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क्यों बड़ी मुश्किल से समझ में आती है अमेरिकी राष्ट्रपति की चुनने की प्रक्रिया?

हम भारत के लोगों की दिलचस्पी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में बहुत ज्यादा होती है। लेकिन हम में से बहुत कम लोगों को पता होता है कि अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया क्या है? तो आइए आसान भाषा में समझते हैं अमेरिका के राष्ट्रपति की चुनावी प्रक्रिया..
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अमेरिका का राष्ट्रपति अमेरिका का राष्ट्रपति तो होता ही है लेकिन इसके साथ दुनिया में छाए अमेरिकी माया का सबसे प्रभावी प्रतिनिधि भी होता है। इस पद पर बैठने वाले व्यक्ति के चुनाव की प्रक्रिया जारी है। ऐसे में क्यों ना थोड़ा यह समझने की कोशिश की जाए कि आखिरकार अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव होता कैसे है? प्रक्रियाओं में लिपटी वह कौन सी यात्रा है जिसे पार कर एक व्यक्ति अमेरिका का राष्ट्रपति बनता है? वह कौन सा सिस्टम है जो अमेरिकी सत्ता के सबसे प्रभावी पद को चुनने के लिए अपनाई जाती है?

 अमेरिकी संविधान का आर्टिकल 2 सेक्शन 1 कहता है कि जो व्यक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति बनने का सपना देखता है उसे कम से कम तीन शर्तें तो पूरी करनी पड़ेगी

- उसका जन्म अमेरिका में हुआ हो और वह अमेरिका का नागरिक हो

- उसकी उम्र कम से कम 35 साल हो

-कम से कम 14 साल से परमानेंटली अमेरिका में रह रहा हो, यानी ऐसा नहीं होना चाहिए कि अमेरिका की नागरिकता हो और किसी दूसरे देश में रह रहा हो


भारत में जैसे कार्यपालिका का अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है, ठीक वैसे ही अमेरिका में कार्यपालिका का अध्यक्ष राष्ट्रपति होता है। अब यह थोड़ा तकनीकी हो गया। मोटे तौर पर यह समझिए की सरकार का सबसे मुख्य पद भारत में प्रधानमंत्री का होता है और अमेरिका में राष्ट्रपति का।

अमेरिका में हर 4 साल पर अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव होता है। साल 1951 से यह व्यवस्था है कि कोई भी व्यक्ति लगातार दो बार राष्ट्रपति बनने के बाद तीसरी बार राष्ट्रपति नहीं बन सकता है।

भारत में जिस तरह से संसद होता है, उसी तरह से अमेरिका में कांग्रेस होता है। भारत में जिस तरह से लोकसभा और राज्यसभा होता है, उसी तरह से अमेरिका कि कांग्रेस में हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव और सीनेट होता है। अमेरिका के हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव में 435 सदस्य होते हैं। और सीनेट में 100 सदस्य होते हैं। सीनेट भारत की राज्यसभा की तरह होता है। अमेरिका के 50 राज्यों से हर राज्य की तरफ से सीनेट में दो प्रतिनिधि भेजे जाते हैं। भले ही राज्य भूगोल और आबादी के आधार पर बड़ा और छोटा क्यों ना हो।

लेकिन यहां समझने वाली बात यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव और सीनेट के सदस्यों के द्वारा नहीं होता है। यानी अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव भारत में होने वाले प्रधानमंत्री के चुनाव से बिल्कुल अलग है। भारतीय संसद की तरह अमेरिकी कांग्रेस राष्ट्रपति के चुनाव में हिस्सा नहीं लेती है ना ही अमेरिकी राष्ट्रपति के मंत्रियों के चुनाव के लिए यह बाध्यता होती है कि वह अमेरिकी कांग्रेस का हिस्सा हो। जैसे कि भारत में प्रधानमंत्री अपने मंत्रिमंडल में उन्हीं सदस्यों को चुन सकता है, जो लोकसभा या राज्यसभा के सदस्य होते हैं। लेकिन अमेरिका में ऐसा नहीं होता अमेरिका का राष्ट्रपति अपने मंत्री समूह या कैबिनेट की टीम बनाने के लिए स्वतंत्र होता है

अगर एक लाइन में कहा जाए तो बात यह है कि अमेरिका की शासन प्रणाली राष्ट्रपति व्यवस्था के तहत चलती है और भारत की शासन प्रणाली संसदीय व्यवस्था की तरह चलती है। इसलिए हो सकता है कि तुलना करते समय अमेरिका और भारत की व्यवस्था के कई सारे ढांचे की ऊपरी खोल एक दूसरे के तरह लगे लेकिन अंदरूनी बात बिल्कुल अलग होती है।

अब आप पूछेंगे कि तब अमेरिका जैसे बड़े देश में एक व्यक्ति के तौर पर राष्ट्रपति का चुनाव कैसे होता है? अक्सर हम अख़बारों में में केवल डेमोक्रेटिक पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी के बारे में सुनते हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि अमेरिका में केवल दो दल ही हैं। बल्कि कई तरह के दूसरे दल भी है। जैसे कि कम्युनिस्ट पार्टी, डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका, अमेरिका ग्रीन पार्टीज ऑफ नॉर्थ अमेरिका लेबर पार्टी। प्रेसेडिंसियल सिस्टम अपनाने की वजह से इतिहास से लेकर अब तक अमेरिकी चुनाव का विकास ऐसा हुआ है कि इसमें दो ही दल डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन ही आमने सामने मौजूद होते हैं।

तो इन्हीं दोनों दलों के बहाने अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया समझने की तरफ आगे बढ़ते हैं। 3 नवंबर 2020 को होने वाले अमेरिकी चुनाव में दोनों पार्टियों की तरफ से एक-एक उम्मीदवार चुनावी मैदान में तैनात हैं। इनमें से जो जीतेगा वही अमेरिका का राष्ट्रपति बनेगा। इसलिए सबसे शुरुआती सवाल यह बनता है कि आखिर कर इन दोनों दलों की तरफ से 1-1 उम्मीदवारों का चयन कैसे किया जाता है? कहने का मतलब यह कि पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार को तय करने की प्रक्रिया क्या है?

पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार तय करने की प्रक्रिया को प्रेसीडेंशियल नॉमिनेशन प्रोसेस कहते हैं। संक्षिप्त में कहा जाए तो प्राइमरीज कहते हैं। जैसे नाम से ही साफ है कि सबसे शुरुआती प्रक्रिया। मान लीजिए कि डेमोक्रेटिक पार्टी के पास राष्ट्रपति का सपना देखने वाले 20 उम्मीदवार हैं लेकिन पार्टी का आधिकारिक उम्मीदवार तो एक ही होगा। इसलिए एक उम्मीदवार का चयन करने के लिए अमेरिकी व्यवस्था में प्राइमरी और कॉकस की प्रक्रिया को अपनाया जाता है।

प्राइमरी प्रक्रिया से चुनाव सरकार द्वारा कराया जाता है। यानी इस चुनाव की फंडिंग सरकार करती है। मतदाता पोलिंग बूथ पर जाते हैं वोट डालते हैं और जिस उम्मीदवार को बहुमत मिलता है वह जीत जाता है। प्राइमरी दो तरीके के होते हैं। ओपन और क्लोज। इनके बीच का अंतर या है कि जब ओपन प्राइमरी होता है तो हर एक नागरिक चुनाव में भाग ले सकता है और जब closed  प्राइमरी होता है तो वही चुनाव में भाग लेता है जो पार्टी का रजिस्टर्ड सदस्य होता है।

इसलिए क्लोजड प्राइमरी के चुनाव में पार्टी के रजिस्टर्ड सदस्यों को अपने ही पार्टी के बीच के उम्मीदवारों को चुनना पड़ता है। जबकि ओपन प्राइमरी में कोई भी नागरिक किसी भी पार्टी के उम्मीदवार को अपनी तरफ से राष्ट्रपति के उम्मीदवार के तौर पर चुन सकता है।

अब कॉकस क्या होता है।यह प्राइमरी से अलग किस्म की प्रक्रिया होती है। यह सरकार द्वारा नहीं कराई जाती है। यह पार्टी के द्वारा कराई जाती है।

पहले से तयशुदा जगह पर लोगों का जमावड़ा इकट्ठा होता है। मुद्दों पर बहस होती है। कोई पोलिंग बूथ नहीं होता। कोई सीक्रेट बैलट बॉक्स नहीं होता है। राष्ट्रपति चुनाव में शामिल अलग अलग उम्मीदवारों के अलग अलग समर्थक मौजूद होते हैं। यहां अपने पक्ष में मोड़ने के लिए घनघोर रायशुमारी चलती है।

इसके बाद हाथ उठाकर अपना मत जाहिर किया जाता है। मतदाता सीधे-सीधे उस प्रत्याशी को नहीं चुनता है बल्कि डेलिगेट्स को चुनता है। ये डेलिगेट्स अमुक पार्टी के सलाना सम्मेलन में जाते हैं। और जिस उम्मीदवार को सबसे ज्यादा डेलिगेट्स का समर्थन मिलता है वह आधिकारिक तौर पर उस पार्टी की तरफ से राष्ट्रपति का उम्मीदवार बन जाता है।

अमेरिका के किसी राज्य में प्राइमरी की प्रक्रिया अपनाई जाती है तो किसी राज्य में caucas की। या किसी राज्य में इन दोनों को अपनाकर पार्टी की तरफ से उम्मीदवारी तय की जाती है। इस तरह से अंतिम तौर पर पार्टी के नेशनल कन्वेंशन में पार्टी प्राइमरी और कॉकस की प्रक्रिया से गुजरकर पार्टी की तरफ से राष्ट्रपति पद के लिए लड़े जाने वाले आधिकारिक उम्मीदवार को तय करती है।

नेशनल कन्वेंशन में चुना हुआ राष्ट्रपति का उम्मीदवार अपने लिए वाइस प्रेसिडेंट का उम्मीदवार चुनता है। इसके बाद चुनावी दौड़ शुरू होती है। पूरे देश में कैंपेन होता है। जगह जगह राष्ट्रपति के उम्मीदवार अपने मतदाताओं के सामने अपने नजरिये और योजनाओं को पेश करते हैं। चूंकि मुख्य तौर पर रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार ही आमने-सामने होते हैं इसलिए इनके आमने-सामने की डिबेट भी कई जगहों पर होती हैं।

अमेरिका की प्रतिष्ठित चैनल पर 3 डिबेट भी होते हैं जिन्हें दुनिया के करोड़ों लोग देखते हैं। इन सारी प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद वह दिन आता है जब हम सुनते हैं कि अमेरिका में आज राष्ट्रपति के लिए वोटिंग हुई। प्रथा है कि यह वोटिंग नवंबर के महीने में होती है। नवंबर के महीने में पढ़ने वाले पहले सोमवार के बाद पड़ने वाले मंगलवार को होती है। इस बार वोटिंग का दिन 3 नवंबर 2020 तय किया गया है। लेकिन ऐसा नहीं कि जिस को ज्यादा वोट मिल गए वह जीत गया।

अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव इतना आसान नहीं कि असली पेचीदगी यहां मौजूद है। अमेरिका का संविधान कहता है अमेरिका के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव सीधे नागरिकों के द्वारा नहीं होता है। बल्कि इनका चुनाव इलेक्टर्स द्वारा होता है और इलेक्टर्स से जुड़ी इस प्रक्रिया को इलेक्टोरल कॉलेज कहा जाता है।

अमेरिका के हर राज्य को उतने उतने इलेक्टर्स मिलते हैं जितने उस राज्य द्वारा हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव और सीनेट में सदस्य होते हैं। इस तरह से कुल मिलाकर अमेरिका में 538 इलेक्टर्स और इलेक्टोरल कॉलेज बनते हैं। नागरिकों द्वारा किया गया मत सीधे राष्ट्रपति को नहीं बल्कि इलेक्टर्स को जाता है। और जिस राज्य में जिस पार्टी के सबसे अधिक इलेक्टर्स जीते जाते हैं उस राज्य के सभी इलेक्टर्स पर जीतने वाले इलेक्टर्स के प्रतिनिधि राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार का हक बन जाता है। उदाहरण के तौर पर कैलिफोर्निया में इलेक्टर्स की 55 सीट है। इस 55 सीट में अगर 27 सीट डेमोक्रेटिक पार्टी को मिल जाती है और 28 सीट रिपब्लिकन पार्टी को मिल जाती है तो यहां के पूरे 55 सीट पर रिपब्लिकन पार्टी का हक हो जाएगा।

इसलिए अमेरिका में ऐसा भी होता है कि लोगों के सबसे अधिक वोट जिस राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को मिले वह चुनाव हार जाए और जिसे कम मिले वह चुनाव जीत जाए। अमेरिकी इतिहास में साल 2016, 2000 और 1800 के अमेरिकी चुनाव में यही हो चुका है। जिसे ज्यादा वोट मिले वह हार गया और जिसे कम वोट मिले वह जीत गया। क्योंकि चुनाव की पद्धति इलेक्टर्स से जुड़ी हुई है।

अगर बहुमत के लिए जरूरी 270 इलेक्टर्स का आंकड़ा पार करने में कोई भी राष्ट्रपति उम्मीदवार कामयाब नहीं होता है तो सबसे अधिक इलेक्टर्स की सीट हासिल करने वाले टॉप 3 राष्ट्रपति उम्मीदवारों के बीच से हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव के सदस्य राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं। और सीनेट के सदस्य उपराष्ट्रपति का चुनाव करते है। जनवरी से लेकर नवंबर तक चलने वाले अमेरिकी चुनाव प्राइमरी और कॉकस की प्रक्रिया को पार कर चुका है। मैदान में डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से जोए बिडेन और रिपब्लिकन पार्टी की तरफ से मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप उम्मीदवार के तौर पर मौजूद हैं।

अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव से जुड़ी इस पूरी प्रक्रिया को पढ़ने के बाद मन में एक सवाल जरूर उठ रहा होगा कि भारत में प्रधानमंत्री चुनने का तरीका बेहतर है या अमेरिका में राष्ट्रपति चुनने का तरीका। दोनों देशों के चुनावी प्रणाली का विकास इतिहास की एक लंबी यात्रा के बाद हुआ है। इन चुनावी प्रणालियों में बहुत सारी खूबियों के साथ कुछ खामियां भी मौजूद हैं। समय-समय पर बहुत सारे विरोध के बाद इन प्रणालियों को कसने के लिए कोशिश की जाती है। लेकिन असल समस्या इन दोनों देशों में चुनावी प्रणालियां नहीं है बल्कि चुनाव में भाग लेने वाले लोगों के भ्रष्ट आचरण है। जिनके पास पैसा है वही सिस्टम को अपनी तरह इस्तेमाल करते हैं।

 

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