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दुनिया और हिंदुस्तान का सिनेमा : मैजिक टॉर्च से विज़ुअल इफ़ेक्ट तक 

आज जानते हैं दुनिया और भारत के सिनेमा की कई रोचक जानकारियों के साथ उसके शुरुआती सफ़र के बारे में।
Cinema
प्रतीकात्मक तस्वीर Image courtesy: riminitoday

आज सिनेमा के लिए हमें मैजिक टॉर्च या जादू की लालटेन या फिर दादी माँ के रीडिंग ग्लास का शुक्रगुज़ार होना चाहिए। आप सोच रहे होंगे कि ये मैं कैसी बहकी-बहकी बातें लिख रहा हूँ पर नहीं, ये बहकी हुई बातें नहीं हैं बल्कि दुनिया के सिनेमा की हक़ीक़त हैं। अब जैसे पूरी दुनिया में USA यानी सयुक्त राज्य अमेरिका के फ़िल्मी दुनिया में हॉलीवुड की धाक है लेकिन आपको जानकर अचरज होगा की दुनिया के सिनेमा की शुरुआत यूरोप से हुई थी। फिर वो इग्लैंड पहुंचा और उसके बाद अमेरिका और इसी के साथ वो भारत यानी पहुंचा।

आज सिनेमा का एक सतरंगी और रुपहला संसार है। केवल एक्टर्स ही नहीं फ़िल्मों के सीन्स भी ऐसे लगते  हैं, जैसे बातें कर रहे हैं, चल रहें हैं, दौड़ रहे हैं लेकिन कभी सिनेमा बेरंग, मूक और गतिहीन था। आज जानते हैं दुनिया और भारत के सिनेमा की कई रोचक जानकारियों के साथ उसके शुरुआती सफ़र के बारे में।

सिनेमा के शुरुआती वक़्त में फ़िल्में प्रोजेक्टर के मदद से लोगों को दिखाई जाती थीं। इसे ही मैजिक टॉर्च या जादू की लालटेन कहा जाता था। जिसमें लाइट के सामने स्लाईड या निगेटिव रख कर सामने परदे में उसकी फ़ोटो दिखाई जाती थी।

गिनीज़ बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स के मुताबिक़ 1888 में ही यूरोपीय देश फ़्रांस में दुनिया की सबसे पहली लघु मूक फ़िल्म लुइस ले प्रिंस द्वारा शूट की गई 'राउंड गार्डन सीन’ थी। इसमें एक गार्डन में लोग गोल गोल घूम रहे हैं और इसके बाद 1889 में Thomas Edison पर एक documentary ब्रिटेन में बनी और इसी समय सबसे पहली बार मोशन पिक्चर का प्रदर्शन किया गया। हालंकि ये बेहद अस्पष्ट थी और इसमें गुणवत्ता तथा गति का अभाव था जहाँ एक व्यक्ति की गतिवधि दिखाने की कोशिश की जा रही है लेकिन समय के साथ ये तस्वीरें पहले से स्पष्ट हुईं।

28 दिसंबर 1895 को यूरोपीय देश फ़्रांस के ख़ूबसूरत शहर पेरिस में ऐसा मौक़ा पहली बार आया जबकि लुमिएर बंधुओं ने अपनी दस लघु फ़िल्मों की सार्वजनिक स्क्रीनिंग की। ये सभी फ़िल्में कुछेक मिनट लम्बी, साइलेंट और ब्लैक एंड व्हाइट होने के साथ अधिकांश फ़िल्में चेजिंग फिल्म थीं। इन फिल्मों में लोयन स्क्येर पर घोड़ा गाडियों की आवाजाही, एक क्रोसिंग ब्रिज से निकलते हुए लोग, एक ब्लैकस्मिथ (लोहार) का हथौड़ा पीटन, घोड़े पर ट्रिक करते हॉर्स रायडर्स, लुमियर फैक्ट्री से निकलते वर्कर्स, समुन्दर में नहाते हुए लोग, बच्चे के साथ ब्रेकफ़ास्ट करता परिवार, गोल्डन फ़िश से खेलती बच्ची, गार्डन में पानी सींचने की कोशिश करता मालिक, स्टेशन पर आती ट्रेन को दिखाया गया था।

इन लघु फिल्मों को देख कर सभी स्तब्ध हो गए। पूरे यूरोप में एक तहलका सा मच गया। ऐसा पहले कभी भी नहीं हुआ था। इसे दुनिया के सिनेमा की शुरुआत माना गया। यह तस्वीरें पहले से अधिक साफ़ थीं और इनमें गति भी थी। इसके बाद लुमीयर बंधुओं ने इसके शोज़ दुनिया के लगभग हर बड़े शहर में किए। इसी कड़ी में जुलाई 1896 में इन फिल्मों को बंबई (अब मुंबई) में भी प्रदर्शित किया गया। जिसने भारतीय फिल्मों के पितामह कहे जाने वाले दादा साहेब फ़ाल्के को हिंदुस्तान की पहली फ़ीचर फ़िल्म बनाने को प्रेरित किया। इससे प्रेरित हो कर जल्द ही पूरी दुनिया में फ़िल्म निर्माण कंपनियों की स्थापना हुई।

समय  के साथ फ़िल्मों की अवधि और शॉट्स की संख्या बढ़ी। और फिर 1906 में पहली फ़ीचर फ़िल्म बनाने की कामयाबी का सेहरा ऑस्ट्रेलिया जैसे छोटे देश के नाम बंधा। इसमें केली गैंग की कहानी दर्शाई गई थी। इसके साथ अमेरिकी फ़िल्ममेकर्स ने इसमें अपनी हिस्सेदारी बढाई और ‘ब्लैक हैण्ड’ नाम की दुनिया की सबसे पहली माफ़िया फिल्म बनाने का श्रेय अमेरिकी कैमरामैन और निर्देशक वालेस मैकचियोंन को गया। 

इसके बाद अमेरिकी सिनेमा ने गति पकड़ी और इसमें सबसे आगे खड़े थे अमेरिकी लेखक निर्देशक और निर्माता डी डब्ल्यू ग्रिफ़िथ जिन्होंने न सिर्फ़ टेलिस्कोप और दादी के रीडिंग ग्लास की मदद से क्लोज़-अप शॉट लेने का बीड़ा उठाया बल्कि इसमें सफल भी हुए।

उन्होंने 1908 में एडवेंचर ऑफ़ डॉली नाम की पहली फ़िल्म बनाई। उनकी प्रसिद्ध फ़िल्मों में साल 1915 में बनी ‘द बर्थ ऑफ़ नेशन' और 1916 में बनी फ़िल्म 'इंटालरेन्स' का नाम आता है। ग्रिफ़िथ दुनिया में फ़िल्म निर्माण की आधुनिक तकनीक के जनक कहे जाते हैं। उन्होंने 1908 से 1931 के दरमियान 518 फ़िल्में डायरेक्ट की जो अपने आपमें एक रिकॉर्ड है।

1910 आते-आते अमेरिका में ऑस्ट्रेलिया, फ़्रांस ब्रिटेन आदि यूरोपीय देशों से अधिक फ़िल्में बनने लगीं और 1920 के दशक में अमेरिका के चर्चित फ़िल्म उद्योग, "हॉलीवुड" के रूप में लॉस एंजिल्स शहर ने अपना नाम दर्ज करवाया जो आज भी सुनहरे अक्षरों में लिखा हुआ है। ये वैसा ही था जैसे भारत में मुम्बई शहर बॉलीवुड के रूप में फ़िल्मों का बड़ा केंद्र बना हुआ है। 

दुनिया के मूक सिनेमा के इस दौर में हिंदुस्तान का सिनेमा भी समय के साथ क़दम से क़दम मिलाने की कोशिश कर रहा था। जबकि हम ग़ुलाम थे और समाज में बड़ी ही रूढ़िवादिता थी।

ऐसे ही माहौल में सिनेमा की नींव रखने के लिए भारतीय सिनेमा के पितामह यानी दादा साहेब फ़ाल्के का फ़िल्म बनाने के जूनून का और उनके इस जूनून में पत्नी के साथ देने का शुक्रगुज़ार होना चाहिये। उनके बारे में 2010 में बनी फ़िल्म हरिश्चन्द्र ची फैक्ट्री फ़िल्म में में पूरा चित्रण किया गया है।

दादा साहेब फ़ाल्के ने उस समय, तब के बम्बई शहर में ‘जीसस क्राइस्ट’ पर बनी फ़िल्म देख कर खुद भी फ़िल्म बनाने का प्लान किया था। लेकिन ये आसान नहीं था पर इस कठिन काम में उनकी पत्नी ने पूरा साथ दिया। जिन्होंने न सिर्फ़ उनका साथ दिया बल्कि दादा साहेब फ़ाल्के को धनाभाव में अपने गहने दिए और ब्रिटेन जा कर सिनेमा मेकिंग की ट्रेनिंग लेने जाने दिया और ट्रेनिंग के बाद जब दादा साहेब को ब्रिटेन में रुक कर फ़िल्में बनाने का प्रस्ताव मिला तो उसे ठुकरा कर वे भारत वापस आकर फ़िल्म बनाने में जुट गए लेकिन दादा साहेब के फ़िल्म बनाने के जूनून के कारण न सिर्फ़ उन्हें पागल कहा गया बल्कि उन्हें पागलखाने में भर्ती भी करवा दिया गया था।

उस समय फ़िल्म के काम को इतना बुरा समझा जाता था कि उनकी फ़िल्म में काम करने के लिए किसी तरह पुरुष कलाकार तैयार हुए लेकिन महिला किरदार तैयार नहीं थीं। ऐसे में पुरूष कलाकारों ने ही महिला किरदार किये थे। इस तरह भारत की पहली पूरी अवधि की फ़ीचर फ़िल्म का श्रेय दादा साहब फ़ाल्के द्वारा 1913 में निर्मित राजा हरिश्चन्द्र को दिया गया। जिसका प्रदर्शन 'कोरोनेशन सिनेमेटोग्राफ़' में 3 मई 1913 को हुआ। यह मराठी भाषा की मूक फ़िल्म थी। 

उनकी इस फ़िल्म को ख़ूब व्यावसायिक सफलता मिली और इसने भारत में अन्य फ़िल्मों के निर्माण के लिए रास्ता प्रशस्त किया। उन्होंने ख़ुद लगभग एक सौ से ऊपर फ़िल्में बनाई जिसमें एक बोलती फ़िल्म ‘गंगाअवतरण’ भी शामिल है। इन सबके कारण दादा साहेब फ़ाल्के को भारतीय सिनेमा का पितामह कहा गया।

हालंकि भारत में इसके पहले 1899 में बंगाल के एक कैमरा मैन हीरालाल सेन ने, प्रोफेसर स्टीवेंसन द्वारा कलकत्ता स्टार थियेटर में प्रस्तुत एक स्टेज शो के दृश्यों को शूट करके 'द फ्लॉवर ऑफ़ पर्शिया' (फारस के फूल) नमक फ़िल्म बनाई तो एच एस भटवडेकर ने 1899 में बम्बई के हैंगिंग गार्डन में एक कुश्ती मैच को शूट करके 'द रेस्लर्स' नामक पहली भारतीय वृत्तचित्र (डॉक्यूमेंट्री) बनाई, इसी समय बनारस के घाटों पर भी एक वृत्तचित्र का निर्माण हुआ। 

इसके बाद काफ़ी लम्बे समय बाद दादा साहेब तोरणे ने 'पुण्डलिक' एक मूक मराठी फ़िल्म बनाई और यह पहली भारतीय फ़िल्म के रूप में ‘अ डेड मैन चाइल्ड’ के साथ, 18 मई 1912 को 'कोरोनेशन सिनेमेटोग्राफ़', बम्बई में रिलीज़ हुई। इसे उस समय पहली भारतीय फ़िल्म के रूप में प्रचारित भी किया गया हालाँकि ‘पुण्डलिक’ को पहली भारतीय फिल्म नहीं माना गया क्योकि यह फ़िल्म महज़ एक लोकप्रिय मराठी नाटक की रिकॉर्डिंग मात्र थी। दूसरा इसके कैमरामैन जॉनसन एक ब्रिटिश नागरिक थे और इस फ़िल्म की प्रोसेसिंग भी लंदन में हुई थी। इस प्रकार एक फुल लेंथ बाक़ायदा टेकिंग के साथ शूट की गई फीचर फिल्म के रूप में दादा साहेब फाल्के की राजा हरिश्चन्द्र का ही नाम आता है।

ये बातें हैं दुनिया और भारत के सिनेमा के साइलेंट युग की... जब फ़िल्में मूक होती थीं। फिर तकनीक ने समय के साथ विकास किया और फ़िल्मों ने बोलना शुरू किया।  

साल 1927 में  साल के अंत में वार्नर ब्रदर्स की ‘द जैज़ सिंगर’ को पहली बोलने वाली फ़िल्म के रूप में रिलीज़ किया गया। जिसमें सबसे पहले सिंक्रोनाइज़्ड डायलॉग और सिंगिंग थी।

1929 के अंत तक, हॉलीवुड में लगभग सभी फ़िल्में बोलने लगीं जबकि भारत में इसके कुछ साल बाद अर्देशिर ईरानी ने पहली भारतीय बोलती फ़िल्म के रूप में 'आलमआरा' को 14 मार्च 1931 को मैजिस्टिक सिनेमा में रिलीज़ किया। भारत की इस पहली बोलती फ़िल्म में भीड़ को कंट्रोल करने के लिए पुलिस तक बुलानी पड़ी थी।  

अब फ़िल्मों की अपनी आवाज़ थी और यह किसी क्रांति से कम नहीं था लेकिन अभी भी फ़िल्में श्याम श्वेत या इस्टमैनकलर थी। सिनेमा में अभी एक मुख्तलिफ़ रंग भरना बाक़ी था।

1935 में दुनिया की पहली टेक्नो कलर फ़ीचर फ़िल्म ‘बेकी शार्प’ के नाम से आई। हालाँकि सिर्फ़ कलर फ़िल्म यानी फ़िल्टर या हैण्ड पेंटेट फ़िल्म की बात की जाए तो साईलेंट युग की 1908 की 'अ विज़िट टू द सीसाइड' का नाम ले सकते हैं लेकिन ये रंग से ज़्यादा बदरंग थी इस सबके बाद ये रंग भारतीय सिनेमा में आये और भारत में 1936 की सैरंध्री पहली रंगीन फ़ीचर फ़िल्म के रूप में बनी लेकिन प्रोसेसिंग में गड़बड़ी से इसके रंग उड़ गए और उसके बाद ये उपलब्धि 1937 में बनी ‘किसान कन्या’ के खाते में आई। इस फ़िल्म के निर्माता बोलती फ़िल्मों के जनक अर्देशिर ईरानी थे।  

इसके बाद सिनेमा की तकनीक में दिन ब दिन सुधार होता गया। 1950 और 60 के दशक को ग़ैर-अंग्रेज़ी सिनेमा के लिए "स्वर्ण युग" माना जाता था। जो कहीं इंडियन सिनेमा के लिए भी यही बात कही जा सकती है। इस गोल्डन इरा में दिलीप कुमार, देवानंद, राजकपूर की सुपरहिट तिकड़ी के बाद राजेश खन्ना पहले सुपरस्टार के रूप में अवतरित हुए। बलराज साहनी समान्तर फिल्मों के सूत्रधार अभिनेता बने। ख़्वाजा अहमद अब्बास, गुरुद्द्त, के आसिफ़, ऋषिकेश मुखर्जी, ऋत्विक घटक, सत्यजित रे जैसे अनेक मेकर्स ने अपना एक अलग स्थान बनाया और दो बीघा ज़मीन, मदर इंडिया, मुग़ले आज़म, गाइड, आवारा, प्यासा, काग़ज़ के फूल जैसी फ़िल्मों ने अपनी अलग छाप छोड़ी।   

इस समय और इसके बाद दुनिया में अपनी फ़िल्मों और अपने काम से फ़िल्ममेकर्स ने अपना एक अलग स्थान बनाया है। जिसमें स्टीवन स्पीलबर्ग, चार्ली चैपलिन, अल्फ्रेड हिचकॉक, अकिरा कुरोसावा, वुडी एलेन, जेम्स कमरून, फ़्रैंक चोपड़ा, आंग ली, मेल गिब्बसन, ब्रूसली या फिर अपने देश के फ़िल्ममेकर सत्यजित रे आदि जैसे न जाने कितने महान फ़िल्ममेकर्स शामिल हैं।  

ये थी आज के फ़िल्मी सफ़र में दुनिया और हिंदुस्तान के सिनेमा की जानकारी। अगले हफ़्ते फ़िल्मों की कुछ और रोचक जानकारियों के साथ फिर हाज़िर रहूंगा।

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