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महामारियों का राजनीतिक अर्थशास्त्र

वैक्सीन भी साल में एक-दो बार ही लगाई जाती है, इसलिए इसमें मुनाफ़ा बहुत कम है, इसके विपरीत डायबिटीज, कैंसर, एड्स, हर्ट या फिर ब्लडप्रेशर ‌की दवाएं मरीज़ साल भर खाता है, इसीलिए सारा शोध इन्हीं दवाओं पर होता है, क्योंकि इसमें अपार मुनाफ़ा है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। Reuters

• 'महान फ्रांसीसी उपन्यासकार 'अल्बैर कामू' का महान उपन्यास 'प्लेग' : जो उन्होंने 1947‌ में लिखा, इस उपन्यास में फ्रांस के एक बंदरगाह नगर में 'ओरान' में प्लेग महामारी के फैलने की कहानी है, जिसके बाद शहर में लॉकडाउन लगा दिया जाता है।

• एक दूसरा उपन्यास अमेरिकी उपन्यासकार कैथरीन ऐनी पोर्टर का है। 1936 में प्रकाशित यह लघु उपन्यास पेल हॉर्स,पेल राइडर (मरियल घोड़ा दुर्बल सवार) 1918-19 में फैली इंफ्लुएंजा महामारी या स्पेनिश फ्लू महामारी पर केंद्रित है। इस उपन्यास की लेखिका ख़ुद उस महामारी का शिकार होकर मरते-मरते बची थी। यह लघु उपन्यास दो ऐसे प्रेमियों की कहानी है,जो विश्वयुद्ध काल में घातक फ्लू वायरस की चपेट में आ जाते हैं। विश्वयुद्ध और महामारी की पृष्ठभूमि में लिखी गई यह कहानी एक ही साथ रोमांटिक भी है और त्रासद भी।

अगर हम दोनों उपन्यासों को पढ़ें, तो पाते हैं कि इनमें अद्भुत समानताएं हैं। दोनों में ही आपदा को अवसर में बदलते भ्रष्ट राजनीतिज्ञ हैं। जमाखोर व्यवसायी हैं। महामारी से राजनीतिक फ़ायदा उठाने के चक्कर में अपसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाते कुछ राजनीतिज्ञ हैं। अपनी जान की परवाह न करते हुए डॉक्टर और नर्सिंग स्टाफ और अन्य चिकित्सा कर्मचारी अपनी ड्यूटी कर रहे हैं। 2019 में भारत सहित दुनिया भर में कोरोना महामारी फैली, जिसका कमोबेश प्रकोप आज भी जारी है। इस महामारी में भी प्लेग तथा स्पेनिश फ्लू की तरह करोड़ों लोग मारे गए। दुनिया की अर्थव्यवस्था पूरी तरह तबाह हो गई। आश्चर्यजनक रूप से इसमें भी वही सब देखने को मिला जो सौ वर्ष पहले फैली महामारी में था। यूं तो मानव सभ्यता के शुरुआती दौर से ही बड़ी-बड़ी महामारियां आती रही जिसमें करोड़ों लोग मारे गए।‌ कई साम्राज्यों के उत्थान-पतन में भी इन महामारियों का बड़ा हाथ रहा है, विशेष रूप से प्लेग महामारी का। क्या महामारियों का कोई राजनीतिक अर्थशास्त्र भी है, इस‌ पर कुछ दिलचस्प शोध भी हुए हैं। 'फ्रेडरिक एंगेल्स की एक मशहूर किताब 'इंग्लैंड में मज़दूर वर्ग की दशा' भी है। यह 1845 में पहली बार प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में एंगेल्स लिखते हैं,"इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के शुरुआती समय में बड़े पैमाने पर किसान अपने इलाक़े से उजड़कर लंदन और मैनचेस्टर जैसे बड़े नये बने औद्योगिक शहरों में आने लगे। घनी बस्तियों में अस्वास्थ्यकर वातावरण, अत्यधिक काम के घंटे तथा कम मज़दूरी के कारण उनके बीच पेचिश और हैजा जैसी महामारियां फैलने लगीं, उनसे ये महामारियां अभिजात्य तबकों तक में फैल गईं। लंदन में टेम्स नदी का पानी इतना दूषित हो गया, कि उससे उठती दुर्गंध के कारण संसद की कार्यवाही तक रोकनी पड़ी, जो कि इस नदी के किनारे बना था। बड़े पैमाने पर लोगों को शहर छोड़कर गांंव की ओर जाना पड़ा।"

1990 में भारत सहित दुनिया भर में नवउदारवादी नीतियां लागू की गईं। गांंव में छोटे-मोटे उद्योग-धंधे नष्ट होने लगे। कृषि में बड़ी पूंजी के प्रवेश के कारण खेतिहर मज़दूर और छोटे किसानों की तबाही हुई। उनका बड़े पैमाने पर अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों की ओर विस्थापन हुआ तथा वही स्थिति बन गई, जो औद्योगिक क्रांति के शुरुआती दौर में इंग्लैंड के शहरों की हुई थी।‌ रहन-सहन की अस्वास्थ्यकर स्थितियों के कारण वे रोग फिर फैलने लगे, जो पहले समाप्तप्राय थे। जैसे:-

* दिल्ली में हर साल फैलने वाला डेंगू, चिकनगुनिया और इंसेफेलाइटिस जैसे रोग महामारियों की तरह फैलने लगे। ये बीमारियां मज़दूरों की बस्तियों से होते हुए उच्चवर्ग तक पहुंच गईं। 1994 में गुजरात के सूरत शहर में प्लेग महामारी फैली, जिसे दुनिया में समाप्त मान लिया गया था। इस महामारी की शुरुआत भी प्रवासी मज़दूरों की बस्ती से ही हुई थी, जो बाद में संभ्रांत कॉलोनियों में फैल गई थी।

* 2019 में दुनिया भर में कोवि-19 फैला, जिसमें दुनिया भर में अब तक करोड़ों लोग मारे गए हैं। ऐसा माना जाता है कि स्पेनिश फ्लू के बाद सबसे अधिक लोग इस महामारी में मारे गए। विशेषज्ञों का कहना है कि कोविड-19 आने वाले कई सालों तक कहर ढाता रहेगा। अंत में यह रोगाणु कमज़ोर पड़ जाएगा, इसलिए उसका इलाज करना अपेक्षाकृत आसान हो जाएगा, लेकिन इसमें सालों यहा़ं तक की दशकों लग सकते हैं। अक्सर इन महामारियों के फैलने के पीछे दुनिया का बदलता हुआ पर्यावरण और मनुष्यों का जंगलों में हस्ताक्षेप जैसे सतही कारण बताए जाते हैं।

* परंतु दो दशकों में फैली अनेक महामारियां जिसमें 2011-12 में फैली सार्स-1 और सार्स-2, स्वाइन फ्लू, जीका‌ वायरस और इबोला वायरस के फैलाव के पीछे गंभीर आर्थिक और सामाजिक कारण रहे हैं। सौभाग्य से ये महामारियां वैश्विक पैमाने पर नहीं फैली और शीघ्र ही नियंत्रित कर ली गईं, लेकिन इसमें भी लाखों लोग मारे गए। महामारी विशेषज्ञों का कहना है कि इन महामारियों के वायरस अभी भी दुनिया में घूम रहे हैं और कभी भी व्यापक तबाही ला सकते हैं। इबोला को छोड़कर किसी की भी कारगर वैक्सीन अभी तक विकसित नहीं की जा सकी है, परंतु जब कोविड19 फैला, तो सारी चीज़ें सतह पर आ गईं। रॉब वालेस एक अमेरिकी जीव वैज्ञानिक हैं, जो जनस्वास्थ्य से जुड़े आनुवांशिक विकास और जीन्स की भौगोलिक विविधताओं का अध्ययन करते हैं। कोविड19 महामारी के दौरान उनके शोधपरक लेखों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा है। वे उन महामारी विशेषज्ञों में से हैं, जो इस सदी की शुरुआत से ही घातक महामारियों के विस्फोटक ख़तरे से दुनिया को आगाह करते रहे हैं।

वालेस और उनके सहयोगी लेखकों की किताब 'मुर्दा महामारी विशेषज्ञ : कोविड19 के स्रोतों के बारे में(डेड एपिडेमियोलॉजिस्ट: ऑन द ओरिजिन्स ऑफ कोविड19)' वर्तमान महामारी के कारणों पर सबसे सारगर्भित पुस्तकों में से एक है।

* अपनी किताब में उन्होंने लिखा है, "कोविड19 महामारी ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया है। ऐसा नहीं होना चाहिए था। इस सदी की शुरुआत में ही महामारी विशेषज्ञों ने नयी आक्रामक बीमारियों के बारे में आगाह किया था, फिर भी अपनी ख़ुद की चेतावनी के बावज़ूद उनमें से बहुतेरे शोधकर्ता महामारी के वास्तविक कारणों को समझने में वैसे ही असमर्थ रहे, जैसे कोई मुर्दा खुली आंखों के बावज़ूद देख नहीं पाता।" उन्होंने इसके बारे में ख़ुलासा किया कि "महामारी के पीछे की तल्ख़ हक़ीक़त वैश्विक पूंजी के द्वारा किए जाने वाले वनों का काटना और विकास परियोजनाएं हैं, जिन्होंने हमें नये रोगाणुओं का चारा बना दिया है।

* वालेस की 2016 में आई किताब 'बिग फॉर्म्स मेक बिग फ्लू' अपने शीर्षक की तरह सोचने पर मज़बूर करने वाली है। इसकी समीक्षा करते हुए दूसरे लेखक माइक डेविस ने लिखा है," राजनीतिक अर्थशास्त्र की व्यापक दृष्टि का इस्तेमाल करते हुए रॉब वालेस ने दर्शाया है कि एवियन फ्लू और पूरी दुनिया को थर्रा देने वाली दूसरी महामारियों के उभार में विशाल औद्योगीकृत-पशुपालन (फैक्ट्री फार्मिंग) और फास्ट फूड उद्योग की केंद्रीय भूमिका है।"

2009 में स्वायन फ्लू के विस्फोट को उत्तरी अमेरिकी मुक्त व्यापार समझौते से जोड़ते हुए अपने लेखों में वालेस ने उसे 'नाफ्टा फ्लू' की संज्ञा दी है। यहां उन्होंने नवउदारवादी मुक्त व्यापार समझौतों, पूँजी के प्रवाहचक्रों और रोगाणुओं के बीच के अंतर्संबंधों का खुलासा किया है। वालेस का कथन है कि, "बड़े कृषि-व्यवसायी सार्वजनिक स्वास्थ्य के सबसे बड़े दुश्मन हैं और मानवता का भविष्य पृथ्वी के उपापचय की प्राकृतिक स्थिति को फिर से बहाल करने में है।"

फ्रंट लाइन पत्रिका के 2 जुलाई 2021 के अंक में रॉब वालेस का एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार प्रकाशित हुआ। जिसमें वे बताते हैं कि किस प्रकार आज की दुनिया की आर्थिक और राजनीतिक स्थितियां इस वायरस के फैलने में सहायक सिद्ध हुईं वे उदाहरण देते हुए बताते हैं कि अमेरिका, ब्राजील और भारत में कोविड19 से सबसे ज़्यादा मौतें हुईं। यहां के शासक : 'चाहे ब्राजील के बोलसोनारो हों, अमेरिका के डोनाल्ड ट्रंप हों या भारत में नरेंद्र मोदी'। इन सभी ने महामारियों का फ़ायदा उठाकर इसके बहाने अल्पसंख्यकों के प्रति नफ़रत का अभियान भी शुरू कर दिया। चाहे वह भारत में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हो, या ब्राजील और अमेरिका में चीनियों के ख़िलाफ़। यहां तक कि बोलसोनारो और डोनाल्ड ने लंबे समय तक इसे महामारी तक मानने से इंकार कर दिया। उन्होंने इसे तब स्वीकार किया, जब महामारी उन तक पहुंच गई। स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण ने सार्वजनिक सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को ध्वस्त कर दिया, इसी कारण से भारत ब्राजील और अमेरिका में बेशुमार मौतें हुईं। यहा़ं तक कि महामारी के दौरान अमेरिका में न्यूयॉर्क के मेयर ने समूची स्वास्थ्य सेवाओं के राष्ट्रीयकरण तक की माँग की थी। चीन, वियतनाम, न्यूजीलैंड, क्यूबा, उरुग्वे और ताइवान जैसे देश जहा़ं बहुत भिन्न-भिन्न किस्म के राजनीतिक व्यवस्थाए़ँ हैं, शुरुआत में बिना किसी टीके के महामारी को परास्त करने में सफल रहे। क्या भारत ने अमेरिका तथा ब्राजील के नक्शे-कदम पर चलते हुए उदारवादी रास्ता अपनाया? क्या यही भारत में कोविड19 के भयानक विस्फोट का कारण बना?

इसमें कोई दो राय नहीं है कि महामारियां पहले भी आई हैं। दरअसल जबसे मनुष्यों ने सभ्यता का आगाज़ किया, उनकी मौतों की सबसे बड़ी वज़ह संक्रामक बीमारिया़ं रही हैं। जब हम यायावर जीवन को त्यागकर शहरों में बस गए, तो उनकी घनी और विशाल आबादी ने ज़्यादा विकट संक्रमणों को फलने-फूलने का मौका दिया, लेकिन क्योंकि बीमारियां पहले भी मानव आबादी में फैलती रही हैं, मात्र इसलिए यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि अब पूंजीवाद इन नये संक्रामक विस्फोटों का कारण नहीं बन रहा है।

आज चिकित्सा विज्ञान क्षेत्र में अभूतपूर्व उन्नति हुई है। चिकित्सा वैज्ञानिकों को वायरसजनित बीमारियों के बारे में जितनी महत्वपूर्ण जानकारिया़ं आज हैं, उतनी सौ वर्ष पहले नहीं थीं, जब स्पेनिश फ्लू फैला था। फिर क्या कारण है कि आज भी इन महामारियों से लाखों लोग मरते हैं, यहां तक कि तीसरी दुनिया के देशों में हैजा, डायरिया और टीबी जैसे रोगों से प्रतिवर्ष लाखों लोग मौत का शिकार हो जाते हैं। इन कारणों को आप एक छोटे से उदाहरण से समझा सकते हैं। अमेरिका जैसे विकसित देश में साधारण फ्लू से हज़ारों लोगों की मौत हो जाती है। इसका कारण है फ्लू की वैक्सीनों की भारी कमी। आज दवा कम्पनियां संक्रामक रोगों की वैक्सीन बनाने में ज़्यादा रुचि नहीं लेतीं। इसका कारण यह है कि इसमें बहुत कम मुनाफ़ा है। रोग अपने को वातावरण के अनुसार लगातार बदलते रहते हैं, इस कारण इस क्षेत्र निरंतर शोध की आवश्यकता होती है।

वैक्सीन भी साल में एक-दो बार ही लगाई जाती है, इसलिए इसमें मुनाफ़ा बहुत कम है, इसके विपरीत डायबिटीज, कैंसर, एड्स, हर्ट या फिर ब्लडप्रेशर ‌की दवाएं मरीज़ साल भर खाता है, इसीलिए सारा शोध इन्हीं दवाओं पर होता है, क्योंकि इसमें अपार मुनाफ़ा है। निजीकरण की होड़ में सारी सरकारी कम्पनियां प्राइवेट हाथों में चली गईं, जिनमें पहले वैक्सीनों पर अत्यधिक शोध होते थे। आज अगर कोविड19 की वैक्सीन दुनिया भर की ढेरों कम्पनिया़ं बना‌ रही हैं, तो इसके पीछे भी व्यापक मुनाफ़े की आशा है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि दुनिया भर में प्रत्येक व्यक्ति के टीकाकरण का लक्ष्य रखा गया है, परंतु जैसे-जैसे इस महामारी का प्रकोप कम हो रहा है, वैसे-वैसे बड़ी-बड़ी कम्पनियां वैक्सीन बनाने से अपना हाथ खींच रही हैं। यही है महामारियों का राजनीतिक अर्थशास्त्र।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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