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क्या हिंदी पत्रकार मदद मांगने के लिए अभिशप्त हैं?

एक हादसे में घायल पत्रकार अमन गुप्ता के इलाज के लिए दो लाख रुपये का जुगाड़ चंद घंटों में क्राउड फंडिंग के जरिए हो गया लेकिन इस घटना ने इस बात पर भी सोचने को मजबूर किया कि क्या हिंदी पत्रकारिता में मिलने वाली दोयम दर्जे की सैलरी से गरिमापूर्ण जीवन जिया जा सकता है?
क्या हिंदी पत्रकार मदद मांगने के लिए अभिशप्त हैं?
"जीवन विश्वकर्मा" फ़ोटो साभार : ketto

दुनिया में मदद की भावना की बहुत अधिक अहमियत है। इस मदद की भावना पर ही दुनिया टिकी हुई है। लेकिन एक इंसान की पूरी जिंदगी दूसरों के मदद के बलबूते नहीं काटी जा सकती। हिंदी पत्रकारों की औसत आमदनी बहुत कम है। इतनी कम की वे सही तरीके से अपनी जिंदगी नहीं जी सकते। और अगर अचानक से कोई बहुत बड़ा संकट आ जाए तो चारों तरफ अंधेरा छा जाता है।

पत्रकारिता के प्रतिष्ठित संस्थान आईआईएमसी से साल 2016-17 के पास आउट हिंदी पत्रकार अमन गुप्ता फिसल कर गिर गए। उनके कमर और कूल्हे की हड्डी टूट गई। डॉक्टर ने कहा ऑपरेशन होगा और ऑपरेशन का खर्च तकरीबन 2 लाख होगा। अमन के लिए इतनी बड़ी राशि जुटाना बहुत मुश्किल था। इसलिए आईएमएमसी से पास आउट कुछ छात्रों ने सोशल मीडिया पर फंड रेजिंग की मुहिम चलाई। सबसे अच्छी बात यह रही कि केवल 4 घंटे में ढाई लाख रुपये इकट्ठा कर लिए गए। लोगों से मिली यह मदद काबिले तारीफ है।

लोग इस मदद को इंस्पिरेशनल यानी प्रेरणादाई बता रहे हैं। निसंदेह यह प्रेरणादाई है लेकिन समाज का यही रवैया समाज को असली सवाल पूछने से रोकता है। यही नहीं करना चाहिए। संकटों को झूठे मुहावरे में गढ़ने की बजाए उन सवालों में तब्दील करना चाहिए, जिनकी वजह से संकट पहाड़ की तरह भारी बन जाते हैं। जब हम इस संदर्भ बिंदु से सोचते हैं तो पता चलता है कि यह केवल युवा पत्रकार अमन गुप्ता या कुछ और पत्रकारों का संकट नहीं है बल्कि इस संकट से हिंदी के ज्यादातर पत्रकार जूझ रहे हैं। जिनकी महीने की आमदनी इतनी कम है कि अगर एक महीने मेहनताना न मिले तो 2 जून की रोटी का जुगाड़ करने में परेशानी आ सकती है।

इस पर कोई रिसर्च नहीं है कि हिंदी के पत्रकार की महीने की आमदनी कितनी है? इसलिए वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश के रे से यह बात पूछी कि हिंदी के पत्रकार की औसत आमदनी कितनी होगी तो उनका कहना था कि इसकी कोई पुख्ता जानकारी तो नहीं है लेकिन अगर मेनस्ट्रीम मीडिया में काम करने वाले सभी पत्रकारों की पिछले 5 साल की औसत आमदनी निकाली जाएगी तो यह 25 हज़ार रुपये महीने के आसपास बैठेगी। अगर इसके साथ समय-समय पर बढ़ने वाली महंगाई की दर समायोजित कर ली जाए तो यह निष्कर्ष निकल सकता है कि पत्रकारों की आमदनी पिछले 5 सालों में बढ़ने की बजाय रियल वैल्यू में कम हुई है। कहने का मतलब यह है कि जिस तरह से हमारी रोजाना के इस्तेमाल में आने वाली वस्तुओं, सामानों और सेवाओं में महंगाई दर बढ़ी है, उस तरह से हिंदी पत्रकारों के आमदनी में इजाफा नहीं बल्कि कमी आई है।  

अब जरा यहां से सोचिए कि ऐसे में अगर किसी पत्रकार के जीवन में अचानक से 2 लाख के इलाज का खर्च आ जाए तो वह इससे कैसे निपट पाएगा? अमन गुप्ता सौभाग्यशाली थे कि उनके आईआईएमसी के मित्रों ने सोशल मीडिया पर मुहिम चलाई और पैसा इकट्ठा हो गया। क्या इतना ही भाग्यशाली कोई दूसरा पत्रकार भी होता? इतने कम पैसे में कैसे एक पढ़ने-लिखने वाले रोजगार में लगे हुए इंसान की जरूरतें पूरा हो सकती हैं? इतने कम पैसे में कैसे कोई अपने कदमों पर खड़ा रह सकता है? इतने कम पैसे में कैसे हुई खुद को सुरक्षित महसूस कर सकता है? इतने कम पैसे में कैसे कोई अपने परिवार की जिम्मेदारियों को पूरा कर सकता है?

अमूमन ग्रेजुएशन की पढ़ाई और डिप्लोमा कोर्स के बाद कोई पत्रकारिता के क्षेत्र में नौकरी करना शुरू कर देता है। आईआईएमसी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान से निकलने वाले अधिकांश हिंदी पत्रकारों की शुरुआती नौकरी औसतन 18 हजार रुपये महीने के हिसाब से लगती है। इतनी कम आमदनी मिलने के बाद कई पत्रकार अपनी शुरुआती दौर में ही पत्रकारिता के पेशे को हमेशा के लिए अलविदा कह देते हैं। एक बड़ा तबका उनका बचता है, जिनके पास या तो कोई विकल्प नहीं रहता या जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि मजबूत होती है।

इसके बाद इनमें से ज्यादातर की पूरी जिंदगी औसतन 30-50 हजार महीने की आय में गुजरती है। अगर इसी की तुलना सरकारी क्षेत्र के प्राइमरी स्कूल के टीचर से कर ली जाए तो प्राइमरी स्कूल के टीचर की शुरुआती सैलरी 40 हजार रुपये से अधिक की होती है। सातवें वेतन आयोग के बाद यह शायद 50 हजार रुपये प्रति महीने से अधिक की हो गई है। इसके साथ सोशल सिक्योरिटी से जुड़े कुछ योजनाओं को भी जोड़ लीजिए तो पता चलेगा कि मीडिया के कुछ जगहों पर तो मिलता है और कुछ जगह पर नहीं मिलता। अब आप तुलना करके खुद तय कीजिए के हिंदी का पत्रकार क्या अपनी पूरी योग्यता के बाद एक ऐसी जिंदगी जी रहा है जिसे जीना कहा जा सकता है या साहस और जागरूकता के नाम पर अंधेरी गलियों में हिंदी के पत्रकार को मरने के लिए छोड़ दिया जा रहा है।  

हिंदी के पत्रकार की ऐसी हालत एक दिन या कुछ महीने की बात नहीं है बल्कि हिंदी के पत्रकार की कई पीढ़ियां इसी सिस्टम को झेलते हुए जी चुकी हैं और कई पीढ़ियां इसी सिस्टम में जीने के लिए झोंकी जा रही हैं। यह हिंदी के पत्रकारों की बहुत बड़ी दुनिया है। जिनके दम पर किसी टीवी स्टूडियो में चमचमाते हुए चेहरे बनते हैं और किसी अखबार में बड़े रसूख वाले संपादक बनते हैं। इन चमचमाते हुए चेहरों के दम पर ही हम पूरी हिंदी मीडिया का अनुमान लगा लेते हैं। जबकि हिंदी मीडिया का मतलब यह नहीं है।

इन्हीं चमचमाते हुए चेहरों को देखकर कई नौजवान मीडिया की तरफ आकर्षित होते हैं। और मीडिया के संस्थानों में लाखों खर्च कर पढ़ाई करते हैं। रवीश कुमार जैसे मशहूर पत्रकार ने यह लिखा है कि मीडिया में नौकरी करने के लिए इन संस्थानों में लाखों फूंकने की जरूरत नहीं है। लेकिन ऐसी दलीलों से कोई फर्क नहीं पड़ता है। एक आम इंसान और एक आम नौजवान को इस बात से फर्क पड़ता है कि मीडिया को लेकर समाज में बना माहौल कैसा है?

आम जनता को यह लगता है कि टीवी पर दिखने वाले चेहरे ही पत्रकार हैं और मीडिया है। इन लोगों की खूब कमाई होती है। इसका मतलब है कि मीडिया में पैसे की कोई कमी नहीं है। आम जनता का यह सोचना सही है कि ब्रांडिंग के तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले चेहरे बहुत मोटी कमाई करते हैं लेकिन असलियत यह है कि केवल यह मोटी कमाई करने वाले चेहरे ही मीडिया नहीं होते। इन चेहरों के पीछे हजारों लोग दबे हुए हैं जिनकी आमदनी बहुत कम है। दुखद बात तो यह है कि पूरे समाज में खामियां निकालने वाली मीडिया अपने अंदर दिख रहे सबसे प्रभावी खामी को देखते हुए भी दूर नहीं करना चाहती। कुछ कम-बेसी अनुभव के साथ एक जैसा काम करते हुए भी जो लोग किसी मीडिया हाउस में चेहरे की तरह इस्तेमाल किए जाते हैं और जो लोग चेहरे के पीछे होते हैं उनकी आमदनी में जमीन-आसमान का भयंकर अंतर होता है।

सोच कर देखिए कि किसी एंकर की आमदनी 20 लाख से ऊपर की हो और उसी एंकर के बराबर हैसियत रखने वाले किसी पत्रकार की आमदनी 20 हजार रुपये भी ना हो तो वह सिस्टम अपने अंदर कितनी बड़ी नाइंसाफी लेकर चल रहा होगा। कैसे उसकी अंतरात्मा गवाही देती होगी कि इतनी बड़ी नाइंसाफी होने के बावजूद अपनी नाइंसाफियों को दरकिनार कर दूसरे की नाइंसाफियों पर उंगली उठाएं।

विनीत कुमार मीडिया अध्येता हैं । विनीत कुमार का कहना है कि मेरा अनुमान है कि पूरे मीडिया में कार्यरत तकरीबन 70 से 80 फ़ीसदी पत्रकार 30 से 40  हजार रुपये प्रति महीना मेहनताना पर काम करते हैं। भारत में पत्रकारिता एक पेशेवर पेशे की तरह बन नहीं पाया है। दिल्ली जैसे शहरों में पत्रकारों को 30 से 40 हजार रुपये की महीने की आमदनी हो भी जाती है तो क्षेत्रीय इलाकों में पत्रकारों का मेहनताना पूरी जिंदगी में 20 हजार प्रति महीने से भी अधिक नहीं हो पाता।

क्षेत्रीय इलाकों में हिंदी का पत्रकार एक पाँव पत्रकारिता में रखता है तो दूसरा पाँव जीवन चलाने के लिए दूसरे कामों में। आपने देखा भी होगा कि फोटोस्टेट की दुकान पर लोग फोटोस्टेट भी करते हैं और खुद को पत्रकार भी बताते हैं। हिंदी पत्रकारिता की यही सच्चाई है। बहुत कम लोग ऐसे हैं जो बॉस के दर्जे तक पहुंचते हैं, उनकी ही आमदनी जीवन में 10 साल काम करने के बाद 50  से 60 हजार रुपये महीने से अधिक हो पाती है। नहीं तो सबका जीवन 30 से 40 हजार की आमदनी के बीच अटका हुआ है।

ऐसे में किसी पत्रकार से पत्रकारिता की अपेक्षा करना बेईमानी है। वह अपनी जिंदगी की सुरक्षा के बारे में सोचें या खबर, लेख, रिपोर्ट या छानबीन के बारे में। इसीलिए कई पत्रकारों की पूरी जिंदगी कई तरह के समझौतों के बीच गुजरती है। ऐसे समझौते जो उन्हें मजबूरन भ्रष्ट काम करने के तरफ भी मोड़ते है। दूसरे देशों में पत्रकारिता एक तरह का पेशा बन चुकी है। दूसरे देश का पत्रकार केवल पत्रकारिता करके अपने लिए डिग्निफाइड लाइफ का जुगाड़ कर लेता है। उसे फिर इस बात की चिंता नहीं रहती कि उसके बच्चे का फीस कैसे भरा जाएगा? अगर वह बीमार पड़ गया तो उसका इलाज कैसे होगा?

विनीत कुमार आगे कहते हैं कि भारत में पत्रकारिता का सही तरह का सिस्टम ही नहीं बन पाया है। कुछ मीडिया घरानों को छोड़ दिया जाए तो कैसे पत्रकारों को नौकरी मिलती है? कैसे उनकी सैलरी तय होती है और क्यों उन्हें नौकरी से बाहर निकाल दिया जाता है, इसके पीछे की ठोस वजह कभी पता नहीं चलती हैं।

अब कोरोना का समय ही ले लीजिए। इस समय कई मीडिया घरानों के कई पत्रकारों की छंटनी हो रही है। महामारी का कारण बताकर लोगों को नौकरियों से बाहर निकाला जा रहा है। हकीकत यह है कि महामारी की वजह से खर्चे कम हुए हैं, लोगों ने खबरें देखना बंद नहीं किया है तो यह कैसे संभव है कि महामारी का बुरा असर बता कर पत्रकारों को बाहर निकाला जाए। हकीकत तो यह है कि मीडिया घराने अपने जमा किए हुए मुनाफे का इस्तेमाल अपनी ही किसी दूसरी कंपनियों में कर रही हैं। अपना इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने में कर रही हैं।

अगर कुछ लोगों की टीम लगाकर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की जाय तो पता चल जाएगा कि नोएडा फिल्म सिटी के इलाके में मौजूदा मीडिया संस्थानों ने कितने और इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किए हैं। ऐसा नहीं है कि मीडिया घरानों को कमाई नहीं होती है मुनाफा नहीं होता है। मेन स्ट्रीम मीडिया के मालिकों को छप्पर फाड़ कर कमाई होती है, लेकिन इन्होंने न्यूज़ गैदरिंग की प्रक्रिया पर खर्च करना बंद कर दिया है। नई तरह के इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च होता है लेकिन एक अच्छे से अच्छे पत्रकार की सालाना आमदनी में आम दिनों में दो से तीन फीसदी का इजाफा होता है। ऐसे माहौल में हिंदी का पत्रकार दया पर निर्भर ना करें तो बेचारा करें क्या? दया और मदद तो उसे कुछ दफे मिल भी जाएगी लेकिन पूरी जिंदगी वह पत्रकारिता के पेशे के बलबूते जीने में पूरी तरह से असफल रहेगा।

न्यूज़क्लिक हिंदी के एडिटर मुकुल सरल का कहना है कि पत्रकारों के लिए इस समय केवल आमदनी का संकट नहीं है, बल्कि उनकी नौकरी पर ही संकट है। कई पत्रकारों को काम से निकाला जा चुका है, कई को निकाला जा रहा है और आने वाले समय में और कईयों को अपनी नौकरी छोड़ने के लिए कहा जाएगा। ज़रा-सी भी स्वतंत्र सोच-समझ रखने वाले और सवाल करने वाले पत्रकार की सबसे पहले छुट्टी हो रही है। ऐसे पत्रकार को मालिक बिल्कुल पसंद नहीं करता।

कोरोना ने स्थिति और ख़राब कर दी है और इसकी आड़ में तनख़्वाह कम करना और नौकरी से निकालना बेहद आसान हो गया है।

मुकुल सरल की बात बिल्कुल सही है। पत्रकारिता के सामान्य दिनों की खामियों ने कोरोना के इन असामान्य दिनों में भयंकर रूप ले लिया है। इन खामियों पर लिखा जाए तो सुबह से शाम हो जाएगी। फिर भी यह खामियां पूरा नहीं होंगी। लेकिन अमन गुप्ता के चोट और मदद से जुड़े प्रकरण ने एक गहरा सवाल पैदा किया कि क्या हिंदी पत्रकारिता से जुड़े लोग मदद के लिए अभिशप्त हैं? क्या इनकी जिंदगी केवल मदद करके सही की जा सकती है? तो जवाब मिला बिल्कुल नहीं। हिंदी मीडिया में काम कर रहा बहुत बड़ा समुदाय चाहे जिस तरह से और जिस जगह भी काम कर रहा हो, बहुत ही कम वेतन पर काम कर रहा है। इनके लिए सबसे पहले असली मदद यही हो सकती है कि नए या पुराने जो भी मीडिया के संस्थान बने वह अपने पत्रकारों को इतना मेहनतना तो जरूर दें कि वह एक गरिमा पूर्ण जिंदगी जी पाए।

जिंदगी में अचानक आने वाली परेशानियां पहाड़ की तरह भले आए लेकिन उनके पास इससे लड़ने की क्षमता भी हो। पत्रकार अमन गुप्ता के साथ कुछ और लोगों की मदद तो एक-दो घटनाओं के समय हो भी सकती है लेकिन हिंदी से जुड़ा पत्रकारिता का पूरा समाज दोयम दर्जे की मेहनताना के साथ ना तो जिंदगी जी सकता है और न ही पत्रकारिता कर सकता है।

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