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कोविड-19 के बहाने सर्वसत्तावाद की ओर

आखिर, कोरोनावायरस और राजनीति में क्या संबंध है? या, यूं कहें कि कोरोना महामारी और तानाशाही में क्या संबंध है? बता रही हैं कुमुदिनी पति
कोविड-19

एक तरफ हम कोविड-19 से जूझ रहे हैं, तो दूसरी ओर विश्व अर्थव्यवस्था अभूतपूर्व संकट से गुज़र रही है। इस संकट का समाधान काफी समय तक सरकारों को सकते में डाले रख सकता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इसी कारण से विश्व की कई सरकारें निरंकुशता को सत्ता बचाने का रास्ता बना रही हैं?आखिर, कोरोनावायरस और राजनीति में क्या संबंध है? या, यूं कहें कि कोरोना महामारी और तानाशाही में क्या संबंध है? भारत में यदि देखें तो कोरोना महामारी की आड़ में कई राज्यों में भाजपा सरकारों ने श्रम कानूनों पर अप्रत्याशित हमला किया है, जिसके दूरगामी दुष्परिणाम होंगे। लोकतंत्र पर इस प्रकार के हमले एक-दो नहीं बल्कि कई देशों की सच्चाई बन गई है। दक्षिणपंथी राजनीतिक शक्तियां, जो पहले से उभार पर थीं, कोविड संकट के कारण कमजोर नहीं हुईं हैं; बल्कि उनकी ताकत बढ़ी है और उन्होंने कोरोना महामारी के चलते पैदा हुए संकट को अपने फायदे में इस्तेमाल कर लिया है, यानी अपनी दक्षिणपंथी जन-विरोधी नीतियों को और भी जोर-शोर से लागू करने में उन्होंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।

यह स्थिति केवल इज़रायल और ब्राज़ील जैसे कुछ अधिनायकवादी देशों में देखने को नहीं मिलती, जहां नेतान्याहु और बोलसोनारो अपनी सत्ता को बचाने के लिए किसी भी हद तक जा रहे हैं। बल्कि हंगरी, तुर्की, इटली, इंडोनेशिया और यूरोप, अमेरिकाज़, एशिया और अफ्रीका के सभी प्रमुख देशों में भी देखी जा सकती है। इसलिए लोकतंत्र पर जो कुठाराघात है, वह एक वैश्विक व अंतर्राष्ट्रीय परिघटना बन चुका है।

सबसे पहले तो हम इन सत्ताओं की तानाशाही कोविड संकट से निपटने के मामले में देखते हैं, जैसे भारत में ही, जहां बिना सोचे-समझे, बिना किसी तैयारी के, बेरहमी से लॉकडाउन थोप दिया जाता है, अर्थव्यवस्था को ठप्प कर दिया जाता है, लाखों लोगों की आजीविका छीन ली जाती हैं, जनता और सामान के आवागमन पर रोक लग जाती है, आन्दोलनों को कुचला जाता है, ऐक्टिविस्टों को काले कानूनों के तहत जेल भेज दिया जाता है और उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है, फेक न्यूज़ पर रोक लगाने के नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले तेज़ होते हैं, जरूरी सूचनाओं से लोगों को वंचित रखा जाता है, यहां तक कि कोरोना संक्रमण के आंकड़े तक छिपाए जाते हैं। स्वास्थ्यसेवा संबंधित कानूनों और श्रम कानूनों में जो परिवर्तन किये जा रहे हैं, उनके चलते लंबे संघर्ष द्वारा अर्जित अधिकारों को छीन लिया गया है।

कोरोना संकट आज विश्व भर में जनतंत्र का संकट बन गया है। नेपाल और पाकिस्तान में सामाजिक दूरी बनाने के नाम पर और लॉकडाउन के बहाने संसदीय सत्र स्थगित किये गए हैं, कनाडा, फ्रांस, हंगेरी, इसरायल, घाम्बिया, घाना, नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका में राष्ट्रीय सभाओं की कार्यवाही पर पूरी तरह से रोक लग गई है और कानून की जगह शासनादेश लागू किये जा रहे हैं। ब्रिटिश संसद, जिसे लोकतंत्र का मॉडल माना जाता था, आज अनिश्चितता की स्थिति में है। कई देशों में आपातकाल लागू है, जिनमें प्रमुख हैं स्पेन, इटली, पुर्तगाल, नामिबिया, आरमीनिया, बुल्गारिया, कोसावो, लातिविया, अल-सल्वाडोर, ग्वाटेमाला और लेबनान। कई देशों के राष्ट्रपतियों ने संसदीय वोट के जरिये अपने आप के लिए असाधारण शक्ति प्रदान कर ली है। इनमें डेनमार्क, फिनलैंड, लक्समबर्ग, घाना और रोमानिया गिने जा सकते हैं।

आपातकाल का मतलब है राजनीतिक आज़ादी पर अप्रत्याशित हमला। असल में इस प्रकार के निरंकुश कदमों का कोरोना महामारी से कोई संबंध नहीं है, न ही लॉकडाउन या सामाजिक दूरी बनाने के लिये इन्हें वैधानिक ठहराया जा सकता है, तब ऐसा क्यों? पर किसी भी सत्ताधारी के पास इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर नहीं है।

लंदन स्थित ऐमनेस्टी इंटरनेशनल, जो विभिन्न देशों में नागरिक अधिकारों की रक्षा पर नजर रखता है, ने 1 मई 2020 को एक रिपोर्ट जारी की ‘‘ग्लोबल क्रैकडाउन ऑन जर्नलिस्ट्स वीक्न्स एफर्ट्स टू टैकल कोविड-19’’( Global Crackdown on Journalists weakens Efforts to Tackle Covid-19)। इस रिपोर्ट में भारत, रूस और चीन का नाम उन देशों में गिना गया है जहां पत्रकारों, अखबारों और वेबसाइटों के विरुद्ध केस दर्ज किये गए हैं क्योंकि उन्होंने कोरोनावायरस के फैलाव की सही-सही खबरें प्रकाशित कीं और उसपर काबू पाने के मामले में सरकारों की गलत नीतियों की आलोचना की। इसके अलावा सभी गल्फ देश, श्रीलंका, थायलैंड, नाइजीरिया, मिस्र, वेनेज़ुएला, टर्की, कीनिया, अज़रबयजान, उज़बेकिस्तान, कम्बोडिया और तनज़ानिया ने अपने देशों के कानून में बदलाव किया है और नए कानून बनाए हैं ताकि कोरोना संक्रमित जनता के बीच भय फैलने से रोकने के नाम पर प्रेस की आज़ादी पर अंकुश लगाया जा सके।

भारत के संदर्भ में देखें तो राइट्स ऐण्ड रिस्क्स एनेलिसिस ग्रुप (Rights and Risks Analysis Group or RRAG) ने कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान मीडिया पर हमले पर रिर्पोट प्रकाशित की है। रिपोर्ट के अनुसार 55 भारतीय पत्रकारों को धमकी दी गई है, उनपर केस हैं या उनकी गिरफ्तारी हो चुकी है। सरकार के लिए दिक्कत पैदा करने वाली रिपोर्टें फाइल करने के लिए 22 पत्रकारों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज की गई है, और इनमें से कम से कम दस को हिरासत में लिया गया है। मीडिया वालों पर सबसे अधिक हमले उत्तर प्रदेश में हुए हैं (11 पत्रकार), फिर आता है जम्मू-कश्मीर (6 पत्रकार), हिमाचल प्रदेश (5), तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र (प्रत्येक में 4), पंजाब, दिल्ली, मध्यप्रदेश और केरल ( हरेक में 2), असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, कर्नाटक, नागालैंड, तेलंगाना, अरुणाचल प्रदेश और अन्दमान व निकोबार द्वीप समूह (हरेक में 1)

जब 31 मार्च 2020 को प्रवासियों का सवाल सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के लिए आया, मोदी सरकार ने न्यायालय में याचना की कि उसे न्यूज़ मीडिया पर अंकुश लगाने के लिए अधिकार दिये जाएं, खासकर वेब पोर्टल्स पर क्योंकि उनमें समाज के बडे हिस्से में भय पैदा करने की गंभीर व अवश्यंभावी ताकत होती है। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की प्रर्थना को खारिज किया था, उसने 31 मार्च को कहा ‘‘हम अपेक्षा करते हैं कि मीडिया (प्रिंट, इलेक्ट्रानिक व सोशल) जिम्मेदारी का मजबूत तकाज़ा पेश करेगी और सुनिश्चित करेगी कि बिना सत्यापन ऐसे किसी समाचार का प्रसारण नहीं करेगी जिससे लोगों में संत्रास पैदा हो। जैसा कि सॉलिसिटर जनरल के द्वारा प्रस्तुत किया गया है कि 24 घंटों के भीतर सक्रिय होगी लोगों के मन में शंका को दूर करने हेतु सोशल मीडिया व फोरमों सहित सभी मीडिया माध्यमों के जरिये भारत सरकार द्वारा रोज़ाना बुलेटिन जारी करने की व्यवस्था। हमारा उद्देश्य नहीं है कि महामारी के बारे में खुली चर्चा में व्यवधान पैदा करें पर मीडिया को हम निर्देशित करते हैं कि संक्रमण के विकास के बारे में सरकारी संस्करण का हवाला दें और उसे प्रकाशित करें।’’

यूएन की नागरिक अधिकार उच्च आयुक्त मिशेल बाचेले ने कहा है कि कई एश्यिाई देश कोरोना महामारी का इस्तेमाल इसलिए कर रहे हैं कि अपने देशों में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अंकुश लगा सकें और कई पत्रकारों को गिरफ्तार किया जा रहा है क्योंकि वे अपने देश की सरकार के महामारी पर रिस्पांस की आलोचना कर रहे हैं या केवल महामारी-संबंधित सूचनाओं को साझा कर रहे हैं।

हमने यह भी देखा है कि कैसे भारत में ‘सर्विलांस राज्य’ का विस्तार किया जा रहा है। पहले आधार कार्ड के जरिये यह हो रहा था और अब कोविड-संक्रमित व्यक्तियों के बारे में जानकारी रखने और उन्हें ट्रैक करने के लिए तैयार किया गया आरोग्य सेतु ऐप को मोबाइल फोन में डाउनलोड करना कई नागरिकों के लिए अनिवार्य बना दिया गया। तकनीकी विशेषज्ञों का मानना है कि इससे व्यक्ति के आवागमन पर नज़र रखी जा सकती है; यही नहीं, उसके विषय में जरूरी जानकारी किसी भी एजेन्सी के साथ साझा की जा सकती है और उसे चिरकाल के लिए स्टोर किया जा सकता है। इस ऐप के जरिये व्यक्ति का सोशल ग्राफ तैयार किया जा सकता है-यानी वह किससे मिलता है और कितनी बार, या कहां-कहां जाता है और कितनी बार।

दूसरी ओर, कोविड के समय क्योंकि विरोध प्रदर्शन नहीं हो सकते, सीएए-एनआरसी विरोधी कार्यकर्ताओं की धर-पकड़ में भी काफी तेजी आ गई है। दूसरी ओर राजनीतिक कैदियों को कोविड-संक्रमित कारागारों में मौत से बदतर हालत में रखा गया। कवि वरवर राव और प्रोफेसर साईबाबा इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। घर लौटते गरीब प्रवासी मजदूरों को राहत बांटने के मामले में भी पर बहुत सारे नियम लागू कर दिये गए। उत्तर प्रदेश के कई जिलों में राहत बांट रहे कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को यह कहकर धमकाया और पीटा गया कि उनके पास सरकारी अनुमति नहीं है और वे कानून व्यवस्था में व्यवधान उत्पन्न कर रहे हैं तो उन्हें जेल में ठूंस दिया जाएगा। इतना ही नहीं लगातार प्रवासी मजदूरों के प्रति अप्रत्याशित किस्म की क्रूरता का रवैया, चुनकर मुस्लिमों पर अनवरत अत्याचार ढाना, महिला कार्यकर्ताओं पर अत्याचार बढ़ाना यह रोज की कहानी बन गई।

तमिलनाडु के तूतीकोरिन में एक पिता-पुत्र की जोड़ी को जिस तरह से पुलिस हिरासत में यातना देकर सिर्फ इसलिए मार डाला गया कि उन्होंने कोविड के समय प्रशासनिक निर्देश का पालन नहीं किया यह बताता है कि राज्य मशीनरी इस संकट के दौर में भी किस कदर अमानवीय हो गई है। अमेरिका में जब एक काले नागरिक जॉर्ज फ्लायड को पुलिस ने गर्दन दबाकर मार डाला था, पूरे विश्व में राज्य दमन के विरुद्ध शान्तिपूर्ण आन्दोलन हुआ था, जिसमें श्वेतों ने भी बड़े पैमाने पर हिस्सा लिया था। कुछ ऐसा ही जनाक्रोश  तूतीकोरिन और सोशल मीडिया के जरिये भारत भर में देखा गया।

आज निरंकुशता वैश्विक परिघटना बन चुकी है। आखिर इसके कारण क्या हैं? दरअसल इन तमाम देशों के तानाशाह एक मामले में समान हैं-वे देश में बढ़ रहे संकट पर आंख मूंदे हुए हैं क्योंकि उनके पास स्थिति का मुकाबला करने की न ही इच्छाशक्ति है न काबिलियत। इसके बावजूद वे अपनी सत्ता को बरकरार रखने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखना चाहते। यही कारण है कि उन्हें छोटी से छोटी आलोचना से डर लगता है। जिस प्रकार कोविड संक्रमण से पहले ही आर्थिक मंदी का दौर शुरू हो गया था और अब ‘ग्रेट डिप्रेशन’ जैसा विकराल रूप धारण करने की ओर बढ़ रहा है, ठीक वैसे ही विश्व भर में जो दक्षिणपंथ की हवा चली थी, वह भी एक आंधी का रूप लेती जा रही है। अब देखना है कि क्या यह दौर शीत युद्ध (Cold War) और दो विश्व युद्धों से भी गहरा राजनीतिक संकट पेश करेगा? आज लोकतंत्र के अस्तित्व पर भारी खतरा मंडरा रहा है और जनतंत्र की जगह ले रहा है सर्वसत्तावाद! अब केवल व्यक्तियों और विभिन्न समुदायों की राजनीतिक आज़ादी ही नहीं छीनी जाएगी बल्कि संघीय शक्ति को भी कुचल दिया जाएगा जैसा कि स्पेन और जर्मनी सहित पूरे यूरोप में हो रहा है। पर यह भी सच है कि वैश्विक तौर पर अधिनायकवाद जितना मजबूत होगा उतना ही सशक्त होगा नए लोकतंत्र के लिए विश्व-व्यापी प्रतिरोध।

(कुमुदिनी पति सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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