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G 20: दिहाड़ी मज़दूरों की दास्तान— ''लग रहा है दो दिन हमारे बच्चे भूखे ही रहेंगे''

दिल्ली में G 20 समिट चल रही है। दिल्ली का एक हिस्सा बहुत ही चकाचौंध भरी रोशनी में नहाया है, लेकिन इसी दिल्ली में हम उन प्रवासी मजदूरों से मिले जिनके लिए इन दिनों चूल्हा जलाना मुश्किल हो गया है। 
daily wage laborers

शुक्रवार, 8 सितंबर का दिन...दिल्ली की सड़कों पर कम ट्रैफिक, जगह-जगह बैरिकेडिंग, पुलिस और सुरक्षा बल की तैनाती, जैसे ही हम झंडेवालान मेट्रो से नीचे उतरे सीढ़ियों से लगी सभी दुकानें बंद। इन्हें देखकर दिल्ली में कोरोना काल में लगे लॉकडाउन की याद आने लगी, मेट्रो स्टेशन से चंद कदम की दूरी पर बड़े वाले हनुमान जी (108 फीट) की मूर्ति दिखी, ऐसा लग रहा था ये पूरा इलाका उनकी निगहबानी में है।  हम उसी मूर्ति के नीचे खड़े थे, तभी हमें लेने के लिए गौतम और विनोद आए। ये दोनों प्रवासी मजदूर हैं। दिल्ली कमाने आए ये मजदूर बुरे हालात से गुजर रहे हैं।   

ये दोनों हमें उस कंस्ट्रक्शन साइट पर ले गए जहां वो काम भी कर रहे थे और रह भी रहे थे। जिन हाथों ने इतनी बड़ी इमारत खड़ी कर दी थी वो उसी में प्लास्टिक शीट को घेरकर रह रहे थे। हम जैसे ही उस जगह पर पहुंचे, देखा इन मजदूरों के बच्चे कॉपी किताब लिए खेल रहे थे। वो जगह दिखाते हुए विनोद ने कहा यही है हमारा संसार, जहां हम जिन्दगी काट रहे हैं। 

''जी 20 के दौरान मज़दूरी मिलना मुश्किल''

गौतम और विनोद मध्य प्रदेश के दमोह से दिल्ली कमाने आए हैं उनके साथ ही गांव के क़रीब सात-आठ लोग ( परिवार के साथ) कमाने दिल्ली आए हैं। ये लोग दिल्ली में मजदूरी कर गुज़ार कर रहे हैं। लेकिन ये बताते हैं कि पिछले एक महीने से ठेकेदार ने इनका पैसा नहीं दिया है। और जिस साइट पर काम कर रहे थे उसका काम बंद कर दिया गया है। परेशान परिवारों को किसी तरह दो वक़्त की रोटी के लिए तो कमाना ही थी इसलिए उन्होंने फुटकर ( दिहाड़ी पर ) मजदूरी तलाश करनी शुरू कर दी। लेकिन इनका कहना है कि जी 20 की वजह से वो मजदूरी मिलना भी मुश्किल है क्योंकि काम बंद रहेगा। 

''घर नहीं चल पा रहा''

वे किन हालात में हैं, हमने जानने की कोशिश कि तो गौतम बताते हैं कि '' बच्चों के पेट पालने की कोशिश कर रहे हैं दमोह से आए थे काम करने के लिए, तीन महीने से काम कर रहे हैं, लेकिन अब ना यहां ठेकेदार आ रहा है और ना ही मालिक ना ये हमारे पैसे दे रहे हैं, हम लोग यहां बहुत परेशान हैं, घर नहीं चल पा रहा है, लेकिन बच्चे तो पालने हैं इसलिए जहां भी आस-पास काम मिलता है वहां चले जाते हैं, एक-दो दिन की मजदूरी मिल रही है तो उसी को करके गुज़ारा कर रहे हैं, दिहाड़ी मजदूरी में मुझे पांच सौ और पत्नी को तीन सौ मिलता है उसी से काम चल रहा है, लेकिन अब जी 20 की वजह से जब सब बंद रहेगा तो हम भूखे रहेंगे क्या करेंगे उसी में चलाना पड़ेगा''। 

''आटा भी एक-एक किलो लेकर आ रहे हैं''

दमोह के ही रहने वाले विनोद कहते हैं कि '' हम आठ परिवार है, हम सब एक ही गांव के हैं यहां कमाने आए हैं, लेकिन जहां हम काम कर रहे थे वो बंद पड़ा है, 15 अगस्त के बाद से हमें पैसा भी नहीं मिला। जैसे आठ परिवार हैं तो मान लीजिए कोई आता है कि दो मज़दूर या बेलदार चलिए तो हम लोगों में से दो लोग चले जाते हैं, मान लीजिए उसको पांच सौ रुपया मिला तो वो पैसा हम सब के साथ बांट लेता है तो हमारे बच्चे किसी तरह से पल रहे हैं, फिर जब हम काम पर जाते हैं हम पैसे बांट लेते हैं तो इसी तरह से चल रहा है। और अब जी 20 की वजह से तो लग रहा है हमारे बच्चे भूखे रहेंगे, मैं गुजारिश करता हूं कि सरकार, चाहे केजरीवाल या फिर मोदी जी हमारी मदद करें।''

विनोद आगे बताते हैं कि '' हम आटा भी एक-एक किलो लेकर आ रहे हैं, परिवार में हम पति-पत्नी और दो बच्चे हैं और एक किलो आटा लाएंगे हम दो टाइम बनाते हैं आगे काम लग गया तो ठीक वर्ना ऐसे ही रहना पड़ता है।'' 

''बस ऊपर वाले के भरोसे ही हूं''

इन्हीं लोगों के साथ बंगाल से भी आए तीन मजदूर काम कर रहे थे, ये लोग अपने परिवार के बिना ही दिल्ली कमाने आए हैं, ये लोग भी मजदूरी न मिलने से परेशान थे, इनमें से एक जिनका नाम भारत है, वे बताते हैं कि '' दो दिन का काम मिल गया था तो अगर जी 20 की वजह से काम नहीं मिला तो पिछली दिहाड़ी से ही थोड़ा-थोड़ा करके खर्चा कर रहा हूं'' जब हमने भारत से वापस घर जाने के बारे में पूछा तो उनका कहना था '' अभी तो डेढ़ महीने पहले ही आया हूं, तो वापस कैसे चला जाऊंगा, बस ऊपर वाले के भरोसे ही हूं, इधर-उधर से सौ-पचास मांग कर गुज़ारा करना पड़ेगा'' 

पश्चिम बंगाल से आए देवा मंडल भी काम की तलाश में भटक रहे हैं वो कहते हैं कि '' काम नहीं है, एक-दो दिन इधर-उधर काम मिल जाता था लेकिन अभी काम नहीं है, बस किसी तरह गुज़ारा कर रहा हूं, किसी टाइम खाता हूं किसी टाइम नहीं, किसी से मदद लेकर गुज़ारा कर रहा हूं''।

देवा मंडल दिल्ली आए थे कि कुछ पैसा कमा कर परिवार को भेजेंगे लेकिन अभी उनके लिए ही गुज़ारा करना मुश्किल हो रहा है इसलिए घर एक भी पैसा नहीं भेज पाए, वे कहते हैं कि ''डेढ़ महीने से घर पर कुछ नहीं भेज पाया हूं। पैसे नहीं है इसलिए वापस घर भी नहीं जा सकता''। 

''बच्चों को खिला देते हैं, ख़ुद भूखे रह जाते हैं''  

वहीं मध्य प्रदेश से कमाने आए धर्मदास अहरवाल रुंधे गले से बताते हैं कि '' कभी सौ की मजदूरी मिल जाती है, कभी पचास की, बच्चों को खिला देते हैं, ख़ुद भूखे रह जाते हैं'' हमने धर्मदास से पूछा कि जी 20 के दौरान उनके पास काम है या नहीं तो उनका जवाब था '' नहीं है'' जब हमने उनसे पूछा कि फिर इस दौरान घर कैसे चलेगा तो उनका जवाब था '' दो दिन और भूखे रहेंगे और क्या''। 

''तीन सौ रुपये में क्या आ जाता है''?

इन प्रवासी मजदूरों के परिवार में पति-पत्नी दोनों मजदूरी करते हैं, लेकिन हैरान करने वाली बात है कि पुरुषों को जहां पांच सौ रुपये दिहाड़ी मिलती है वहीं महिलाओं को तीन सौ। हमने पुष्पा से बात की वो बताती हैं कि पूरा दिन काम करती हैं तो उन्हें तीन सौ रुपये की दिहाड़ी मिलती है। पुष्पा बताती हैं कि '' तीन सौ रुपये में क्या आ जाता है? दूध लेंगे, चीनी लेंगे, आधा किलो या एक किलो आटा ले लेंगे उतने में ही चला लेंगे, वो तीन सौ रुपये एक दिन में ही ख़त्म हो जाता है''। 

हमने जानने की कोशिश की ऐसे में इन प्रवासी मजदूरों के बच्चे किस हालत में हैं? रामसखी बताती हैं कि '' बच्चों के लिए दूध तो दूर की बात है खाने के लिए मिल जाए वही बड़ी बात है, एक दिन काम मिलता है आठ दिन बैठते हैं, क्या खिलाएं, क्या हम खाएं''।

इन प्रवासी मज़दूरों में कुछ ऐसे भी थे जो कोरोना काल में दिल्ली से पैदल ही अपने घरों को निकल गए थे, रामसखी बताती हैं कि '' उस वक़्त मेरा बेटा दिल्ली में था चार दिन में भूखा-प्यासा घर पहुंचा था'' विनोद भी पैदल जाने वालों में थे वे बताते हैं कि '' मैं झांसी तक पैदल गया था वहां पुलिस वालों ने मुझे एक डंपर में बैठाया था तो मैं घर पहुंचा था''। 

''गांव में मज़दूरी होती तो दिल्ली क्यों आते''

हमने उनसे पूछा कि वो वापस दिल्ली क्यों कमाने आए हैं? तो वो कहते हैं कि '' गांव में काम नहीं है, वहां भी हम लोग परेशान रहते हैं, यहां आते हैं तो कुछ कमा कर ले जाते हैं, हमारे बच्चे प्राइवेट स्कूल में पढ़ रहे हैं, उनकी फीस, सामान के लिए हम यहां कमाने आए हैं, गांव में मजदूरी होती तो दिल्ली क्यों आते। आए हैं ताकि बच्चों को पढ़ा सकें, हमारी जिन्दगी तो जैसी-तैसी कट रही है लेकिन बच्चों की कुछ सुधर जाए बस यही कोशिश कर रहे हैं।'' 

महिला मज़दूर 

मजदूरी न मिलने से परेशान ये लोग कहते हैं कि '' ऐसे हालात हैं कि यहीं कमाया, यहां गंवाया जैसे हालात है क्या लेकर जाएंगे? किसी दिन भूखे सोते हैं किसी दिन खाना मिल जाता है, हम मियां-बीवी भूखे सो सकते हैं लेकिन दो बच्चे हैं क्या ये भूखे सो सकते हैं, और अगर हमने इन्हें भूखा सुला दिया तो हमारे जीवन का क्या मतलब है? अगर हमारा काम नहीं लगा तो हमारे भूखे मरने की नौबत आ जाएगी, दो दिन काम नहीं मिलेगा, सब बंद पड़ा है, अब हम क्या करेंगे, हमारे बच्चे भी भूखे रहेंगे, हम भी भूखे रहेंगे''। 

ये प्रवासी मजदूर ही नहीं बल्कि दिल्ली के कई इलाकों में रेहड़ी-पटरी लगाने वाले लोग जी 20 के दौरान घर पर बैठे हैं, इस दौरान ये किसी तरह से गुज़ारा तो कर लेंगे, लेकिन ये 'किसी तरह' क्या होता है इसका अंदाज़ा किसी को है? 

हमने सामाजिक कार्यकर्ता रेखा सिंह से बात की उन्होंने हमें बताया कि '' जो लोग रेहड़ी-पटरी पर सब्जी या फिर कुछ और बेचते थे उन्हें भी हटा दिया, अगर लॉकडाउन करेंगे तो मजदूर खाना कहां से खाएगा, जब कमाएगा ही नहीं तो खाएगा कहां से'' ? 

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पूरी दिल्ली इस वक़्त जी 20 के पोस्टर से पटी पड़ी है, जिसपर लिखा है ''एक पृथ्वी, एक परिवार और एक भविष्य'' तो आख़िर एक परिवार में इन प्रवासी मज़दूरों की क्या जगह है? और क्या है इनका भविष्य? कभी कोरोना में पैदल अपने घरों को निकल जाना तो कभी तीन सौ रुपये की दिहाड़ी का इंतज़ार? 

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