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‘विश्वगुरू’ के अमृत काल में रज़्ज़ाक़ के लिए दो मिनट का मौन

यह कहना अनुचित नहीं होगा कि विगत आठ नौ साल से जबसे केन्द्र में तथा कई राज्यों में हिन्दुत्व वर्चस्ववादी विचारधारा की हिमायती ताक़तें हावी हुई हैं; एक धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक भारत को हिन्दु राष्ट में तब्दील करने की बेहद संकीर्ण विचारधारा का बोलबाला समाज में भी बढ़ा है, तबसे ऐसी घटनाओं में तेज़ी आई है।
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...ज़ुल्म,  तशद्दुद ,झूठ,बग़ावत,आगज़नी, ख़ून, कर्फ़्यू, फायर 

हमने इन्हें विरसे में दिए हैं

ये बच्चे क्या देंगे हमको?

 

(कविता: बच्चे ,  मुसाफिर पालनपुरी,‘कुछ तो कहो यारों !’ सम्पादन आयशा खान)  


 

1. 'न हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा' बल्कि...

अल्पवयस्क 17 साल के रज़्ज़ाक़ को गुजरे दो महीना बीतने को है, जिसने 31 जनवरी को घर के पास के ही रेल पटरी पर आत्महत्या की थी।

वजह यही बतायी गयी है कि स्कूल के अंदर उसके चंद अध्यापक उसकी धार्मिक पहचान को लेकर उसे प्रताड़ित करते थे, उसे जबरन कक्षा के बाहर खड़ कर देते थे, पढ़ाई में बेहद रूचि रखने वाले रज़्ज़ाक़ का, जिसे दुनिया जहान को गहराई से समझने की इच्छा थी, उसका यह कह कर मज़ाक उड़ाते थे कि पढ़ने से क्या फायदा उसे तो आतंकवादी ही बनना है।

रज़्ज़ाक़ के बड़े भाई ने स्कूल में जाकर शिकायत भी की, लेकिन दोषियों पर कार्रवाई होना दूर रहा, मगर उसे ही स्कूल से निकाल दिया गया.

राजस्थान के चुरू जिले के सुजानगढ़ के नूरनगर का रहनेवाला रज्ज़ाक कस्बे के ही सरकारी पूनम चंद बजड़िया स्कूल में 12 वीं कक्षा में आर्टस का विद्यार्थी था, जिसने 10 वीं की परीक्षा अच्छे नंबरो से पास की थी।

किसी भी सभ्य समाज में कठोर से कठोर दिल वाले व्यक्ति के मन में भी रज़्ज़ाक़ की आपबीती पढ़ कर सरकारी स्कूल के अंदर उसे जिस व्यवहार का सामना करना पड़ा, या उसका सुसाईड नोट पढ़ कर रोंगटे खड़े हो सकते हैं ! विडम्बना यह है कि अभी तक इस मामले में कोई खास कार्रवाई नहीं हो सकी है। यं तो उन अध्यापकों के खिलाफ नामजद रिपोर्ट दर्ज हुई है, लेकिन वे गिरफ्तार नहीं हो सके हैं, जिन्होंने कथित तौर पर उसे मुसलमान कह कर बार बार अपमानित किया था। कहा जा रहा है कि वह अध्यापक राजनीतिक रसूख वाले हैं और इसलिए उन पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है।

2. आत्महत्या या संस्थानिक हत्या?

वैसे यह कहना बहुत घिसी पीटी बात हो जाएगी कि अपने अध्यापकों एवं सहपाठियों की प्रताड़ना के चलते - जिसमें सामाजिक आधार पर भेदभाव का - फिर चाहे उसकी पहचान में जाति के पहलू को फोकस किया जाए या धार्मिक पहचान को रेखांकित किया जाए - का जबरदस्त पुट रहा है, आत्महत्या करने वालों में रज़्ज़ाक़ हाल के समय में पहला नहीं है।

यह कहना अनुचित नहीं होगा कि विगत आठ नौ साल से जबसे केन्द्र में तथा कई राज्यों में हिन्दुत्व वर्चस्ववादी विचारधारा की हिमायती ताकते हावी हुई हैं; एक धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक भारत को हिन्दु राष्ट में तब्दील करने की बेहद संकीर्ण विचारधारा का बोलबाला समाज में भी बढ़ा है, तबसे ऐसी घटनाओं में तेजी आयी है।

रोहित वेमुल्ला नामक पीएचडी छात्र द्वारा हैद्राबाद सेन्टल युनिवर्सिटी में संस्थागत भेदभाव एवं अध्यापकों के एक हिस्से के पूर्वाग्रहों से तंग आकर की गयी आत्महत्या - जिसे संस्थागत हत्या कहा गया - के बाद उठे व्यापक जनांदोलन के बाद शिक्षासंस्थानों के अंदर सामने आ रहे ऐसे प्रसग बार बार सूर्खियां बनते रहे हैं । फिर चाहे पायल तड़वी नामक डाक्टर की - जो मुंबई के बी एल नायर अस्पताल में गायनाॅकाॅलोजी में पोस्टग्रेजुएट कर रही थी - अपने सीनियरों की प्रताडना से तंग आकर की आत्महत्या हो / 22 मई 2019/ या आईआईटी मद्रास में फातिमा लतीफ की आत्महत्या का मामला हो। पायल तडवी अनुसूचित मुस्लिम तडवी समाज से जुड़ी थी तो 19 साल की फातिमा लतीफ केरल की रहनेवाली थी जिसने भी अपनी आत्महत्या के लिए उसके एक प्रोफेसर की प्रताडना को जिम्मेदार ठहराया था, अपने माता पिता को लिखे आखरी संदेश में उसने यही लिखा था कि ‘मेरा नाम ही मेरी समस्या है’।

रज़्ज़ाक़ की आत्महत्या इस बात की ताईद करती है कि मामला महज उच्च शिक्षा संस्थानों तक सीमित नहीं है, वह नफरती जहर स्कूलों कालेजों में भी गहराई तक फैला है।

याद किया जा सकता है कि वर्ष 2017 में इस किस्म का एक मामला सूर्खियां बना था, जब कानपुर के एक जानेमाने प्राईवेट स्कूल में 11 वीं कक्षा में पढ़ रहे अल्पसंख्यक समुदाय के एक छात्रा ने आत्महत्या करने की कोशिश की थी, गनीमत यही थी कि उसे बचा लिया गया था। उसका किस्सा भी वही था, जैसी प्रताडना रज़्ज़ाक़ को झेलनी पड़ी थी। उसके भी कई शिक्षक उसके धर्म को लेकर ख़राब टिप्पणियां करते थे, उसे आतंकवादी कह कर बुलाते थे, उसके सहपाठिैयों को उसकेे खिलाफ उकसाते थे। जैसा कि आलम है अपने सुसाईड नोट में उस छात्रा ने जिन शिक्षकों का नामोल्लेख किया, उन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई होगी।

3. शिक्षा संस्थान से दूर रहे धार्मिक शिक्षा!

तय बात है कि छात्रों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं गंभीर हैं, मगर वह एक तरह से उस विशाल विराट समस्या का - जिसे हम भारतीय समाज में गहराई तक फैले जातिगत एवं सांप्रदायिक पूर्वाग्रह कह सकते हैं, - ऊपरी सिरा कह सकते हैं।

अगर स्कूलों के अंदर बहिष्करण का सिलसिला इस तरह जारी रहेगा, पार्थक्य को बढ़ावा दिया जाएगा तो उसके परिणाम सुखद नहीं होेंगे, इसकी तरह एनसीईआरटी ने पहले ही इशारा किया था और सही वक्त़ पर वाजिब कदम उठाने की सलाह दी थी।

याद रहे एनसीईआरटी नेशनल कौन्सिल फार एजुकेशनल रिसर्च एण्ड टेनिंग - जिसका गठन प्रथम प्रधानमंत्राी जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में हुआ था और जिसे यह जिम्मा दिया गया था कि स्कूली शिक्षा के सुधार के लिए वह नीतिगत एवं कार्यक्रम के स्तर पर केन्द्र और राज्य सरकारों के सलाहकार की भूमिका अदा करे - उसने कुछ साल पहले अपने एक मैन्युअल में इस बात की तरफ इशारा किया था कि अगर शिक्षा संस्थानों में खास धर्म के देवों को, उनके त्यौहारों को बढ़ावा मिलेगा / जैसा कि विगत कुछ साल में केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों के स्तर पर देखने को मिल रहा है / तो उसका प्रभाव किस तरह नकारातमक हो सकता है। उसके द्वारा तैयार मैन्युअल का फोकस लगभग इसी बात पर है कि स्कूल असेम्ब्ली में होनेवाली प्रार्थनाएं और इनकी दीवारों पर चस्पां किए गए देवी देवताओं की तस्वीरें किस तरह अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों में पार्थक्य की भावना पैदा करते हैं। उसने यह भी सुझाव दिया है कि स्कूलों के अन्दर धार्मिक अल्पसंख्यकों से जुड़े त्यौहारों को प्रोत्साहित किया जाए, स्कूल के अन्दर धार्मिक आयोजनों में ऐसे बच्चों के साथ अधिक संवेदनशीलता के साथ पेश आया जाए।

कहा जा सकता है कि 40 के दशक के उत्तरार्द्ध में जब दक्षिण एशिया का यह हिस्सा धार्मिक उन्माद से फैली हिंसा से उबरने की कोशिश में मुब्तिला था, उन दिनों स्वाधीन भारत के संविधान निर्माताओं ने बेहद दूरंदेशी का परिचय दिया था। उस घड़ी में ही जब आपसी खूंरेजी उरूज पर थी, उनके सामने यह बिल्कुल साफ था कि अगर मुल्क को प्रगति की राह पर ले जाना है तो बेहतर है कि एक नयी जमीन तोड़ी जाए, स्कूल/शिक्षा संस्थान - जिनका बुनियादी मकसद बच्चों/विद्यार्थियों के दिमाग को खोलना है और उन्हें बेकार की चीज़ें ठूंसे जाने का गोदाम नहीं बनाना है - धार्मिक शिक्षा से दूर रखे जाएं। उसी संकल्प की छाया एनसीईआरटी के मैन्युअल पर दिखती है।

अगर हम मौजूदा सियासी समाजी हालात पर निगाह डालें तो यही आकलन बनाया जा सकता है कि चाहे स्कूलों-कालेजों के अंदर हों या सड़कों पर या समाज एवं राजनीति में  स्थितियां सुधरने के बजाय बिगड़ने की ओर अधिक उन्मुख हैं।

हम इसे स्कूल में कौन गीत गाए जाए, कौनसी प्रार्थनाएं सुनायी जाए, टिफिन में विद्यार्थी क्या लेकर जाएं से लेकर किताबों में महज ‘अम्मी अब्बू’ जैसे शब्दों का जिक्र होने पर आगबबूला होते दिखते हिन्दुत्व चरमपंथियों की हरकतों से देख सकते हैं।

सामाजिक तौर पर वंचित उत्पीड़ित छात्रों की स्कालरशिप्स को भी बंद करने के नए नए नुस्खे ढूंढे जा रहे हैं। कांग्रेस के अगुआई वाले यूपीए सरकार की पहल पर अल्पसंख्यकों की शिक्षा की बेहतरी के लिए मौलाना आज़ाद फेलोशिप का निर्माण किया गया था, जिसके तहत होनहार छात्रों को स्काॅलरशिप दी जाती थी, उसे भी अचानक बंद किया गया।

कर्नाटक राज्य से शुरू हुआ हिजाब पहनी छात्राओं को स्कूल में पहुंचने से रोकना ऐसे ही कदमों में से एक कदम है।  इधर आंकड़े इसी बात की ताईद करते हैं कि मुस्लिम लड़कियों की स्कूलों में तादाद बढ़ती गयी है। () ऐसे समय में इस विवाद को जानबूझकर खड़ा किया गया है। अगर यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि मुस्लिम लड़कियां आधुनिक शिक्षण लेने के लिए ऐसे स्कूलों में पहुंचने के बजाय धार्मिक स्कूलों, मदरसों में जाएगी आौर एक तरह से वहां के वातावरण में स्वतंत्रा विचार करने के सिलसिले से दूर रहेंगीै। 

विडम्बना ही है कि देश की आला अदालत ने भी इस मामले में तत्काल कोई फैसला न सुनाकर एक तरह से ‘कपड़े के एक टुकड़े के लिए लड़कियों की शिक्षा को तबाह करने की हिन्दुत्व वर्चस्ववादी ताकतों की कोशिशों पर रोक नहीं लगायी है।

अब आलम यहां तक पहुंचा है कि स्कूल कालेजो में अध्यापनरत विद्वानों को - जो अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं - उन्हें भी बहाना बना कर टार्गेट किया जाए, ताकि वह ज्ञान की ज्योेति आगे ले जाने के काम को भी प्रभावी ढंग से न कर सकें

समाज में नफरती भाषणों की आती बहार और धर्मसंसदों के नाम पर समुदायविशेष को निशाना बनाने के खुल्लमखुल्ला आवाहन और सत्ता की बागडोर थामे लोगों की इसके प्रति अनदेखी भी इस बिगड़ते वातावरण का संकेत देती है।

4. आशा की किरण?

वैसे शिक्षा संस्थानों में अध्यापकों के एक हिस्से द्वारा नफरत को नार्मलाइज करने की कोशिशों का कहीं कहीं प्रतिवाद भी होता रहता है, जो आशा की एक किरण है।

बेंगलुरू के मणिपाल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलोजी की एक कक्षा में कथित तौर पर रिकॉर्ड किया गया एक वीडियो पिछले साल अचानक वायरल हुआ था, इस वीडियो में एक अध्यापक एक मुस्लिम छात्रा को ‘आतंकवादी’ कह कर संबोधित करते दिखते हैं, जिसका वह सख्ती से प्रतिवाद करता है। 45 सेकंड के इस वीडियो में छात्रा एवं अध्यापक का संभाषण दर्ज है, जिसके अंतमें प्रोफेसर छात्रा से माफी मांगते हैं, इतनाही नहीं वह यह भी कहते दिखते हैं कि ‘वह उनके बच्चे जैसा है’ और ऐसी बातें कहना ‘‘मज़ाक’’ है। छात्र प्रतिवाद करता है कि कत्तई यह मज़ाक नहीं है।

यह अच्छी बात है कि इस घटना के उजागर होने पर संस्थान के उपरोक्त प्रोफेसर को तत्काल निलंबित किया था।

निश्चित तौर पर अभी लंबी दूरी तय करनी है।

वह शायद 1935 का साल था जब यूरोप में नाज़ी आंदोलन अपने उरूज पर था, जब यहूदियों के खिलाफ जर्मनी से लेकर अगल बगल के मुल्कों में संगठित हिंसा तेज हो रही थी, उन्हीं दिनों यूरोप की शब्दावली में एक नए लब्ज का आविष्कार हुआ जिसे घेट्टो बेचेंस कहा जाता था।

यह दरअसल विश्वविद्यालयों में यहूदी छात्रों के साथ भेदभाव को आधिकारिक शक्ल प्रदान करने का एक तरीका था, जिसकी शुरूआत पोलंड के लिवो पोलिटेक्निक, लिव (Lwow Polytechnic, Lviv) में हुई जिसके तहत वहां यहूदी छात्रों के लिए कक्षाओं में बेंच की एक अलग पंक्ति तय की गयी और उन्हें यह विकल्प दिया गया कि वह या तो उस पंक्ति में बैठे या फिर शिक्षा संस्थान से निष्कासित होने के लिए तैयार हों।

घेटो बेंचेंस को शुरू करने की परिणति किस तरह यहूदियों के निष्कासन, उन्हें यातना शिविरों में भेजे जाने या लाखों की तादाद में वहां गैस चेम्बर्स में भेज कर उनके नस्लीय जनसंहार में हुई, यह सब बातें इतिहास में दर्ज हैं, जिसे कोई याद तक नहीं करना चाहता।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।

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