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भाजपा को सनातन धर्म या संविधान में से किसी एक को चुनना होगा

भारत का संविधान युगों से चले आ रहे सनातन विरोधी विद्रोह का प्रतीक रहा है।
dharma and constitution

भारतीय जनता पार्टी के द्विज नेता, दिल्ली में सत्ता की कुर्सी पर बैठकर सनातन धर्म और इसकी "समावेशिता" के बारे में देश को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं। अपने सामान्य हिंदुत्व या हिंदू धार्मिक बयानबाजी से हटकर, वे अब सनातन धर्म की धारणा को सामने ला रहे हैं। हालाँकि उन्होंने इसकी शुरुआत डीएमके मंत्री उदयनिधि स्टालिन के "सनातन धर्म की जड़े उखाड़ने" वाले बयान का विरोध करके की, लेकिन यह भाजपा की पूर्वज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का प्राथमिक आंतरिक वैचारिक एजेंडा है ताकि जिसके ज़रिए शूद्र-पिछड़ी जातियों, आदिवासी और दलितों को पूर्व-संवैधानिक स्थिति में जाने पर मजबूर कर दिया जाए। 

लगता ऐसा है कि आरएसएस और भाजपा इस नतीजे पर पहुंच गए हैं कि केंद्र और कई राज्यों में उनके दस वर्षों के शासन के दौरान मुसलमानों और ईसाइयों को पहले ही एक खोल में धकेला जा चुका है। अब उनका अंतिम एजेंडा यह है जिसे वह आरएसएस के उत्कृष्ट द्विजों के ज़रिए लागू करना चाहती है कि पिछड़ी जातियों और आदिवासियों को अब उनकी नामी गुलाम और अर्ध-गुलाम स्थिति में वापस धकेल दिया जाना चाहिए।

यह संभव है या नहीं यह एक अलग मुद्दा है—लेकिन उनकी मुहिम एकदम साफ है।

भाजपा सनातन धर्म को कैसे परिभाषित करती है?

एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उदयनिधि पर हमला बोलते हुए बीजेपी के वरिष्ठ प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने सनातन धर्म को "सनातन कानून" के रूप में परिभाषित किया। लेकिन क्या यह एक शाश्वत नियम है? प्रसाद इसे विस्तार से नहीं बता पाए। क्या यह शाश्वत प्राकृतिक नियम है या शाश्वत आध्यात्मिक नियम? ये भी कोई नहीं जानता है। वैदिक नियमों के अनुसार, सनातन का अर्थ केवल पारंपरिक या पुरानी धार्मिक प्रथा है।

जैसा कि हम आरएसएस-बीजेपी की समझ से जानते हैं, सनातन धर्म की तीन विशेषताएं हैं:

  1. शूद्रों, दलितों या आदिवासियों को बंधन-मुक्त किए बिना जाति व्यवस्था को बनाए रखना;
  2. यज्ञ करना और पशु बलि के बाद अनुष्ठानिक भोजन का सेवन करना;
  3. जाति व्यवस्था की शीर्ष की दो जातियों ब्राह्मण और क्षत्रिय को कभी भी उत्पादक क्षेत्रों में काम नहीं करना और यह काम शूद्रों से हमेशा कराया जाना चाहिए।

इसलिए सनातन धर्म सनातनियों, शूद्रों, दलितों और आदिवासियों के शाश्वत कर्तव्यों को परिभाषित करता है।

सनातन धर्म के विरुद्ध विद्रोह

इस तरह की सनातन व्यवस्था के खिलाफ पहला विद्रोह, 24 तीर्थंकरों में से अंतिम और जैन धर्म के संस्थापक वर्धमान महावीर ने किया था। बड़े पैमाने पर वैदिक बलिदानों (यज्ञ) जिसमें जानवरों का क़त्ल कर दिया जाता था, के खिलाफ 7वीं शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास जैन धर्म पूर्ण शाकाहार की ओर मुड़ गया था। इसने किसी भी जाति के सदस्यों को समान रूप से जैन संप्रदाय में शामिल होने की अनुमति दी, और हिंसा के ज़रिए किसी भी जीव की हत्या का विरोध किया था।

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, जो खुद एक जैन हैं, अब उसी सनातन धर्म का समर्थन कर रहे हैं –जिस सनातन धर्म का जैन धर्म ने प्राचीन काल से ही विरोध किया है।

दूसरा विद्रोह गौतम बुद्ध से शुरू हुआ था। इसे कई आरंभिक मानवीय सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए बेहतर ढंग से तैयार किया गया था। बौद्ध धर्म ने जाति व्यवस्था का विरोध किया और सभी मनुष्यों के लिए स्वाभाविक श्रमण दर्शन का समर्थन किया। उनके लिए खेतों में काम करना या जानवर चराना वेदों का प्रचार करने के समान सम्मानजनक था।

बौद्ध धर्म ने हमेशा पशु बलि का विरोध किया और मनुष्यों के रोजमर्रा के भोजन के रूप में मांस और गैर-मांस (या शाकाहारी, जैसा कि अब जाना जाता है) की संतुलित खाद्य संस्कृति का प्रस्ताव रखा। इसने पशुओं की जान बचाई और कृषि कार्यों के लिए पशुओं का इस्तेमाल करने की अनुमति दी, जैसे हल जोतने में बैल का इस्तेमाल किया जाता था। सनातन धर्म ने इन सभी बौद्ध विचारों को वैदिक विरोधी बताकर विरोध किया था।

बुद्ध ने सनातन धर्म या वेदवाद यानि वेदों को अप्राकृतिक और अमानवीय बताया था। उनके अनुसार, मानव समानता कुदरत के निज़ाम का हिस्सा थी, जबकि सनातन धर्म इसके विपरीत – यानि स्थायी मानव असमानता में विश्वास रखता था। बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सनातन संप्रदाय के बीच संघर्ष तब तक जारी रहा जब तक मुसलमानों ने उत्तर पश्चिम से भारत पर कब्जा नहीं कर लिया था।

उसके बाद काफी समय तक इतिहास अधिकतर खामोश रहता है।

मध्यकालीन विद्रोह

सनातन धर्म और भारतीय इस्लामी आध्यात्मिकता के खिलाफ अगला बड़ा विद्रोह मध्यकालीन युग में सिख धर्म से शुरू हुआ था। गुरु ग्रंथ साहिब ने कई सिद्धांत दिए जो श्रम की गरिमा का सम्मान करते थे। किसी भी सिख गुरु ने जाति व्यवस्था, विशेषकर ब्राह्मणवाद को मानवीय या सम्मानजनक प्रथा के रूप में स्वीकार नहीं किया था। इसीलिए, शुरुआत से ही, सिख धर्म ने इस बात पर जोर दिया था कि उसके सभी अनुयायियों को खेती के कामों में भाग लेना चाहिए।

पंजाब के सिखों की मजबूत ग्रामीण उत्पादन नीति, सनातन प्रथाओं में श्रम के अपमान से आई है। इसने कभी भी अपने समर्थकों/अनुयायियों को देवत्व का एहसास करने या अपनी आत्मा को पूरा के लिए एकांत या अलगाव में जाने के लिए नहीं कहा - जो किसी व्यक्ति द्वारा की जाने वाले एक किस्म की तपस्या होती है। सिख धर्म ने ब्राह्मण के ईश्वरीय विचार को खारिज कर दिया था।

इसने अपने अनुयायियों को कम्यून्स (मिलकर) में काम करने और इबादत करने को कहा। यद्यपि वास्तविक व्यवहार में देखा जाए तो इसमें भी जाति के कुछ तत्व हैं, जबकि गुरु ग्रंथ साहिब में जाति और अस्पृश्यता की कोई अनुमति या धार्मिक मंजूरी नहीं है। कोई भी सिख बच्चा पंथी/पुरोहित बनने के लिए प्रशिक्षण ले सकता है। इससे पश्चिमी भारत के ब्राह्मणवाद पर संकट पैदा हो गया था।

यदि आरएसएस-भाजपा शासक, सनातन धर्म को भारत की सत्तारूढ़ विचारधारा बनाते हैं, तो इससे सिख विद्रोह भड़क उठेगा। यही कारण है कि डॉ. बीआर अंबेडकर सनातन धर्म के विकल्प के रूप में सिख धर्म को अपनाना चाहते थे।

आर्यसमाजियों का विद्रोह

19वीं शताब्दी में, पंजाब इलाके और ब्राह्मण समुदाय से संबंध रखने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती वैदिक आध्यात्मिकता की एक नई व्याख्या के साथ उभर कर सामने आए। उनका मानना था कि वर्ण धर्म और यज्ञ अनैतिक सनातनियों द्वारा शुरू किए गए थे। उन्होंने सभी जातियों के लोगों को आर्य समाज में भर्ती करना शुरू कर दिया था। एक साथ भोजन करना - बेशक शाकाहारी, लेकिन पारंपरिक जाति पदानुक्रम की अनदेखी को आर्य समाज में सामान्य बना दिया गया था। वेदों का अध्ययन करने और उनका प्रचार करने के लिए महिलाओं की भर्ती की गई।

इसलिए, उनके समकालीन सनातनियों ने आर्य समाज का विरोध किया, जिसमें किसी भी जाति के लोगों और महिलाओं को संस्कृत और मंत्र जप के अध्ययन में प्रवेश दिया गया। इससे ब्राह्मण और क्षत्रिय क्रोधित हो गए और उत्तर भारत में सनातनियों और आर्य समाजियों के बीच बड़े पैमाने पर झड़पें शुरू हो गईं। अंत में, आर्य समाज के विश्वासियों का कहना था कि सनातन धर्म में विश्वास करने वालों ने स्वामी के भोजन में जहर देकर उन्हें मार दिया था। हालाँकि आर्य समाज सनातन विरोधी था, लेकिन यह बौद्ध धर्म और सिख धर्म की तरह सुसंगठित नहीं था। अत: यह एक कमजोर आन्दोलन बनकर रह गया।

फुले-अम्बेडकर-सनातन विरोधी आंदोलन

महात्मा ज्योतिराव फुले के सत्यशोधक समाज (सच्चाई की तलाश करने वाला समाज) और बीआर अंबेडकर के जाति उन्मूलन ने शूद्रों और दलितों को एक नए, आधुनिक, सार्वभौमिक और लोकतांत्रिक तरीके से जगाया। उन्होंने सनातन धर्म के संपूर्ण इतिहास की आलोचना की और सनातन विरोधी विद्यालयों की भूमिका का मूल्यांकन किया। फुले ने एक बिल्कुल नए धर्म का प्रस्ताव रखा, जबकि अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया और इसे नवयान बौद्ध धर्म नामक एक नई आधुनिक दिशा दी।

भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने सनातन धर्म और अंबेडकर के संविधान का एक साथ समर्थन करके खुद को गहरे विरोधाभास में डाल दिया है। भारत का संविधान सभी सनातन विरोधी संघर्षों का प्रतीक है।

दक्षिण भारत में सनातन विरोधी आंदोलन

दक्षिणी राज्यों में वीरशैव का बसव आंदोलन 12वीं शताब्दी में एक शक्तिशाली संतन-विरोधी विद्रोह था। बसव, हालांकि एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे, उन्होंने पवित्र धागे या जनेऊ के खिलाफ विद्रोह किया, जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ी और तथाकथित निचली जातियों की कई महिलाओं और पुरुषों को आगे बढ़ाया। शूद्र लिंगायत और वोक्कालिगा समुदाय ब्राह्मण और क्षत्रिय अधिकार को अस्वीकार करते हुए बसव के अनुयायी बन गए थे।

जैसा कि सिख विद्रोह के दौरान हुआ था, कर्नाटक में ज्यादातर शूद्र कृषक जातियां लिंगायत आध्यात्मिक आंदोलन की अनुयायी बन गईं। उन्होंने अपने मठ स्थापित किए, जो शूद्र मत्ताधिपतियों या प्रमुखों द्वारा संचालित होते थे।

कर्नाटक में, अद्वैत के नए दर्शन के कारण ब्राह्मणों द्वारा स्थापित आदिशंकर पीठ, लिंगायत पीठ के समानांतर हैं।

बसवा के ‘अनुभवा मंतप जातिविहीन आध्यात्मिक सामूहिक केंद्र’ थे। लिंगायत धर्म महिलाओं को प्रमुख स्थान देता है। मध्यकाल में कुरुबा (गडरिया समुदाय से) अक्का महादेवी और हमारे समय में लिंगायत गौरी लंकेश, बसव के प्रबल अनुयायी बन गए थे। सनद रहे कि लंकेश की हत्या सनातन धर्म को मानने वालों ने की थी।

उसी परंपरा से श्री नारायण गुरु उभरे, जिन्होंने सनातन धर्म का विरोध किया और एझावा समुदाय को संगठित किया, जिस समुदाय को 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में, केरल में जिस समुदाय को ब्राह्मणों अछूत और अदृश्य समुदाय मानते थे। नारायण गुरु उसी अवस्था में आदि शंकराचार्य के समान बन गए थे। 

पेरियार का द्रविड़ आंदोलन

दक्षिण में सनातन धर्म को अंतिम झटका पेरियार रामासामी के द्रविड़ खजगम आंदोलन से लगा। इसने सनातन धर्म को "आर्यन नस्लवादी" और "ब्राह्मण जातिवादी" धर्म के रूप में परिभाषित किया। उन्होंने सनातन धर्म और हिंदू धर्म के बीच मामूली अंतर बताया। यह दक्षिण भारत में द्रविड़ शूद्र-दलित सामाजिक शक्तियों का सनातन ब्राह्मणवाद के विरुद्ध सबसे सघन और तनावग्रस्त आंदोलन था।

पहली बार यह एक प्रमुख राजनीतिक और चुनावी मुद्दा बन गया। हालाँकि पेरियार ने खुद एक नास्तिक विचारक के रूप में आंदोलन शुरू किया था, लेकिन उन्होंने कृषि प्रधान शूद्र-दलित आध्यात्मिक और ब्राह्मण आध्यात्मिक संस्कृति के बीच एक रेखा खींच दी थी।

अन्नादुरई और उदयनिधि के दादा करुणानिधि आंदोलन के शक्तिशाली प्रचारक के रूप में उभरे, जिससे तमिल जनता को शाकाहारी तमिल सैन्टाना ब्राह्मणवाद से लड़ने का एक अद्वितीय अवसर और क्षमता मिली। उन्होंने अपने संघर्ष में राजनीतिक, सांस्कृतिक (सिनेमा सहित) और साहित्यिक रूपों का इस्तेमाल किया। करुणानिधि ने तमिल सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सामाजिक आधार को मंत्रमुग्ध करने के लिए फिल्म स्क्रिप्ट लिखने की अपनी क्षमता का इस्तेमाल किया।

उदयनिधि एक लोकप्रिय फिल्म अभिनेता भी हैं; और यह उस परंपरा का हिस्सा है जो आरएसएस और भाजपा के सनातन पुनरुत्थानवादी प्रयासों का मुकाबला करने के लिए सिनेमा का इस्तेमाल करती है। केंद्र में भाजपा के विदेश मंत्री एस जयशंकर और केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण तमिल सनातन ब्राह्मण नेरेटिव का प्रतिनिधित्व करते हैं। पेरियार ने सनातन ब्राह्मण प्रतिनिधि सी राजगोपालाचारी से लड़ाई की थी। करुणानिधि और अन्नादुरई ने जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के ब्राह्मणवादी मध्यस्थता-वाद का विरोध किया था और शूद्र, ओबीसी, दलित जनता के साथ खड़े रहे और उनके प्रतिनिधित्व के अधिकार की रक्षा की थी।

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और उनके बेटे उदयनिधि को एहसास है कि भाजपा एक नए शैतानवाद के साथ सनातनवाद को आगे बढ़ा रही है जिसमें मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ ज़हर उगलना शामिल है। वे जानते हैं कि इसका अंतिम लक्ष्य सनातन धर्म के धीमे लेकिन व्यवस्थित पुनरुत्थान के साथ शूद्रों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं को अपने अधीन करना है। हालाँकि, भाजपा का यह एजेंडा आत्मघाती साबित होने की संभावना रखता है।

लेखक एक राजनीतिक सिद्धांतकार, सामाजिक कार्यकर्ता और कार्तिक राजा कुरुप्पुसामी के साथ 'द शूद्रस: विजन फॉर न्यू पाथ' के लेखक हैं। उनकी अगली किताब द शूद्रस: हिस्ट्री फ्रॉम फील्ड मेमोरीज़ होगी। वक्त विचार निजी हैं।

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीेचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

BJP Must Choose: Either Sanatan Dharma or Constitution

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