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इको सेंसिटिव ज़ोन से ही बचेंगे जंगल और जानवर !

"स्थानीय लोगों को ईएसजेड से कोई परेशानी नहीं होगी, ये राजनेता हैं जो स्थानीय लोगों को भड़का रहे हैं कि तुम्हारी जमीन चली जाएगी, यहाँ से हटना पड़ेगा।”
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy: ESPN

सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को 21 राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों के आस पास 10 किलोमीटर की जगह में इको सेंसिटिव ज़ोन (ESZ) के रूप में घोषित करने का निर्देश दिया।

तीन जजों की बेंच जिसमें जस्टिस मदन बी. लोकुर, हेमंत गुप्ता, और दीपक गुप्ता ने ये फैसला 11 दिसंबर को दिया। वकील ए डी एन राव ने अदालत को बताया की देश में 558 वन्यजीव अभयारण्य और 104 नेशनल पार्क (राष्ट्रीय उद्यान) हैं जिसमें से केंद्र सरकार और राज्य सरकार 21 नेशनल पार्क और वन्यजीव अभयारण्यों पर अभी तक इको सेंसिटिव ज़ोन में शामिल करने को लेकर कोई कदम नहीं उठाया गया है। ए डी एन राव कहते हैं कि विभिन्न राज्य सरकार ने आवश्यक कदम नहीं उठाए, हालांकि मामला दिसंबर, 2006 से अदालत में रहा है। राज्य सरकारों ने इन अभयारण्यों और पार्कों के आस-पास के क्षेत्र की सुरक्षा के लिए कोई प्रयास नहीं किया है।

जो वन्यजीव अभयारण्य और नेशनल पार्क जो उन 21 की सूची में आते हैं जहाँ अभी तक कोई कदम नहीं उठाया गया है, वे हैं-  असम में पोबिटेरा अभयारण्य, जम्मू-कश्मीर में हेमिस हाई अल्टीड्यूड नेशनल पार्क, किश्तवाड़ राष्ट्रीय उद्यान, चांगथंग अभयारण्य, होकरार अभयारण्य, त्रिकुटा अभयारण्य, कर्नाटक में जोगिमट्टी अभयारण्य, थिम्लापुरा अभयारण्य, यादहाल्ली चिंकारा अभयारण्य, महाराष्ट्र में देवलगांव रेहेकुरी अभयारण्य, ठाणे क्रीक फ्लेमिंगो अभयारण्य. मालवन समुद्री अभयारण्य, मणिपुर में सिरोई नेशनल पार्क, कॉन्गजेइंगांबा चिंग (Khongjaingamba Ching) अभयारण्य, मेघालय में बागमारा पिचर प्लांट अभयारण्य, नगालैंड में फकीम अभयारण्य, पुलीबाडजे अभयारण्य, रंगापहर अभयारण्य, उत्तर प्रदेश में भीमराव अम्बेडकर पक्षी अभयारण्य, पीलीभीत अभयारण्य और पश्चिम बंगाल में जोरपोखरी अभयारण्य।

इंडियन बोर्ड फॉर वाइल्डलाइफ की 11वीं  बैठक (21 जनवरी 2002) में यह कदम उठाया गया कि देश में मौजूद वन्यजीव अभयारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों के 10 किलोमीटर के भीतर आने वाली जमीन को ईको-सेंसिटिव ज़ोन बना दिया जाये जिससे इन जगहों को पूरी तरह से संरक्षित किया जा सके और कुछ तरह के कार्यों पर रोक लगायी जा सके जो पर्यावरण को हानि पहुंचते है। कुछ गतिविधयां जैसे व्यावसायिक रूप से जमीन की खुदाई और पेड़ों की कटाई करने वाली बड़ी आरा मशीन, कारखाने जो प्रदूषण फैलाते हैं, व्यावसयिक रूप से लकड़ियों का उपयोग और भी बहुत तरह की गतिविधियां को ईएसजेड  में डालने के बाद रोक दिया जाएगा| ईको सेंसिटिव ज़ोन  बनाने का एक उद्देश्य यह है कि राष्ट्रीय उद्यान और अभ्यारणों के आसपास एक तरह का 'shock absorber ' बनाने का प्लान है

इसके जवाब में कुछ राज्य सरकारों ने चिंता जताते हुए कहा की कुछ कुछ जगहों में ईएसजेड  लागू करना नामुमकिन है क्योंकि इन संरक्षित क्षेत्र के दस किलोमीटर के दायरे में कई जगह शहर बसे हुए हैं और काफी भरी संख्या में लोग रहते हैं और जो नेशनल पार्क शहरों के आसपास बने है तो वहाँ ईएसजेड का आ जाना विकास कार्यों को काफी हानि पहुंचाएगा जैसे गिंडी नेशनल पार्क (Guindy national park), तमिलनाडु, संजय गांधी नेशनल पार्क, महाराष्ट्र।

एन्वायरमेंट एक्शन ग्रुप, गोवा फाउंडेशन ने 2004 में सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका डाली थी कि और कोर्ट को बताया था कि ईएसजेड को लेकर अभी तक राज्यों में कोई कदम नहीं उठाये गए हैं।

इस मामले की जांच 17 मार्च, 2005 को नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ (जिसने 2002 में वन्यजीवन के लिए भारतीय बोर्ड को प्रतिस्थापित किया) द्वारा जांच की थी और फैसला किया था कि “ईएसजेड  के दिशानिर्देशक को साइट के हिसाब से विशिष्ट होना चाहिए और प्रतिबंध की बजाय जगहों के हिसाब से दिशा-निर्देशक तय किये जाये"

दिसंबर 2006  में सर्वोच्च न्यायालय ने इसी सन्दर्भ में एक फैसला सुनाया था और कहा था कि सभी राज्य एक सप्ताह के भीतर ईएसजेड का आकलन करें।

हालांकि कुछ विशेषज्ञ उदार विचार वाले ईएसजेड को चुनौती देते हैं खासकर इसके कार्यान्यवन को लेकर। पर्यावरण विद रवि चेल्लम कहते हैं "आपके पास सभी सरंक्षित जगहों के लिए एक मानक नहीं हो सकता पर कुछ ऐसी भी जगह हैं जहाँ पर ईएसजेड का रेंज कुछ मीटर तक ही आता है। यह ईएसजेड बनाने के सिद्धांत के बिल्कुल खिलाफ है। विचार सिर्फ लाइन खींचना ही नहीं है, बल्कि पर्यावरण को संरक्षित करना भी है।" 

ईको सेंसिंटिव ज़ोन  के साथ परेशानी और भी हैं। नेहा पांडेय और ए के शर्मा अपने शोध पत्र जो इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली में प्रकाशित हुआ था में बताते हैं कि जिम  कॉर्बेट नेशनल पार्क में ईएसजेड लागू करने वहाँ क्या परेशांनी हुई थी। वे लिखते है "यह वहाँ रहने वाले स्थानीय लोगों की गतिविधियों पर भी प्रतिबन्ध लगाती है, जो इतने सालों से वहाँ रह रहे हैं, तो  इस तरह उनकी संस्कृति पर भी काफी खतरा है, अगर जंगली जानवर उनकी फसल को नुकसान पहुंचते है या उनके मवेशियों को मार देते है, तो इसका उन्हें किसी प्रकार का मुआवज़ा भी नहीं दिया जायेगा।”   

ढिकुली गांव जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क के पास है। इस पूरे गांव की ज़मीन को बेच दिया गया और रिसोर्ट में बदल दिया गया, सामूहिक रूप से पर्यटन का प्रभुत्व बढ़ गया है, जिससे जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क प्रभावित हो रहा है लेकिन इस जगह पर पर्यटन को नियंत्रित करने की  कोई नीति नहीं है। जिम कॉर्बेट के उस 10 किलोमीटर के जगह में निरंतर बड़े-बड़े रिसोर्ट और होटल का निर्माण जारी है और वहां के स्थानीय लोगों को ही रोजगार से वंचित कर दिया गया है।

पर्यावरण संरक्षणवादी स्टालिन दयानंद न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहते हैं "स्थानीय लोगों को ईएसजेड से कोई परेशानी नहीं होगी, ये राजनेता हैं जो अब जाकर स्थानीय लोगों को भड़का रहे हैं कि तुम्हारी जमीन चली जाएगी, यहाँ से हटना पड़ेगा। स्थानीय लोग ईएसजेड लगने के बाद भी अपनी संस्कृति जो प्रकृति से जुड़ी है,निभा सकते हैं। ऐसी क्रियाएं जो पर्यावरण को नुकसान पहुँचाती है सिर्फ उसी पर रोक है।"

इस सबको देखते हुए पर्यावरणीय मुद्दों के संबंध में कानून बनाया जाना चाहिए, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे जमीन के स्तर पर भी लागू किया जाना चाहिए, यह केवल कागज पर नहीं हो सकता है और कानून ऐसा होना चाहिए कि यह स्थानीय लोगों को नुकसान न पहुंचाए और प्रकृति से संबधित उनकी गतिविधयों को ज़्यादा असर न पड़े।

आरे फॉरेस्ट एक्टिविस्ट (Aarey Forest Activist) यश मारवाह इस मुद्दे पर न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहते हैं " ईएसजेड का सीमांकन क्षेत्र के हिसाब से ही किया जाना चाहिए, कुछ तरह की गतिविधियां तुरंत रोकी जानी चाहिए जैसे रेड केटेगरी में आने वाले उद्योग जिनका पर्यावरण पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है और बिल्डर्स और सरकारों को भी यह ध्यान रखना चाहिए की जो जमीन ईएसजेड के अंदर आती है उसे अपने क्षेत्र के विस्तार के रूप में नहीं देखे।"

सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे को लेकर जल्द से जल्द राज्य सरकारों और केंद्र सरकार से जवाब माँगा है। अब इस मुद्दे को लेकर अगली सुनवाई अगले साल फरवरी  में होगी।

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