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मोदी के आंसुओं का एक संक्षिप्त इतिहास: वह कब रोते, कब नहीं रोते

गले का रुंधना आसान काम नहीं होता, लेकिन वक़्त के साथ इसका भावनात्मक असर कम होता जाता है।
मोदी

नरेंद्र मोदी के सार्वजनिक रूप से रोने का पहला दर्ज वाकया 14 जनवरी 2004 का है, यह उनके प्रधानमंत्री बनने से एक दशक पहले की बात है। मोदी उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे। जिस जगह पर वे जज्बाती हुए थे, वह भुज का जीके अस्पताल था, जिसे गुजरात में आये 2001 के भूकंप में ध्वस्त होने के बाद फिर से बनाया गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उस अस्पताल का उद्घाटन किया था और उनके उद्घाटन से पहले मोदी ने वहां दर्शकों को संबोधित किया था। गुजरात के हिंदुस्तान टाइम्स के संवाददाता, रथिन दास ने लिखा था, "कच्छ के लोगों ने भूकंप का दंश किस तरह झेला है, उसे याद करते हुए एक मिनट के लिए मोदी कुछ देर फूट-फूट कर रो पड़े थे..."

मोदी के जज़्बाती होने की सबसे हालिया घटना 21 मई को अपने निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में डॉक्टरों और फ़्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के साथ वीडियो कॉफ़्रेंस के दौरान की है। वह कोविड-19 से “जान गंवाने वाले लोगों” के परिवारों के प्रति संवेदना व्यक्त करते हुए ख़ुद को रोक नहीं पाये थे। हालांकि, भुज के उलट यहां मोदी की आंखों से आंसू नहीं गिरे थे।

इन दो घटनाओं के अलावे मोदी के जज़्बाती होने, उनके आंखों में आंसू आने या फिर उनके गला रुंधने के कम से कम सात घटनायें और भी हैं। मीडिया उन पलों को बताने के लिए जिन तमाम शब्दावलियों का इस्तेमाल करता है। उनसे मोदी को फ़ायदा पहुंचता रहा है। हालांकि, मोदी दुनिया के पहले ऐसे नेता नहीं हैं, जिन्होंने सार्वजनिक रूप से आंसू बहाये हों।

नेता रोते क्यों हैं

मौक़ा चाहे अपनी तारीफ़ में बातें सुनने का हो या फिर 1953 में क्वीन मैरी की मौत का ऐलान करने का हो, विंस्टन चर्चिल अक्सर आंसुओं से जार-जार हो जाते थे। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति, बिल क्लिंटन को एक टीवी क्रू को देखने और अपनी आंखें पोंछने से पहले एक अंतिम संस्कार में हंसते हुए देखा गया था। राजकुमारी डायना की मौत के बाद ब्रिटिश प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर की आंखों से "आंसू टपक" पड़े थे। हालांकि, अपने करियर में कोई भी नेता उतनी बुरी तरह नहीं रोया था, जितना कि एडमंड मस्की (जिमी कार्टर के शानसकाल में विदेश मंत्री) रोये थे। मस्की 1972 में इसलिए रोये थे क्योंकि एक अख़बार ने उनकी पत्नी को शराबी और नस्लवादी होने की सूचना दी थी। उनके आंसुओं ने डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति पद का नामांकन किये जाने की उनकी संभावनाओं को चकनाचूर कर दिया था।

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि नेता इसलिए रोते हैं क्योंकि वे अपने दर्शकों से छोटे बच्चों की तरह लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं। देखना चाहते हैं और सहानुभूतिपूर्ण प्रतिक्रिया चाहते हैं। यह हमेशा एक ढोंग नहीं होता, हालांकि उनके आंसू उनके आलोचकों की आक्रामकता को भोथरा ज़रूर बना देते हैं।

लेकिन, जो नेता अक्सर आंसू बहाते हैं, उन्हें अक्सर झूठे जज़्बाती होने के तौर पर देखा जाता है, जैसा कि ब्लेयर के साथ हुआ था। व्यवहार विशेषज्ञ, जूडी जेम्स ने बीबीसी को बताया था, "वह जब-तब एक राजनीतिक मुद्रा के तौर पर 'आंसू टपकाना' शुरू कर देते थे, और लोगों को तब इस पर संदेह होने लगा। लोगों को लगने लगा था कि ये आंसू स्वाभाविक नहीं, बल्कि जान-बूझकर टपकाये जाने वाले आंसू हैं।” ऐसा माना जाता है कि जब नेताओं को जज़्बाती होने से फ़ायदा होता हुआ दिखता है, तो वे जज़्बाती होने का स्वांग करने लगते हैं।

मोदी को बार-बार रोने वाले नेताओं की श्रेणी में शामिल इसलिए किया जाना चाहिए, क्योंकि उनके साथ जज़्बाती होने का प्रकरण साल में एक बार ज़रूर होता है। उनके रोते हुए पलों के विश्लेषण करने से पता चलता है कि जब भी वह अपने बचपन के संघर्षों, अपनी मां, प्रधान मंत्री के पद पर तक पहुंचने और गुजरात और वहां के लोगों की बातें करते हैं, तो उनके आंसुओं का पारावार नहीं होता।

मोदी कब रोये

मोदी मई 2014 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को शानदार जीत दिलाने के बाद संसदीय दल के नेता के रूप में चुने जाने के बाद रो पड़े थे। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने जब यह कहा था कि मोदी ने पार्टी पर उपकार किया है, इसके जवाब में मोदी रो पड़े थे। मोदी ने तब कहा था, "...जिस तरह भारत मेरी मां है, उसी तरह बीजेपी भी मेरी मां है...एक बेटा का मां पर कैसे उपकार हो सकता है? " उन्होंने बीजेपी को एक "ग़रीब लड़के" को वहां तक पहुंचाने का श्रेय दिया था, जहां वह पहुंचे हैं।

एक साल बाद, सितंबर 2015 में टाउन हॉल में हो रही चर्चा के दौरान फ़ेसबुक के संस्थापक और सीईओ, मार्क जुकरबर्ग के साथ बातचीत में मोदी अपनी मां और ग़रीबी की कहानी कहते हुए रो पड़े थे। अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि को लेकर मोदी से जुकरबर्ग के सवाल पर मोदी ने कहा था, "मां... 90 से ज़्यादा उम्र की हैं, लेकिन अपने सारे काम ख़ुद ही करती हैं।" उसी समय उनकी आवाज़ लरजने लगी थी। उन्होंने रुक-रुक कर और सुबक-सुबक कर अपनी बातें जारी रखते हुए कहा था कि उनकी मां ने उन्हें पालने के लिए अपने पड़ोसियों के घरों में बर्तन तक मांजे थे।

वह वाक़ई दिल को छू लेने वाला एक यादगार पल था। इसके अलावे, द वाशिंगटन पोस्ट ने ‘नरेंद्र मोदी’ किताब के लेखक, नीलांजन मुखोपाध्याय को उद्धृत करते हुए लिखा है: आधिकारिक तौर पर कहीं भी इस बात के दावे की पुष्टि के समर्थन में कोई बात नहीं मिलती कि “मोदी की मां ने कभी किसी के घर में काम भी किया था।”

अगस्त 2016 में आध्यात्मिक गुरु और बोचासनवानी अक्षर स्वामीनारायण संथा के अध्यक्ष, प्रमुख स्वामी के निधन पर दिये गये एक भाषण के दौरान मोदी अपने "आंसुओं को रोकते हुए" दिखे थे। इस मौक़े पर मोदी का भावुक होना समझा जा सकता था, क्योंकि बताया जाता है कि मोदी और प्रमुख स्वामी एक दूसरे के बेहद क़रीबी थे।

लेकिन, शोक जताने वाले उनके उस भाषण में भी उनकी ग़रीबी का ज़िक़्र सामने आया था। मोदी ने तब कहा था कि प्रमुख स्वामी चाहते थे कि वह दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर की आधारशिला रखने के समारोह में शामिल हों। द इंडियन एक्सप्रेस ने मोदी को यह कहते हुए उद्धृत किया था, "प्रमुख स्वामी ने अपने एक संत को उस अनुष्ठान के दौरान कुछ पैसों के साथ उनके पास इस विश्वास के साथ भेजा था कि मेरी जेब में कुछ भी नहीं होगा।"

इस घटना के दो महीने बाद ही नवंबर 2016 में गोवा में प्रधान मंत्री का "भावनाओं में गला रुंध गया" था, जहां उन्होंने राष्ट्र से अपनी नोटबंदी नीति से पैदा होने वाली मुश्किलों को सहन करने का अनुरोध किया था। उनकी वह जज़्बाती अपील भी व्यक्तिगत थी, जो उनकी नौजवानी के दिनों में उनकी तरफ़ से किये गये बलिदानों के विवरण से ओतप्रोत थी। मोदी ने कहा था, "मैं यहां कुर्सी (ऊंचे पद) के लिए नहीं हूं, मैंने देश के लिए अपना घर, परिवार, सब कुछ छोड़ दिया है।"

मोदी ने तब अपने "भाइयों और बहनों" से कहा था कि उनकी नोटबंदी नीति के चलते हुई अफ़रा-तफ़री को ख़त्म करने के लिए उन्हें 50 दिन का समय दे दें। उन्हें ऐसा इसलिए करना चाहिए क्योंकि उन्हें मालूम है कि उनका मुक़ाबला "किस तरह की ताक़तों" से है। मोदी ने मीडिया की सुर्खियां तत्क्षण बटोरते हुए कहा था, "मुझे पता है कि वे मुझे जीने नहीं देंगे।"

मोदी के जज़्बाती होने का अगला वार्षिक रस्मअदायगी दिसंबर 2017 में हुई थी। गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा को कड़े मुक़ाबले में जिताने के बाद उन्होंने अपनी पार्टी के सांसदों को सामने भाषण दिया था। दि प्रिंट वेबसाइट ने मोदी को "अपने गृह राज्य से प्रधानमंत्री कार्यालय तक पहुंचने के उनके सफ़र का ज़िक़्र करते हुए तीन बार टूट जाने की बात” बतायी थी। उन्होंने अपने सामने बैठे लोगों को यह भी बताया कि पीएमओ में उनके पूर्ववर्तियों में से किसी ने भी तीन सालों में इतनी चुनावी जीतें हासिल नहीं की थीं।

मोदी के भावुक होने का पल 2018 में दिल्ली में राष्ट्रीय पुलिस स्मारक के उद्घाटन का मौक़ा भी था, जहां पुलिस कर्मियों की सेवाओं और शहादत का वर्णन करते हुए उनका गला रुंध गया था। हालांकि, अपने उस भाषण में मोदी ने इस बात हैरानी भी जतायी थी कि सत्ता में उनके आने से पहले पिछले 70 सालों में आख़िर ऐसा स्मारक क्यों नहीं बनाया जा सका।

आम आदमी पार्टी की विधायक, अलका लांबा ने मोदी के थोड़े भावुक, थोड़े जुझारू भाषण के चलते ही शायद ट्वीट किया था, "लोग पहले कहा करते थे, 'तुम बात-बात पर किसी महिला की तरह क्यों रोते हो?' मगर, अब, लोग कहते हैं, 'तुम बात-बात पर मोदी की तरह क्यों रोते हो ?'” लांबा के इस ट्वीट से सोशल मीडिया पर तूफ़ान खड़ा हो गया।

जब देश रोता है

2019 में मोदी अपनी शान और लोकप्रियता के नये आकाश पर थे। उन्होंने 2019 का लोकसभा चुनाव जीत लिया था। उनकी सरकार की तरफ़ से अनुच्छेद 370 को ख़त्म किये जाने के बाद कश्मीरियों को उनके घरों में नज़रबंद कर दिया गया था और इसके बाद मुसलमानों और उदार हिंदुओं को नागरिकता संशोधन अधिनियम के अधिनियमित होने पर निराशा और भय के माहौल में सड़कों पर उतर जाना पड़ा था। मोदी ने मार्च, 2020 में चार घंटे की मोहलत पर राष्ट्रीय लॉकडाउन का आदेश दे दिया था, जिससे एक करोड़ डरे हुए प्रवासी श्रमिक घर जाने के लिए पैदल ही चल पड़े थे। 2018 भीमा-कोरेगांव हिंसा में उनकी कथित भूमिका के लिए आनंद तेलतुम्बडे, गौतम नवलखा और फादर स्टेन स्वामी जैसे बुद्धिजीवियों की तरह ही सीएए विरोधी कार्यकर्ताओं को भी जेल में डाल दिया गया था। महीनों बाद मोदी सरकार ने तीन नये कृषि क़ानून पारित कर दिये, ये क़ानून किसानों के डर और ग़ुस्से को बड़े पैमाने पर बढ़ाने वाले क़ानून थे। 

देश का एक बड़ा तबक़ा तब रो रहा था।

लेकिन, मोदी को आंसू बहाते हुए किसी ने नहीं देखा।

मोदी का अगला भावनात्मक क्षण एक असाधारण परिस्थिति में आया था और वह समय था-ग़ुलाम नबी आज़ाद की राज्यसभा से विदाई, जिनका कार्यकाल फ़रवरी 2021 में ख़त्म हो गया था। मोदी ने इस दौरान भाषण दिया था। मोदी की नाटकीयता का वह एक ऐसा उत्कृष्ट प्रदर्शन था, जिसमें उनकी आंखें नम थीं, लंबे विराम था, और अंतराल के बाद पानी की चुस्की लेना शामिल था। लेकिन, जिस चीज़ ने उन्हें द्रवित किया था, वह था-2006 में उस दिन की उनकी वह याद थी, जब बतौर जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री आज़ाद ने उन्हें निजी तौर पर 2006 में गुजराती पर्यटकों पर आतंकवादी हमले के बारे में सूचित करने के लिए फ़ोन किया था। कुछ विश्लेषकों ने उनकी कमज़ोरी के उस क्षण की व्याख्या इस बात के सबूत के तौर पर की थी कि वह सभी विपक्षी नेताओं का तिरस्कार नहीं करते।

21 मई तक सिर्फ़ राष्ट्रीय पुलिस स्मारक में दिये गये अपने भाषण के दौरान ही मोदी अपने बचपन या राजनीतिक संघर्षों या गुजरात को लेकर नहीं रोये थे। इस अपवाद में वाराणसी के चिकित्साकर्मियों के साथ वीडियो कॉन्फ़्रेंस के दौरान मोदी का रोना भी जुड़ गया है। केंद्र सरकार की तरफ़ से हुए कोविड-19 महामारी के घोर कुप्रबंधन के चलते देश को आघात पहुंच रहा है, इसलिए लगता है कि मोदी को भी आघात पहुंचने लगा है।

इसके बावजूद, वाराणसी के नागरिकों के साथ बातचीत के दौरान उनके गला रूंधने की ख़बर भाजपा के पक्ष में अखबारों में भी नहीं छपी। शायद व्यवहार विशेषज्ञ जूडी जेम्स ने जो कुछ कहा है, उसे अख़बारों ने महसूस कर लिया हो कि रोने वाले नेताओं को दर्शकों का हमेशा साथ मिलता तो है, मगर उनका बौद्धिक पक्ष धीरे-धीरे सामने ज़रूर आने लगता है। ख़ास तौर पर जिन्हें "कुछ चाहिए" होता है, वे नेताओं के इस तरह की अतिनाटकीयता से चिड़चिड़े हो जाते हैं।”

मोदी किसी भी दूसरे नेता की तरह ही चाहते हैं कि उनकी लोकप्रियता में गिरावट नहीं आये। मोदी के रोने के इस संक्षिप्त इतिहास से पता चलता है कि उनके आंसू ज़्यादातर उनके ख़ुद को लेकर हैं, सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ुद को लेकर।

लेखक दिल्ली स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

A Brief History of Modi’s Tears: When he Cries, When he Doesn’t

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