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क्यों घोंटा जा रहा है मनरेगा का गला! 

यूपीए-2 के दौरान ही मनरेगा से पीछे खिसकने की शुरूआत हो चुकी थी। कई साल तक इसके लिए बजट आवंटन 60,000 करोड़ रुपए के करीब ही बनाए रखा गया।
MGNREGA

मनरेगा की शुरूआत, यूपीए-1 की सरकार ने की थी। इसकी शुरूआत, इस सरकार के अंदर मौजूद नवउदारवादी लॉबी के विरोध के बावजूद और वामपंथ के सक्रिय हस्तक्षेप के चलते हुई थी, जो उस सरकार को बाहर से समर्थन दे रहा था। यह कानून शुरूआत से ही एक सीमा के साथ बंधा हुआ था। यह कानून साल में सिर्फ 100 दिन के रोजगार का वादा करता था और वह भी ग्रामीण क्षेत्र में हरेक परिवार में केवल एक व्यक्ति के लिए। लेकिन, उक्त दोनों ही बंदिशें लगायी गयी थीं, एक आर्थिक अधिकार पर, जो यह कानून देता था। इस कानून के तहत, रोजगार के पात्र को रोजगार देने से इंकार नहीं किया जा सकता था और अगर रोजगार मांगने वाले को एक निश्चित अवधि में रोजगार मुहैया नहीं कराया जाता, तो उसे मुआवजा देना पड़ता। 

संक्षेप में यह एक मांग से संचालित कार्यक्रम था। मांग होने पर ज्यादा रोजगार मुहैया कराया जाए। यूपीए-2 के दौरान ही म(ग)रेगा से पीछे खिसकने की शुरूआत हो चुकी थी। कई साल तक इसके लिए बजट आवंटन 60,000 करोड़ रु. के करीब ही बनाए रखा गया। इसका अर्थ यह था कि कीमतों में बढ़ोतरी के लिए और श्रम शक्ति के आकार में बढ़ोतरी के लिए तथा इसके चलते, अगर बाकी सब जस का तस रहे तो रोजगार मांगने वालों की संख्या में बढ़ोतरी के लिए और जाहिर है कि गहराते कृषि संकट के लिए भी, कोई गुंजाइश ही नहीं रखी जा रही थी। और संसद में जब भी इस कंजूसी का मुद्दा उठाया जाता, सरकार की ओर से एक ही रटा-रटाया जवाब दे दिया जाता था कि मनरेगा तो एक मांग से संचालित कार्यक्रम है और इसके लिए बजट आवंटन का तो कोई खास महत्व है ही नहीं। मांग के हिसाब से इसके लिए वास्तविक आवंटन में तब्दीली कर दी जाएगी और अगर यह पाया गया कि  इस योजना के अंतर्गत कहीं ज्यादा लोग रोजगार मांग रहे हैं, तो इसके लिए आवंटन कभी भी बढ़ाया जा सकता है।

लेकिन, इस जवाब में समस्या यह है कि अगर मांग ज्यादा होने से मनरेगा का आवंटन बढ़ा भी दिया जाता है, तब भी इस बढ़ोतरी को प्रभावी होने में समय लगता है और इस देरी का मतलब होता है, बकाया मजदूरी का बढऩा, इस अंतराल में मनरेगा मजदूरों की परेशानी और इसके चलते, मनरेगा के तहत रोजगार हासिल करने तक के प्रति, लोगों का हतोत्साहित किया जाना। इस तरह, मनरेगा के लिए शुरूआती आवंटन जरूरत से घटकर रखे जाने का असर, इस कार्यक्रम के अंतर्गत रोजगार की मांग के ही घटने के रूप में सामने आता है। इसलिए, यह धारणा ही गलत है कि शुरूआती आवंटन कम रहने का इस कार्यक्रम के अंतर्गत मांग पर कोई असर नहीं पड़ता है और मांग ज्यादा आने के हिसाब से आवंटन तो बाद में भी बढ़ाया जा सकता है। और जब मजदूरी का समय पर भुगतान न हो पाना, इस योजना के अंतर्गत रोजगार की मांग को ही अवरुद्घ कर रहा होता है, इस तथ्य का इस्तेमाल शुरूआती बजट आवंटन पहले ही कम रखे जाने को उचित ठहराने के लिए किया जाता है और यह अगले वर्ष भी,आवंटन मांग के मुकाबले घटाकर रखे जाने की ही दलील बन जाता है।

रोजगार के भिन्न संदर्भ में जिसे ‘हतोत्साहित मजदूर प्रभाव’ या डिसकरेज्ड वर्कर इफैक्ट कहते हैं, यह उसी तरह की चीज है। जिस तरह से उन्नत पूंजीवादी देशों में, ऊंची बेरोजगारी दरों के दौर में, रोजगार मिलने की कोई उम्मीद ही नहीं देखकर, बहुत से बेरोजगार मजदूर, रोजगार की तलाश ही छोड़ देते हैं तथा इस तरह श्रम शक्ति में गिनती से ही बाहर निकल जाते हैं, उसी प्रकार ग्रामीण भारत में मनरेगा की मजदूरी के भुगतान में देरी, बहुत से मजदूरों को मनरेगा के अंतर्गत रोजगार मांगने से ही हतोत्साहित करती है। इस तरह, मनरेगा के लिए शुरूआत में बजट आवंटन ही जरूरत के मुकाबले घटकर रखे जाने का असर, इसके अंतर्गत काम की मांग में ‘हतोत्साहित मजदूर प्रभाव’ आने के रूप में होता है।

मोदी सरकार ने मनरेगा के लिए आवंटन घटकर रखे जाने की इस आदत को अति तक पहुंचा दिया है। वास्तव में मोदी ने शुरूआत तो मनरेगा-विरोधी रुख से ही की थी। हालांकि, बाद में उनकी सरकार की इस कार्यक्रम को ही पूरी तरह से खत्म करने की हिम्मत नहीं हुई, उनकी सरकार ने जरूरत के मुकाबले घटकर आवंटन करने के जरिए इसका गला दबाने का काम जरूर किया है। 2019-20 में इस योजना पर वास्तविक खर्च 71,687 करोड़ रु. रहा था। लेकिन, 2020-21 का बजट आवंटन घटाकर 61,500 करोड़ रु. कर दिया गया। लेकिन, यह ऐसा साल था जिसमें लॉकडाउन लगाए जाने के चलते, लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूरों का, शहरों से उलट पलायन हुआ था क्योंकि अचानक ही परदेस में उनका काम, उनकी आमदनी और सिर के ऊपर छत, सब छिन गए थे। इस संकट में घर लौटने पर उन्हें बस मनरेगा से ही सहारा मिला था। इस योजना के अंतर्गत काम की मांग में अचानक भारी बढ़ोतरी हुई थी और सरकार को इस योजना के अंतर्गत आवंटन बढ़ाकर, 1,11,500 करोड़ रु. करना पड़ा था।

लेकिन, इसके अगले साल यानी 2021-22 का बजट आवंटन, फिर से घटाकर 73,000 करोड़ रु. कर दिया गया यानी पिछले साल हुए खर्च से पूरे 37,500 करोड़ रु. कम। खैर, इसे भी आंशिक रूप से ही सही, फिर भी उस सूरत में समझा तो जा सकता था, अगर अर्थव्यवस्था की बहाली हो गयी होती और रोजगार, लॉकडाउन के पहले वाले स्तर तक पहुंच गये गए होते। लेकिन, सभी जानते हैं कि जीडीपी मुश्किल से ही पहले वाले स्तर पर दोबारा पहुंच पाया है और रोजगार अब भी लॉकडाउन से पहले के स्तर से काफी नीचे बना हुआ है। ऐसा इसलिए हुआ है कि लघु उत्पादन क्षेत्र, जो कहीं ज्यादा रोजगार सघन क्षेत्र है, अब भी बेहाल ही बना हुआ है। इसलिए, मनरेगा के अंतर्गत रोजगार की मांग, हद से हद यह कि पिछले साल के मुकाबले थोड़ी सी कम हो सकती है। ऐसे में मनरेगा के बजट आवंटन का, पिछले साल के मुकाबले 38,500 करोड़ रु. कम किया जाना और उसे 2019-20 के वास्तविक खर्च के स्तर तक ही सीमित किया जाना, इस कार्यक्रम का गला घोंटा जाना ही माना जाएगा।

बेशक, सरकार ने 25 नवंबर को ही इसकी घोषणा की है कि वह इस योजना के तहत आवंटन में 10,000 करोड़ रु. की बढ़ोतरी करने जा रही है। लेकिन, यह तो बहुत ही अपर्याप्त है। मजदूरी का बकाया पहले ही बढ़ता जा रहा था। वर्तमान हालात में अनुदार से अनुदार अनुमान लगाएं तो भी स्थिति यह है कि पूरे साल का बजट आवंटन, वित्त वर्ष के सात महीने पूरे होने से भी पहले ही खत्म हो चुका है। मनरेगा के परिपालन की वर्तमान गति से भी यानी शुरूआती आवंटन घटकर रखे जाने से पैदा होने वाले ‘हतोत्साहित मजदूर प्रभाव’ को, जिसकी काट इस कार्यक्रम के परिपालन की रफ्तार में तेजी से की जानी चाहिए, गिनती में नहीं लिया जाए तब भी, इस कार्यक्रम के लिए चालू वित्त वर्ष में कम से कम 30,000 करोड़ रु. की अतिरिक्त जरूरत होगी। 

केंद्र सरकार को इसमें से सिर्फ 10,000 करोड़ रुपए देना ही मंजूर हुआ है। वास्तव में, इस योजना का फाइनेंशियल स्टेटमेंट तो 25 नवंबर को, 9,888 करोड़ रुपए का ऋणात्मक जमा ही दिखा रहा था (द हिंदू, 26 नवंबर)। अगर सरकार द्वारा घोषित अतिरिक्त आवंटन से बस इस घाटे की ही भरपाई होने जा रही है, चालू वित्त वर्ष के बचे हुए चार महीनों का क्या होगा?

इस मामले में सरकार की कृपणता अकारण भी है और नासमझी भरी भी है। यह कृपणता अकारण या समझ में ही नहीं आने वाली इसलिए है कि अगर सरकार मगनरेगा पर 100 रु. खर्च करती है, इस खर्च के मजदूरी के हिस्से तथा सामग्री के हिस्से का, 60:40 का जो वैधानिक अनुपात तय है, उसके हिसाब से 60 रु. मजदूरी में लगेंगे। और अगर मजदूर अपनी मजदूरी का 40 फीसद खाद्यान्न की खरीद पर ही लगा रहे हों, तो वे 24 रु. तो खाद्यान्न खरीदने पर ही लगा रहे होंगे। लेकिन, सरकार के खाद्यान्न के भंडार पहले ही भरे हुए हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि खर्च किए जाने वाले 100 रुपए में से 24 रुपए तो हाथ के हाथ सरकार के हाथ में वापस ही आ जाएंगे। इसलिए, अगर इस पूरे के पूरे खर्चे की वित्त व्यवस्था राजकोषीय घाटे से की जा रही हो तो, खर्चों के पहले चक्र के बाद वास्तविक राजकोषीय घाटा, शुरू में माने जा रहे राजकोषीय घाटे के तीन-चौथाई के बराबर ही बैठेगा।

बेशक, पहले की स्थिति से विपरीत, अब भारतीय खाद्य निगम का जमा-खर्च, सरकार के बजट में नहीं आता है। लेकिन, इसके बावजूद हम इस बुनियादी सचाई की ओर से आंखें नहीं मूंद सकते हैं कि इस मद में सरकार जो भी खर्च करेगी, उसका चौथाई हिस्सा तो हाथ के हाथ उसके पास लौट ही आएगा। इसी प्रकार, इस शुरूआती मांग से पैदा होने वाले खर्चों के विभिन्न चक्रों में भी, मिसाल के तौर पर इस कार्यक्रम में लगने वाली सामग्री के उत्पादनकर्ताओं द्वारा अपनी कमाई का एक हिस्सा खर्च किए जाने से तथा वे यह खर्च जिन उत्पादनकर्ताओं के माल खरीदने के लिए करेंगे, उनके भी अपनी आमदनी का एक हिस्सा खर्च किए जाने आदि, आदि से, खाद्यान्नों की दूसरे, तीसरे आदि चक्रों की मांग भी पैदा होगी और इस सब से भारतीय खाद्य निगम के भंडार कम होंगे और इस तरह, इन भंडारों के रख-रखाव का और इन भंडारों को जमा कर रखने पर आने वाले ब्याज पर सरकार का खर्चा, उसी हिसाब से कम हो जाएगा।

इस तरह अगर सरकार, सिर्फ राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी के सहारे मनरेगा पर अपने खर्च में बढ़ोतरी करती है तब भी, इस घाटे का कोई प्रतिकूल असर पडऩे ही वाला नहीं है और इस तरह खर्च किए जाने वाले पैसे में बड़ा हिस्सा तो भारतीय खाद्य निगम के जरिए, सरकार के पास वापस ही लौट आने जा रहा है। इस तरह, वास्तविक राजकोषीय घाटा (अगर हम सरकार के बजट तथा भारतीय खाद्य निगम के खातों को जोड़कर देखें तो), सिर्फ बजट को ही देखा जाए तो पहली नजर में जितना राजकोषीय घाटा नजर आता है, उससे काफी कम ही बैठेगा। वास्तव में अगर हम यह मान लेते हैं  कि मनरेगा पर सरकार के इस खर्चे से, जिनकी भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आय होती है, वे अपनी इस पूरी आय को उपभोग में ही लगाएंगे, तो इस कार्यक्रम पर सरकार द्वारा किया जाने वाला पूरा का पूरा खर्च, भारतीय खाद्य निगम के हाथों में लौट आएगा यानी वास्तविक राजकोषीय घाटा, शून्य के बराबर होगा।

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वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी और आइएमएफ जैसी उसकी एजेंसी जरूर इसका आग्रह करेंगे कि वित्तीय घाटे के हिसाब में बजट में आने वाली प्राप्तियों को ही लिया जाए। लेकिन, वे ऐसा शुद्घ रूप से विचारधारात्मक कारणों से ही कर रहे होंगे और उनके इस आग्रह के कारण ही हम इस सचाई से आंख नहीं मूंद सकते हैं कि भारतीय खाद्य निगम तो, भारत सरकार का ही एक अंग है।

सरकार की यह कृपणता इस कारण से नासमझीभरी भी है कि इस खर्चे से जो गैर-खाद्यान्न खर्च पैदा होगा, मनरेगा परियोजनाओं में लगने वाली सामग्री के हिस्से के जरिए और मजदूरों द्वारा अपनी मजदूरी का एक हिस्सा (जिसे हम 60 फीसद मानकर चल रहे थे) गैर-खाद्यान्न मालों पर खर्च किए जाने के जरिए और इस तरह के खर्चों के दूसरे, तीसरे आदि चक्रों के प्रभाव के जरिए, मुख्यत: लघु क्षेत्र तथा अनौपचारिक क्षेत्र द्वारा बनाए जाने वाले मालों की ही मांग पैदा करेगा। ये ऐसे माल हैं जो कहीं ज्यादा रोजगार-सघन होते हैं और इसलिए रोजगार में बहाली, और ज्यादा प्रखर होगी। इसका अर्थ यह है कि सरकार के अतिरिक्त खर्च के लिए वित्त व्यवस्था चाहे जैसे भी की जा रही हो, सरकार के खर्चे का हर रुपया जो मनरेगा पर खर्च किया जाता है, किसी अन्य खर्चे में लगाए जाने वाले हर रुपए से ज्यादा फायदेमंद होगा। पर सरकार ने तो अपनी आंखें ही ऐसे बंद कर रखी हैं कि उसे यह दिखाई देता ही नहीं है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

How MGNREGS is Gradually Being Choked of Funds

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