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ख़बरों के आगे-पीछे : सरकार नया जासूसी सॉफ्टवेयर ख़रीदेगी तथा अन्य ख़बरें

देश की राजनीति में पिछले कुछ समय से एक नई बात देखने में आ रही है कि सत्ता शीर्ष पर बैठे लोग खुद को पीड़ित बताते हुए अपने विरोधियों या अपने से असहमत लोगों पर गंभीर आपराधिक मामलों में लिप्त होने के आरोप लगा रहे हैं। जैसे...
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विपक्ष ईवीएम पर कितना गंभीर?

इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन(ईवीएम) को लेकर विपक्षी पार्टियों की दो बैठकें हुई हैं। एक कांग्रेस की पहल पर और दूसरी एनसीपी नेता शरद पवार की पहल पर हुई। दोनों बैठकों में कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह अहम थे। पवार के घर पर हुई बैठक के बाद भी उन्होंने ही मीडिया से बातचीत की थी। उन्होंने इलेक्ट्रोनिक डिवाइसेज के तकनीकी जानकारों के साथ भी बैठक करके इसकी तकनीक को समझा और मीडिया को समझाया। चुनाव आयोग से भी विपक्षी पार्टियों के नेता शिकायत कर चुके हैं। रिमोट ईवीएम का तो विपक्ष ने खुल कर विरोध किया ही है, ईवीएम में भी गड़बड़ी की संभावना के सबूत जुटाए हैं। पवार के घर पर कोई एक दर्जन विपक्षी पार्टियों की बैठक के बाद दिग्विजय सिंह ने कहा कि ईवीएम स्टैंडअलोन मशीन नहीं है। यानी ऐसा नहीं है कि वह बिल्कुल अलग-थलग एक मशीन है और उसका किसी दूसरी मशीन से लिंक नहीं है। उम्मीदवारों के नाम और चुनाव चिन्ह इंटरनेट से डाले जाते हैं। उन्होंने बताया कि इसी तरह पहले कहा गया था कि ईवीएम के चिप एक ही बार इस्तेमाल होते हैं लेकिन अब उन्हें कई बार प्रोग्राम किए जाने की खबर है यानी ये चिप मल्टी प्रोग्रामेबल हैं। इस आधार पर विपक्षी नेताओं का कहना है कि अगर कोई भी मशीन इंटरनेट से जुड़ी है तो उसे रिमोटली यानी कहीं दूर बैठ कर हैंडल किया जा सकता है। अब सवाल है कि ईवीएम को लेकर विपक्षी पार्टियां कितनी गंभीर हैं? क्या वे इसे लेकर सिर्फ संदेह पैदा करने का काम कर रही हैं या इसके खिलाफ कोई निर्णायक लड़ाई करनी है? ऐसा नहीं हो सकता है कि विपक्ष को जब फुरसत मिले तो वह ईवीएम पर सवाल उठाए और फिर राजनीति में लग जाए। इससे आरोपों की गंभीरता कम होती है। इस बारे में विपक्ष को अपनी रणनीति तय करनी होगी।

सत्ता में होते हुए ऐसे आरोपों का क्या मतलब?

देश की राजनीति में पिछले कुछ समय से एक नई बात देखने में आ रही है कि सत्ता शीर्ष पर बैठे लोग खुद को पीड़ित बताते हुए अपने विरोधियों या अपने से असहमत लोगों पर गंभीर आपराधिक मामलों में लिप्त होने के आरोप लगा रहे हैं। जैसे हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि कुछ लोगों ने उनकी छवि खराब करने के लिए सुपारी दे रखी है। कुछ समय पहले केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा था कि विपक्ष प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साजिश रच रहा है। पिछले दिनों केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजीजू ने कहा कि कुछ रिटायर जज एंटी इंडिया गैंग के सदस्य हो गए हैं। इसी तरह पिछले दिनों अमित शाह ने मेघालय की चुनावी सभा में कहा था कि कोनरेड संगमा की सरकार देश में सबसे भ्रष्ट सरकार है। इस तरह के बयानों के बाद यह सवाल उठने लगा है कि प्रधानमंत्री, गृह मंत्री या कानून मंत्री सिर्फ आरोप कैसे लगा सकते हैं? सत्ता में होते हुए ऐसे आरोप लगाना क्या उनके अक्षम होने का प्रमाण नहीं हैं? अगर उनके आरोपों में जरा भी दम हैं तो वे शिकायत क्यों नहीं दर्ज कराते हैं या जैसे महिलाओं के यौन शोषण संबंधी राहुल गांधी के बयान पर पुलिस ने उनसे पूछताछ की उसी तरह से इन लोगों से भी पुलिस पूछताछ क्यों नहीं कर रही है?

सरकार नया जासूसी सॉफ्टवेयर खरीदेगी!

पेगासस जासूसी का मामला अब लगभग रफा-दफा हो गया है। अब खबर आई है कि भारत सरकार एक दूसरा जासूसी सॉफ्टवेयर खरीदने की तैयारी कर रही है। अंग्रेजी अखबार 'इंडियन एक्सप्रेसने 'फाइनेंशियल टाइम्सके हवाले से खबर दी है कि सरकार पेगासस से कम विवादित जासूसी सॉफ्टवेयर खरीदने पर विचार कर रही है और इसके लिए कई कंपनियों से बात चल रही है। गौरतलब है कि पेगासस जासूसी सॉफ्टवेयर इजराइल की कंपनी एनएसओ ने तैयार किया था। इसके इस्तेमाल को लेकर दुनिया के कई देशों में बड़ा विवाद हुआ। भारत में भी इस सॉफ्टवेयर के जरिए कई नेताओं, जजों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि की जासूसी करने का आरोप लगा। सरकार की तरफ से कई विरोधाभासी बयान आए। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया लेकिन कुछ नहीं हुआ। बहरहाल, अब पेगासस से मुकाबले वाले दूसरा सॉफ्टवेयर खरीदने की बात हो रही है। बताया जा रहा है कि इसके लिए भारत सरकार ने करीब एक हजार करोड़ रुपए का बजट तय किया है। गौरतलब है कि सेना से लेकर खुफिया एजेंसियों तक को ऐसे सॉफ्टवेयर की जरूरत होती है। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा जैसे देशों ने अपने-अपने सॉफ्टवेयर बनाएं हैं, जिन्हें वे अन्य देशों को बेचते नहीं है। लेकिन कई निजी कंपनियां इसका कारोबार करती हैं, जिनमें से एक कंपनी है ग्रीस की इंटेलेक्सा। इस कंपनी ने प्रीडेटर नाम से सॉफ्टवेयर बनाया है। इसे इजराइल के इंजीनियरों की मदद से तैयार किया था। इसी तरह क्वाड्रीम और कॉग्नाइट नाम के सॉफ्टवेयर भी हैं। क्वाड्रीम का भी इस्तेमाल सऊदी अरब में हो रहा है। यह तय नहीं है कि भारत सरकार इनमें से कोई सॉफ्टवेयर खरीदेगी या कहीं और बातचीत हो रही है।

विपक्ष के सामने एक चुनौती ओवैसी भी

ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के नेता और हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी का अपना एक अलग मोर्चा है, जिसमें कोई और पार्टी उनके साथ नहीं है यानी एक दलीय मोर्चा। सबसे दिलचस्प बात यह है कि तमाम विपक्षी पार्टियों के सामने भाजपा की तरह ओवैसी भी एक चुनौती हैं। समूचा विपक्ष ओवैसी से परेशान है। कुछ पार्टियां हैं, जो कह रह रही हैं कि वे कांग्रेस और भाजपा से समान दूरी बनाए रखेंगी, लेकिन ओवैसी भाजपा और विपक्ष दोनों से समान दूरी बनाए हुए हैं। विपक्ष की पार्टियां सीबीआई और ईडी के दुरुपयोग के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गईं तो ओवैसी ने विरोध किया। सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर सुनवाई नहीं की तो भाजपा से ज्यादा ओवैसी ने विपक्ष की खिंचाई की। अब स्थिति यह है कि बिहार में नीतीश कुमार से लेकर झारखंड में हेमंत सोरेन और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी से लेकर महाराष्ट्र में शरद पवार और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल तक की सबसे बड़ी चिंता ओवैसी है। ये सारे विपक्षी नेता मान रहे हैं कि इस बार चुनाव में जबरदस्त ध्रुवीकरण होगा और मुस्लिम मतदाता गलती से भी किसी वोटकटवा पार्टी या उम्मीदवार को वोट नहीं देंगे। इसके बावजूद हकीकत है कि मुस्लिम समाज के नौजवानों में ओवैसी की लोकप्रियता बढ़ रही है। पिछले दिनों बिहार की दो विधानसभा सीटों पर उपचुनाव में उनकी पार्टी ने इतने वोट काटे कि महागठबंधन दोनों सीटों पर बहुत कम अंतर से हार गया और जीत भाजपा की हुई। इसीलिए हाल ही में जब नीतीश कुमार ने ओवैसी को भाजपा का एजेंट कहा तो जाहिर हुआ कि नीतीश और उनका गठबंधन कितनी चिंता में है। अभी ओवैसी कर्नाटक से लेकर राजस्थान तक चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं और सभी विपक्षी पार्टियों को किसी तरह से उनकी काट खोजनी है।

कहां गई मीडिया की हनक और हैसियत?

पिछले आठ-नौ साल के दौरान मीडिया का प्रसाद तो बढ़ा है लेकिन उसके महत्व और साख में बेहद कमी आई है। मीडिया घरानों के मालिकों और पत्रकारों की हैसियत भी घटी है और लोगों की नजर में उनकी ताकत और इज्जत भी कम हुई है। यह बात सांस्थानिक रूप से भी जाहिर होने लगी है। अंग्रेजी के अखबार 'इंडियन एक्सप्रेसने हर साल की तरह इस साल भी देश के सबसे ताकतवर एक सौ लोगों की सूची प्रकाशित की है। दिलचस्प बात यह है कि इधर-उधर के कई छोटे-बड़े नेता इस सूची में जगह पा गए है लेकिन मीडिया से जुड़े किसी व्यक्ति को इसमें जगह नहीं मिली है। कई मीडिया समूहों के मालिक दिन भर गला फाड़ कर सरकार की जय-जयकार करते रहते हैं और प्रधानमंत्री से अपनी निकटता दिखाने का कोई मौका नहीं छोडते हैं, फिर भी वे ताकतवर लोगों की सूची में जगह नहीं पा सके हैं। एक जमाना था, ऐसी बनने वाली एक सौ ताकतवर लोगों की सूची में कई मीडिया समूह के लोगों को जगह मिलती थी। टाइम्स समूह के विनीत-पुनीत जैन, दैनिक भास्कर समूह के रमेश और सुधीर अग्रवाल, हिंदुस्तान टाइम्स समूह की शोभना भरतिया के अलावा प्रणय व राधिका रॉय, अवीक सरकार, सुभाष गोयल, मारन बंधु आदि तक ऐसी सूची में जगह पाते रहे हैं। लेकिन अब न किसी मालिक को जगह मिलती है और न किसी पत्रकार को, जबकि आलिया भट्ट और रणवीर सिंह सहित हिंदी फिल्मों की आधा दर्जन हस्तियां सौ ताकतवार लोगों की सूची में हैं।

राहुल को बंगला खाली करने की जल्दी

आमतौर पर बड़े नेता लुटियन जोन में सरकारी बंगला अथवा फ्लैट बचाने के लिए तरह-तरह के जतन करते हैं, जैसे पिछले कुछ समय से गुलामनबी आजाद और आनंद शर्मा कर रहे हैं। लेकिन राहुल गांधी अपना सरकारी आवास 12, तुगलक लेन खाली करने को लेकर बेचैन हैं। हालांकि उनके पास 22 अप्रैल तक का समय है और अगर वे चाहे तो बंगला बच भी सकता है, लेकिन वे बचाने की बजाय छोड़ने में तत्परता दिखा रहे हैं। वे चाहते हैं कि जल्द से जल्द बंगला खाली कर दें। कहा जा सकता है कि इसका कारण राजनीतिक है। सवाल है कि राजनीति क्यों नहीं होनी चाहिए? जब सरकार और सत्तारू दल का हर कदम राजनीति से प्रेरित हो तो विपक्ष को भी राजनीति क्यों नहीं करनी चाहिए? राहुल गांधी अगर 22 मार्च को सूरत कोर्ट से सजा होने के तुरंत बाद सजा के खिलाफ अपील कर देते तो अब तक उनकी सजा पर रोक लग गई होती, सदस्यता भी बहाल हो जाती और बंगला खाली करने की बात ही नहीं आती। लेकिन राहुल और उनके रणनीतिकारों की टीम चाहती है कि यह विवाद चलता रहे। जितनी देर तक यह मामला चलेगा, राहुल को लोगों की सहानुभूति मिलेगी। वैसे यह बड़ा पुराना और घिसा-पिटा दांव है। यह सही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी टीम भी इस तरह के भावनात्मक दांव खेलती है लेकिन उसे लोगों तक पहुंचाने के लिए उनके पास दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है। राहुल के पास न तो वैसी पार्टी है और न ही वैसे प्रतिबद्ध लोग।

नए संसद भवन के लिए तारीख पर तारीख

जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नए बन रहे संसद भवन का मुआयना करने गए हैं तब से कयास लगाया जा रहा है कि संसद का अगला सत्र यानी मॉनसून सत्र नए संसद भवन में होगा या वह सत्र भी पुराने संसद भवन में ही चलेगा? यह सवाल इसलिए है क्योंकि पहले कहा गया था कि 2022 का मॉनसून सत्र नए भवन में होगा। फिर कहा गया कि नवंबर-दिसंबर में शीतकालीन सत्र नए भवन में होगा। स्पीकर ओम बिरला ने कई बार प्रेस कांफ्रेन्स में यह दावा किया था। लेकिन निर्माण कार्य पूरा नहीं हो पाने की वजह से शीतकालीन सत्र तो क्या इस साल का बजट सत्र भी पुराने संसद भवन में हुआ है। बताया जा रहा है कि नए संसद भवन में वायरलेस कम्युनिकेशन सिस्टम लगाने के लिए 27 मार्च को टेंडर जारी हुआ है। कंपनियां 11 अप्रैल तक टेंडर डाल पाएंगी और तीन महीने में उन्हें काम पूरा करना है। आमतौर पर संसद का मॉनसून सत्र हर साल जुलाई के तीसरे हफ्ते में ही शुरू होता है। इसलिए अगर कंपनी को अपना काम पूरा करने में जरा भी देरी होती है तो यह डेडलाइन निकल जाएगी। इसीलिए इस बार मॉनसून सत्र थोड़ा आगे बढ़ाने की संभावना भी जताई जा रही है। यह भी कयास लगाए जा रहे है कि अगर काम पूरा नहीं होता है और मॉनसून सत्र समय से ही होता है तो वह पुराने भवन में होगा और सितंबर के मध्य में विशेष सत्र बुला कर नए संसद भवन का उद्घाटन हो सकता है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)

 

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