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विश्लेषण : दिल्ली में बीजेपी की जीत और आप की हार के कारण

‘रेवड़ी’ के साथ 'गज़क' का वादा, भ्रष्टाचार के आरोप, एंटी इनकम्बेंसी, हिन्दुत्व की लड़ाई समेत कई कारण हैं जिसने दिल्ली में हार-जीत की पटकथा लिखी। एक नज़र–
Arvind Parwesh
फोटो साभार : बिजनेस टूडे

सिर्फ़ 2 फ़ीसद वोट के अंतर ने दिल्ली में इतना बड़ा फेरबदल कर दिया। इसलिए ही कहा जाता है कि हर एक वोट ज़रूरी होता है।

दिल्ली का फ़ैसला आ गया है और अब हार-जीत पर मंथन हो रहा है। राजनीतिक दलों के साथ चुनावी विश्लेषक और आम मतदाता भी अपना गुणा-भाग लगा रहा है कि कौन कैसे जीता, कैसे हारा।

आप जानते हैं किसी भी हार-जीत के पीछे कोई एक कारण या फ़ैक्टर नहीं होता। कई सारे फ़ैक्टर एक साथ काम करते हैं और मिलकर किसी को भी ऐतिहासिक जीत या ऐतिहासिक हार दिला सकते हैं। यही दिल्ली में हुआ।

तो आइए बीजेपी की जीत या उससे भी ज़्यादा आम आदमी पार्टी की हार के पीछे कौन से अहम कारण या फ़ैक्टर रहे। इस पर एक सरसरी नज़र डालते हैं–

रेवड़ी फ़ैक्टर

बीजेपी ने आम आदमी पार्टी की ‘रेवड़ी’ के साथ गज़क देने का भी वादा कर दिया। और लोगों ने विश्वास कर लिया। केजरीवाल की भी यूएसपी यही थी कि वो जनता को कुछ बुनियादी सुविधाएं दे रहे थे। इसी की बदौलत उन्होंने 2020 में सत्ता में वापसी की थी।

लेकिन बीजेपी इस कला में माहिर है कि वह जन सुविधाओं, जनता के अधिकार, राज्य के दायित्व को भी रेवड़ी साबित कर सकती है और अपनी रेवड़ी-गज़क को भी जनहित और मोदी जी कृपा घोषित कर सकती है। जैसे पांच किलो अनाज जो हमारे भोजन के अधिकार के तहत आता है, और जो पहले भी बहुत कम क़ीमत पर हमें राशन की दुकान से मिलता रहा है, उसे उन्होंने मोदी जी मेहरबानी घोषित कर दिया है।

ऐसा ही दिल्ली में हुआ। हालांकि यह आम आदमी पार्टी के एजेंडे की जीत है कि बीजेपी को भी यह वादा करने पर मजबूर होना पड़ा कि आप की सरकार में जो भी लाभकारी की योजनाएं चल रही हैं, चाहे वो बिजली-पानी हो या कुछ और वे जारी रहेंगी और हम उससे भी बढ़कर आपको लाभ देंगे। अगर आप महिलाओं को 2100 रुपये देगी तो हम (बीजेपी) 2500 देंगे।

भ्रष्टाचार फ़ैक्टर

2020 के बाद जिस तरह आम आदमी पार्टी की पूरी लीडरशिप पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। शराब घोटाले के आरोप लगे। जेल जाना पड़ा। इससे उसकी 'कट्टर ईमानदार' छवि को ख़ासा नुक़सान पहुंचा।

हालांकि 2014 के बाद देश में अब भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं रहा है। आप देख ही रहे हैं कि अब किसी को जनलोकपाल याद भी नहीं है कि वो क्या बला होती है। बीजेपी के तमाम नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। तमाम भ्रष्टाचारी नेता बीजेपी की वाशिंग मशीन में धुलकर ईमानदार हो चुके हैं। लेकिन बीजेपी अपना मुद्दा, राष्ट्रीय मुद्दा बनाना जानती है। क्योंकि लगभग सारा मीडिया प्रिंट, टीवी और डिजिटल मीडिया उसके कब्ज़े में है। इसलिए वह कोई भी हेडलाइन दिन भर चलवा सकती है। आपका कथित फ्लाइंग किस भी देश का बड़ा मुद्दा बन सकता है और उनका बलात्कार के आरोपी नेताओं को टिकट देना भी कोई मुद्दा नहीं बनता।

विपक्ष की सरकार में एक आत्महत्या भी राष्ट्रीय चिंता का विषय हो सकता है और बीजेपी शासित राज्य में हत्या या गैंगवार भी मुद्दा नहीं बनता।

विपक्ष की सरकार में एक रोड एक्सीडेंट भी बड़ा मुद्दा बन सकता है और उनकी सरकार में महाकुंभ में हुआ महा हादसा भी मुद्दा नहीं बनता।

हिंदुत्व फैक्टर

हालांकि अरविंद केजरीवाल को भी बहुत लोग छोटा मोदी कहते हैं। उन्हें भी हिंदुत्व का खिलाड़ी कहते हैं। 2013-14 में अन्ना आंदोलन के जरिये बीजेपी के केंद्र की सत्ता में आने की ज़मीन बनाने वाला मानते हैं, लेकिन इसके बावजूद वह हिन्दुत्व की पिच पर बीजेपी से पिछड़ गए। बीजेपी के उग्र और कट्टर हिन्दुत्व के आगे उनका कथित सॉफ्ट हिन्दुत्व नहीं बिका। लोगों ने असली माल ही खरीदना सही समझा।

और बहुत लोग जो उनके इस हिन्दुत्व को पसंद नहीं करते थे, उनमें से काफ़ी ने मज़बूत सेकुलर विकल्प के अभाव में सेंटर यानी बीच का रास्ता पकड़ा और कांग्रेस व अन्य पार्टियों को वोट दिया।

बहुत लोगों ने मन मारकर और यह समझते हुए कि केजरीवाल का हिन्दुत्व कैसा भी हो बीजेपी जैसा नफ़रत वाला हिन्दुत्व नहीं है और वही बीजेपी को टक्कर दे सकते हैं, हरा सकते हैं, यह सोचकर उन्हें वोट दिया।
 

LG फ़ैक्टर

जिस तरह मोदी जी ने उपराज्यपाल (LG) के ज़रिये दिल्ली में अपनी सरकार चलाई, सबने देखा। देखा कि किस तरह केजरीवाल के हर काम में अड़ंगा लगाया गया। उनकी योजनाओं को रोका गया। बात-बात पर जांच के आदेश दिए गए।

इससे लोगों में उनके प्रति सहानुभूति तो बनी लेकिन बड़े पैमाने पर यह परशेप्शन भी बना कि मोदी जी केजरीवाल को काम तो करने देंगे नहीं और देर सबेर केजरीवाल व अन्य बड़े नेताओं को फिर जेल जाना पड़ेगा इसलिए क्यों न बीजेपी को ही वोट दे दिया जाए। कुछ काम तो हो।

यह बड़ा ख़तरनाक संकेत है। लोकतंत्र के लिए तो बेहद ख़तरनाक कि लोग मानने लगें कि केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होने पर काम हो पाएगा या दूसरे को तो मोदी जी काम करने देंगे नहीं।

यह सच है कि इस लड़ाई-झगड़े के चलते दिल्ली का काफी विकास कार्य प्रभावित हुआ है। हां, काफी काम केजरीवाल के भी सत्ता के रंग में रंगने की वजह से नहीं हुआ। साफ़ पानी दिल्ली के कई इलाकों में एक बड़ी समस्या है। कूड़ा भी एक सिरदर्द है। टूटी सड़कें भी कई जगह केजरीवाल से सवाल करती हैं। कुछ सड़कों को चुनाव से पहले आनन-फानन में बनाया गया, लेकिन इस पर भी लोगों ने सवाल पूछा कि जब मोदी जी केजरीवाल को काम नहीं करने दे रहे थे, जिसकी वजह से पांच साल से सड़कें टूटीं थी तो फिर ऐन चुनाव के मौके पर कैसे बन गईं।

यमुना की गंदगी भी एक मुद्दा बनी। हालांकि बीजेपी को सिर्फ़ दिल्ली की यमुना की फ़िक्र है, यूपी और हरियाणा की यमुना की नहीं। यमुना वहां भी गंदी है और यहां भी। गंगा की सफ़ाई का वादा न जाने कब किया गया था लेकिन आज तक पूरा नहीं किया गया, हालांकि करोड़ों-अरबों रुपये ख़र्च हो गए। लेकिन न कोई सवाल पूछता है, न कोई जवाब देता है।

चुनाव आयोग का फ़ैक्टर

चुनाव निष्पक्ष ढंग से हो रहे हैं। चुनाव आयोग ईमानदार है। इस पर भी बहुत सवाल हैं। हर चुनाव के बाद आम लोगों में यह संदेह गहराता है कि चुनाव में कुछ गड़बड़ हो रही है। वोट किसी को भी दो, मिलेगा तो बीजेपी को ही, जीतेगा तो मोदी ही…ऐसे जुमले या धारणा लोकतंत्र के लिए बेहद ख़तरनाक है। और इसे दूर करने के लिए चुनाव आयोग ने भी कोई ठोस क़दम नहीं उठाए। बल्कि उसके ऊपर ही बीजेपी के एजेंट के तौर काम करने के आरोप विपक्ष के साथ बहुत से आम लोग भी उठाते हैं।

ईवीएम हैक या मैनेज होने का मुद्दा तो अब पुराना हो गया है, लेकिन वोट कटने और बढ़ने को लेकर बहुत गंभीर सवाल हैं। दिल्ली चुनाव के दौरान भी केजरीवाल ने बाक़ायदा आंकड़े देते हुए बताया कि किस तरह बीजेपी वाले अपने वोट बढ़वाने और दूसरों के वोट कटवाने की साज़िश कर रहे हैं। उनके तुरंत मुद्दा उठाने से बहुत से वोट कटने से बच तो गए, लेकिन बढ़ने से शायद वे भी न रोक पाए हों।

इसी तरह महाराष्ट्र चुनाव को लेकर सवाल आज तक कायम हैं। राहुल गांधी ने बाक़यादा कुछ तथ्य देते हुए सवाल उठाया है कि महाराष्ट्र में लोकसभा और विधानसभा चुनाव के बीच में क़रीब 70 लाख वोट बढ़ गए।

इसके अलावा जिस तरह चुनाव आयोग बीजेपी की शिकायत पर दूसरे दलों पर तुरंत कार्रवाई करता है और बीजेपी को लेकर की गई शिकायतों पर चुप्पी या सुस्ती दिखाता है। यह भी उसकी भूमिका और निष्पक्षता पर सवाल खड़े करता है। अभी आप की तमाम शिकायतों के बावजूद बीजेपी नेताओं पर कोई कार्रवाई नहीं की गई और बीजेपी की शिकायत पर दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी पर एफआईआर दर्ज हो जाती है।

धनबल का फ़ैक्टर

यहीं आता है धनबल का फ़ैक्टर। बीजेपी जिस तरह हर चुनाव में पैसा बहा रही है, उसका मुक़ाबला कोई नहीं कर सकता। जितनी सभाएं, विज्ञापन और साथ में प्रोपेगेंडा बीजेपी करती है वो कोई दूसरा नहीं कर सकता। हर जगह बीजेपी का प्रचार दिखाई देता है अख़बार-टीवी लेकर सड़क और मेट्रो-बसों तक। गाने के चैनल पर भी, साहित्यिक वेबसाइट पर भी।

फेसबुक, इंस्टाग्राम, X प्लेटफार्म और वाट्सएप पर जितना मज़बूत नेटवर्क उसके पास है किसी दूसरे के पास नहीं। चुनाव हों या न हों 24 घंटे, सातों दिन बीजेपी का प्रचार चलता रहता है। और साथ में नफ़रती अभियान भी, जिसका आम आदमी के दिल-दिमाग़ पर गहरा असर पड़ता है।

इसके अलावा दिल्ली चुनाव में भी यह आरोप साफ़ तौर पर लगे कि किस तरह बीजेपी पैसा और शराब बांटी। और पुलिस ने उसे संरक्षण दिया। हालांकि बीजेपी ने यही आरोप आप पर भी लगाए। लेकिन सब जानते हैं कि पैसा ख़र्च करने में बीजेपी को कोई मात नहीं दे सकता। क्योंकि वो चाहे नोटबंदी हो, या चुनावी बॉन्ड इसके बाद से सबसे ज़्यादा पैसा बीजेपी के पास ही है। और फिर वो कई राज्यों के साथ केंद्र में लगातार सत्ता में है।

वोट शेयर फ़ैक्टर

दिल्ली में बीजेपी को 45.56 प्रतिशत वोट मिला और आम आदमी पार्टी (आप) को 43.57 प्रतिशत। लेकिन सीटों में 26 सीटों का अंतर आ गया।

दिल्ली विधानसभा के चुनाव में बीजेपी को 48 सीटें मिलीं हैं तो आम आदमी पार्टी को 22.

सीटों की इस घटत-बढ़त में कांग्रेस का भी रोल रहा। उसे भले ही शून्य सीट मिली लेकिन उसने 6.34 प्रतिशत वोट हासिल किया। 2020 के चुनाव में कांग्रेस ने 4.26 प्रतिशत वोट पाया था। यानी इस चुनाव में उसका वोट क़रीब 2 प्रतिशत बढ़ गया।

अब इस वोट को भी अगर आप की हार की वजह में जोड़ लें तो कहा जा सकता है कि आप का वोट 4 प्रतिशत घटा। क्योंकि आप के पास 2013 से पहले अपनी ज़मीन नहीं थी और उसने लगभग सारा वोट कांग्रेस से ही छीना था और 15 साल की शीला दीक्षित सरकार को हराया था। यही वजह है कि कांग्रेस इस बार आप के साथ गठबंधन में नहीं गई। उसका साफ़ कहना था कि हमने आप को जिताने का ठेका नहीं लिया है।

क्या कांग्रेस से गठबंधन न होना बना आप की हार की वजह?

कहा जा रहा है कि कांग्रेस की वजह से आप को इस बार क़रीब 14 सीटों पर सीधा नुक़सान पहुंचा। यानी आप 14 सीटें कांग्रेस की वजह से हार गई।

तो क्या इसकी आहट आप या कांग्रेस को पहले सुनाई नहीं दी।

ऐसी चेतावनी तो चुनाव विश्लेषक और जनता भी पहले दिन से दोनों दलों को दे रही थी लेकिन गठबंधन न होने के पीछे केजरीवाल और कांग्रेस का दिल्ली संगठन दोनों ज़िम्मेदार हैं।

कांग्रेस ने हरियाणा में केजरीवाल को कोई जगह नहीं दी तो केजरीवाल ने कांग्रेस को दिल्ली में कोई जगह नहीं दी। केजरीवाल ने दिसंबर में ही घोषणा कर दी थी कि दिल्ली में कांग्रेस से गठबंधन की कोई सूरत नहीं है। हम अकेले ही लड़ेंगे।

दूसरी तरफ़ दिल्ली कांग्रेस में भी हरियाणा के भूपेंद्र सिंह हुड्डा की तरह भी अजय माकन और संदीप दीक्षित भी ठान कर बैठे हैं कि कांग्रेस की लुटिया डुबानी है।

इसकी गवाही आंकड़े भी देते हैं अरविंद केजरीवाल अपनी नई दिल्ली सीट के जितने वोट से हारे क़रीब उतने ही वोट कांग्रेस के संदीप दीक्षित को मिले।

नई दिल्ली सीट पर अरविंद केजरीवाल बीजेपी के प्रवेश वर्मा से 4089 वोट से हारे और संदीप दीक्षित को 4568 वोट मिले।

जंगपुरा सीट पर मनीष सिसोदिया बीजेपी के त्रिवेंदर सिंह मारवाह से महज़ 657 वोटों के अंतर से पराजित हुए और यहां कांग्रेस के फ़रीद सूरी ने 7350 वोट प्राप्त किए।

ग्रेटर कैलाश सीट पर आप के सौरभ भारद्वाज 3188 वोट से हारे। यहां बीजेपी की शिखा राय ने उन्हें मात दी। यहां कांग्रेस के गर्वित सिंघवी को 6711 वोट मिले।

दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी मुश्किल से अपनी सीट बचा पाईं। 52154 वोट मिले और वह बीजेपी के रमेश बिधूड़ी से 3521 वोट से जीतीं। यहां कांग्रेस की अलका लांबा 4392 वोट ले गईं।

इसी तरह कई अन्य सीटों की भी कहानी है।

ख़ैर 2 या 4 फ़ीसदी वोट का ही यह कमाल नहीं है। अगर हम 2020 का आंकड़ा देखें तो आम आदमी पार्टी को 53.57 प्रतिशत वोट मिला था और बीजेपी को 38.51 प्रतिशत। इस हिसाब से आप ने इस बार अपना 15 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट खो दिया।

यानी इसमें से अगर 2 फ़ीसद जनता कांग्रेस के पक्ष में वापस गई और एक-दो फ़ीसद कहीं और तो भी क़रीब 10-12 फ़ीसदी वोट बीजेपी के पक्ष में गया। यानी यह वोट है जो लोकसभा में पहले भी बीजेपी के पक्ष में वोट करता रहा है और विधानसभा में आप को। लेकिन इस बार वह बीजेपी के पास ही चला गया।

यहां हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस बार 2020 के मुकाबले क़रीब 2 फ़ीसदी मतदान भी कम हुआ है।

2020 में दिल्ली में 62.59 फ़ीसदी मतदान हुआ था और इस बार 2025 में 60.45 फ़ीसदी मतदान हुआ।

कुछ लोग इस हार में एक फैक्टर असुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM को भी मानते हैं।

AIMIM ने अपने दो प्रत्याशी लड़ाए। मुस्तफ़ाबाद से ताहिर हुसैन और ओखला से शिफ़ा-उर-रहमान। यह दोनों ही दिल्ली दंगों के आरोपी कहे जाते हैं और उनके पक्ष और विपक्ष में तमाम बातें, विरोधी और सिंपैथी थी। ओवैसी ने भी इन दोनों जगह अपनी पूरी ताक़ता झोंक दी थी। उनके ऊपर भी बीजेपी के लिए काम करने का आरोप लगा। उन्हें बीजेपी की बी टीम कहा गया। हालांकि इसी तरह आप ने कांग्रेस को बीजेपी की बी टीम कहा और कांग्रेस तो पहले से ही आप को बीजेपी की बी टीम कहती आई है।

मुस्तफ़ाबाद से बीजेपी के मोहन सिंह बिष्ट आप के आदिल अहमद ख़ान से 17578 वोटों से जीते। लेकिन यहां AIMIM के ताहिर हुसैन 33474 वोट ले गए। कांग्रेस चौथे नंबर पर रही। उसके प्रत्याशी अली मेहदी ने 11763 वोट पाए। यहां कहा जा सकता है AIMIM की वजह से आप की सीधी हार हुई। लेकिन इसी तरह के कड़े मुकाबले में ओखला की सीट फंसी थी। यहां तमाम मुश्किलों के बावजूद आप के अमानतुल्ला अपनी सीट निकालने में कामयाब रहे। यहां भी मुस्तफ़ाबाद की तरह तीन मुस्लिम प्रत्याशी पूरी मज़बूती से आमने-सामने थे। जबकि बीजेपी ने अपनी हिंदूवादी नीति और वोट बंटने की उम्मीद के साथ दोनों मुस्लिम बहुल सीटों पर हिंदू उम्मीदवार दिए थे।

ओखला सीट पर अमानतुल्ला ने 88943 वोट पाकर बीजेपी के मनीष चौधरी को 23639 वोटों से मात दी। यहां AIMIM के शिफ़ा ने तीसरे नंबर पर रहते हुए 39558 वोट पाए। कांग्रेस की अरीबा ख़ान चौथे नंबर पर रहीं। उन्हें 12739 वोट मिले।

इसलिए कहा जा सकता है कि जनता अगर ठान ले तो कड़े मुकाबले और वोट काटने वाले तमाम उम्मीदवारों, तमाम प्रोपेगैंडा, धनबल-बाहुबल हिन्दुत्व के कार्ड के बावजूद आप सीट जीत सकते हैं। दिल्ली की ओखला, बाबरपुर और कालका जी सीट के साथ लोकसभा चुनाव (बीजेपी को पूर्ण बहुमत भी न मिलना) और उसमें भी अयोध्या (फ़ैज़ाबाद) की सीट और अभी हाल में ही झारखंड के चुनाव इसके उदाहरण हैं। इसलिए हार या जीत के लिए कोई एक कारण नहीं होता। बल्कि कई सारे फैक्टर एक साथ काम करते हैं। और वक़्त इसी को पहचान कर काम करने का है।

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