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ग्राउंड रिपोर्ट: कम हो रहे पैदावार के बावजूद कैसे बढ़ रही है कतरनी चावल का बिक्री?

विश्व में अपनी स्वाद और जिस खुशबू के लिए कतरनी चावल को प्रसिद्धि मिली। आज उसी खुशबू का बिजनेस गलत तरीके से किया जा रहा है। कतरनी चावल जैसे ही महीन चावल में सुगंधित इत्र डालकर कतरनी के नाम पर बेचा जा रहा है।
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पिछले साल जगदीशपुर इलाका में हुआ कतरनी चावल के खेत का फोटो

बिहार का भागलपुर जिला मुख्य रूप से कृषि और छोटे व्यवसाय पर निर्भर है। गंगा के मैदानी क्षेत्र होने की वजह से यहां की मिट्टी बहुत ही उपजाऊ है। 2018 में भागलपुर का कृषि व्यवसाय और भी विस्तृत और उपयोगी हो गया, जब रजिस्ट्रेशन एंड प्रोटेक्शन नियम 2002 के तहत जर्दालु आम और कतरनी चावल को इंटरनेशनल पहचान मिली। जीआई टैग मिलने के लगभग 4 साल बाद कतरनी चावल के विकास और उनके किसानों की स्थिति की पड़ताल न्यूज़क्लिक ने की।

समय के साथ क्यों कम हो रहे कतरनी चावल के किसान?

भागलपुर एग्रीकल्चर विश्वविद्यालय के कुलपित डॉ एके सिंह के मुताबिक धीरे-धीरे कतरनी चावल का रकबा घटा है। जिस वजह से उत्पादन कम हो रहा है। 2015-16 में भागलपुर, बांका व मुंगेर में 968.77 एकड़ में कतरनी का उत्पादन होता था, जो घटकर अब 500-600 एकड़ रह गया है।

कतरनी चावल का नैहर कहलवाने वाले भदरिया गांव के साहित्यकार और किसान परमानंद प्रेमी बताते हैं कि, "2010- 12 के बाद से ही धीरे-धीरे कतरनी चावल की खेती कम होने लगी थी। इसकी मुख्य वजह थी, मजदूरों का दिल्ली जाना और चानन नदी का सूखना। पहले मजदूरों की कमी नहीं थी और लोग खेती पर आश्रित थे। अब स्थिति ऐसी है कि हमारे गांव में भी अधिकतर घर में नकली कतरनी चावल की खीर बन रही है। भदरिया गांव में भी 10 बीघा कतरनी चावल की खेती नहीं हुई है। जबकि यह तीन-चार साल पहले भी 30 से 40 बीघा में हुई थी।"

जगदीशपुर इलाके के पप्पू यादव लगभग 4 साल पहले कतरनी चावल का खेती छोड़ चुके है। पप्पू बताते हैं कि, "जहां दूसरे किस्म के धान का पौधा अक्टूबर में कट जाता है वहीं कतरनी का पौधा दिसंबर में कटता है। जिस वजह से कतरनी चावल के किसान गेहूं की खेती भी नहीं कर पाते है। वही कतरनी चावल का ऊपज अन्य चावल की अपेक्षा आधा होता है। इस सबके बावजूद जब कतरनी चावल मार्केट में आने वाला रहता है। इससे पहले नकली कतरनी चावल मार्केट में उतरा रहता है। जो बहुत ही कम दाम में बिकता है। इसलिए अधिकतर किसान कतरनी चावल की खेती छोड़ चुके हैं।"

कतरनी चावल लगाने के बाद गेहूं की फसल नहीं लगा पाने की वजह से खेत परती पड़े हैं। क्योंकि अन्य चावल की अपेक्षा कतरनी चावल देर से काटा जाता है।

इतने कम दाम में कैसे बेचा जा रहा है कतरनी चावल?

जगदीशपुर इलाके के बालखंडी महतो आज भी 4 बीघा में कतरनी चावल की खेती करते हैं। वो बताते हैं कि, "असली कतरनी धान की उत्पादन दर बहुत ही कम है। यूं समझिए जहां सामान्य धान एक एकड़ में 30 से 40 मन ऊपज जाता है। वहीं कतरनी 10 से 15 मन ही उपज पाता है। जबकि कतरनी चावल और सामान्य  चावल में लागत बराबर लगती है। उसके बाद कतरनी चावल के किसान गेहूं की खेती भी नहीं कर पाते हैं। क्योंकि कतरनी चावल सामान्य चावल के 2 से 3 महीने के बाद कटता है। तब तक गेहूं रोपाई का वक्त खत्म हो जाता है।"

जगदीशपुर इलाके के बालखंडी महतो आज भी 4 बीघा में कतरनी चावल की खेती करते है।

"हर चीज को देखते हुए अगर कम से कम ₹100 में भी कतरनी चावल नहीं बेचा जाता है तो किसानों को लाभ नहीं पहुंचेगा। जबकि बाजार में 60-70 यहां तक कि ₹50 किलो भी कतरनी चावल बेचा जा रहा है। सीधे शब्दों में समझिए कतरनी चावल के नाम पर जहर बेचा जा रहा है।" आगे बालखंडी महतो बताते है। 

भागलपुर में 20 वर्ष कृषि विभाग में अपनी सेवा दे चुके रिटायर्ड कृषि पदाधिकारी अरुण कुमार झा बताते हैं कि, "भागलपुर के ही भदरिया और भ्रमरपुर गांव के तरफ सोनम धान की खेती होती है। जिसका दाना कतरनी के जैसे ही छोटा छोटा होता है। हालांकि स्वाद और प्राकृतिक सुगंध के मामले में कतरनी के दूर-दूर तक नहीं होता है। सोनम धान की खेती भी सामान्य धान की भांति ही होती है। मतलब उपजाऊ भी बहुत होता है और वक्त भी ज्यादा नहीं लगता है। इसलिए सोनम धान को कतरनी बना कर कम से कम दामों में बाजार में बेचा जा रहा है।"

चानन नदी के अस्तित्व के साथ कतरनी चावल का अस्तित्व भी संकट में हैं

भागलपुर एग्रीकल्चर विश्वविद्यालय के कुलपित डॉ एके सिंह कहते हैं कि, "कतरनी चावल के शुद्धता का मुख्य पहचान उसकी सुगंध है। साथ ही कतरनी चावल के सुगंध का मुख्य वजह चानन नदी है। चानन नदी के बालू में कुछ ऐसा खास तत्व है ,जिस वजह से जहां-जहां चानन का रिवर बेल्ट है, वहीं कतरनी का उत्पादन व सुंगध रहता है और जगहों पर कतरनी के उत्पादन व अन्य स्थलों पर उस तरह का कतरनी का उत्पादन नहीं हो पा रहा है।"

चानन नदी, जिसके बेल्ट में कतरनी चावल बहुत ही सुगंधित रहता है। जिसका पानी धीरे-धीरे सूख रहा है।

आगे डॉ एके सिंह बताते हैं, "चानन नदी की व्यथा मानवीय हवस और संवेदनहीनता की क्रूर कथा बन कर रह गई है। बालू माफियाओं के द्वारा चानन से बेरोकटोक बालू उठाव होने से नदी की पेटी गहरी हो गई है। जिस चानन नदी में पानी नहीं आ रहा है। जो पानी आ भी रहा है, वह गहराई अधिक होने से किसानों के खेत तक नहीं पहुंच रहा है। एक भी सिंचाई नाला विगत 10 वर्षों से काम नहीं कर रहा है। सिंचाई नहीं होने से कतरनी चावल के किसानों की कमर टूट गई है। इस नदी की धारा को फिर से पुनर्जीवित किए जाने की जरूरत है।”

खुशबू ही बनती जा रही कतरनी का दुश्मन

विश्व में अपनी स्वाद और जिस खुशबू के लिए कतरनी चावल को प्रसिद्धि मिली। आज उसी खुशबू का बिजनेस गलत तरीके से किया जा रहा है। कतरनी चावल संघ के अध्यक्ष राजकुमार बताते हैं कि, "कतरनी चावल जैसा ही महीन चावल में सुगंधित इत्र डालकर कतरनी के नाम पर बेचा जा रहा है। जिसमें प्रमुख रुप से सोनम चावल है। आज बाजार में मिलावटी कतरनी चावल की भरमार है। इसके बावजूद भी लोग खुशबू से कतरनी की पहचान कर ही लेते हैं। कतरनी के खुशबू की पहचान इतनी उत्तम है कि 2012 ईस्वी में फिलिपिंस से कतरनी धान की खुशबू जांच करने 5 सदस्य टीम आई थी। जिनके मुताबिक़ चानन नदी से प्रभावित मिट्टी में कोई जिवांश है, जो धान में सुगंध भर देता है। यह और कहीं नहीं पाया जा सकता है।"

क्या खास है कतरनी चावल में

पूसा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ शंकर झा बताते हैं कि, शुद्ध और असली कतरनी चावल की खेती भागलपुर जिला के जगदीशपुर, बांका जिला के रजौन व मुंगेर जिला के कुछ क्षेत्रों में ही की जाती है। क्योंकि यह सब क्षेत्र चानन नदी के बहाव क्षेत्र में आती है। अन्य चावल की अपेक्षा इस चावल को पकने में वक्त लगता है। यह धान 155-160 दिनों में पककर तैयार होता है। इसके पत्ते की लम्बाई 28-30 सेंटीमीटर होती है और इसके पौधे 160-165 सेंटीमीटर लंबे होते हैं। चावल के दाने छोटे होते हैं और इसकी प्राकृतिक खुशबू ज्यादा तेज होती है।" 

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