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सोमनाथ और अयोध्‍या के राम मंदिर के अभिषेक का विरोधाभास

जिन लोगों का हुकूमत पर दबदबा है उन्होंने धर्मनिरपेक्ष भारत के आदर्शों और धर्म के प्रति राष्ट्र की तटस्थता से समझौता किया है।
Mandir

सरदार वल्लभ भाई पटेल ने आम जनता से धन इकट्ठा कर सोमनाथ मंदिर के उद्धार की शुरुवात की थी और 1951 में इसका अभिषेक, वर्तमान में अयोध्या में राम मंदिर के अभिषेक के संबंध में महत्वपूर्ण सबक देता नज़र आता है।

पटेल ने महात्मा गांधी की इस दलील को माना था कि सरकारी धन का इस्तेमाल किसी एक आस्था का प्रतिनिधित्व करने वाले मंदिर के लिए नहीं किया जाना चाहिए। गांधी का यह दृढ़ विश्वास था कि भारतीय राज्य को हमेशा धर्म के प्रति तटस्थता बनाए रखनी चाहिए। यह भावना उन्होंने 28 नवंबर 1947 को दिल्ली में एक प्रार्थना सभा को संबोधित करते हुए सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार के संदर्भ में व्यक्त की थी।

उन्होंने कहा कि आज़ादी के बाद बनी सरकार विभिन्न और विविध धर्मों को मानने वाले सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती है। क्योंकि उनके अपने शब्दों में, “यह एक धर्मनिरपेक्ष सरकार है यानी यह एक धार्मिक सरकार नहीं है। यह किसी खास धर्म से संबंधित नहीं है।”

नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के कार्यक्रम में राष्ट्रपति की भागीदारी की मनाही की थी।

भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति, राजेंद्र प्रसाद को सोमनाथ मंदिर के अभिषेक समारोह में भाग लेने और 11 मई 1951 को इसका उद्घाटन करने के लिए आमंत्रित किया गया था। उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से राय ली जिन्होंने कई अवसरों पर उनसे ऐसा न करने का अनुरोध किया था। क्योंकि वे गणतंत्र के प्रमुख होने के नाते धर्मनिरपेक्ष राज्य का प्रतिनिधित्व करते थे। इसलिए यह माना गया कि सोमनाथ मंदिर के अभिषेक में उनकी भागीदारी शासन की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति के खिलाफ होगी।

नेहरू को लगा कि सोमनाथ का कार्यक्रम राजनीतिक था।

सोमनाथ मंदिर के अभिषेक से उन्नीस दिन पहले, नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद को (22 अप्रैल 1951 को) पत्र लिखकर सोमनाथ मामले पर अपनी चिंता व्यक्त की थी। उन्होंने कहा था कि, "जैसा कि मुझे डर था, यह एक राजनीतिक महत्व का कार्यक्रम बन गया है।" उन्होंने आगे कहा कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, इस कार्यक्रम का संदर्भ दिया जा रहा है और “इसके संबंध में हमारी नीति की आलोचना की जा रही है और हमसे पूछा जा रहा है कि क्या हमारी जैसी धर्मनिरपेक्ष सरकार खुद को इस तरह के समारोह से कैसे जोड़ सकती है जिस समारोह का चरित्र ही पुनरुत्थानवादी है।"

नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद को यह भी बताया कि, इस मुद्दे पर संसद में कई सवालों के जवाब में उन्होंने कहा था कि सरकार का इससे कोई लेना-देना नहीं है और इससे जुड़े लोग अपनी व्यक्तिगत क्षमता में काम कर रहे हैं।

73 साल पहले की नेहरू की टिप्पणी अयोध्या के राम मंदिर के अभिषेक के संदर्भ में गूंजती सुनाई देती है। यह मंदिर उस स्थान पर बनाया गया है जहां कभी बाबरी मस्जिद खड़ी थी और जिसे ध्वस्त कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर के निर्माण की अनुमति देते हुए कहा था कि विध्वंस "कानून के शासन का घोर उल्लंघन" था। उद्घाटन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित कई अन्य संवैधानिक पदाधिकारी भाग ले रहे हैं जो इसे एक राजनीतिक कार्यक्रम भी बनाता है।

नेहरू ने सोमनाथ कार्यक्रम का निमंत्रण अस्वीकार कर दिया था।

जब 22 अप्रैल 1951 को, राजप्रमुख या सौराष्ट्र सरकार के प्रमुख, दिग्विजय सिंह ने नेहरू को अभिषेक समारोह में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया तो उन्होंने 24 अप्रैल को उन्हें धन्यवाद देते हुए लिखा और बड़े दुख के साथ कहा कि, "मैं इस पुनरुत्थानवाद से परेशान हूं और तथ्य यह है कि हमारे राष्ट्रपति और कुछ मंत्री और आप राजप्रमुख के रूप में इससे जुड़े हुए हैं।”

नेहरु ने लिखा कि मुझे लगता है,"यह हमारे राष्ट्र की प्रकृति के अनुरूप नहीं है और इसके राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बुरे परिणाम होंगे। निश्चित रूप से, एक व्यक्ति के रूप में, हर व्यक्ति का यह हक़ है कि वह ऐसे मामलों में जो चाहे वह करे। लेकिन हममें से कई लोग निजी व्यक्तियों से कहीं अधिक हैं और हम अपनी सार्वजनिक क्षमताओं से खुद को अलग नहीं कर सकते हैं।"

राम मंदिर के निमंत्रण पर गर्व

पुरोहिती अनुष्ठानों के बीच अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन करने के लिए आमंत्रित किए जाने पर प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी किस प्रकार स्पष्ट रूप से गर्व महसूस कर रहे हैं, यह एक धर्मनिरपेक्ष देश के आदर्शों और नेहरू के दृष्टिकोण के बिल्कुल विपरीत है।

28 अप्रैल 1951 को आरआर दिवाकर (कैबिनेट में पूर्व सूचना और प्रसारण मंत्री और बाद में बिहार के राज्यपाल) को लिखे एक पत्र में नेहरू ने सोमनाथ प्रतिष्ठा समारोह को एक "आडंबरपूर्ण समारोह" के रूप में वर्णित किया था और कहा था कि"...किसी भी प्रकार का सरकारी सहयोग हमें विदेशों में और यहां तक कि भारत में भी नुकसान पहुंचाने वाला है।” उन्होंने खुलासा किया कि उन्हें कई शिकायतें और पत्र मिले हैं जिसमें पूछा गया है कि "...क्या एक धर्मनिरपेक्ष राज्य इस तरह का व्यवहार कर सकता है।''

नेहरू ने बड़े ही दुख व व्यथा के साथ लिखा कि सौराष्ट्र के राजप्रमुख ने सीधे विदेश स्थित भारतीय दूतावासों को लिखा कि वे सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए उन देशों की मिट्टी और कुछ महत्वपूर्ण नदियों का पानी भेजें। उन्होंने कहा कि इस तरह के अनुरोधों ने देश को बहुत शर्मिंदा किया है। कई देशों के विदेशी मिशन और नेता आश्चर्यचकित थे कि भारत में मरम्मत किए जा रहे पूजा स्थल में विदेशी मिट्टी और पानी का इस्तेमाल क्यों किया जाना चाहिए।

अन्य नेताओं ने राष्ट्रपति के निर्णय को अस्वीकार किया।

भारत में हमेशा से यह लोकप्रिय धारणा रही है कि सोमनाथ प्रतिष्ठा समारोह में भाग लेने के राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के फैसले को केवल नेहरू ने अस्वीकार किया था। उस दौरान के रिकॉर्ड और नेहरू के कई अन्य लेखों पर नज़र डालने से पता चलता है कि कई प्रतिष्ठित नेताओं और सार्वजनिक हस्तियों ने उनके साथ एकजुटता व्यक्त की और राजेंद्र प्रसाद से अपील की थी कि वे खुद को सोमनाथ तीर्थ समारोह से न जोड़े। उदाहरण के लिए, भारतीय और पश्चिमी दर्शन की गहरी समझ रखने के लिए माने जाने वाले एस॰ राधाकृष्णन ने लिखा था कि सोमनाथ मंदिर के अभिषेक के साथ राज्य के उच्च पदाधिकारियों का जुड़ाव "गलतफहमी का खतरा" पैदा करेगा। यहां तक कि सी॰ राजगोपालाचारी ने भी राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को सोमनाथ कार्यक्रम में भाग न लेने के लिए मना करने के लिए नेहरू का साथ दिया था। प्रसिद्ध अंतरिक्ष वैज्ञानिक विक्रम साराभाई की बहन और स्वतंत्रता सेनानी मृदुला साराभाई ने भी सोमनाथ मुद्दे पर नेहरू के रुख का समर्थन किया था। नेहरू ने साराभाई को राजेंद्र प्रसाद से मिलने और अपना आलोचनात्मक रुख साझा करने की सलाह दी थी।

सोमनाथ और राम मंदिरों का विरोधाभासी प्रचार

कॉर्पोरेट-नियंत्रित टीवी चैनलों और कई प्रिंट आउटलेट्स द्वारा अयोध्या में राम मंदिर कार्यक्रम को दिया गया बेधड़क मीडिया प्रचार लोगों के बुनियादी मुद्दों की कीमत पर किया जा रहा है। यह 28 अप्रैल 1951 को सोमनाथ मंदिर अभिषेक के कवरेज पर मीडिया को दिए गए निर्देशों के संबंध में नेहरू के बयानों की याद दिलाता है। उन्होंने लिखा था, "मुझे लगता है कि इन परिस्थितियों में, हमारे रेडियो प्रसारण को सोमनाथ में जो कुछ हो रहा है उसका वर्णन धीमा कर देना चाहिए और किसी भी तरह से यह नहीं जताना चाहिए कि यह एक सरकारी कार्य है।"

हालाँकि आज हम देख रहे हैं कि मोदी शासन राम मंदिर प्रतिष्ठा समारोह को बिना रोक-टोक प्रचार दे रहा है।

धर्मनिरपेक्ष गैर-सांप्रदायिक आदर्शों पर ज़ोर

सोमनाथ समारोह से नौ दिन पहले, 2 मई 1951 को मुख्यमंत्रियों को लिखे गए एक पत्र में, नेहरू ने लिखा था कि कई लोग इस समारोह की ओर आकर्षित हुए हैं। उनके कुछ सहयोगियों ने अपनी व्यक्तिगत क्षमताओं में इस कार्यक्रम में भाग लेना पसंद किया है। ऐसा करते समय, नेहरू ने लिखा, "इस कार्यकर्म को कुछ हद तक जनता का समर्थन मिलना ही था" और आगाह किया कि ऐसा कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए जो "हमारे राज्य के धर्मनिरपेक्ष होने के रास्ते में रोड़ा बने।"

उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान और सरकारों का आधार है और मुख्यमंत्रियों से आग्रह किया कि वे "खुद को ऐसी किसी भी चीज़ से जोड़ने से बचें जो हमारे राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को प्रभावित करती हो।'’ नेहरू ने कहा, "दुर्भाग्य से, आज भारत में कई सांप्रदायिक प्रवृत्तियां काम कर रही हैं। हमें उनसे सावधान रहना होगा।" उन्होंने यह भी कहा, "यह महत्वपूर्ण है कि सरकारें धर्मनिरपेक्ष और गैर-सांप्रदायिक आदर्श को हमेशा अपने सामने रखें।"

दुखद बात यह है कि सत्ता द्वारा धर्मनिरपेक्ष और गैर-सांप्रदायिक आदर्शों का लगातार अवमूल्यन किया जा रहा है। उन्होंने देश को रीति-रिवाजों और विभाजनकारी धार्मिक नेरेटिवों पर आधारित राजनीति के भंवर में धकेल दिया है जो संविधान और भारत के उस दृष्टिकोण के विपरीत है जो सभी धर्मों के सह-अस्तित्व का जश्न मनाता है।

धर्मनिरपेक्ष राज्य को बचाने के लिए गांधी और नेहरू के दृष्टिकोण को अपनाना एक महत्वपूर्ण सबक है जिसे आज भारतीय लोग खुद को जोखिम में डालते हुए नजरअंदाज कर रहे हैं। क्योंकि वे प्रधानमंत्री की सक्रिय भागीदारी के साथ अयोध्या में अनुष्ठान संचालित अभिषेक समारोह देख रहे हैं।

लेखक, भारत के राष्ट्रपति केआर नारायणन के ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटि के रूप में काम कर चुके हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।

मूल अंग्रेजी लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें: 

Contrasting Consecrations at Somnath and Ayodhya Rama Temple

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