं था। दुर्भाग्य से धारा 16 इन उपसमूहों में शामिल किए जाने वाले लोगों की अर्हता के बारे में चुप है। नतीज़तन इस पदवी को मनमर्जी, भेदभाव, अन्यायपूर्ण और व्यक्ति आधारित राय के आधार पर दिए जाने का इतिहास रहा है। इसमें कोई शक नहीं है कि इस व्यवस्था ने उन लोगों को हतोत्साहित और बुरे तरीके से प्रभावित किया है, जिनके पास दूसरों की राय को अपने पक्ष में करने के लिए जरूरी कुशलता, चालाकी और उद्यम नहीं है।
फली एस नरीमन: सीनियर एडवोकेट का दर्जा दिए जाने का मौजूदा तंत्र जाति व्यवस्था की तरह
हाल में वरिष्ठ अधिवक्ता और न्यायविद् फली एस नरीमन ने इस विशेषता को "वकीलों में जाति व्यवस्था का एक प्रकार" बताया था।
उन्होंने बिल्कुल सही कहा कि "एडवोकेट एक्ट में कोई भी निष्पक्ष पैमाना नहीं दिया गया कि कौन सा व्यक्ति वरिष्ठ दर्जे में प्रोन्नति पाएगा। यह पूरी तरह एक कोर्ट के जजों के बहुमत का चयन है। मुझे शक है कि यह व्यवस्था, कानून के समक्ष समता की संवैधानिक कसौटी पर खरी भी उतर सकेगी। भले ही जज ऐसा ना कहें, लेकिन मेरा मानना है कि एडवोकेट एक्ट की धारा 16(2) का संविधान के अनुच्छेद 14 से टकराव है। यहां कोई भी निष्पक्ष पैमाना नहीं है। बल्कि व्यवहार में यह बहुत लोकप्रिय या सफल भी नहीं रहा है।"
नुकसान की व्याख्या और जिन लोगों को बाहर रखा गया, उनकी भावनाओं को दोहराते हुए नरीमन ने अंत में कहा कि इस प्रक्रिया ने "बहुत लोगों का दिल दुखाया है और उन्हें निराश किया है। खासकर जोशीले वकीलों की एक बड़ी संख्या को इसने हतोत्साहित किया है।"
निश्चित ही सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले द्वारा सीनियर एडवोकेट का दर्जा देने की प्रक्रिया में मतदान पर प्रतिबंध लगता है। सिर्फ़ उस स्थिति में मतदान हो सकता है, जब दूसरा कोई विकल्प ना हो। मतदान, निजी विचारों पर आधारित होता है और कोई भी निजी विचार, अंकों के उलट, व्यक्तिनिष्ठ होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सुप्रीम कोर्ट ने जानबूझकर वस्तुनिष्ठता के पक्ष में व्यक्तिनिष्ठा को नकारा था।
नरीमन के वक्तव्य में सबसे ज़्यादा ध्यान देने वाली चीज उनका इस लंबे और थका देने वाले पेशे में "जोश" को मान्यता देना था। ध्यान रहे यह पेशा अपने लंबे वक़्त और उस दौरान होने वाली कम या ना के बराबर आय के लिए कुख्यात है। खासकर हर वकील के करियर के पहले दशक में। बिना जोश और आत्मप्रेरणा के बहुत ही कम लोग इस पेशे में पहले दशक को पार कर पाते हैं। नतीज़तन नरीमन ने व्यक्तिपरक पैमाने के आधार पर सीनियर एडवोकेट की पदवी के लिए चुनाव के बारे में चेतावनी देते हुए कहा, "वकालत के पेशे में वरिष्ठता, निष्पक्ष ढंग से, सीधे बार में काम करते हुए बिताए गए सालों के आधार पर तय की जानी चाहिए। ना कि जजों के बहुमत के निजी चुनाव या विचार के आधार पर.... उत्कृष्टता का विषयात्मक विश्लेषण जजों के ऊपर नहीं छोड़ा जाना चाहिए, तब तो कतई नहीं, जब हमारे पेशे को सही मायनों में स्वतंत्र पेशा माना जाता है।"
सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा जयसिंह केस में दिए फ़ैसले में "उत्कृष्टता और योग्यता को पूरे ढंग से प्रभावी बनाने के लिए, पदवी देने की प्रक्रिया को ज़्यादा निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने" को दिए गए तर्कों को मान्यता दी थी और आगे पदवी देने की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाली, किसी भी तरह की विषयात्मकता को हटाने का निर्देश दिया था। इस तरह कोर्ट ने आदेश दिया कि सभी पदवियों को निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ पैमानों पर दिया जाएगा, जिसके लिए अनुभव, लड़े गए केस, मौखिक साक्षात्कार और लेखों के प्रकाशन जैसे अलग-अलग क्षेत्रों में अंक दिए जाएंगे।
निश्चित तौर पर इसके द्वारा मतदान पर प्रतिबंध लगता है। सिर्फ़ उस स्थिति में मतदान हो सकता है, जब दूसरा कोई विकल्प ना हो। मतदान, निजी विचारों पर आधारित होता है और कोई भी निजी विचार, अंकों के उलट, व्यक्तिनिष्ठ होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सुप्रीम कोर्ट ने जानबूझकर वस्तुनिष्ठता के पक्ष में व्यक्तिनिष्ठा को नकारा था।
मुझे इस लेख को लिखने पर मजबूर होना पड़ा, क्योंकि मुझे दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा 19/03/2021 को दी गई सीनियर एडवोकेट की पदवियों से बहुत धक्का लगा। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि दिल्ली हाईकोर्ट ने जो प्रक्रिया अपनाई, वह ऊपर बताई चीजों का खुला उल्लंघन है। बल्कि दिल्ली हाईकोर्ट की प्रक्रिया से सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला शून्य हो जाता है। उस फ़ैसले का जो मूल था, और वहां जो तर्क बताए थे, दिल्ली हाईकोर्ट की प्रक्रिया से वह सारी चीजें खारिज़ हो जाती हैं और हम वापस इंदिरा जयसिंह से पहले वाली स्थिति में पहुंच जाते हैं, जहां वस्तुनिष्ठता पर विषयात्मकता भारी होती थी।
दिल्ली हाईकोर्ट ने सीनियर एडवोकेट की पदवी देने में जो प्रक्रिया अपनाई वह क्यों हैरान करने वाली है, क्योंकि-
पहला, यहां जो प्रक्रिया अपनाई गई
प्रक्रिया में कुल 237 वकीलों ने पदवी के लिए आवेदन किया। इंदिरा जयसिंह केस में दिए गए निर्देशों के चलते जो समिति बनाई गई थी, उसने 87 वकीलों का चुनाव किया। यह चुनाव इस आधार पर था कि इन वकीलों को 65 या उससे ज़्यादा अंक मिले थे। इन 87 के चयन में समिति ने 150 दूसरे लोगों को बाहर कर दिया, इन लोगों को 65 से कम अंक प्राप्त हुए थे।
इन 87 वकीलों पर भरी कोर्ट में गुप्त मतदान किया गया। इस तरह कुल 31 मतों (जजों की कुल संख्या) में से जिन्हें 16 मत मिले, उन्हें सीनियर एडवोकेट का दर्जा दे दिया गया, बाकी को छोड़ दिया गया। इस तरह 87 वकीलों में से 55 वकीलों को सीनियर एडवोकेट का दर्जा मिला, वहीं 32 लोग यह दर्जा हासिल नहीं कर पाए, क्योंकि उन्हें जरूरी 16 वोट नहीं मिले।
दूसरा, यहां जो अन्याय किया गया-
8 प्रत्याशियों को 80 से ज़्यादा अंक मिले थे, उनमें से 5 को दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया से सीनियर एडवोकेट का दर्जा दे दिया गया। जबकि 3 को नहीं दिया गया। इसी तरह दो प्रत्याशियों को 78-78 अंक मिले थे। इनमें से एक को सीनियर एडवोकेट का दर्जा दे दिया गया, दूसरे को नकार दिया गया। फिर 8 प्रत्याशियों को 77 अंक मिले थे। सात को दर्जा दे दिया गया, एक को नकार दिया गया। 76 अंक वाला एक प्रत्याशी ऐसा था, जिसे दर्जा नहीं दिया गया, लेकिन 75 अंकों वाले दो प्रत्याशियों को सीनियर एडवोकेट घोषित कर दिया गया। 68 अंक लाने वाले 7 प्रत्याशियों में से 5 दर्जा पाने में कामयाब रहे, लेकिन 2 नाकाम रहे। 67 अंक 11 प्रत्याशियों को मिले, 8 को दर्जा दिया गया, 3 को नकार दिया गया। फिर 66 अंक पाने वाले 22 प्रत्याशियों में 9 वकील, सीनियर एडवोकेट का दर्जा पाने में कामयाब रहे, बाकी नहीं पा पाए। अंत में 65 अंक हासिल करने वाले 11 वकील थे। इनमें से भी चार लोगों को वरिष्ठ वकील घोषित कर दिया गया, बाकी को नकार दिया गया।
दूसरे शब्दों में कहें तो कई ऐसे प्रत्याशी रहे, जो ज़्यादा अंक लाकर भी सीनियर एडवोकेट नहीं बन पाए। जबकि कम अंक लाने वालों को दर्जा दे दिया गया। फिर एक जैसे अंक लाने वाले लोगों के बीच भी भेदभाव किया गया, क्योंकि इनमें से कुछ का चयन कर लिया गया, जबकि दूसरों का चयन नहीं हुआ।
इस तरह की व्यक्तिनिष्ठ प्रक्रिया अपनाने के चलते असमान लोगों को समान और समान लोगों से असमान की तरह बर्ताव किया गया। इससे खुलेआम भेदभाव हुआ और उनके अंक किसी काम के नहीं रह गए, क्योंकि इस प्रक्रिया को वस्तुनिष्ठ से व्यक्तिनिष्ठ बना दिया गया। 237 आवेदकों के मामले में निष्पक्ष पैमानों को लागू कर, एक कटऑफ निकालकर 87 का चयन किया गया। इन लोगों के साथ मतदान के ज़रिए आपस में भेदभाव नहीं किया जा सकता।
मुकुल रोहतगी: सीनियर एडवोकेट का दर्जा दिए जाने की परंपरा ही ख़त्म होनी चाहिए
इसमें कोई शक नहीं है कि बार के एक और दिग्गज, भारत के पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने हाल में मांग रखी कि इस वर्गीकरण की पूरी प्रक्रिया को ही ख़त्म कर देना चाहिए। उनके शब्द बिल्कुल संक्षिप्त और मुद्दे पर थे, उनका जवाब देने के लिए भी अगर-मगर की गुंजाइश नहीं बचती। मेरी राय में अब वक़्त आ गया है कि इस व्यवस्था को ख़त्म करने पर विचार किया जाए। कानून में एक वकील, वकील होता है और वह किसी भी कोर्ट में काम कर सकता है। अब प्रशासन को सोचना चाहिए कि क्या अब भी वरिष्ठ और कनिष्ठ के इस वर्गीकरण की कोई जरूरत है? यह वर्गीकरण 1961 में एडवोकेट एक्ट के लागू होने के साथ सामने आया था, इसी से सीनियर एडवोकेट की पदवी अस्तित्व में आई। यह ब्रिटिश सिस्टम का प्रभाव था।"ब्रिटिश सिस्टम में ऐसा होता है, जबकि अमेरिकी सिस्टम में इस तरह की पदवी नहीं दी जातीं।"
सीनियर एडवोकेट का दर्जा दिए जाने में दिल्ली हाईकोर्ट ने जो प्रक्रिया अपनाई है, वह बार में दशकों का अनुभव हासिल कर चुके वरिष्ठ वकीलों की चिंता पर ही प्रकाश डालती है। व्यक्तिनिष्ठा, वस्तुनिष्ठा की जगह नहीं ले सकती। आखिर किसी व्यक्ति का मत उसकी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं से तय होता है। मतदान में जीतना, बार में सालों की मेहनत या उत्कृष्टता को प्रदर्शित नहीं कर सकता। अगर हम बार के सदस्यों का "जोश" और उनकी "स्वतंत्रता" बरकरार रखना चाहते हैं, तो मतदान के ज़रिए वरिष्ठता की पदवी दिए जाने के चलन को रोकना होगा। नहीं तो इससे बार और बेंच, दोनों को ही नुकसान होगा।
इस पृष्ठभूमि में वरिष्ठ वकीलों का ‘क्वीन्स काउंसल गाउन’ वाला दर्जा ही भेदभाव का प्रतीक बन चुका है। ऐसे में जरूरत है कि अब इस गाउन(लबादा) को ही फाड़कर फेंक दिया जाया जाए।
पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में सीनियर एडवोकेट घोषित करने के लिए व्यक्तिनिष्ठ तरीकों का इस्तेमाल किया गया
इस लेख को लिखने के दौरान ऐसी ख़बर आ रही है कि पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने भी सीनियर एडवोकेट की पदवियां देने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट की तरह की प्रक्रिया अपनाई है। 113 आवेदकों में से हाईकोर्ट समिति ने 27 को छांटा था और उनके नाम को कोर्ट के सामने मतदान के लिए रखा। हाईकोर्ट ने इनमें से 19 नामों को सीनियर एडवोकेट का दर्जा दिए जाने पर मुहर लगा दी। इस प्रक्रिया पर ना सिर्फ़ बार के सदस्यों, बल्कि कुछ जजों में भी असंतोष है।
अब वक़्त आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट अपने इंदिरा जयसिंह फ़ैसले पर स्थिति साफ़ करे और तय करे कि हाईकोर्ट और खुद सुप्रीमकोर्ट में इसके निर्देशों का पालन किया जाए।
एक दूसरा विचार कहता है कि एडवोकेट एक्ट की धारा 16 को संसद द्वारा निरस्त कर दिया जाए। लेकिन ऐसा शायद ही हो, क्योंकि बार काउंसिल और उसके प्रभुत्वशाली लोगों का मौजूदा व्यवस्था को बनाए रखने में हित छुपे हैं, यह लोग एक साथ आकर इस तरह के कदम को संसद तक पहुंचने भी नहीं देंगे।
(इंदिरा जयसिंह मानवाधिकार कार्यकर्ता और सुप्रीम कोर्ट में सीनियर एडवोकेट हैं। वे द लीफलेट की सह-संस्थापक भी हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)
यह लेख मूलत: द लीफ़लेट में प्रकाशित किया गया था।
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