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कला ने सत्ता के हिंसात्मक कृत्यों का हमेशा विरोध किया है 

"एक तरफ फिलिस्तीन के समर्थन में उठने वाली आवाज को अमेरिका और यूरोप के देशों में दबाया जा रहा है वहीं भारत की सरकार, जो ऐतिहासिक रूप से इजराइल द्वारा फिलिस्तीनी जमीन पर अतिक्रमण के ख़िलाफ रहा है, वह भी इस युद्ध में इजराइल के पक्ष में खड़ा है।"
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पटना के कला एवं शिल्प महाविद्यालय में पुनश्च, पटना एवं रजा फाउंडेशन, दिल्ली के द्वारा 'कला एवं हिंसा' विषय पर एक गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस आयोजन में मुख्य वक्ता के रूप में वरिष्ठ रंगकर्मी एवं अभिनेता जावेद अख्तर खान, संस्कृतिकर्मी एवं लेखक अनीश अंकुर, कवि व प्राध्यापक राकेश रंजन एवं युवा रंग निर्देशक रणधीर कुमार मौजूद रहे।

कार्यक्रम का संचालन दिल्ली विश्वविद्यालय के चर्चित प्राध्यापक प्रो अपूर्वानंद ने किया। इस गोष्ठी को शुरू करते हुए वरिष्ठ रंगकर्मी विनोद कुमार ने वर्तमान में चल रहे फिलिस्तीनी नागरिकों पर इजराइल द्वारा किए हमले का हवाला देते हुए भारत सहित दुनिया के अलग अलग देशों में चल रहे आंदोलनों पर सत्ता द्वारा की जा रही हिंसा का जिक्र किया। "एक तरफ फिलिस्तीन के समर्थन में उठने वाली आवाज को अमेरिका और यूरोप के देशों में दबाया जा रहा है वहीं भारत की सरकार, जो ऐतिहासिक रूप से इजराइल द्वारा फिलिस्तीनी जमीन पर अतिक्रमण के ख़िलाफ रहा है, वह भी इस युद्ध में इजराइल के पक्ष में खड़ा है। बावजूद इसके दुनिया के अनेक शांति समर्थक संगठन, नागरिक समाज, बुद्धिजीवियों एवं कलाकारों द्वारा इस नृशंस नरसंहार का विरोध किया जा रहा है। अपने देश भारत में भी किसान एमएसपी की मांग को लेकर लगातार आंदोलनरत है जिस पर सत्ता के द्वारा हिंसात्मक कार्रवाई की जा रही है एवं सत्ता समर्थक मीडिया के द्वारा ऐसे आंदोलनों को बदनाम किया जा रहा है। ऐसे में नागरिक समाज का यह दायित्व है कि सरकार द्वारा किए जा रहे हिंसात्मक कृत्यों का पुरजोर विरोध करे। इस प्रकार उन्होंने इस गोष्ठी की प्रासंगिकता पर अपनी बात रखी।" 

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रो अपूर्वानंद ने इस गोष्ठी के विषय ‘कला और हिंसा’ पर बात करते हुए कहा "पूरी दुनिया के पैमाने पर अगर हिंसा कि बात की जाए तो इस मामले में सबसे ज्यादा और बुरा अनुभव औरतों का है। इसके अलावा भारतीय समाज में जाति व्यवस्था में दलित सबसे ज्यादा हिंसा के शिकार हुए है। इसलिए जब औरतों और दलितों ने अपनी आपबीती कला के अलग-अलग माध्यमों (चित्र, साहित्य, फिल्म, रिपोर्ट इत्यादि) से प्रकट करना शुरू किया तो वह समाज के बाकी वर्गों के लिए आश्चर्य का विषय था। इसके अतिरिक्त नस्लीय और औपनिवेशिक हिंसा के इतिहास को भी उन्होंने रेखांकित किया। ख़ास तौर पर वर्तमान में इजराइल द्वारा गजा में हो रही हिंसा का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि गाजा में जो हिंसा इस समय हो रही है वह कई मायनों में जर्मनी के हॉलोकास्ट से भी ज्यादा भयानक है। इसके साथ ही उन्होंने गजा के नागरिकों पर हमले के विरोधस्वरूप साहित्य और कला पर भी बात की, विशेष तौर पर फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश, रफत अली का पूरा रचना संसार ही फिलिस्तीन पर इजराइल द्वारा कई दशकों से की जा रही हिंसा के विरोध में रहा है।"

इस विमर्श को आगे बढ़ाते हुए अगले वक्ता के रूप में संस्कृतिकर्मी और कला पर लगातार लेखन कर रहे अनीश अंकुर ने कला और हिंसा पर बात की और शेक्सपीयर के नाटकों का जिक्र करते हुए कहा "उनके अधिकांश नाटको में हिंसा और रक्तपात है एवं मुख्य नायक हिंसक व मनोरोगी है। इसका परिणाम यह हुआ कि ब्रिटेन में शेक्सपीयर की मृत्यु के लगभग 30 साल वाद वहां की जनता ने राजा की हत्या कर दी। अतः यह कहा जा सकता है कि कला समाज में घट रही या भविष्य में घटने वाली घटनाओं का एक पूर्वानुमान भी करती है। अपने वक्तव्य में उन्होंने मणिपुर में महिलाओं द्वारा सेना के ख़िलाफ नग्न विरोध प्रदर्शन का जिक्र करते कहा कि विरोध का यह तरीक़ा वहां के महान नाटककार एच कन्हाइलाल के नाटक के दृश्य से लिया गया था। नाजी शासन के दौरान जर्मनी में भी सबसे पहले कलाकारों एवं साहित्यकारों ने हिटलर और फासीवाद के क्रूर चरित्र पेंटिंग में सबसे पहले फ्यूचरिज्म ने पकड़ा। इसके साथ ही फ्रांसिस गोया के चित्रों को, खासकर 'शैतान डिवावरिंग हिज सन', को देखा जाए तो उन्होंने जिस ढंग से स्पेन में हुई हिंसा को चित्रित किया वह हमारी आंखें खोलता है। इसी श्रृंखला में हम पिकासो के हिंसा और फासीवाद विरोधी महान चित्र गुयेरनिका को उदाहरणस्वरूप देख सकते हैं।" अपने वक्तव्य में अनीश अंकुर ने चित्रकार वान गॉग, पिकासो, चित्त प्रसाद, जैनुल आबेदिन, सोमनाथ होर का जिक्र करते हुए कहा कि इन जैसे कलाकारों ने अपनी कृतियों और अपने विचारों के माध्यम से हमेशा सत्ता और उसके द्वारा की जा रही हिंसा का विरोध किया है।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली से प्रशिक्षित युवा रंग निर्देशक रणधीर कुमार ने इस विषय पर बात करते हुए कहा "कला और हिंसा दोनों एक दूसरे के विपरीत है, कला का काम लोगों को जागरूक और संवेदनशील बनाना है जबकि हिंसा ठीक उसके विपरीत है। जिस प्रकार कला और संस्कृति हमें विरासत में मिली है उसी तरह हिंसा भी हमारा इतिहास का ही हिस्सा है। हमारे सभी सांस्कृतिक और धार्मिक आख्यान हिंसा से भरे पड़े हैं लेकिन समय समय पर उसके स्वरूप और चरित्र में परिवर्तन आता है। एक नाटककार के रूप में हमारा ये दायित्व है कि हम समाज के अंदर मौजूद किसी भी प्रकार की हिंसा को अपने नाटकों और अन्य माध्यमों से अपने दर्शकों के सामने रखें ताकि उस पर विमर्श हो।" 

युवा कवि व बाबा साहब भीम राव अंबेडकर बिहार विश्विद्यालय में हिंदी के सहायक प्राध्यापक राकेश रंजन ने कहा "जहां तक हिंसा के प्रति साहित्य का दृष्टिकोण है, साहित्य का जन्म ही हिंसा के विरोध में हुआ है। रामायण का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि पूरी रामायण भी शोक से उत्पन्न श्लोक है। साहित्य हमेशा से ही दया, क्षमा, अहिंसा, करुणा, सहिष्णुता, परोपकार जैसे मूल्यों की बात करता रहा है। हिन्दी कविता की शुरुआत बौद्ध एवं जैन कविताओं से होती है तथा इनके केंद्र में अहिंसा ही है और करुणा एवं दया को ही साधना माना है।" 

इस गोष्ठी में अंतिम वक्ता के रूप में आए अभिनेता जावेद अख़्तर खां ने महात्मा गांधी की प्रसिद्ध पंक्ति को उद्धृत करते हुए कहा कि “अगर आप तमाचा मारने वाले को क्षमा नहीं कर सकते तो आप भी उसको एक तमाचा मार सकते हैं, लेकिन उसे तमाचा न मार सकने का बदला दूसरों से नहीं लिया जा सकता है।” दरअसल हिंसा यही है कि आप पर किसी ने कथित रूप से हमला किया और आप उसका बदला आप महीनों से पूरे समुदाय पर ले रहे हैं (फिलिस्तीन के संदर्भ में)। उन्होंने नाटककार अलबेयर कामू के नाटकों की चर्चा करते हुए कहा कि कामू ने एक बार कहा था कि “किसी के मरने के अनेक कारण हो सकते हैं लेकिन मारने का एक भी नहीं होता है।” इसके अलावा उन्होंने अलबेयर कामू के नाटक न्यायप्रिय के कुछ प्रासंगिक संवाद का पाठ करके इस बात पर जोर दिया कि हिंसा किसी भी परिस्थिति में न्यायोचित नहीं चाहे वो किसी भी मकसद के लिए की जा रही हो।" 

गोष्ठी के अंत में वक्ताओं ने दर्शकों के कई प्रश्नों का उत्तर भी दिया। धन्यवाद ज्ञापन युवा कवि व कलाकार शिवांगी ने किया।

इस कार्यक्रम में कला एवं शिल्प महाविद्यालय के प्राचार्य अजय पांडेय, पटना कॉलेज के पूर्व प्राचार्य प्रो तरुण कुमार, राष्ट्रीय ललित कला अकादमी से निकलने वाले हिंदी पत्रिका के संपादक रहे प्रसिद्ध कला समीक्षक सुमन सिंह, राखी कुमारी, विजयश्री डांगरे, उमेश शर्मा,  धनंजय, विपिन, मुकेश, राकेश कुमुद, रंजन, रौशन कुमार, रंगकर्मी जयप्रकाश, अरशद अजमल, नर्तक ओम कुमार, रूपेश, तनवीर अख्तर, समीर के अतिरिक्त कई छात्र आदि मौजूद थे। 

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