हिन्दू दक्षिणपंथ द्वारा नफरत फैलाने से सांप्रदायिक संकेतों वाली राजनीति बढ़ जाती है
यति नरसिंघानंद सरस्वती एक फिर से सुर्ख़ियों में हैं। एक बार फिर से गलत वजहों से। और इसने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसकी सांप्रदायिक सरकारों, विशेषकर केंद्र में, और सामान्य तौर पर संघ परिवार के अपने सेवाप्रदाताओं को सुर्ख़ियों में लाने का काम किया है।
सरस्वती का मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाकर नफरती भाषण देने का रिकॉर्ड रहा है। कथित तौर पर उनके उपर अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों और महिलाओं के बारे में अपमानजनक भाषण देने के लगभग 20 मामलों पर आरोप हैं। जिस मुद्दे ने उन्हें सुर्ख़ियों में लाने का काम किया था, वह दिसंबर 2020 में हरिद्वार के ‘धर्म संसद’ में उनके द्वारा दिया गया नफरती भाषण था। इसके लिए और कुछ अन्य भाषणों के लिए उनके खिलाफ कई प्राथमिकियां दर्ज की गईं, लेकिन अंततः उन्हें इन सभी मामलों में जमानत मिल गई है।
ऐसा नहीं है कि जमानत खारिज कर दी जानी चाहिए थी। लेकिन यदि इसका समान रूप से और निष्पक्ष रूप से पालन किया जाता है तो, सिद्धांततः यह है कि जमानत का आदर्श होना चाहिए, कोई अपवाद नहीं। दुर्भाग्यवश, भारत में पिछले आठ वर्षों में, ऐसा नहीं रहा है। यह स्पष्ट कर सकता है कि एक गंभीर और बार-बार वही कृत्य करने वाले अपराधी सरस्वती के खिलाफ लगाये गए आरोप मामूली क्यों बनाये गये थे। यह ढील और भविष्य में दंड से मुक्ति की उम्मीद ही थी जिसने सरस्वती को जमानत की शर्तों का उल्लंघन करने और 3 अप्रैल को दिल्ली के बुराड़ी मैदान में एक गैरकानूनी “हिन्दू महापंचायत” की बैठक भाग लेने के लिए प्रेरित किया, जहाँ उन्होंने मुस्लिमों के खिलाफ एक और नफरती भाषण दिया।
दिल्ली पुलिस, जिसने पिछले कुछ वर्षों में देश में सबसे अधिक समझौतावादी बल के रूप में अपनी प्रतिष्ठा अर्जित की है, ने इस पर अपनी विशिष्ट पूर्वाग्रह के साथ कार्यवाई की। 4 अप्रैल को इसके द्वारा सरस्वती और अन्य के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने के लिए एक प्रथिमिकी दर्ज की, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्हें हिरासत में लेने का कोई प्रयास नहीं किया गया।
इसकी वजह संभवतः यह रही कि पुलिस कुछ और काम में व्यस्त थी: वह था ट्विटर हैंडल्स के खिलाफ प्रथिमिकी दर्ज करने का। इसमें से एक अकाउंट एक पत्रकार से संबंधित था जिनपर बुराड़ी कार्यक्रम को कवर करने के दौरान हमला किया गया था और दूसरा एक न्यूज़ पोर्टल का था। ये प्राथमिकी इसलिए दर्ज की गईं क्योंकि इनके ट्वीट में आरोप लगाया गया था कि हिन्दू भीड़ के द्वारा मुस्लिम पत्रकारों को पीटा गया था। इसे पुलिस के द्वारा समुदायों के बीच में नफरत और वैमनस्यता को उकसाने के तौर पर व्याख्यायित किया गया है।
यह आरोप हास्यास्पद है। सरस्वती और अन्य के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी में पुलिस के द्वारा ऐसा करने की अनुमति देने से इंकार के बावजूद कार्यक्रम को आयोजित करने और नफरती बयानों को देने के साथ-साथ पत्रकारों के उपर हमला करने का आरोप लगाया गया है। यह स्पष्ट है कि पत्रकारों पर हमला किया गया था, क्योंकि पुलिस ने खुद इस बात की पुष्टि की है।
न सिर्फ पत्रकारों पर हमला किया गया था, बल्कि ऐसा लगता है कि भीड़ को जब यह लगा कि उनमें से कुछ मुसलमान भी हैं तो उनके साथ कुछ ज्यादा कठोर व्यवहार के लिए भी लक्षित किया। कुल मिलाकर सात पत्रकारों पर हमला किया गया था। उनमें से चार जो मुस्लिम थे, के साथ विशेष तौर पर कठोर व्यवहार किया गया। दक्षिणपंथी हिन्दू भीड़ के द्वारा या पुलिस कर्मियों के द्वारा पत्रकारों को निशाने पर लिए जाने की यह कोई पहली घटना नहीं है।
भाजपा सरकारें सांकेतिक राजनीति और तीली लगाने की कला में सिद्धहस्त रही हैं, जबकि जो लोग शर्मनाक ढंग से शरारतपूर्ण कृत्यों और कभी-कभी आपराधिक रूप से संज्ञेय कृत्यों में लिप्त रहते हैं, उन्हें राज्य का संरक्षण प्रदान कर रही है, और इस मामले में तेजी से हिन्दू बहुसंख्यक पुलस राज्य की ओर बढ़ रही है।
इस मामले में बेहद प्रख्यात दोषी जिसे बांह पर एक खरोंच तक नहीं आई, वे अनुराग सिंह ठाकुर होने चाहिए, जिन्हें अब पूर्ण कैबिनेट रैंक के साथ सूचना एवं प्रसारण मंत्री के तौर पर पदोन्नत कर दिया गया है। 2020 में दिल्ली चुनाव के दौरान, एक रैली में बोलते हुए तत्कालीन वित्त राज्य मंत्री ठाकुर ने “गद्दारों” को गोली मारने वाले एक नारे का नेतृत्व किया था। इस तथ्य के अलावा कि यह स्पष्ट रूप से मुस्लिम समुदाय के खिलाफ लक्षित हिंसा को भी उकसाता था, यह व्यक्तियों के खिलाफ लक्षित हिंसा को भी भड़काने वाला था, चाहे वे कोई भी क्यों न हों। ठाकुर के खिलाफ क़ानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए थी। लेकिन इसके बजाय, सांप्रदायिक अल्पायु के मुख्य संरक्षक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें पदोन्नति दी।
आज जैसी स्थितियां हैं उसमें हिन्दू दक्षिणपंथ को ज्यादा प्रोत्साहन की जरूरत नहीं है। चुनावी सफलता का इस पर पहले से ही एक जबरदस्त प्रभाव बना हुआ है, जो उन्हें अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न करने और कानून तोड़ने को नई ऊँचाइयों पर जाने के लिए प्रोत्साईट करता है। मार्च में खत्म हुए अंतिम दौर के चुनावों के अनुकूल नतीजों के बाद से, विशेषकर उत्तर प्रदेश में मिली अप्रत्याशित जीत ने इनकी उम्मीदों को और भी बढ़ा दिया है। यह विशेष रूप से कर्नाटक में तेजी से बढ़ा है, जहाँ अब से करीब एक वर्ष बाद एक मुश्किल विधानसभा चुनाव होने जा रहा है।
इस सबकी शुरुआत कर्नाटक सरकार के स्कूलों और कालेजों में हिजाब पहनने पर प्रतिबन्ध से हुई, जो कि अभी मुकदमेबाजी के अधीन है। यह आशा की जानी चाहिए कि सर्वोच्च न्ययालय का फैसला व्यक्तिगत पसंद के अधिकार के पक्ष में होगा, हालाँकि कुछ विकल्पों को लेकर कुछ बयानबाजी उदारवादी सोच के लिए अच्छा उदाहरण न हो।
इस बीच, गैर-राज्य किरदारों के द्वारा बैटन को सहर्ष स्वीकार लिया गया है, जो कर्नाटक में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ दबाव को बढ़ाते जा रहे हैं, जो कि राज्य की कुल आबादी का लगभग 13% हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जबकि यह एक महत्वपूर्ण लक्ष्य होने के लिए पर्याप्त संख्या में तो हैं, किंतु चुनावी रूप से महत्वपूर्ण होने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, कुछेक पॉकेट को छोड़कर, और यह संख्या इतनी छोटी है कि इन्हें बेख़ौफ़ होकर डराया-धमकाया जा सकता है।
हिजाब प्रतिबंध के लिए कर्नाटक उच्च न्यायालय की इजाजत के बाद, बढ़े हुए हौसले के साथ हिन्दू दक्षिणपंथियों ने सबसे मंदिरों के आसपास के मेलों और त्यौहार के बाजारों में मुस्लिम विक्रेताओं पर प्रतिबंध लगाने के लिए सफलतापूर्वक दबाव बनाया। एक बार जब यह जमीन से उतर गया, तो उन्होंने हलाल उत्पादों के विक्रेताओं पर हमला करना शुरू कर दिया। भाजपा सहित कई हिन्दू संगठनों ने आम तौर पर सिर्फ मांस का ही नहीं बल्कि ऐसे सभी उत्पादों के बहिष्कार का आह्वान किया है।
इसके साथ एक दिग्भ्रमित करने वाले संदेश को भी पेश किया जा रहा है: यदि मुसलमान सिर्फ हलाल मीट ही खरीदते हैं (मुस्लिम कसाइयों से), तो बाकी जो नहीं हैं को हलाल मीट का बहिष्कार क्यों नहीं कर देना चाहिए? कई तरह की अवधारणाओं में ‘जिहाद को टैग करने की मूर्खतापूर्ण आदत के बाद, “आर्थिक जिहाद” के इस विचार को भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और कर्नाटक के विधायक सीटी रवि के द्वारा पेश किया गया है। समस्या यह है कि मुसलमान धार्मिक तौर पर दिए गए नुस्खे के कारण हलाल उत्पाद खरीदते हैं। कई हिन्दू व्यापारी और निर्माता भी इन्हें बनाते और बेचते हैं।
मामले को आगे बढ़ाने के लिए कट्टर बजरंग दल के नेतृत्व में कर्नाटक में हिन्दू दक्षिणपंथ ने अब घोषणा की है कि वह अज़ान की आवाज को बढ़ाने के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की अनुमति नहीं देगा। हालाँकि हिन्दू दक्षिणपंथियों ने इसके लिए ध्वनि प्रदूषण पर अपनी चिंताओं का हवाला दिया है, लेकिन ऐसा बताया जा रहा है कि 80% से अधिक मस्जिदों के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार डेसिबल ध्वनि मानकों का पालन किया जाता है।
इन सभी अभियानों का असल मकसद आम तौर पर अल्पसंख्यक समुदायों और खास तौर पर मुसलमानों को डराना-धमकाना है, जबकि चुनावों में जीत के लिए बहुसंख्यक वोट के एक बड़े हिस्से को मजबूत करना है। हमारी बेहद दोषपूर्ण फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट चुनावी व्यवस्था में, बहुसंख्यक समुदाय के भीतर एक महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक हिस्सा चुनावों को स्विंग करा सकता है, जैसा कि भाजपा ने विधानसभा चुनावों के अंतिम दौर में इसे एक बार फिर से करके दिखाया है।
यह विभाजनकारी रणनीति आगे भी काम करती है या नहीं यह देखना बाकी है। या यह तथ्य स्पष्ट नहीं है कि मोदी की भाजपा नई दिल्ली में शासन के बारे में पूरी तरह से अनभिज्ञ है या राज्य आगामी चुनावों को तय करने में एक प्रमुख कारक बनेंगे, इस बारे में हम नहीं जानते। जो कुछ हम कर सकते हैं वह यह है कि हम हिन्दू दक्षिणपंथ की सांप्रदायिकता, भाजपा सरकारों की अक्षमता और सत्तावाद एवं नागरिकों पर उनके हमलों का प्रतिरोध कर सकते हैं।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं शोधकर्ता हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
Hindu Right’s Hate-Mongering Amplifies Communal Dog-Whistle Politics
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