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चुनावी बांड: एसबीआई ने अधिक समय मांग कर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का किया उल्लंघन  

समस्या का यह केवल एक पहलू है कि 'डिजिटल इंडिया' समय पर चुनावी बांड डेटा एकत्र नहीं कर सकता है। लेकिन बड़ा मुद्दा यह है कि भारतीय स्टेट बैंक की तरफ से अधिक समय की मांग वाली याचिका चुनावी फंडिंग में उसी गोपनीयता को बढ़ावा देती है जिसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने सर्वसम्मत से अपना फैसला दिया था। 
SBI

भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने 4 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के सामने दायर एक आवेदन में दलील दी है कि 6 मार्च तक भारत के चुनाव आयोग को दानकर्ताओं की जानकारी उपलब्ध कराने के 15 फरवरी, 2024 के अदालत के आदेश के मुताबिक प्रत्येक चुनावी बांड की खरीद से संबंधित विवरण, बांड के खरीदार का नाम, इसे हासिल करने वाली राजनीतिक पार्टी और बांड का मूल्य बताना मुश्किल होगा। 

इसलिए, सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करने के लिए 30 जून, 2024 तक यानी तीन महीने से अधिक का समय मांगा गया है। इसका मतलब यह है कि जहां सुप्रीम कोर्ट 2024 के आम चुनाव शुरू होने से पहले चुनावी बांड का विवरण सार्वजनिक करना चाहता था, वहीं भारतीय स्टेट बैंक ने अपने आवेदन में चुनाव के बाद ऐसा करने की मांग की है। 

चुनावी बांड योजना ने अदालतों को बांड का विवरण हासिल करने का मेंडेट दिया है

इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम (ईबीसी), 2018 के खंड 7 की धारा (4) के स्पष्ट प्रावधान के सामने एसबीआई की ऐसी दलील बिल्कुल भी उचित नहीं लगती है, जिसमें कहा गया है कि, “खरीदार द्वारा प्रस्तुत की गई जानकारी को अधिकृत बैंक द्वारा गोपनीय रखा जाएगा और किसी सक्षम अदालत द्वारा मांग किए जाने या किसी कानून प्रवर्तन एजेंसी द्वारा आपराधिक मामला दर्ज किए जाने के बाद इसकी जानकारी देनी होगी, उक्त के अलावा, किसी भी उद्देश्य के लिए किसी भी प्राधिकारी को इसका खुलासा नहीं किया जाएगा।

ईबीसी में ही यह भी साफ तौर पर स्पष्ट किया गया है कि जब अदालत चुनावी बांड के विवरण का खुलासा करने की मांग करती है तो ऐसा किया जाना चाहिए, इसलिए ऐसे में एसबीआई के पास इस संबंध में अदालत के आदेशों का पालन करने के अलावा कोई चारा नहीं है।

इसलिए 2018 में चुनावी बांड योजना की शुरुआत से ही, कानून न्यायपालिका को यह अधिकार देता है कि वह चुनावी बांड किसने खरीदा, उनका भुगतान किसे किया गया और उन बांडों को खरीदने में कितनी राशि शामिल थी, इसकी जानकारी के लिए आदेश जारी करने का अधिकार दिया है।

कानून के उपरोक्त खास प्रावधानों के अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में चुनावी बांड की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए, उस वर्ष 12 अप्रैल को एक आदेश जारी किया था जिसमें एसबीआई को चुनावी बांड खरीदने वाली राजनीतिक पार्टियों और उस उद्देश्य के लिए भुगतान की गई राशि के सभी विवरणों के साथ एक रिकॉर्ड बनाए रखने का निर्देश दिया गया था। 

यह ध्यान देने योग्य बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने 15 फरवरी के अपने फैसले में चुनावी बांड योजना को असंवैधानिक बताते हुए ईबीसी के खंड 7 की धारा (4) पर एक बहुत ही प्रासंगिक टिप्पणी की थी।

इसमें भारत संघ के तर्क का उल्लेख किया गया है, "चुनावी बांड योजना का खंड 7(4) मतदाता के सूचना के अधिकार और योगदानकर्ता की सूचनात्मक गोपनीयता के अधिकार को संतुलित करता है"।

अदालत ने खंड 7(4) के स्पष्ट प्रावधान के संदर्भ में केंद्र सरकार के रुख की जांच की, जिसमें कहा गया है कि खरीदार द्वारा दी गई जानकारी को अधिकृत बैंक द्वारा गोपनीय माना जाएगा और उसे जानकारी का तब खुलासा करना होगा जब किसी सक्षम न्यायालय द्वारा या किसी कानून प्रवर्तन एजेंसी द्वारा आपराधिक मामला दर्ज करने पर मांग की जाती है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, "इसका विश्लेषण करने की जरूरत है, यदि योजना में दिया गया उपाय [खंड 7(4)] अधिकारों को संतुलित करता है या संतुलन को मौलिक अधिकारों में से एक की ओर झुकाता है।" 

इसके बाद कहा गया, “भारत संघ यह स्थापित करने में असमर्थ रहा है कि चुनावी बांड योजना के खंड 7(4) में नियोजित उपाय राजनीतिक योगदान के लिए सूचनात्मक गोपनीयता के अधिकारों और अधिकार को संतुलित करने और राजनीतिक योगदान की जानकारी का सबसे कम प्रतिबंधात्मक साधन है।”

ऐसा कहते हुए, कोर्ट ने चुनावी बांड के माध्यम से राजनीतिक दलों द्वारा हासिल धन के संबंध में जानकारी के मामले में मतदाताओं के अधिकार को प्रधानता दी है।

यह उल्लेख किया जा सकता है कि एसबीआई, सुप्रीम कोर्ट के 2019 के आदेश के बाद जारी किए गए चुनावी बांड के रिकॉर्ड को बनाए रखने के लिए कदम उठाने को बाध्य था, जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है।

तार्किक रूप से, यह नतीजा निकलता है कि वह रिकॉर्ड डिजिटल या भौतिक रूप में आसानी से उपलब्ध होना चाहिए था। कुछ दिनों में विवरण प्रस्तुत करने में एसबीआई को शायद ही कोई कठिनाई होनी चाहिए थी। 

दरअसल सुप्रीम कोर्ट के 2019 के आदेश के बाद चुनावी बांड के रिकॉर्ड को इस तरह से रखा जाना चाहिए था ताकि वह तीन महीने में नहीं बल्कि बिना किसी देरी के अदालत में विवरण जमा कर सके।

सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश के आधार पर, एसबीआई को उन बांडों की एक सूची तैयार करनी चाहिए थी और बिक्री के लिए उन बांडों के खुलने के आधार पर समय-समय पर इसे अपडेट करना चाहिए था।

इसका मतलब यह है कि तैयार की गई सूची में नवीनतम जानकारी हासिल करने में केवल कुछ दिन लगने चाहिए और यह इस साल 15 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट द्वारा फैसला सुनाए जाने के बाद की अवधि में किया जा सकता था।

एसबीआई का अधिक समय मांगना अनुचित है

यह बिल्कुल समझ से परे है कि जब मोदी सरकार 'डिजिटल इंडिया' के बारे में इतनी बयानबाजी करती रहती है और सूचनाओं को डिजिटल रूप से संग्रहीत करने का श्रेय लेने के लिए आक्रामक प्रचार लगातार करती है, तो चुनावी बांड से संबंधित विवरणों का खुलासा करने के लिए तीन महीने से अधिक समय की क्यों जरूरत पड़ रही है।

बताया गया है कि कुल 44,000 चुनावी बांड हैं और उनमें से आधे का विवरण 2019 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद दर्ज किया जाना चाहिए था।

यह बहुत संभव है कि 22,000 बांडों वाला अन्य आधा भाग डिजिटल रूप में उपलब्ध न हो, इसलिए एसबीआई इस वर्ष 30 जून तक उन विवरणों को पेश करने के उद्देश्य से ऐसा करने के लिए अधिक समय चाहता है।

इस युग में, जब इलेक्ट्रॉनिक व्यवसाय बिजली की गति से आगे बढ़ रहा है और डिजिटल रूप से जुड़े कार्यालयों के अपने विशाल नेटवर्क के साथ एसबीआई के पास त्वरित गति से भारी मात्रा में काम निपटाने का एक सिद्ध रिकॉर्ड है। इसलिए, उन चुनावी बांडों से संबंधित जानकारी के विवरण को संसाधित करने में तीन महीने नहीं लगेंगे।

एसबीआई का अधिक समय मांगना सूचना के अधिकार को कमजोर करता है

सुप्रीम कोर्ट ने 15 फरवरी, 2024 के अपने फैसले में कहा था कि चुनावी बांड से जुड़ी गोपनीयता, लोगों को राजनीतिक दलों द्वारा हासिल फंडिंग का विवरण जानने से वंचित करती है और इसलिए उनके सूचना के अधिकार का उल्लंघन होता है।

यही वह तर्क है जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का आधार बना, जिसने चुनावी बांड को असंवैधानिक घोषित किया। चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता बनाए रखने के लिए राजनीतिक दलों की फंडिंग के बारे में जानने का लोगों का अधिकार बहुत जरूरी है।

तीन महीने के बाद चुनावी बांड के बारे में जानकारी का खुलासा करने के एसबीआई के आवेदन में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार को समाप्त करने की क्षमता है।

चुनावी बांड के विवरण साझा करने के लिए एसबीआई द्वारा अधिक समय मांगे जाने से लोगों को यह महसूस होता है कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा हासिल धन पर पर्दा डालने का प्रयास किया जा रहा है, जिसे 16,000 करोड़ रुपए से अधिक धन प्राप्त हुआ है। इसके विपरीत विपक्षी दलों को बहुत कम राशि मिली है। 

विवरण देने में देरी करने से स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का उद्देश्य पूरा नहीं होगा, जिसे संविधान की मूल संरचना माना गया है।

यदि एसबीआई का आवेदन उस बुनियादी ढांचे के अनुरूप नहीं है तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसे निपटाया जाना चाहिए ताकि वह चुनावी बांड पर संविधान और संवैधानिक नैतिकता पर दिए गए अपने 15 फरवरी के फैसले पर दोबारा से मुहर लगा सके। 

पृष्ठभूमि 
चुनावी बांड योजना वित्त विधेयक, 2017 के माध्यम से पेश की गई थी, जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, (आरपीए) 1951; आयकर अधिनियम, 1961; कंपनी अधिनियम, 2013 और विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, (एफसीआरए) 2010 में संशोधन कर लाया गया था।

इसे भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 की धारा 31 (डिमांड बिल और नोट जारी करना) में संशोधन करके अधिसूचित किया गया था।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 19(1)(ए), 21 के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर संशोधनों को चुनौती देते हुए कई याचिकाएं दायर की गईं थीं।

याचिकाकर्ताओं द्वारा यह तर्क दिया गया कि चुनावी योजना "हमारे लोकतंत्र की जड़" को कुतरती है। उत्तरदाताओं ने इस योजना का बचाव करते हुए कहा कि यह "चुनावों में अशुद्ध और काले धन को खत्म करने" के लिए महत्वपूर्ण है। 

असंशोधित आरपीए में, धारा 29 सी (राजनीतिक दलों द्वारा प्राप्त दान की घोषणा) के तहत, यदि किसी राजनीतिक दल को एक वित्तीय वर्ष में एक व्यक्ति से बीस हजार रुपये से अधिक का योगदान मिलता है, तो उन्हें ऐसे दान की रिपोर्ट चुनाव आयोग को देनी होती है।

यदि चुनावी बांड के माध्यम से योगदान किया जाता है तो 2017 के संशोधन के द्वारा इसे हटा दिया गया था।

चुनावी बांड योजना में प्रावधान किया गया है कि केवल वे राजनीतिक दल जो आरपीए की धारा 29ए के तहत पंजीकृत हैं, और जिन्होंने पिछले आम चुनावों में लोक सभा या विधान सभा के लिए डाले गए वोटों में से कम से कम 1 प्रतिशत वोट हासिल किए हैं, वे ही बांड हासिल करने के लिए पात्र होंगे। 

कंपनी अधिनियम के तहत, किसी निगम द्वारा किसी राजनीतिक दल को योगदान पिछले तीन वित्तीय वर्षों के दौरान औसत शुद्ध लाभ के 7.5 प्रतिशत की सीमा से अधिक नहीं हो सकता है।

2017 के संशोधन ने कंपनी अधिनियम की धारा 182 (राजनीतिक योगदान के संबंध में निषेध और प्रतिबंध) के तहत उस प्रावधान को हटा दिया, जो इस आवश्यकता को अनिवार्य बनाता था।

कंपनी अधिनियम में एक और संशोधन, धारा 182(3) एक चुनौती थी, जिसके तहत पहले उस राजनीतिक दल का नाम, जिसे दान दिया गया था, राशि के विवरण के साथ खुलासा करना पड़ता था।

संशोधन के बाद, उस राजनीतिक दल का नाम उजागर करने की जरूरत नहीं है जिसे योगदान दिया गया था। केवल दान की कुल राशि का खुलासा करना था।

आयकर अधिनियम, 1961 के तहत, संशोधन से पहले, धारा 13ए में यह प्रावधान था कि किसी राजनीतिक दल को स्वैच्छिक योगदान के माध्यम से किसी भी आय को आयकर की गणना में किसी व्यक्ति की कुल आय में शामिल नहीं किया जाता था, बशर्ते कि राजनीतिक दल इसे बरकरार रखे, ऐसे योगदानों का एक रिकॉर्ड, जिसमें ऐसे योगदान देने वाले व्यक्तियों के नाम और पते शामिल हैं।

संशोधन के बाद, राजनीतिक दलों को चुनावी बांड के रूप में हासिल होने वाले ऐसे योगदान का रिकॉर्ड बनाए रखने की आवश्यकता नहीं थी।

एफसीआरए के तहत, राजनीतिक दलों और लोक सेवकों को विदेशी योगदान निषिद्ध था। संशोधन के बाद, सरकार ने "प्रभावी रूप से" विदेशी दान की अनुमति दे दी थी।

गौरतलब है कि भारत के निर्वाचन आयोग ने चुनावी बांड योजना का विरोध किया था।

15 फरवरी, 2024 को भारत के मुख्य न्यायाधीश डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली एक संविधान पीठ और जिसमें जस्टिस संजीव खन्ना, बी.आर. गवई, जे.बी. पारदीवाला और मनोज मिश्रा शामिल हैं ने यह निर्णय लिया कि स्वैच्छिक राजनीतिक योगदान का खुलासा न करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन है।

बेंच ने तर्क दिया कि लोकतंत्र में सूचना के अधिकार में राजनीतिक फंडिंग के स्रोत को जानने का अधिकार भी शामिल है। सूचना का अधिकार केवल अनुच्छेद 19(2) के माध्यम से दर्शाया जा सकता है। हालांकि, काले धन पर अंकुश लगाने का आधार अनुच्छेद 19(2) में "पता लगाने योग्य" नहीं है।

इसके अलावा, यह माना गया है कि कॉर्पोरेट्स द्वारा असीमित राजनीतिक फंडिंग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है और इसलिए अनुच्छेद 14 के तहत स्पष्ट रूप से मनमाना कदम है।

अदालत ने वित्त विधेयक, 2017 के माध्यम से किए गए संबंधित संशोधनों को भी रद्द कर दिया है।

अदालत ने योजना के तहत जारीकर्ता बैंक भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) को चुनावी बांड जारी करने पर तुरंत रोक लगाने का निर्देश दिया है।

इसने एसबीआई को अब तक खरीदे गए चुनावी बांड पर डेटा प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है, जिसमें खरीदारों के नाम, खरीद के मूल्यवर्ग और योगदान हासिल करने वाले राजनीतिक दलों के नाम शामिल हैं।

खंडपीठ ने निर्देश दिया है कि उक्त जानकारी भारत निर्वाचन आयोग द्वारा 31 मार्च तक प्रकाशित की जानी चाहिए। 

अदालत 2018 चुनावी बांड योजना की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जो चुनावी बांड को इस प्रकार परिभाषित करती है: "एक वचन पत्र की प्रकृति में जारी किया गया बांड, जो एक वाहक बैंकिंग साधन होगा और इसमें खरीदार का या दान देने वाले का नाम नहीं होगा।"

योजना के अनुसार, बांड एक हजार, दस हजार, एक लाख, दस लाख और एक करोड़ रुपये के मूल्यवर्ग में जारी किए जा सकते हैं।

सौजन्य: द लीफ़लेट 

लेखक, भारत के राष्ट्रपति स्वर्गीय केआर नारायणन के प्रेस सचिव थे।
गुद लीफ़लेट में स्टाफ रिपोर्टर रसिमरन कौर बख्शी ने इस लेख में योगदान दिया है।

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