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विशेष: कोविड के बाद अगली आपदा मानसिक सेहत हो सकती है, लेकिन क्या हम हैं तैयार?

6 अगस्त मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं में बदलाव लाने की पुरजोर मांग से जुड़ा दिन है। उत्तराखंड से एक ख़ास ग्राउंड रिपोर्ट
Dehradun
उत्तराखंड का एकमात्र राज्य मानसिक स्वास्थ्य संस्थान क्षमता से अधिक मरीज और जरूरत से कम चिकित्सकों-कर्मचारियों की मुश्किल से जूझ रहा है।

बुधवार की शाम बागेश्वर से एक परिवार अपने मानसिक तौर पर अक्षम 35 साल के बेटे को लेकर देहरादून स्थित राज्य मानसिक स्वास्थ्य संस्थान पहुंचा। पुलिस के साथ आए इस परिवार को बैरंग लौटना पड़ा। 30 बेड वाले संस्थान में 13 बेड पुरुषों के लिए, 13 बेड महिलाओं के लिए और 4 बेड निजी हैं। पुरुषों के वार्ड के सभी बेड फुल हैं। इसी दिन एक अन्य मरीज को भी इसी वजह से संस्थान में भर्ती नहीं किया जा सका। जबकि एक मरीज को प्राइवेट वार्ड में भर्ती किया गया। जनरल वार्ड में इलाज निशुल्क होता है जबकि प्राइवेट वार्ड में 428 रुपए प्रतिदिन के दर से भुगतान करना होता।

शहर से बाहर बने राज्य के एकमात्र मानसिक स्वास्थ्य संस्थान के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक (सीएमएस) डॉ. अभिषेक त्रिपाठी कहते हैं “हमने यहां मरीजों की भर्ती के लिए उनके साथ परिजनों का रुकना अनिवार्य कर दिया है। बुधवार को आए दूसरे मरीज के साथ परिजन भी नहीं थे। लोग अपने बीमार व्यक्ति को यहां छोड़कर चले जाते हैं। दोबारा कभी उनका हालचाल लेने नहीं आते। न ही उन्हें घर वापस ले जाना चाहते हैं”।

वह आगे कहते हैं “संस्थान में 90 प्रतिशत ऐसे ही मरीज भर्ती हैं। इनके परिजनों-परिवार का कोई पता नहीं हैं। उन्हें पूछने-देखने कोई नहीं आता। ज्यादातर मरीज अदालत के आदेश के बाद पुलिस के साथ यहां लाए गए हैं। जो निराश्रित हैं। सड़क या मंदिर-दरगाह के बाहर बैठे मिले। पुलिस उन्हें अदालत ले जाती है। स्वास्थ्य जांच में मानसिक तौर पर अस्वस्थ पाए जाने पर उन्हें मानसिक स्वास्थ्य संस्थान रेफ़र कर दिया जाता है। फिर वे यहीं रह जाते हैं”।

डॉ. त्रिपाठी कहते हैं कि ऐसे में नए मरीजों को भर्ती करना मुश्किल हो जाता है। “हमने जनरल वार्ड में बेड की संख्या भी बढ़ाई है। पुरुष वार्ड में 13 बेड के सापेक्ष इस समय 23 मरीज भर्ती हैं। महिलाओं के वार्ड में 13 बेड के सापेक्ष 21 मरीज। वर्ष 2021 में 9 महिलाओं की स्थिति नियंत्रण में आने पर नारी निकेतन भेज दिया। जबकि पुरुषों के लिए इस तरह के पुनर्वास केंद्रों की व्यवस्था नहीं हैं। कुछ मरीज यहां 10 वर्ष से अधिक समय से भर्ती हैं”।

मरीज़ अधिक, स्टाफ कम

क्षमता से अधिक मरीज और स्वीकृत पदों की तुलना में कम मेडिकल स्टाफ जरूरतमंद लोगों तक मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं को पहुंचाने में एक और बड़ी बाधा है। 2008 में शुरू हुआ मानसिक स्वास्थ्य संस्थान तकरीबन 50 प्रतिशत कर्मचारी क्षमता के साथ कार्य कर रहा है।

मानसिक स्वास्थ्य संस्थान में  मनोचिकित्सक के 4 पद स्वीकृत हैं। लेकिन सिर्फ 2 मनोचिकित्सक कार्यरत हैं। 4 एमबीबीएस मेडिकल ऑफिसर के पद स्वीकृत हैं। जिसकी तुलना में 2 कार्यरत हैं। नर्सिंग स्टाफ के 12 पदों की तुलना में 10 कार्यरत हैं। मनोविज्ञानी का कोई पद सृजित नहीं है। जबकि मनोरोग से जूझ रहे लोगों के स्वस्थ होने और मानसिक अवस्था की जांच के लिए मनोविज्ञानी को प्रमाणित करना होता है। ऐसी स्थिति में संस्थान को इंस्टीट्यूट फॉर द एंपावरमेंट ऑफ द पर्सन विद विजुअल डिसेबिलिटी (एनआईईपीवीडी) के मनोविज्ञानी की मदद लेनी पड़ती है।

अस्पताल की कागजी कार्रवाइयों जैसे कर्मचारियों का वेतन बनवाने, दवाइयों का टेंडर निकलवाने जैसे कार्य के लिए कोई लिपिक कर्मचारी नहीं है। इसके चलते नई दवाओं के लिए टेंडर निकलवाने जैसे कार्य भी ठप पड़े हैं। संस्थान के लिए ड्राइवर का कोई पद भी सृजित नहीं है। संस्थान ने अपनी तरफ से एक ड्राइवर की नियुक्ति की है। उसकी अनुपलब्धता पर भी कार्य बाधित होते हैं। अस्पताल से ब्लड सैंपल भेजे जाने की सुविधा है। सीएमएस के मुताबिक फार्मासिस्ट और दवाइयां उपलब्ध रहते हैं।

जुलाई की बारिश में अस्पताल की चारदीवारी का एक हिस्सा ढह गया। मानसिक स्वास्थ्य संस्थान की टूटी चारदीवारी सुरक्षा के लिहाज से बड़ी चूक है। इसकी मरम्मत से जुड़े कार्य के लिए टेंडर निकालना होगा। लेकिन लिपिक न होने की वजह से यह कार्य रुका हुआ है।

मानसिक स्वास्थ्य संस्थान के लिए निर्माणाधीन इमारत की भीतर की तस्वीर। जहां रोगियों के रहने की व्यवस्था होगी।

समुदाय आधारित हो पुनर्वास

मोनू (बदला हुआ नाम) 5 वर्ष की उम्र में हरिद्वार की एक ट्रेन से मानसिक स्वास्थ्य संस्थान लाया गया था। अब उसकी उम्र 15 वर्ष से अधिक होगी। बंद चारदीवारी के बीच बचपन से युवावस्था का सफ़र तय कर रहा मोनू कभी-कभी बेहद उग्र हो जाता है। यहां उसका दवाइयों से इलाज चल रहा है। लेकिन इनके पुनर्वास, कौशल विकास, आत्मनिर्भर होना सिखाने की फिलहाल कोई व्यवस्था नहीं है।

टेलीविज़न देखने, कैरम-लूडो जैसे इनडोर गेम्स हैं। मुख्य चिकित्सा अधीक्षक के मुताबिक मरीजों को शाम को बगीचे में टहलने के लिए ले जाया जाता है।

एक बंद और सीमित दायरे में खाने-सोने, दवाइयां और टेलीविज़न के साथ जीवन गुजार रहे मनोरोगियों ने कई बार यहां की चारदीवारियां फांदी हैं।

एनआईईपीवीडी के क्लीनिकल साइकोलॉजिकल डिपार्टमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. सुरेंद्र ढालवाल कहते हैं “मनोरोगी की सेहत में सुधार के लिए समग्र तौर पर कार्य करने की जरूरत है। किसी एक तरीके या सिर्फ दवा से व्यक्ति स्वस्थ नहीं होगा। मनोचिकित्सक दवाइयां दे सकता है। लेकिन मनोविज्ञानी आत्मीयता के साथ जुड़कर मरीज से संवाद सकता है। अगर बीमारी की वजह सिर्फ बायोलॉजिकल नहीं है और आसपास के माहौल से जुड़ी कोई बात, तनाव या भय के चलते व्यक्ति की मानसिक स्थिति प्रभावित हुई है तो मनोविज्ञानी की भूमिका अहम हो सकती है”।

इसीलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने  समुदाय आधारित पुनर्वास (community based rehabilitation) का तरीका अपनाने पर ज़ोर दिया है। डॉ. ढालवाल कहते हैं “इसमें मनोचिकित्सक की अपनी भूमिका होगी। क्लीनिकल मनोविज्ञानी अलग अप्रोच के साथ कार्य करेगा। मानसिक सामाजिक कार्यकर्ता, मानसिक नर्सिंग और परिवार या देखरेख कर रहे व्यक्ति की भागीदारी से व्यक्ति में सुधार की संभावना बढ़ जाएगी”।

वह अपने संस्थान में पैरानॉयड सिजोफ्रेनिया (Paranoid schizophrenia) से पीड़ित एक 22 वर्षीय युवा का उदाहरण देते हैं। बीटेक करने के बावजूद वह नौकरी नहीं कर पा रहा था और उसका आत्मविश्वास गिर रहा था। संस्थान ने परिजनों की मदद से उसे नौकरी देने का नाटक किया। कुछ महीने तक ऐसा करने के बाद उसने अपना खोया हुआ आत्मविश्वास दोबारा हासिल किया और वह अब एक प्रतिष्ठित संस्थान में कार्यरत है।

डब्ल्यूएचओ ने वर्ष 2021 में कम्युनिटी मेंटल हेल्थ सर्विसेस को लेकर गाइडलाइन्स भी जारी की। जिसमें व्यक्ति और उसके अधिकारों को ध्यान में रखते हुए मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं देने की बात कही गई है। इस रिपोर्ट में लिखा गया है कि दुनियाभर में मानसिक बीमारियों से जूझ रहे व्यक्तियों की बेहद खराब तरीके से देखभाल होती है। उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन किया जाता है। मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने के तरीके में बड़े बदलाव की जरूरत है। मानसिक चुनौतियों से जूझ रहे व्यक्ति की शिक्षा, रोजगार, रहने की व्यवस्था और सामाजिक उत्थान के लिए इस क्षेत्र में बड़े बदलाव लाने होंगे।

मानसिक लक्षणों की पहचान और सही समय पर इलाज कराना बेहद जरूरी है।

इरवाड़ी अग्निकांड की स्मृति

6 अगस्त मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं में बदलाव लाने की पुरजोर मांग से जुड़ा दिन है। वर्ष 2001 में इसी तारीख को तमिलनाडु के इरवाड़ी  गांव में आस्था आधारित मनो केंद्र में आग लगने से बेड़ियों से जकड़े 28 बीमार व्यक्ति मारे गए थे। इस घटना ने पूरे देश को दहला दिया था।

मेंटल हेल्थ केयर एक्ट, 2017 भी मानसिक स्वास्थ्य रोगियों के अधिकारों की बात करता है। ‘जिस तरह से व्यक्ति मानसिक बीमारी के लिए देखभाल और इलाज करना चाहता है’ या ‘जिस तरह से व्यक्ति मानसिक बीमारी के लिए देखभाल और इलाज नहीं करना चाहता है’, कानून में पीड़ित व्यक्ति की इच्छा और अधिकार को स्पष्ट तौर पर मान्यता दी गई है।

अब भी ज्यादातर मानसिक स्वास्थ्य संस्थानों में पीड़ित व्यक्ति के पास इलाज के लिए बहुत ज्यादा विकल्प नहीं हैं। अधिकांश इस स्थिति में भी नहीं होते कि वे गुणवत्तायुक्त इलाज की मांग या ऐसा न होने पर इसकी शिकायत कर सकें।

कानून बनने के बाद से मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों पर दबाव है।

देहरादून के मानसिक स्वास्थ्य संस्थान ने भी मनोविज्ञानी, योग सिखाने, व्यवसायिक शिक्षा के लिए थेरेपिस्ट जैसी मांगें स्वास्थ्य विभाग से की हैं। करीब सवा करोड़ की आबादी वाले राज्य के मानसिक स्वास्थ्य की देखरेख के लिए एकमात्र स्वास्थ्य संस्थान की क्षमता 30 बेड तक सीमित है। इसे बढ़ाकर 100 बेड किया जा रहा है। जिसकी इमारत तकरीबन तैयार हो गई है। राज्य की सीमा से जुड़े हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश के मरीज भी यहां आते हैं। नेपाल के 2 और बांग्लादेश की एक मरीज भी इस समय यहां भर्ती हैं।

देहरादून मानसिक स्वास्थ्य संस्थान की सबसे बड़ी जरूरत पेशेवर मनोचिकित्सक, मनोवैज्ञानिक, मानसिक सामाजिक कार्यकर्ता, नर्सिंग स्टाफ की है। डॉ. ढालवाल कहते हैं “मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की मांग बहुत बड़ी है और मनोचिकित्सक या मनोवैज्ञानिक बहुत कम हैं। कोविड महामारी के दौर के बाद ये माना जा रहा है कि स्वास्थ्य से जुड़ी अगली आपदा मानसिक सेहत है”।

डब्ल्यूएचओ की 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में चार में से एक व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी मानसिक या तंत्रिका संबंधी विकारों से प्रभावित होगा। वर्तमान में लगभग 45 करोड़ लोग ऐसी स्थितियों से पीड़ित हैं। इसके बावजूद निम्न और मध्यम आय वाले देशों में 75% से अधिक मानसिक स्वास्थ्य से प्रभावित व्यक्ति को कोई इलाज नहीं मिल पाता।

ज़रा सोचिए, बागेश्वर से 317 किलोमीटर से अधिक का सफ़र तय करके देहरादून आया परिवार अपने बीमार व्यक्ति के लिए इलाज नहीं जुटा सका। जबकि मेंटल हेल्थ एक्ट के मुताबिक हर व्यक्ति को मानसिक स्वास्थ्य देखभाल और इलाज का अधिकार है। लेकिन मानसिक स्वास्थ्य संस्थान में 5-10 वर्षों से पीड़ित व्यक्ति रह रहे होंगे तो नए मरीजों को भर्ती कैसे की जाएगी। ये समस्या पुरुष पुनर्वास केंद्रों की जरूरत दर्शाती है।

(देहरादून स्थित वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।) 

(This reporting has done under the Essence media fellowship on mental health issues)

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