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कई विकासशील देशों में कर्ज का संकट जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ लड़ाई को कमज़ोर कर रहा :रिपोर्ट

‘जलवायु वित्त पोषण से परे’ शीर्षक से जारी रिपोर्ट में दलील दी गयी कि ऐतिहासिक असमानताओं ने विकासशील देशों को खाद्य सामग्री, ऊर्जा और वस्तुओं के आयात पर निर्भर बना दिया है। इसमें कहा गया है कि अधिक ऋण ने विकास और जलवायु पर ख़र्च करने की उनकी क्षमताओं को सीमित कर दिया है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: New Indian Express

निम्न और मध्यम आय वाले कई देश अपने जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने की तुलना में ऋण भुगतान पर अधिक पैसा खर्च कर रहे हैं, जिससे हरित अर्थव्यवस्था अपनाने में देरी हो रही है। एक नयी रिपोर्ट में यह दावा किया गया।

पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले संस्थान ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरमेंट’ (सीएसई) की यह रिपोर्ट ऐसे समय में आई है, जब दुनिया के नेता गरीबी और जलवायु परिवर्तन से बेहतर ढंग से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली में सुधारों पर चर्चा करने दो दिवसीय शिखर सम्मेलन में पेरिस में एकत्र हो रहे हैं।

‘जलवायु वित्त पोषण से परे’ शीर्षक से जारी रिपोर्ट में दलील दी गयी कि ऐतिहासिक असमानताओं ने विकासशील देशों को खाद्य सामग्री, ऊर्जा और वस्तुओं के आयात पर निर्भर बना दिया है। इसमें कहा गया है कि अधिक ऋण ने विकास और जलवायु पर खर्च करने की उनकी क्षमताओं को सीमित कर दिया है।

रिपोर्ट के अनुसार गरीब और विकासशील देश जलवायु आपदाओं के कारण भी आर्थिक रूप से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। उदाहरण के लिए 2017 में कैरिबियाई द्वीप डोमिनिका में आये तूफान ‘मारिया’ से इस देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के करीब 226 प्रतिशत का नुकसान हुआ था।

पाकिस्तान में 2022 में आई बाढ़ और 2015 में वनुआतू में आये तूफान ‘पाम’ के कारण इन देशों की जीडीपी के क्रमश: नौ प्रतिशत और 64 प्रतिशत के बराबर नुकसान हुआ।

विकासशील देशों में अक्सर सामाजिक और पर्यावरण परियोजनाओं के लिए पर्याप्त धन की कमी होती है और ये आवश्यक गतिविधियों के लिए विदेशी ऋण पर आश्रित रहते हैं।

रिपोर्ट के अनुसार निम्न आय वाले देशों के लिहाज से कर्ज भुगतान 1998 के बाद से सर्वाधिक है।

सीएसई की जलवायु परिवर्तन के लिए कार्यक्रम प्रबंधक अवंतिका गोस्वामी ने कहा कि जलवायु परिवर्तन के कारण नुकसान अधिकतर विकासशील देशों में केंद्रित होते हैं।

उन्होंने कहा, ‘‘इन्हीं देशों को विकसित बनाने में मदद के लिए जलवायु में उत्सर्जन कम करने के लिहाज से ऊर्जा के स्रोत बदलने के लिए वित्त की जरूरत होती है।’’

सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण ने कहा कि ज्यादातर धन मुफ्त नहीं होता और इसे अनुदान के बजाय ऋण या निवेश के रूप में दिया जाता है, जिसका मतलब हुआ कि देशों को इसे लौटाना होता है।

उन्होंने कहा कि इसमें एक समस्या है क्योंकि जिन देशों को धन की जरूरत होती है, उनमें अधिकतर इसे वापस नहीं कर पाते।

सैन फ्रांसिस्को के संस्थान ‘क्लाइमेट पॉलिसी इनीशियेटिव’ (सीपीआई) के अनुसार 2011-2020 की अवधि में जलवायु से जुड़े कुल वित्त का केवल 16 प्रतिशत धन छूट वाला कहा जा सकता है जिसे अनुदान के रूप में या कम ब्याज दरों पर दिया गया।

इसका मतलब हुआ कि जलवायु से जुड़ा बाकी 84 प्रतिशत वित्त बाजार दर पर ऋण के रूप में दिया गया जिसे गरीब और विकासशील देश साफ तौर पर वहन नहीं कर सकते।

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