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विचारों की लड़ाई: पीतल से बना अंबेडकर सिक्का बनाम लोहे से बना स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी

गुजरात के दलित स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ के मौक़े पर बीआर अंबेडकर को समर्पित एक टन के पीतल का सिक्का लेकर संसद जायेंगे। वे सांसदों को याद दिलाना चाहते हैं कि वे छुआछूत मिटाने में नाकाम रहे हैं।
ambedkar

अहमदाबाद के साणंद में दलित शक्ति केंद्र के परिसर से 8 अगस्त को तक़रीबन 1,000 किलोमीटर की यात्रा शुरू करने के लिए बसों और ट्रकों का एक काफ़िला तैयार है। यह उत्तरी गुजरात से होते हुए राजस्थान में दाखिल होने के लिए राज्य की सीमा पार करेगा और फिर भारत की आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मनाने से दो दिन पहले,यानी 13 अगस्त की शाम को संसद पहुंचने से पहले दिल्ली में दाखिल होगा।

इस यात्रा के कार्यक्रम से साफ़ तौर पर पता चलता है कि ये यात्री आज़ादी के बाद से भारत की शानदार सफ़र से प्रेरित हैं। हालांकि, जैसा कि कहा जाता है कि जो कुछ दिखायी देता है, वह शायद पूरी कहानी नहीं है। दरअस्ल, ये यात्री संसद को यह याद दिलाने के लिए यहां होंगे कि भले ही अनुच्छेद 17 ने छुआछूत को ख़त्म कर दिया हो, लेकिन यह सामाजिक रोग भारतीयों के एक तबक़े को अब भी मनुष्य से कमतर ही मानता है।

छुआछूत को ख़त्म करने में नाकमी को लेकर सांसदों के बतौर तोहमत और उन्हें अगले 25 सालों में इसे अपने मक़सद बनाने को लेकर एक अनुस्मारक के रूप में ये यात्री इन ट्रकों में से एक ट्रक पर एक टन पीतल का सिक्का ले जायेंगे। इस सिक्के के एक तरफ़ डॉ बीआर अंबेडकर का चित्र होगा, जिसके साथ यह वाक्य होगा: क्या 1947 का छुआछूत-मुक्त भारत का सपना 2047 में एक हक़ीक़त बन पायेगा?

यही वजह है कि पीतल के इस विशाल सिक्के का व्यास 2047 मिलीमीटर रखा गया है। यह व्यास प्रतीकात्मक रूप से इस उम्मीद को व्यक्त करता है कि जब भारत स्वतंत्रता के 100 वें साल का जश्न मना रहा होगा, तब 2047 में हमारे सार्वजनिक जीवन से छुआछूत ग़ायब हो चुकी होगी।

इस सिक्के के आगे के हिस्से में उन गौतम बुद्ध की छवि होगी, जिन्होंने उस समानता के सिद्धांत को स्थापित करने के लिए बौद्ध धर्म की स्थापना की थी, जो कि अब भारतीय संविधान में शामिल है, और जिसके पीछे का मक़सद मनुष्य के लिए आध्यात्मिक और लौकिक लक्ष्य दोनों को प्राप्त करना है।

जैसी कि योजना है कि यात्री जैसे ही संसद पहुंचेंगे, तो वे एक टन पीतल से बने इस अम्बेडकर सिक्के को राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष को भेंट करेंगे। सिक्का स्वीकार करने का अनुरोध करने वाली वह चिट्ठी जल्द ही इन्हें भेज दी जायेगी, जिसमें यह अनुरोध किया जायेगा कि इसे उस नये संसद भवन में सजाकर रखा जाये, जो कि प्रचंड गति से बनाया जा रहा है।

ये यात्री संसद को एक रुपये के सिक्के से भरे तीन ट्रक भी उपहार में देंगे, जिसकी कुल क़ीमत  26 लाख रुपये होगी। ये सिक्के उस नयी संसद के निर्माण के लिए लगाये जा रहे पैसों में लोगों का योगदान होंगे, जो आख़िरकार उन सभी भारतीयों के हैं, जिनमें संप्रभुता निहित है। उस प्रस्तुति समारोह में यात्रियों में शामिल होने वालों में कम से कम सात राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि शामिल होंगे।

दो सांसदों- राष्ट्रीय जनता दल के मनोज झा और वीसीके (विदुथलाई चिरुथिगल काची) के नेता थोलकाप्पियन थिरुम्मवलवन ने उस प्रस्तुति समारोह में शामिल होने को लेकर अपनी सहमति दे दी है। झा इसके लिए क्यों सहमत हुए,इस बारे में उन्होंने बताया, "यह सिक्का सरकार को यह महसूस कराने का एक रूपक है कि बुलडोज़र से परिभाषित और अतीत की अपनी प्रतिगामी यात्रा को खोदने से उस समानता के संवैधानिक सपने को साकार करने में मदद नहीं मिलेगी, जो कि इस महान राष्ट्र का मिशन होना चाहिए।”

सिक्के के पीछे का विचार

इस यात्रा की संकल्पना शिक्षाविद और उस नवसर्जन ट्रस्ट के संस्थापक मार्टिन मैकवान की है, जो उस दलित शक्ति केंद्र को चलाते हैं, जो कि दलितों की चेतना को बढ़ाने और उन्हें कौशल देने का प्रयास करता है। मैक्वान को इसकी प्रेरणा तब मिली थी, जब सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट, जिसका केंद्रबिंदु उस नये संसद भवन का निर्माण है,जिसका ऐलान मोदी सरकार ने किया था। सवाल है कि क्या जनता,ख़ासकर दलितों को नयी संसद के निर्माताओं को यह याद नहीं दिलाना चाहिए कि छुआछूत को ख़त्म करने का वादा अभी अधूरा है ?

बिल्कुल, मैक्वान के भीतर से यही आवाज़ आयी।उस आवाज़ ने पूछा, "आप इसे कैसे कर पायेंगे।"

उन्हें अचानक एक पौराणिक कथा याद आ गयी, जिसे उन्होंने प्राथमिक विद्यालय में पढ़ी थी। किसी सदी में बुद्ध के अनुयायियों ने उनकी मूर्ति को सोने में ढालने का फ़ैसला किया। लोगों ने इसके लिए चंदे दिए। सोना पिघलाकर सांचे में डाला गया। लेकिन, जब सांचे को खोला गया, तो बुद्ध के चेहरे पर दरार आ गयी। निराशा से त्रस्त होकर और यह मानकर कि यह महज़ एक तकनीकी ख़राबी रही होगी, उन्होंने फिर से कोशिश शुरू की। लेकिन, बुद्ध के चेहरे पर एक बार फिर दरार आ गयी।

प्रधान पुजारी ने सभी भिक्षुओं को इकट्ठा किया और उनसे पूछा: क्या किसी ने भेंट लेने से मना भी कर दिया था ? उनमें से सबसे छोटे भिक्षुक ने जवाब दिया था- हां, उसने उस बूढ़ी औरत से भेंट लेने से मना कर दिया था, जिसने एक तांबे का सिक्का पेश किया था, और उसने अपनी इस परियोजना के लिए उस सिक्के को बेकार समझा था। भिक्षुओं का एक प्रतिनिधिमंडल उस महिला के पास पहुंचा और उससे तांबे के सिक्के को देने की विनती की और उस सिक्के को बाद में सोने के साथ मिला दिया गया। जब उन्होंने सांचे को तोड़ा, तो बुद्ध की मूर्ति पर मुस्कान थी।

यह मिथक हमारे सामाजिक जीवन में समानता के सिद्धांत को रेखांकित करता है।

एक अछूत का बलिदान

इस सिक्के में गुजरात की सांस्कृतिक अनुगूंज भी है, जो कि इस राज्य में प्रचलित एक लोकप्रिय किंवदंती के ज़रिये शानदार तरह से अभिव्यक्त होती है। चालुक्य (उर्फ़ सोलंकी) वंश के सिद्धराज जयसिंह (1092-1142) ने पाटन में एक पानी की टंकी-सहस्रलिंग तालाब खोदने के लिए राजस्थान से आयी निचली जाति के ओड़ राजपूतों को नियुक्त किया। खुदाई करने वालों में रुडो की पत्नी जस्मा ओड़ां भी थीं। उनकी सुंदरता ने उस जयसिंह को मोहित कर दिया, जिसे गुजरात के राजाओं में सबसे अग्रणी माना जाता है। उसने उन्हें अपनी रानी बनाने का वादा करते हुए उनसे प्रणय निवेदन किया। मगर,जब उन्होंने उस प्रणय निवेदन को ठुकरा दिया,तो क्रोधित होकर जयसिंह ने रुडो को मार डाला और ओड़ों को मार देने की धमकी दी।

जस्मा दु:खी होकर ख़ुद को मार डाला, लेकिन मरने से पहले राजा को यह शाप दे दिया कि तालाब सूखा ही रहेगा और उसका राज्य एक मुस्लिम संत शासक जीत लेगा। लोक कथा के मुताबिक़, जयसिंह ने उस ज्योतिषी से परामर्श किया, जिसने कहा था कि जस्मा के श्राप को एक सिद्ध व्यक्ति, या फिर 32 गुणों से संपन्न व्यक्ति की बलि देकर निष्प्रभावी किया जा सकता है। ऐसे व्यक्ति की तलाश शुरू हुई और यह तलाश उस मेघ माया, उर्फ़ मायो तक पहुंचकर ख़त्म हुई, जिसे स्वेच्छा से बड़े सामूहिक हित के लिए अपना बलिदान देने को लेकर सहमत होने पर राज़ी कर लिया गया।

एक अछूत धेध उपजाति से जुड़े मेघ ने कुछ शर्तों के साथ इस पर सहमति जता दी। इस शर्त के मुताबिक़ राजा को उनके समुदाय के लोगों को उस अपमानजनक जाति चिन्ह पहनने से छूट देनी होगी, जिसमें कि सार्वजनिक क्षेत्र में बाहर निकलने से पहले पगड़ी पहनना, अपन गले में एक थूकदान और झाड़ू लटकाना, और तीन आस्तीन वाले कपड़े पहनना था। तीसरे आस्तीन का इस्तेमाल झाडू बांधने के लिए किया जाता था।

हताश जयसिंह ने इन शर्तों को मान लिया। सहस्रलिंग तालाब की गहरे गड्ढे में मेघ की बलि दे दी गयी। जैसे ही उनका खून बह निकला, वैसे ही तालाब पानी से लबालब भर गया।

”जसमा की इस कहानी को "भवाई में शामिल किया गया है।भवई गुजराती रंगमंच का एक रूप है, जो 14 वीं शताब्दी में विकसित हुआ था। प्रोफ़ेसर स्वाति जोशी ने अपने निबंध, "मैपिंग अ हिस्ट्री ऑफ़ कनसशनेस: गुजराती फ़ोक थिएटर” में लिखती हैं, “इस कहानी को प्रमुख संस्कृति के विरोध की संस्कृति की नुमाइंदगी करने वाली कहानी के रूप में शामिल किया गया है।" इस निबंध में एक ऐसे लोक गीत का अंग्रेज़ी अनुवाद है, जिसमें एक ज़ुल्मी हुक़ूमत का जस्मा के प्रतिरोध का जश्न है। पेश हैं इसकी कुछ झलकियां:

सिद्धराज : जस्मा, थोड़ी-थोड़ी मिट्टी उठाओ/तुम्हारी ख़ूबसूरत कमर मुड़ जायेगी।

जस्मा: अरे पागल राजा, ऐसी मूर्खता भरी बातें मत करो/हमारी कमर लोहे की बनी है।

सिद्धराज : जस्मा, हीरे और रेशमी वस्त्र धारण करो/इस तरह के फटे-पुराने वस्त्र मत पहनो।

जस्मा: हीरे और रेशमी वस्त्र अपनी रानियों को दो / हम ग़रीबों के लिए फटे कपड़े ही ठीक हैं।

जब जयसिंह ने जसमा के उस प्रतिरोध को दूर करने की कोशिश में पूरे ओड़ समुदाय को मारने की धमकी दे दी, तो जस्मा विलाप करते हुए बोली:

हे राजन,इन ग़रीबों को मत मारो/ यह ओड़ों का ग़रीब समुदाय है, / इन ग़रीबों को मत मारो। / मैं अपनी सुंदरता से नफ़रत करती हूं / और अपने जन्म को शाप देता हूं। /इन ग़रीबों को मत मारो।

इस गीत के मुताबिक़ जस्मा फिर शाप देती है:

रे पापी राजा, आज तूने जो कुछ किया है,उस पर तुम्हें धिक्कार है ? /चूंकि तूने ग़रीब ओड़ों को मार डाला है,इसलिए  एक पीर तुम्हारे राज्य पर कब्ज़ा कर लेगा।

जस्मा की इस कहानी को इतिहासकारों ने ख़ारिज कर दिया है।

बड़ी चाल 

हालांकि जोशी लिखती हैं, "स्थापित इतिहासकारों की ओर से जस्मा की इस कहानी को खारिज किये जाने से उनके उस वैचारिक पूर्वाग्रह का पता चलता है, जिसे ऐसा कोई भी विवरण बर्दाश्त नहीं है जो गुजरात पर शासन करने वाले उस महान हिंदू राजा की गौरवशाली छवि को नुकसान पहुंचाये।" मुख्यधारा के इतिहासकार 10वीं और 13वीं शताब्दी के बीच सोलंकी या चालुक्य राजाओं के शासनकाल को गुजरात के इतिहास का स्वर्णिम काल मानते हैं।ऐसा इसलिए नहीं मानते कि उन्होंने उस क्षेत्र पर अपने शासन का विस्तार किया था, जिसे अपना मौजूदा नाम 'गुर्जरदेसा' या गुजरात हासिल हुआ था।जोशी बताती हैं "इसने एक अलग पहचान हासिल की, जिसे गुजराती में 'अस्मिता' (गर्व) के रूप में जाना जाता है।"  

गुजरात की इसी अस्मिता को बचाने के लिए जस्मा की इस कहानी को फिर से व्याख्यायित करने की कोशिश की गयी। अपने पति के प्रति अपना कर्तव्य निभाने के लिए शाही विलासिता के उस त्याग की उसकी तारीफ़ की गयी। जोशी अपनी टिप्पणी में चोट करते हुए कहती हैं, "यह 19 वीं शताब्दी में मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों की ओर से उस किंवदंती का एक विशिष्ट पुनर्लेखन है, जिसमें निम्न-जाति के मज़दूरों और एक कामातुर अत्याचारी शासकों के बीच के टकराव के ज़बरदस्त वर्णन को सती के औचित्य में बदल दिया गया है। इसे एक ऐसी वफ़ादार पत्नी के रूप में चित्रित किया जाता है, जो अपने पति की मृत्यु पर ख़ुद को ही मार देती है।"

जोशी ने जिन इतिहासकारों का हवाला दिया है,यह लेखक उन इतिहासकारों के वैचारिक बनावट को नहीं जानता । फिर भी अतीत के बारे में उन इतिहासकारों का नज़रिया हिंदुत्व के विचारकों से अलग तो नहीं ही है। वे हिंदू शासकों के घोर दुराचार वाली कहानियों को ख़ारिज कर देते हैं, लेकिन पूरे उत्साह के साथ उन मध्ययुगीन इतिहासकारों का हवाला देते हैं, जो इस्लाम के प्रसार के सिलसिले में मुस्लिम शासकों की कोशिश को दर्ज करने के लिए अतिशयोक्ति में लगे हुए थे।

जोशी कहती हैं, "... विविधता की क़ीमत पर गुजरात में एक विजयी, सजातीय और एकीकृत 'अस्मिता' बनायी गयी थी। आज जब इसे कहीं ज़्यादा जोश के साथ पुनर्जीवित किया जा रहा है, तो उस दूसरी विरोधी चेतना को चिह्नित करना ज़रूरी हो जाता है, जो कि गुजरात में सदियों से पनपी है और यह फिर से स्थापित हो रही है और पूरे जोश के साथ पुनर्जीवित हो रही है…इस अलग आवाज़ को सुनना उपयोगी हो सकता है,जो सदियों से गुजरात में जीवंत रहा है।”

विचारों का टकराव

ऐसा कहा जाता है कि पुराने ज़माने में शाही भवन की नींव रखने से पहले दलितों की बलि दी जाती थी। यह जाति उत्पीड़न की फिर से परिकल्पित करने का मामला हो सकता है। फ़रवरी और मार्च 1855 में एक मराठी पाक्षिक, “ज्ञानोदय” में प्रकाशित दो-भागों में लिखे  गये एक निबंध में बतौर पहली दलित महिला लेखिका 14 साल की मुक्ता साल्वे ने लिखा था, "वे मांग और महारों को लाल सीसा के साथ मिश्रित तेल पिलाते थे और हमारे लोगों को उनके भवनों की नींव में दफ़ना देते थे, इस तरह हमारे ग़रीब लोगों की पीढ़ी दर पीढ़ी का सफ़ाया कर देते थे।" ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले के स्थापित स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों के पहले बैच की साल्वे ने अपने इस दावे के सिलसिले में सूत्रों का हवाला नहीं दिया था और न ही उन्होंने ऐसी बर्बरता के गवाह होने का ही दावा किया था।

हालांकि, गुजरात के कुछ हिस्सों में आज भी घरों की नींव में एक सिक्का और एक पीतल का लोटा रखा जाता है। लोटा पानी का प्रतीक है और सिक्का  समृद्धि का प्रतीक है, ठीक वैसे है,जैसे कि मेघ के बलिदान से पाटन के तालाब में पानी का बुलबुला फूट पड़ा था, जो कि अब एक संरक्षित स्मारक है। वहां के इस मेघ स्मारक को 2018 में राज्य सरकार की ओर से 3 करोड़ रुपये आवंटित किये गये थे।

दरअस्ल, पीतल का अम्बेडकर सिक्का बनाकर मार्टिन मैक्वान ने उसी मिथक और किंवदंती को समकालीन सांस्कृतिक चलन से जोड़ दिया है।

लोगों से 20 मार्च को बर्तन या पीतल का सामान, चाहे वह छोटा ही क्यों न हो, दान दिये जाने का आह्वान किया गया था। जब 15 राज्यों से 2,450 किलो पीतल के बर्तन एकत्र कर लिए गये- हालांकि इसका बड़ा हिस्सा गुजरात से ही आया था- तब दलित शक्ति केंद्र ने लोगों से अपने परिवार के हर एक सदस्य से 1 रुपये के सिक्के के अलावा अपना अंशदान भेजने से रोकने का आह्वान किया। भावनगर की एक दलित कार्यकर्ता नीरूबेन चौरसिया ने मुझसे कहा, “हां, हमने लोगों से पीतल के बर्तन भेजने से रोक देने के लिए कहा। ध्यान रहे कि इस परियोजना में मुसलमानों और कुछ ओबीसी समूहों ने भी योगदान दिया है।”

मैक्वान का मूल विचार यही था कि नये संसद भवन की नींव में पीतल से बना यह अम्बेडकर सिक्का रखा जाये। लेकिन, उनकी योजना को इसलिए ख़ारिज कर दिया गया, क्योंकि कोविड-19 महामारी ने पीतल के संग्रह करने की रफ़्तार को धीमा कर दिया, और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने अप्रत्याशित रूप से 10 दिसंबर, 2020 को नयी संसद की नींव रख दी।

अब ये यात्री पीतल से बने इस अंबेडकर सिक्के को संसद में रखने का अनुरोध इस उम्मीद के साथ करेंगे कि हर सांसद समानता के सिद्धांत को साकार करने के लिए काम करेगा। और यहां आने वाला हर शख़्स अस्पृश्यता से जूझ रहे लोगों का विलाप सुन सकेगा।

नर्मदा ज़िले के केवड़िया में सरदार पटेल को दर्शाती स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी के निर्माण की मोदी की सफल परियोजना  और पीतले से बने इस अम्बेडकर सिक्के को बनाने या ढालने की लोगों की योजना के बीच एक स्पष्ट समानता है। इस स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी के लिए लोगों ने लोहे का दान दिया था।वहीं इस अम्बेडकर सिक्के के लिए पीतल इकट्ठा किया गया है। स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी की ऊंचाई 182 मीटर है; गुजरात विधानसभा में  विधायकों की संख्या भी 182 ही है। दूसरी तरफ़, पीतल के इस सिक्के का व्यास 2,047 मिलीमीटर है; साल 2047 में भारत से अस्पृश्यता के जड़ से ख़त्म होने की उम्मीद है।

हालांकि,एक दूसरे से उलट ये परियोजनायें अध्ययन का भी एक विषय हैं। स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी का निर्माण गुजरात, केंद्र सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के साथ-साथ सार्वजनिक-निजी भागीदारी के ज़रिये किया गया था। सही मायने में यह तो राज्य-संचालित एक ऐसी परियोजना बन गयी, जिसने आदिवासियों को उनकी ज़मीन से भी उखाड़ फेंका। उस प्रतिमा को मीडिया के प्रचार से पूरे चकाचौंध में बनाया गया था। चूंकि यह केवड़िया परियोजना भारत में 562 रियासतों को एकीकृत करने वाले सरदार पटेल का जश्न मनाती है, इसलिए यह प्रतिमा क्षेत्रीय अखंडता के विचार को सामने रखती है।

ऐसा नहीं है कि स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी और अम्बेडकर सिक्के के बीच की समानता को अंशदान देने वालों ने अपनी समझ से ओझल कर दिया है। पाटन के एक दलित कार्यकर्ता नरेंद्र परमार ने मुझसे कहा, “पटेल समाज धनी है और उन्होंने पटेल की मूर्ति के निर्माण के लिए लोहे का योगदान दिया। हम अम्बेडकर सिक्के को लेकर भी ऐसा ही कर रहे हैं, और राष्ट्र का ध्यान उस छुआछूत को ख़त्म करने पर आकर्षित कर रहे है, जिससे हमीं पीड़ित हैं। इसके बावजूद, कुछ मुसलमानों, आदिवासियों और ओबीसी ने भी अपने क़दम बढ़ाये हैं।” भावनगर की निरुबेन इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं, "बाबासाहेब हमें उतने ही प्रिय हैं, जितने कि पटेल समाज के लिए पटेल हैं। हम बाबासाहेब को निराश नहीं कर सकते।”

इसके विपरीत, पीतल से बना यह अम्बेडकर सिक्का लोगों की पहल है। राज्य ने इसमें एक पैसा का भी योगदान नहीं दिया है। लेकिन, इससे भी बढ़कर यह बात है कि पीतल से बने इस अम्बेडकर सिक्के के पीछे की धारणा समानता का जश्न मनाता है और जो राष्ट्र को बताता है कि उसका भविष्य उस अतीत और वर्तमान से मुक्त होना चाहिए, जो छुआछूत, बहिष्कार और भेदभाव से भरा हुआ है।अगर मंदिर-मस्जिद विवादों से ग्रस्त राष्ट्रीय मीडिया एक टन पीतल से बने इस अम्बेडकर सिक्के और अहमदाबाद से दिल्ली की इस यात्रा पर ध्यान केंद्रित करने में नाकाम रहता है, जो भारत के संवैधानिक विचार को रचनात्मक रूप से फिर से परिकल्पना करते हैं,तो यह अफ़सोसनाक़ होगा।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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