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200 हल्ला हो: अत्याचार के ख़िलाफ़ दलित महिलाओं का हल्ला बोल

"जाति के बारे में क्यों ना बोलूं सर जब हर पल हमें हमारी औक़ात याद दिलाई जाती है..."
200 हल्ला हो: अत्याचार के ख़िलाफ़ दलित महिलाओं का हल्ला बोल

निर्देशक सार्थक दासगुप्ता की फिल्म ‘200 हल्ला हो’  2004 में नागपुर में हुई एक अभूतपूर्व घटना पर आधारित है जिसमें उन दलित महिलाओं की कहानी है जिनको सामाजिक रूप से प्रताड़ित और अपमानित होने के कारण और पुलिस व प्रशासन का सहयोग न मिलने की वजह से मजबूर होकर कानून अपने हाथ में लेना पड़ाl कहानी की शुरुआत कोर्ट रूम से होती है, जहां 200 दलित महिलाओं का एक दल हाथ में घरेलू उपकरण जैसे चाकू, कैंची, स्क्रुड्राइवर आदि लेकर कोर्ट रूम में घुस जाता है और पुलिस की मौजूदगी में गुंडे बल्ली चौधरी (साहिल खट्टर) की हत्या करके गायब हो जाता हैl चेहरे ढके होने की वजह से उनकी पहचान कर पाना असंभव थाl  इसके बावजूद चुनाव नजदीक होने की वजह से और नेताओं के इशारों पर पुलिस बिना किसी सबूत के नागपुर के राही नगर की पांच महिलाओं को गिरफ्तार कर लेती है और उन पर थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करती हैl इन दलित महिलाओं को रिहा कराने के लिए आशा सुर्वे (रिंकू राजगुरु) नाम की एक पढ़ी लिखी दलित युवती आंदोलन करती है जिस वजह से दबाव में आकर महिला आयोग चार सदस्यों की एक जांच कमेटी बना देती है जिसका अध्यक्ष रिटायर्ड जज विट्ठल डांगले (अमोल पालेकर) को बना दिया जाता हैl जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ती है, दलित उत्पीड़न और खासकर दलित महिलाओं से जुड़े मुद्दे परत दर परत खुलते जाते हैंl साथ ही कानून का वो चेहरा सामने आता है जिसमें पुलिस प्रशासन भ्रष्टचार में लिप्त है और दबंग जातियों के दलाल के रूप में काम करता हैl

यह फिल्म शुरू से अंत तक दलित समुदाय के लोगों के दर्द और आक्रोश को सामने लाने की कोशिश करती है जो सालों से अपने ऊपर हो रहे शोषण के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते और अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को सहन करते रहते हैंl आखिरकार वे अंत में जाकर बगावत करते हैं। यह प्रकरण हमारे उस सामंती समाज की ओर इशारा करता है जहाँ एक फूलन देवी का कई राजपूत मिलकर बलात्कार करते हैं और बदले में उन्हें हथियार उठाने पर मजबूर होना पड़ता है। भारत की जातीय व्यवस्था में सवर्ण जातियां अपना अधिपत्य बनाए रखने के लिए हमेशा से ही दलित औरतों का यौनिक शोषण करती आई हैं। पहले के सामन्त तो दलित लड़कियों को अपनी जागीर ही समझते थे और आज जब दलित समुदाय में एक नयी चेतना आई है तो बलात्कार का इस्तेमाल दबंग जातियों द्वारा दलितों के खिलाफ बदला लेने और एक हिंसक हथियार के रूप में किया जाता है। महाराष्ट्र में तो ऐसी कई घटनाएं सामने आई ही हैं, हरियाणा के भगाना गाँव में भी 2014 में भयंकर बलात्कार की घटनाएं हुईं थी, जिनके दोषियों को आज तक सज़ा नहीं हुई है।

किसी भी महिला से बलात्कार किया जाना, चाहे वह किसी भी उम्र या जाति की हो, कानून के तहत गंभीर अपराध में आता है। इस संगीन अपराध को अंजाम देने वाले दोषी पर भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के  तहत मुकदमा चलाया जाता है जिसमें न्यायालय में पुलिस द्वारा की गई जांच पड़ताल व इकट्ठे किए गए सबूतों और गवाहों के बयानों के आधार पर दोनों पक्षों के वकील दलीलें पेश करते हैं, दलीलों के आधार पर जज अपने अनुभव और विवेक से निर्णय लेते हैं, अंत में अपराध सिद्ध होने की दशा में दोषी को कम से कम 7 साल व अधिकतम 10 साल तक की कड़ी सजा या आजीवन कारावास दिए जाने का प्रावधान है जिससे कि अपराधी को अपने गुनाह का एहसास हो और भविष्य में वह बलात्कार जैसे संगीन अपराध को करने की कोशिश भी न करें। पर हमारे देश की विडंबना यह है कि जब रसूख या पैसे वाले आरोपों के घेरे में आते हैं तो प्रशासनिक शिथिलता उन्हें कठघरों के बजाय बचाव के गलियारों में ले जाती है। पुलिस की लाठी जहां बेबस पर जुल्म ढाती है, वही लाठी सक्षम का सहारा बन जाती है। कई बार सबूत के अभाव में प्रताड़ित को न्याय नहीं मिल पाता और दोषी बाइज्जत बरी कर दिया जाता हैl

‘क्राइम इन इंडिया’ रिपोर्ट 2019 के हिसाब से भारत में हर दिन 10 दलित महिलाओं का रेप होता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की ओर से जारी किए गए ताजा आंकड़ों के अनुसार 2019 में देश में कुल 32,033  बलात्कार के मामले दर्ज किए गए, जिसमें से 11 फ़ीसदी पीड़ित दलित समुदाय से हैं। ध्यान रहे कि ये सरकारी आंकडें हैं और वो भी सिर्फ रिकार्डेड मामले हैं। जो मामले सामाजिक दवाब के कारण दर्ज ही नहीं किये गए उनका कोई हिसाब नहीं। एनसीआरबी की ही रिपोर्ट के अनुसार, सबसे ज्यादा मामले राजस्थान और उत्तर प्रदेश में दर्ज हुए, 2019 में राजस्थान में करीब 6000 और उत्तर प्रदेश में 3065 बलात्कार के मामले सामने आए।  2021 में उत्तर प्रदेश और राजस्थान में दलित समुदाय की महिलाओं के प्रति हिंसा में वृद्धि देखी गई है, जहां इसे तथाकथित ऊंची और दबंग जातियों द्वारा उत्पीड़न के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया हैl इसका जीता जागता उदाहरण अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के हाथरस में एक 19 वर्षीय दलित लड़की के साथ ‘सवर्ण’ समुदाय के 4 लोगों द्वारा किया गया सामूहिक बलात्कार हैl बलात्कारियों ने शारीरिक रूप से पीड़िता को इतना प्रताड़ित किया कि इस कांड के  15 दिन बाद ही दिल्ली के सफदरगंज अस्पताल में उसने दम तोड़ दियाl उत्तर प्रदेश के हाथरस में गैंगरेप के सदमे से लोग उबरे भी नहीं थे कि अब यूपी के बलरामपुर में एक और दलित लड़की के साथ गैंगरेप और हत्या की दिल दहला देने वाली खबर सामने आई जिसमें पोस्टमार्टम के बाद देर रात ही पीड़िता का दाह संस्कार कर दिया गया जिससे बात को दबाया जा सकेl

पिछले दो महीने में उत्तर प्रदेश में यह पांचवीं घटना है जिसमें किसी लड़की के साथ बलात्कार के बाद क्रूरता पूर्ण ढंग से हत्या की गई हैl इसमें से तीन लड़कियां दलित समुदाय से हैं। अभी दिल्ली के पुराने नांगल गांव का गुड़िया कांड कौन भूला होगा। इस सबसे यही साबित होता है कि हमारे देश में जातीय उत्पीड़न होने की वजह से दलित लड़कियां/महिलाएं ज्यादा असुरक्षित हैंl 2017 का उन्नाव रेप केस भी इसका प्रमाण है। उत्पीड़ित जाति की होने की वजह से दलित महिलाएं अत्यधिक सामाजिक शोषण झेलती हैं व बलात्कार के मामलों में पुलिस का उनके प्रति खराब रवैया, बुरा बर्ताव और अपमानित होने के भय से वे रिपोर्ट दर्ज कराने में भी झिझकती हैंl फिल्म ‘200 हल्ला हो’ का एक डायलॉग- "जाति के बारे में क्यों ना बोलूं सर जब हर पल हमें हमारी औकात याद दिलाई जाती है", दलित महिलाओं की त्रासदी को बयां करता हैl

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में सहायक प्रोफेसर गंगा सहाय मीणा का कहना है,  “दलितों में शिक्षा बढ़ रही है, जिसके कारण वो अधिकारों और बराबरी की मांग करने लगे हैं इसलिए इन लड़कियों को नीचा दिखाने के लिए,  उनके अधिकारों को कुचलने के लिए उन्हें शिकार बनाया जा रहा है, बलात्कार या इज्जत लूटना, उन्हें नीचा दिखाने का तरीका है, वे परंपरागत ढांचे को चुनौती देने लगी हैं जो कुछ ऊंची जाति के लोगों को रास नहीं आ रहा है” |

आज हमारे देश के जो हालात हैं और आए दिन हमें महिलाओं पर अत्याचार व बलात्कार की खबरें सुनने में पढ़ने को मिलती हैं उसके लिए अति आवश्यक हो गया है कि हर स्तर पर पुलिस के लिए जेंडर सेंसटाइजेशन (लैंगिक संवेदनशीलता) का अभियान चलाया जाए जिससे कि महिलाएं चाहे किसी भी जाति की क्यों ना हो निर्भीक होकर बलात्कार के खिलाफ इस विश्वास के साथ एफआईआर करवा सकें कि उनकी सुनवाई अवश्य होगी और अपराधी को दंड मिलेगाl उलटे उन्हें ही अपमानित नहीं किया जाएगा।

फिल्म "200 हल्ला हो" हमारे समाज के दलित वर्ग की पीड़ा को हमारे सामने एक सच्ची घटना के माध्यम से प्रस्तुत करती है और हमें इस बात का दंश महसूस होता है कि कैसे आज के तथाकथित आधुनिक युग में भी दलितों के साथ ज्यादती की जाती है और आज भी दलित समाज का एक बड़ा वर्ग सत्ताधारियों के लिए वोट बैंक से अधिक  कुछ नहीं है,  जहां दलितों को न्याय दिलाने के नाम पर राजनीति तो खूब होती है,  पर जब मदद करने का समय आता है तब कोई आगे नहीं आता। इसीलिए दलित समुदाय खुद ही अपनी लड़ाई लड़ने आगे आता है जैसा की हाल ही में तमिल फिल्म “कर्णन”  में भी बेहतरीन तरीके से दिखाया गया।

(लेखिका स्वतंत्र लेखक एवं पत्रकार हैं।)

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