आप दुखी न हों, आप तो यही चाहते थे सरकार!
आग का क्या है, पल दो पल में लगती है
बुझते-बुझते एक ज़माना लगता है
(कैफ़ भोपाली)
वाकई राजधानी दिल्ली आग में झुलस रही है। लेकिन आप दुखी या चिंतित न हों सरकार। न इसका दिखावा करें, क्योंकि आप जो चाहते थे, वही तो हो गया…!
हां, आप यही सब तो चाहते थे!
वरना क्या वजह है कि दिल्ली समेत देशभर में दो महीने से ज़्यादा समय से नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के ख़िलाफ़ आंदोलन चल रहा है और आपके कानों पर जूं तक न रेंगी। आप तो और बढ़-चढ़कर कहने लगे कि पुनर्विचार का सवाल ही नहीं, एक इंच न पीछे हटेंगे।
वरना क्या वजह है कि हमारी शीर्ष अदालत भी सीएए को लेकर दायर की गईं 144 याचिकाओं को सुनने की बजाय, इस कानून की संवैधानिकता जांचने की बजाय सबसे पहले शाहीन बाग़ का रास्ता खुलवाने के काम में जुट गई।
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वरना क्या वजह है कि 'छोटे सरकार' (केजरीवाल सरकार) चुनाव जीतने के बाद भी इस मसले के हल के लिए कुछ ठोस नहीं करते। कुछ न करते लेकिन अपना स्टैंड तो साफ करते! विधानसभा में कोई प्रस्ताव लाने की बात तो करते! लेकिन नहीं...
और उस दिल्ली में जिसके वे दुलारे बेटे होने का दावा करते हैं, आग लगने के बाद भी शांति-सद्भाव के लिए लोगों के बीच जाने की बजाय घर बैठकर ट्वीट न करते रहते।
बड़े सरकार (मोदी-शाह सरकार) क्या वजह है कि पहले दिन से ही आपकी तरफ़ से सीएए-एनआरसी के मसले को हिन्दू बनाम मुसलमान बनाने की कोशिश की जा रही है। आपकी हर सभा में इसी को लेकर बात की गई। शाहीन बाग़ की औरतें जब यह कह रहीं थी कि ये संविधान बचाने की लड़ाई है, आप तब भी इसे हिन्दू-मुसलमान में बांटने की कोशिश करते दिख रहे थे। इस कानून से हिन्दू-मुसलमान सभी चिंतित थे लेकिन आप चिंता के नाम पर भी यही कह रहे थे कि "मुसलमान इस कानून से न डरें"।
ऐसा क्यों है कि जिस दिन हमारे गृहमंत्री अमित शाह दिल्ली चुनाव का शुभारंभ करते हुए टुकड़े-टुकड़े गैंग को सबक सिखाने की बात करते हैं उसी दिन जेएनयू में हमला होता है और पुलिस बाहर मूकदर्शक बनी खड़ी रहती है।
जिस दिन गृहमंत्री शाहीन बाग़ में करंट लगाना चाहते हैं, जिस दिन सांसद और मंत्री अनुराग ठाकुर 'गोली मारो…' का नारा देते हैं। सांसद प्रवेश वर्मा कहते हैं कि 'ये लोग आपके घरों में घुस आएंगे...' , उन्हीं दिनों में जामिया और शाहीन बाग़ में गोली चल जाती है। दो नौजवान कट्टा-रिवाल्वर लहराते हुए गोली चलाते हैं और बचने के लिए पुलिस की ओर भागते हैं।
जिस दिन बीजेपी के हारे हुए खिलाड़ी कपिल मिश्रा अपने समर्थकों को लेकर सड़क पर उतरते हैं और पुलिस के सामने रास्ते खोलने के लिए तीन दिन का अल्टीमेटम देते हैं उसी दिन दिल्ली में दंगा हो जाता है। हालांकि मैं इसे दंगा नहीं बल्कि सुनियोजित हमला कहूंगा।
सांसद जी ने चुनाव जीतने के एक घंटे के भीतर शाहीन बाग़ खाली कराने का ऐलान किया था और चुनाव हारने के बाद यह ज़िम्मेदारी कपिल मिश्रा ने ले ली। क्योंकि बीजेपी में उनके होने पर ही सवाल उठने लगा है। इसलिए किसी तरह तो उन्हें अपनी उपयोगिता साबित करनी थी।
क्या वजह है कि जेएनयू के हमलावर आज तक नहीं पकड़े जाते। जामिया में बर्बरता के लिए किसी की ज़िम्मेदारी तय नहीं होती।
उत्तर प्रदेश में 23 लोगों की मौत हो जाती है लेकिन शासन-प्रशासन यह दावा करते रहते हैं कि पुलिस ने गोली नहीं चलाई। जब गोली चलाने के सुबूत सामने आ जाते हैं तब कहा जाता है कि पुलिस की गोली से कोई नहीं मरा। जब पुलिस की गोली का भी सुबूत मिलता है तो कहा जाता है कि सेल्फ डिंफेंस में मारा गया। और ये सब बातें भूलकर एक बार फिर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मुस्करा कर कहते हैं कि पुलिस की गोली से कोई नहीं मरा।
लेकिन दिल्ली में एक हेड कॉन्सेटबल की मौत के तुरंत बाद मीडिया बिना पल गंवाए कहने लगती है कि सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों की हिंसा में हेड कॉन्सेटबल की मौत हो गई। ऐसी ख़बरें चलाई जाती हैं, ऐसे हैडिंग लगाए जाते हैं कि एक वर्ग विशेष के प्रति अन्य लोगों का गुस्सा भड़क जाए।
इस हिंसा में हेड कॉन्सेटबल रतनलाल की जान जाना बेहद दुखद है, उन्हें शहीद कहा जाना चाहिए, क्योंकि उन्होंने अपनी ड्यूटी पर अपनी जान गंवाई। लेकिन उनकी शहादत को सलाम करते हुए भी ये सवाल तो पूछा जाना चाहिए कि पुलिस प्रशासन बताए कि उनकी मौत की वजह क्या है और बिना जांच-पड़ताल के कैसे मीडिया ने तुरंत ये चला दिया कि सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों ने उन्हें मारा। ये भी सवाल पूछा जाना चाहिए कि हेड कॉन्सेटबल समेत अब तक मारे गए सात लोगों की हत्या का दोषी कौन है। कौन लेगा ज़िम्मेदारी। क्या वही लोग जो अपने हर काम को ऐतिहासिक और अभूतपूर्व बताते हैं।
और अंत में अहम सवाल जो सीएए-एनआरसी विरोधी हर प्रदर्शनकारी बार-बार पूछ रहा है कि जब उनका आंदोलन दो महीने से भी ज़्यादा समय से शांतिपूर्वक चल रहा है तो क्या वजह है कि जब-जब सीएए समर्थक सड़कों पर उतरते हैं या उतारे जाते हैं तो हिंसा होती है?
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सच्चाई यही है कि आज जो कुछ घटा है या घट रहा है, उसका माहौल बहुत मेहनत से बरसों से बनाया जा रहा है। लोगों के ज़ेहन में एक-दूसरे के ख़िलाफ़ नफ़रत भरी जा रही है। और उसी नफ़रत के ज़हर का प्रयोग सत्ता पाने, बचाने और बढ़ाने के लिए बार-बार किया जाता है। लेकिन इस बार हमला बड़ा है और निशाना हमारा संविधान है, ताकि उसे ध्वस्त कर एक 'अंधे-राष्ट्र' का निर्माण किया जा सके।
लेकिन अंत में अल्लामा इक़बाल का तराना-ए-हिंद "सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा" याद आता है जिसमें कहा गया है कि
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा
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