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“हम किसे सुनाएं और फिर हम मज़दूरों की सुनेगा भी कौन?”

बड़ा सवाल यह है कि क्या सरकारी योजनाओं का लाभ दिहाड़ी मज़दूरों तक पहुंच पाता है? क्या उन्हें न्यूनतम मज़दूरी मिल पाती है?
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हाल ही में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने घोषणा की - दिल्ली में हर श्रमिक को मकान मिलेगा। दिल्ली डीटीसी बस मे मुफ़्त सफ़र का पास मिलेगा। बीमा योजना, कौशल विकास प्रशिक्षण आदि कई सुविधाएं देने की बात की। न्यूनतम मज़दूरी को भी बढ़ा दिया गया है। पर बड़ा सवाल यह है कि क्या सरकारी योजनाओं का लाभ दिहाड़ी मज़दूरों तक पहुंच पाता है? क्या उन्हें न्यूनतम मज़दूरी मिल पाती है? बता दें कि दिल्ली मे 13 लाख तो पंजीकृत मज़दूर हैं। गैर पंजीकृत को मिलाएं तो यह संख्या बहुत अधिक है।

भवन निर्माण मज़दूर पूंजीपतियों के लिए आलीशान इमारतें बनाते हैं पर स्वयं झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने को विवश होते हैं। पर आज हम आपको कुछ ऐसे मजदूरों से रूबरू करा रहे हैं जो अमीरों के लिए आलीशान बिल्डिंगे तो बनाते हैं - पर खुद उनके पास एक झोपड़ी भी नहीं होती। जी हां, ये वो मज़दूर हैं जिनके लिए ठेकेदार बिल्डिंग के सामने एक छोटी-सी कोठरी बना देता है जो इनके रहने और बिल्डिंग मैटेरियल के स्टोर रूम दोनों के काम आती है। ये मज़दूर इस छोटी-सी बनाई गयी झोंपड़ी में सपरिवार रहते हैं। इनकी महिलाएं यानी मजदूरिनें बेलदारी का काम करती हैं। यदि आप हिन्दी साहित्य में रूचि रखते हैं तो इन महिला मज़दूरों को फावड़ा चलाते देखकर निराला की ‘‘तोड़ती पत्थर’’ कविता याद आ सकती है। छोटे बच्चे भी इन मज़दूर माता-पिता की यथासंभव मदद करते नजर आते हैं। पर इन बच्चों को कोई मज़दूरी नहीं मिलती। और न इन्हें बाल मज़दूर कहा जाता है। हालांकि ये जो करते हैं वह बाल मज़दूरी ही है। मज़दूर वर्ग सपरिवार अमीरों के लिए सुंदर-सुंदर इमारतें बनाता है। और स्वयं अल्प मज़दूरी में किसी प्रकार अपना जीवन यापन करता है। इनकी आजीविका की सुरक्षा भी नहीं है। इमारत बनाने का काम खत्म - इनका रोजगार भी खत्म। फिर कहीं और मज़दूरी के लिए भटकना।

इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में यह सब हम और आप अपने आसपास या शहर में रोज़ देखते हैं। ऐसे में कार्ल मार्क्स की विचारधारा और साथियों की बहसें याद आती हैं। वर्गहीन समाज निर्माण की बातें याद आती हैं। तब महसूस होता है कि आदर्श, कल्पना और यथार्थ कितने अलग-अलग होते हैं।

कैसे हो बच्चों का स्कूल जाना – न घर है न ठिकाना

बिल्डिंग निर्माण में लगे ऐसे ही एक मिस्त्री, मज़दूर और बेलदारी करने वाले परिवार से बात हुई। इस परिवार के मुखिया हैं - प्रसादी लाल (33) जो स्वंय को राजमिस्त्री बताते हैं। हमने उनसे पूछा कि आपका दिल्ली में आगमन कब हुआ है? मूलरूप से कहां के रहने वाले हैं? उन्होंने बताया कि पांच-छह वर्ष पहले उनका दिल्ली आना हुआ। वह मूल रूप से मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले के ताललधौरा गांव के रहने वाले हैं। दलित हैं। पढ़े-लिखे नहीं हैं। वह बताते हैं कि वह तीन भाई हैं उनकी एक बहन है। माता-पिता ने मज़दूरी करते हुए हम भाई-बहनों का पालन-पोषण किया। शादी-विवाह किए। जैसे आज मेरे बच्चे काम में मेरी मदद करते हैं - उसी तरह हम भी अपने माता-पिता की उनकी मज़दूरी में मदद करते थे। पढ़ने-लिखने की न हमें फुरसत थी और न मां-बाप ने हमें पढ़ाना जरूरी समझा।

ये पूछने पर कि आपके कितने बच्चे हैं। प्रसादी ने पास में खेल रहे बच्चों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं तीन बच्चे हैं। सबसे बड़ी लड़की प्रेमाबाई (12), दूसरी प्रीति (9) और बेटा अजय (6)। उनसे ये पूछने पर कि क्या ये बच्चे स्कूल जाते हैं। वह कहते हैं - नहीं। सा’ब हमारे रहने का घर या ठिकाना नहीं है। जहां काम मिलता है - वहीं ठेकेदार रहने के लिए झोपड़ी डलवा देता है। जब तक बिल्डिंग बनाने का काम चलता है - अपना बसेरा वहीं हो जाता है। फिर काम खत्म। बसेरा खत्म। फिर दूसरी जगह काम - वहीं बसेरा। ऐसे में बच्चों को स्कूल में कैसे पढ़ाएं?

प्रसादी से यह पूछने पर कि आपको कितनी मज़दूरी मिलती है। वह बताते हैं कि सा’ब मैं पहले मज़दूरी करता था फिर राजमिस्त्रियों से काम सीखा। अब मैं राजमिस्त्री का काम करता हूं। मेरा भाई और पत्नी बेलदारी का काम करते हैं। बच्चे भी काम मे हाथ बंटा देते हैं। अभी मुझे 500 रुपये प्रतिदिन और भाई और पत्नी को 300 रुपये प्रत्येक को मिलते हैं। हालांकि चौक से ठेकेदार जिन राजमिस्त्रियों को लेकर आता है - वह 600-700 रुपये दिहाड़ी लेता है। चौक के मज़दूर 350-450 रुपये दिहाड़ी लेते हैं। पर क्योंकि हमें ठेकेदार ज्यादा दिनों तक काम देता है। रहने का इंतजाम वहीं कर देता है। इसलिए हमें मज़दूरी कम देता है। पर हमें भी यह सहूलियत होती है कि हमें किराया नहीं देना पड़ता और मज़दूरी भी ज्यादा दिनों के लिए मिल जाती है।

उनसे ये पूछने पर कि आप किराये पर कमरा लेकर क्यों नहीं रहते? वह बताते हैं कि - देखिए पहली बात तो यह है कि ठेकेदार जहां काम वहीं हमारी झुग्गी डलवा देता है - इससे हमारा किराया बचता है। दूसरी बात ये है कि हमारा काम एक जगह फिक्स तो होता नहीं। अब बार-बार कहां कमरा बदलते रहें।

प्रसादी से उनके बच्चों के भविष्य के बारे में पूछने पर बताया कि लड़कियों के जवान होने पर शादी कर दूंगा। सा‘ब शादी के बाद भी हमारी लड़कियों को मज़दूरी ही करनी पड़ती है। जैसे मेरी बीवी मेरे साथ करती है। रही लड़के की बात - तो जब यह बड़ा हो जाएगा तो इसको भी मिस्त्री का काम सिखा दूंगा। जिससे कि अपने परिवार का पेट पाल सके।...

मैं प्रसादी की बातें सुन रहा था। साथ ही उसके पास खेल रहे तीनो बच्चों को देख रहा था। इन बच्चों की स्कूल जाने की उम्र है। पर...

“सब ठेकेदार एक जैसे नहीं होते”

इसी प्रकार अरविंद (30), एक दिहाड़ी मज़दूर ये पूछने पर कि क्या आपको पता है कि अभी न्यूनतम मज़दूरी कितनी है? क्या ठेकेदार आपका शोषण करते हैं? वह कहते हैं ठेकेदार हम मजदूरों को रखते हैं। हम जानते हैं कि ठेकेदार हमें पूरी मज़दूरी नहीं देते। पर हमें काम देते हैं। इसलिए हम बुरा नहीं मानते। क्योंकि मज़दूरी ही हमारी मजबूरी है। कई बार ठेकेदार हमारी दिहाड़ी मज़दूरी भी मार लेते हैं। कहते हैं कि मालिक ने पैसा नहीं दिया। अब हम तो जानते नहीं कि मालिक ने उन्हें पैसा दिया या नहीं। दूसरी बात है कि हमने काम किया है तो हमें मजूदरी तो मिलनी ही चाहिए। पर ठेकेदारों से बहस कौन करे? वैसे सब ठेकेदार ऐसे नहीं होते। ज्यादातर तो हमें मज़दूरी समय पर दे देते हैं। कुछ ठेकेदार अच्छे होते हैं तो कुछ बुरे भी होते हैं। कुछ ठेकेदार तो मज़दूर महिलाओं का यौन-शोषण भी करते हैं।

“अपनी मेहनत का खाते-कमाते हैं”

आम मेहनतकश इंसान पर ‘रोज कुआं खोदना रोज पानी पीना’ वाली कहावत चरितार्थ होती है। ये आम इंसान आपको रोजमर्रा के काम करते हुए मिल जाएंगे। अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए मेहनत-मज़दूरी करना अनिवार्य है।

मूलरूप से उत्तराखण्ड के मुजफ्फरनगर के गांव खेड़ा कुरतांन के रहने वाले पचहत्तर वर्षीय चमनलाल जटिया जी जूते गांठ और पोलिस कर अपनी जीविका चलाते हैं। उनका कोई बेटा नहीं है। एक लड़की है जो शादीशुदा है। पत्नी की मृत्यु हो चुकी है। वे बेटी पर बोझ नहीं बनना चाहते। इसलिए कहते हैं कि जब तक हाथ-पांव चल रहे हैं क्यों किसी की कृपा-दया पर पलें। क्यों बोझ बनें। वे पिछले 48 साल से दिल्ली में रह रहे हैं। उनसे यह पूछने पर कि इस मोची के काम से आपका खर्चा चल जाता है। वे बताते हैं कि - हां खाने भर को मिल जाता है। फिर अब बुढ़ापे में मुझे दो रोटी के अलावा और क्या चाहिए। पर उन्हें इस बात का एहसास जरूर है कि अगर स्वाभिमान से जीना है तो अपनी मेहनत पर भरोसा करना चाहिए। इसी दौरान उनके पास एक कस्टमर आ जाता है और वे उसके जूतों की पॉलिश करने लग जाते हैं।

केले की रेहड़ी लगाने वाले राधेश्याम वर्मा (45) बताते हैं कि उनके पांच बच्चे हैं दो लड़के और तीन लड़कियां। उनका एक लड़का विकलांग है। बड़ी लड़की की शादी कर चुके हैं। बाकी बच्चे अभी स्कूल में पढ़ते हैं। राधेश्याम जी बलजीत नगर में किराए पर रहते हैं। उनका कहना है कि वे रेहड़ी पर फल बेचकर किसी तरह गुजारा कर रहे है। पर वे चाहते हैं कि उनके बच्चे ये काम न करें। वे पढ़-लिखकर कुछ अच्छा काम करें। उनसे यह पूछने पर कि रेहड़ी पर फल बेचने में क्या परेशानी आती है। वे बताते हैं कि कमिटी वाले और पुलिस वाले उनसे महीना लेते हैं। एक पुलिस वाले को दे दो तो दूसरा पुलिसवाला आ जाता है। अपने बच्चों का पेट पालें या इन पुलिस वालों और कमेटी वालों को दें। बड़ी मुश्किल से गुजारा होता है।

इनके अलावा भी सड़क पर कुछ और मेहनतकश लोगों से मुलाकात होती है। बुजुर्ग बब्बन जी गुब्बारे वाले को ही ले लीजिए। कहने को उनके तीन बेटे हैं पर बाप को दो रोटी देने वाला कोई नहीं है। जब शरीर में जान थी तब मेहनत मज़दूरी करके बच्चों को पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया, शादी-विवाह किए। पर अब बाप का पेट भरने के लिए उनके पास पैसा नहीं है।

राजू दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं। बीस-बीस ईंटे लादकर राजमिस्त्री के पास ले जाते हैं। पूरे दिन हाड़-तोड़ मेहनत के बाद उन्हें ठेकेदार तीन सौ रुपये देता है।

इतवारी लाल चावड़ी बाजार में बोझा ढोने का काम करते हैं। माल को ईधर से उधर पहुंचाते हैं। और इसी तरह अपनी दिहाड़ी कमाते हैं। उनसे पूछने पर कि क्या आप को सरकार से कुछ उम्मीद होती है कि वह आप जैसे मजदूरों के लिए आपके परिवार के लिए आपके बच्चों के लिए कुछ सुविधाएं दे। वे कहते हैं सरकार से क्या उम्मीद करें। और क्या अपनी समस्याएं बताएं। कोई सरकारी अधिकारी हमारी सुध लेने नहीं आता। फिर किसे अपना दर्द सुनाएं? और फिर वो सुनेगें भी तो बड़े लोगों की सुनेगें। हम मजदूरों की कौन सुनेगा?

बलजीत नगर के पास पंजाबी बस्ती की रहने वाली कश्मीरो अपने बच्चों का पेट पालने के लिए ई-रिक्शा चलाती हैं। पति को शराब पीने की बुरी लत है। वह घर-परिवार पर ध्यान नहीं देता। कश्मीरो ने किसी प्रकार ई-रिक्शा का इंतजाम किया है। वह स्वयं रिक्शा चलाती हैं ताकि बच्चों की परवरिश हो सके।

इस तरह ये छोटे-छोटे काम करने वाले मेहनतकश अपनी मेहनत की कमाई खाते हैं। बच्चों के पालन-पोषण के साथ उनकी पढ़ाई-लिखाई, शादी-विवाह सभी कर्तव्य पूरे करते हुए एक सामान्य जीवन बिताते हैं। सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्य की ये सरकार से कोई उम्मीद नहीं रखते। जीवन के तजुर्बे ने इन्हें सिखा दिया है कि सरकार और राजनेताओं को इनकी तभी याद आती है जब इनसे वोट लेने होते हैं।

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