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सैन्य-औद्योगिक जुगलबंदी ने किस तरह शांति और निरस्त्रीकरण को दरकिनार कर दिया: IV

साल 1961 निशस्त्रीकरण की दिशा में ठोस प्रगति की चमकती उम्मीदों के साथ ख़त्म हुआ था, लेकिन साठ साल बाद भी इस उम्मीद को मौजूदा समय में भी बुरी तरह झटके लग रहे हैं।
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भारत के प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू, इंडोनेशियाई राष्ट्रपति सुकर्णो, यूगोस्लाव के राष्ट्रपति जोसिप ब्रोज़ टीटो, मिस्र के राष्ट्रपति गमाल अब्देल नासर और घाना के राष्ट्रपति क्वामे नक्रूमा के अथक प्रयासों ने 1961 में बांडुंग सम्मेलन के लक्ष्यों और उद्देश्यों को बचा लिया था। उस साल 25 देशों ने मिलकर गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) का गठन किया था। इन देशों में एशिया और अफ़्रीका से ग्यारह-ग्यारह देश थे और इसमें यूगोस्लाविया, क्यूबा और साइप्रस भी शामिल थे।

29 सितंबर, 1960 को संयुक्त राष्ट्र स्थित यूगोस्लाव मिशन में एक शुरुआती बैठक हुई थी, जब पांच नेता संयुक्त राष्ट्र महासभा के 15 वें सत्र में भाग लेने के लिए न्यूयॉर्क में मौजूद थे। उन्होंने उसी दिन महासभा में एक मसौदा प्रस्ताव पेश कर दिया था। एक तत्काल उठाये गये शुरुआती क़दम के तौर पर इस प्रस्ताव में कहा गया था कि संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति और यूएसएसआर के मंत्रिपरिषद के अध्यक्ष ने हाल ही में अपने ठहराव के शिकार हो चुके सम्बन्धों को फिर से नया रूप दिया है,"ताकि बातचीत के ज़रिये बाक़ी समस्याओं का हल खोजने की उनकी घोषित इच्छा को लगातार आगे ज़मीन पर उतारा जा सके।"

इसके बाद, गुटनिरपेक्ष देशों के राष्ट्राध्यक्षों या सरकार के प्रमुखों का पहला सम्मेलन 1 से 6 सितंबर, 1961 तक बेलग्रेड में आयोजित किया गया था। चूंकि बेलग्रेड सम्मेलन संयुक्त राज्य-यूएसएसआर शीत युद्ध के चरम के दौरान चल रहा था, इसलिए इसके ध्यान का शुरुआती बिंदु शांति और निरस्त्रीकरण को लेकर था। विचार-विमर्श के बाद बेलग्रेड में 25 राष्ट्राध्यक्षों या सरकारों के  प्रमुखों में से हर एक ने 5 सितंबर, 1961 को राष्ट्रपति कैनेडी और रूस के राष्ट्राध्यक्ष निकिता ख्रुश्चेव को संबोधित उसी चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने का फैसला किया, जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका और यूएसएसआर से निरस्त्रीकरण वार्ता का आग्रह किया गया था। उस अनूठी चिट्ठी में कहा गया था, "...हम सम्बन्धित महा शक्तियों से आग्रह करने की छूट लेते हैं कि इस वार्ता को फिर से शुरू किया जाये और आगे बढ़ाया जाये, ताकि दुनिया से युद्ध के ख़तरे को दूर किया जा सके और मानव जाति शांति का रास्ता अख़्तियार कर सके…हमें विश्वास है कि आप दोनों विश्व शांति के लिए समर्पित हैं, लगातार बातचीत के ज़रिये आपके प्रयास मौजूदा गतिरोध से बाहर निकल आयेंगे और दुनिया और मानवता को समृद्धि और शांति के लिए काम करने और जीने में सक्षम बनायेंगे।”

इसके अलावा, बेलग्रेड सम्मेलन ने सामान्य और पूर्ण निरस्त्रीकरण पर एक वांछनीय समझौते की रूपरेखा तैयार कर दी थी। 6 सितंबर,1961 को जारी बेलग्रेड घोषणा में साफ़ तौर पर कहा गया था: "इसमें हिस्सा ले रहे देशों...का मानना है कि निरस्त्रीकरण एक अनिवार्य ज़रूरत है और मानव जाति का सबसे ज़रूरी कार्य है। इस समस्या का एक ऐसा बुनियादी हल, जो भाग लेने वाले देशों के सर्वसम्मत दृष्टिकोण में हथियारों की मौजूदा स्थिति में एक तत्काल ज़रूरत बन गया है, उसे एक सामान्य, पूर्ण और सख़्ती से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नियंत्रित निरस्त्रीकरण के ज़रिये ही हासिल किया जा सकता है...इस सामान्य और पूर्ण निरस्त्रीकरण में आंतरिक सुरक्षा के उद्देश्यों को छोड़कर, सशस्त्र बलों, हथियारों, विदेशी ठिकानों, हथियारों के निर्माण के साथ-साथ सैन्य प्रशिक्षण वाले संस्थानों और प्रतिष्ठानों का ख़ात्मा शामिल होना चाहिए; और परमाणु, और थर्मो-न्यूक्लियर हथियारों, जैविक और रासायनिक हथियारों के निर्माण, उन हथियारों को रखने और उनके इस्तेमल पर पूर्ण प्रतिबंध के साथ-साथ राष्ट्रीय क्षेत्रों पर सामूहिक तबाही के इन हथियारों को दूसरे देशों तक पहुंचाने और उनकी तैनाती और उसे चलाने में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों और प्रतिष्ठानों का ख़ात्मा… सम्मेलन में भाग लेने वालों ने इन महाशक्तियों से आग्रह किया था कि वे बिना देरी के सामान्य और पूर्ण निरस्त्रीकरण वाले एक संधि पर हस्ताक्षर करें, ताकि मानव जाति को युद्ध के संकट से बचाया जा सके और हथियारों पर ख़र्च की जा रही ऊर्जा और संसाधनों को अब सभी मानव जाति के शांतिपूर्ण आर्थिक और सामाजिक विकास के वास्ते ख़र्च किया जा सके।”  

यह अपील और बेलग्रेड घोषणा पत्र 7 सितंबर, 1961 को व्यक्तिगत रूप से प्रधान मंत्री नेहरू और राष्ट्रपति नक्रूमा की ओर से प्रधान मंत्री ख्रुश्चेव को और 12 सितंबर को राष्ट्रपति सुकर्णो और राष्ट्रपति मोदिबो कीता (माली के राष्ट्रपति) की ओर से राष्ट्रपति कैनेडी को सौंपी गयी थी। इसका तत्काल और दूरगामी प्रभाव पड़ा। राष्ट्रपति कैनेडी ने 13 सितंबर को राष्ट्रपति सुकर्णो और कीता को लिखा, "... हमें मिले इस संदेश और घोषणा पत्र में ऐसे तत्व मिले हैं, जो तनाव को कम करने की वास्तविक इच्छा को दर्शाते हैं और जिसे अगर वास्तव में तटस्थ और उद्देश्यपूर्ण तरीक़े से लागू किया जाये, तो इसका विश्व में व्याप्त तनाव को कम करने के सिलसिले में सकारात्मक लाभ मिल सकता है।"

इन पांच गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों की ओर से दबाव बनाया गया, और 30 मार्च 1961 को संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली समिति के सामने की गयी उन प्रतिबद्धताओं के मुताबिक़, अमेरिका और यूएसएसआर ने निरस्त्रीकरण वार्ता को आगे बढ़ाने के सहमत सिद्धांतों को तैयार करने को लेकर द्विपक्षीय वार्ता शुरू कर दी। जहां वाशिंगटन (16-30 जून 1961) और मॉस्को (1-16 जुलाई 1961) में आयोजित वार्ता के पहले दो दौर बहुत कामयाब नहीं रहे थे, वहीं 6 सितंबर 1961 के गुटनिर्पेक्ष (NAM) के बेलग्रेड घोषणापत्र से मिली बहुमूल्य जानकारी के साथ न्यूयॉर्क में (6-19 सितंबर 1961) आयोजित तीसरा दौर बहुत सफल रहा  था।

जॉन मैकक्लोय (अमेरिकी सरकार में शस्त्र नियंत्रण और निरस्त्रीकरण पर सामान्य सलाहकार समिति के अध्यक्ष) और वेलेरियन ज़ोरिन (उप विदेश मंत्री, यूएसएसआर) प्रमुख वार्ताकार थे, जिन्होंने "निरस्त्रीकरण वार्ता को लेकर सहमत सिद्धांतों के संयुक्त वक्तव्य" का मसौदा तैयार किया था। इस समझौते को बाद में सामान्य और पूर्ण निरस्त्रीकरण पर मैकक्लो-ज़ोरिन समझौते के रूप में जाना जाने लगा। इस पर 20 सितंबर 1961 को न्यूयॉर्क में संयुक्त राज्य अमेरिका और यूएसएसआर के बीच हस्ताक्षर किये गये थे और महासभा के सामने पेश कर दिया गया था।

इस मैकक्लो-ज़ोरिन समझौते में कहा गया था कि संयुक्त राज्य अमेरिका और यूएसएसआर निरस्त्रीकरण पर भविष्य की बहुपक्षीय वार्ता के आधार के रूप में कुछ सिद्धांतों की सिफ़ारिश करने पर सहमत हो गये हैं। इन सिद्धांतों के मुताबिक़, उन्होंने अन्य देशों से भी निशस्त्रीकरण पर शीघ्र समझौता करने का आह्वान करने का निर्णय लिया है।

1. इस वार्ता का लक्ष्य एक ऐसे कार्यक्रम पर सहमति हासिल करना है, जो यह सुनिश्चित करेगा कि (a) निरस्त्रीकरण सामान्य और पूर्ण है और अब युद्ध अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने का एक साधन नहीं रह गया है;

2. सामान्य और पूर्ण निरस्त्रीकरण वाला यह कार्यक्रम सुनिश्चित करेगा कि देशों के पास सिर्फ़ वे ही ग़ैर-परमाणु हथियार, सैनिक बल, सुविधायें और प्रतिष्ठान होंगे, जो आंतरिक व्यवस्था को बनाये रखने और नागरिकों की व्यक्तिगत सुरक्षा की हिफ़ाज़त के लिए ज़रूरी हैं;

3. सामान्य और पूर्ण निरस्त्रीकरण के कार्यक्रम में प्रत्येक राष्ट्र की सैन्य स्थापना से जुड़े ज़रूरी प्रावधान निम्नलिखित उद्देश्य से शामिल होंगे:

(a) सशस्त्र बलों को भंग करना, सैन्य प्रतिष्ठानों को नष्ट करना, जिसमें ठिकाने भी शामिल हैं, हथियारों के निर्माण की समाप्ति के साथ-साथ उनका पूरी तरह से ख़ात्मा या शांतिपूर्ण उपयोग में रूपांतरण;

(b) परमाणु, रासायनिक, जैविक और सामूहिक विनाश के अन्य हथियारों के सभी भंडारों का ख़ात्मा और ऐसे हथियारों के निर्माण पर रोक;

(c) सामूहिक विनाश के हथियारों के वितरण के सभी साधनों का ख़ात्मा;

(d) देशों के सैन्य प्रयासों को व्यवस्थित करने, सैन्य प्रशिक्षण की समाप्ति और सभी सैन्य प्रशिक्षण संस्थानों और प्रतिष्ठोनों को बंद करना;

(e) सैन्य ख़र्च पर रोक…”

जैसा कि स्पष्ट है कि मैकक्लो-ज़ोरिन समझौते में प्रतिपादित सहमति के ये सिद्धांत अपनी प्रकृति में बहुत ही आमूल परिवर्तनवादी थे, जिनके दूरगामी निहितार्थ थे। इसे यूएनजीए में प्रस्तुत किये जाने के पांच दिन बाद राष्ट्रपति कैनेडी ने सामान्य और पूर्ण निरस्त्रीकरण की ज़रूरत पर रौशनी डाली थी और गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के इस रुख़ पर ध्यान दिया था। 25 सितंबर, 1961 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने संबोधन में "एक शांतिपूर्ण दुनिया में सामान्य और पूर्ण निरस्त्रीकरण के लिए कार्यक्रम" शीर्षक से उन्होंने कहा था: "मानव जाति को युद्ध का अंत करना चाहिए, नहीं तो युद्ध ही मानव जाति को समाप्त कर देगा...आइए, हम आतंक को लेकर एक संघर्ष विराम का आह्वान करें। आइए, शांति की शुभकामानाओं का आह्वान करें। और जैसा कि हम शांति को बनाये रखने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय क्षमता का निर्माण करने जा रहे हैं, तो आइए, हम युद्ध छेड़ने की राष्ट्रीय क्षमता को ख़त्म करने में शामिल हो जायें...निरस्त्रीकरण में निहित जोखिम असीमित हथियारों की होड़ में निहित जोखिमों के मुक़ाबले में बहुत कम होते हैं। यह स्वीकार करते हुए कि यह अब सोवियत समस्या या अमेरिकी समस्या नहीं रह गयी है, बल्कि एक मानवीय समस्या बन गयी है, इसी भावना से हाल ही में हुए बेलग्रेड सम्मेलन ने "सामान्य, पूर्ण और सख़्ती से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नियंत्रित निरस्त्रीकरण..." के एक कार्यक्रम का समर्थन किया है। और इसी भावना से हम सोवियत संघ के समझौते के साथ सामने आये हैं, इस भावना के तहत दोनों राष्ट्र अब "सामान्य और पूर्ण निरस्त्रीकरण" को स्वीकार करते हैं, यही बातचीत के लिए नव-स्वीकृत सिद्धांतों का एक नया वक्तव्य है।”

संयुक्तराष्ट्र महासभा (UNGA) की संकल्प संख्या 1722 (XVI) ने 20 दिसंबर 1961 को सर्वसम्मति से मैकक्लो-ज़ोरिन समझौते को अपना लिया और निरस्त्रीकरण पर अठारह-राष्ट्रों से बनी एक समिति (ENCD) की स्थापना की। इस ईएनसीडी में निशस्त्रीकरण के लक्ष्य को साकार करने को लेकर ठोस प्रस्तावों को तैयार करने के लिए नाटो और वारसॉ पैक्ट समूहों में से प्रत्येक के पांच प्रतिनिधि और भारत सहित ग़ैर-गठबंधन राष्ट्रों के आठ प्रतिनिधि शामिल थे। इसलिए, यह साफ़ है कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने शांति और निरस्त्रीकरण के लक्ष्य को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभायी थी।

सैन्य-औद्योगिक जुगलबंदी

ज़ाहिर है, इस निशस्त्रीकरण का सबसे बड़ा विरोध उस हथियार लॉबी की ओर से किया जाना था, जो ख़ास तौर पर संयुक्त राज्य में बेहद ताक़तवर था। 'बुलेटिन ऑफ़ द एटोमिक साइंटिस्ट्स' (फ़रवरी 1983, पृष्ठ संख्या 35) के मुताबिक़, "राष्ट्रपति पर निरस्त्रीकरण विरोधी दबाव बहुत ज़्यादा थे। वे दबाव मुख्य रूप से तो आर्थिक थे, लेकिन इसका असर राजनीतिक था।" 1962 में जिनेवा में हुए 18-राष्ट्रों के निरस्त्रीकरण सम्मेलन में संयुक्त राज्य के प्रतिनिधिमंडल के सदस्य रहे लेखक मार्कस रस्किन ने जॉन मैकक्लोय की वार्ता टीम के सदस्य रहे आर्थर डीन की "टेस्ट बैन एंड डिसरमामेंट: द पाथ ऑफ नेगोशिएशन" शीर्षक से लिखी गयी एक किताब का हवाला देते हुए आगे लिखा था, "...विरोध के ये स्वर रक्षा उद्योगों, ख़ासकर कैलिफ़ॉर्निया और टेक्सास राज्यों के राजनीतिक रूप से ताक़वर उन प्रतिनिधियों की ओर से आये थे, जिन्हें डर था कि उनके राज्यों की अर्थव्यवस्थाओं पर किसी भी निरस्त्रीकरण उपायों का नुक़सानदेह असर पड़ सकता है।"  

रस्किन और डीन की ये टिप्पणियां उस दुर्भाग्यपूर्ण त्रासदी को देखते हुए अशुभ साबित होने वाली थीं, जो जल्द ही राष्ट्रपति कैनेडी के साथ घटित होने वाली थी। साल 1961 निशस्त्रीकरण की दिशा में ठोस प्रगति की चमकती उम्मीदों के साथ ख़त्म हुआ था, लेकिन साठ साल बाद आज भी इस उम्मीद को बुरी तरह झटके लग रहे है। 1962 में चीन-भारत युद्ध को भड़काने से लेकर इंडोनेशिया (1965), घाना (1966), माली (1968); मिस्र (1970), चिली (1973); बांग्लादेश (1975); बुर्किना फ़ासो (1987); यूगोस्लाविया (1990) और दूसरे देशों के शासन में किये गये बदलाव के ज़रिये गुटनिर्पेक्ष आंदोलन (NAM) पर इन्हीं शक्तियों ने व्यवस्थित हमले किये और 1963 में राष्ट्रपति कैनेडी; 1984 में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी; 1986 में प्रधान मंत्री ओलोफ़ पाल्मे; और 1991 में प्रधान मंत्री राजीव गांधी की सोची समझी हत्या ने शांति और निरस्त्रीकरण के लक्ष्यों को एक गंभीर झटका दिया। शांति और निरस्त्रीकरण को दरकिनार करने के लिहाज़ से सैन्य-औद्योगिक जुगलबंदी की साज़िश मानवता के लिए एक गंभीर ख़तरा है।

लेखक दिल्ली साइंस फ़ोरम के संयुक्त सचिव और परमाणु निरस्त्रीकरण और शांति गठबंध की राष्ट्रीय समन्वय समिति के सदस्य हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।

(गुटनिरपेक्ष आंदोलन की श्रृंखला का यह चौथा भाग है। इस श्रृंखला का अगला भाग जल्द ही प्रकाशित किया जायेगा। पहले भाग को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें https://www.hindi.newsclick.in/how-NAM-changed-international-relations-part-1

दूसरे भाग को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें https://www.hindi.newsclick.in/ NAM-nehru-principled-stand-part-2 

और तीसरे भाग को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें https://hindi.newsclick.in/index.php/NAM-India-Attempts-Nurture-Asian-African-Ties-Part-3 क्लिक करें।) 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/how-military-industrial-complex-sidelined-peace-disarmament-part-4

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