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लाखपदर से पलंगपदर तक, बॉक्साइड के पहाड़ों पर 5 दिन

हमने बॉक्साइड के पहाड़ों की अपनी पैदल वाली यात्रा नियमगिरी के लाखपदर से शुरू की और पलंगपदर पर समाप्त की। यह पांच दिन की यात्रा और यहां रहना एक ऐसा अनुभव है, जो प्रकृति के बारे में, धरती और जीवन के बारे में ऐसा ज्ञान देता है, जो किसी किताब में पढ़कर नहीं मिल सकता।
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लाखपदर उड़ीसा का एक बेहद छोटा सा गांव है, केवल 30 परिवारों वाला गांव, लेकिन उड़ीसा (ओडिशा) ही नहीं पूरे देश के लिए यह गांव बहुत महत्व वाला है। क्योंकि यह गांव ‘नियमगिरी बचाओ आन्दोलन’ का केन्द्र रहा है। यह गांव ‘लादो सिकोका’ का गांव है, जो नियमगिरी आन्दोलन के जुझारू नेता है, जिन पर अब भी आन्दोलन से जुड़े कई मुकदमें दर्ज है। यह गांव बॉक्साइड से भरी प्रसिद्ध पहाड़ी नियमगिरी पर बसा है। वही नियमगिरी, जिसने बाक्साइड खनन के खिलाफ उड़ीसा सरकार और ‘वेदान्ता’ से लड़ाई में कानूनी रूप से जीत हासिल की है।

मुनिगुड़ा से नियमगिरी की ओर बढ़ते हुए ‘वेदान्ता’ की हार के चिह्न, जंग खाये ‘कनवेयर’ के रूप में अब भी दिखते हैं, जिसे गांव के लोग नये लोगों को दिखाना नहीं भूलते। लाखपदर नियमगिरी का अकेला आन्दोलनकारी गांव नहीं है, यह नियमगिरी पर बसे 112 गांवों में से एक गांव भर है, लेकिन जो भी नियमगिरी के बारे में जानने के लिए वहां जाता है, इस गांव में ज़रूर आता है।

कानूनी जीत के बावजूद नियमगिरी की लड़ाई खत्म नहीं हुई है, क्योंकि ‘वेदान्ता’ के चोर दरवाजे से घुसने की आशंका अभी भी लोगों के मन में है, इसलिए ‘नियमगिरी सुरक्षा समिति’ अभी भी ज़िंदा है।

नियमगिरी के लोगों ने न सिर्फ अपने पहाड़ को बचाया, बल्कि उड़ीसा के दूसरे पहाड़ों पर बसे लोगों को भी अपने पहाड़ बचाने का रास्ता दिखाया। नियमगिरी में हारने के बाद सरकार अब इसी के पास स्थित खंडुआलमाली पहाड़ को नीलाम करने जा रही है, मिट्टी के सैम्पल कम्पनियों को देने के लिए जुटाये जा रहे हैं।

यहां बसे लोगों ने भी अपने को अभी से संगठित करना और प्रकृति बचाने के लिए समर्थन जुटाने का प्रयास तेज कर दिया है। खंडुआलमाली के नीचे बसा एक गांव है पलंगपदर- हमने बॉक्साइड के पहाड़ों की अपनी पैदल वाली यात्रा नियमगिरी के लाखपदर से शुरू की और पलंगपदर पर समाप्त की। यह पांच दिन की यात्रा और यहां रहना एक ऐसा अनुभव है, जो प्रकृति के बारे में, धरती और जीवन के बारे में ऐसा ज्ञान देता है, जो किसी किताब में पढ़कर नहीं मिल सकता।

इस यात्रा में मुख्य रूप से मैं विश्वविजय और उड़िया भाषा के प्रतिष्ठित कवि लेनिन कुमार थे, लेकिन हमारे साथ अलग-अलग समय पर, अलग-अलग जगह पर इन दोनों गांवों के अलावा कई गांव के लोगों ने हमारा साथ दिया, बल्कि ये कहना ज्यादा ठीक होगा कि हमारा मार्गदर्शन किया।

हम भुवनेश्वर से मुनिगुड़ा ट्रेन से पहुंचे, वहां से 25 किमी का पहाड़ी रास्ता ऑटो से, फिर 7 किमी का रास्ता पैदल चलकर 25 मार्च की शाम लाखपदर गांव पहुंचे। 26 और 27 यहां रहकर 28 मार्च को सुबह यहां से 5 किलोमीटर का पैदल चढ़ाई वाला रास्ता पारकर फूलदुमेर गांव पहुंचे। वहां ऑटो में सवार होकर 25 किलोमीटर दूर कंचनमुही। कंचनमुही में जल्दी-जल्दी खाना खाकर खंडुआलमाली की एकदम सीधी और कठिन चढ़ाई, लेकिन इस चढ़ाई के बाद जो आसमान और खुला मैदान दिखा, सारी थकान उसी वक्त उसे देखते ही खतम हो गयी।

सभी का यही हाल था। रात भर खुले आकाश के नीचे सोकर खंडुआलमाली से 29 की सुबह पलंगपदर गांव की ओर, जो कि सीधी और बेहद मुश्किल उतराई है। उसी शाम 2 किमी पैदल रास्ते से साईसुरनी चक पहुंचकर वहां से बस द्वारा भवानीपटना रेलवे स्टेशन और फिर भुवनेश्वर की ओर। हरा-भरा, तिलिस्मों भरा जंगल पीछा करता रहा, पहले सफर में, फिर ख़्वाब में। मुनाफे की जगह जंगल का पीछा करना, धरती और उस पर बसे लोगों के लिए शुभ है। जंगल हम सबका पीछा करे, इसके लिए जंगल और जंगल में बसे लोगों को समझना ज़रूरी है।

नियमगिरी में बसे ‘डोंगरिया कोंध’ उड़ीसा के ही नहीं भारत की प्रमुख आदिम जनजातियों में एक हैं। 1997 में उड़ीसा सरकार और ‘वेदान्ता’ के हुए करार के बाद इस सदी की शुरूआत में डोंगरिया कोंध जब अपने ‘डाँगर’ यानी पहाड़ बचाने के लिए सड़कों पर उतरे, तो लोगों ने बेहद कौतुहल के साथ इन्हें देखा था। तथाकथित ‘मुख्यधारा’ के समाज से कटे बिल्कुल अलग तरह के लोग, जिनमें आदमी और औरत दोनों लम्बे बाल रखते हैं और पर्वों पर श्रृंगार आदमी ज़्यादा करते हैं। रंग-बिरंगे साज-श्रृंगार के साथ ये जब एक साथ चलते हैं, तो लगता है फूलों का बागीचा चल पड़ा हो। इसी सज-धज के साथ एक-दूसरे को थामे जब वे नाचते हैं, तो लगता है, जैसे सैकड़ों फूलों की टहनियां एक अनुशासन में, एक रिदम में झूम रही हों।

‘मुख्यधारा’ के लिए ये लोग कौतुहल का विषय हैं क्योंकि उनके मुकाबले यहां औरत-मर्द के बीच अधिकाधिक समानता है, दोनों सामूहिक श्रम में भागीदारी करते हैं और दोनों मिलकर श्रम की जीत का जश्न मनाते हैं। छोटी दरांती जिनके श्रृंगार का हिस्सा है, चमकदार-धारदार कुल्हाड़ी जिनके शरीर का अभिन्न हिस्सा। यह दिलचस्प है कि डोंगरिया कोंध महिलायें अपने बालों में रंगबिरंगी चिमटी के साथ छोटी दरांती भी खोंसती हैं। परम्परा के अनुसार यह दरांती लड़कियों को उनका भाई भेंट करता है। ‘मुख्यधारा’ के समाज में भाई अपनी बहनों को उनकी रक्षा करने का वचन देता है। डोंगरिया कोंध के ‘पिछड़े’ समाज में भाई उन्हें दराती सौंपता है, जिससे वे अपनी रक्षा खुद कर लेती हैं।

पहाड़ से लेकर हाट तक में औरतें-लड़कियां का विस्तार है। वे अपने कदमों से पहाड़-जंगल नापती हैं। जीवन साथी चुनने में ‘मुख्यधारा’ के समाज से उलट पूर्ण जनवाद। महिलाओं के साथ छेड़छाड़, बलात्कार जैसी कोई घटना नहीं। पहाड़, नदी, झरने, पेड़ पौधे, फसल सभी जिनके देवी-देवता है। ‘मुख्यधारा’ के लोग इन्हें अनपढ़ और मूर्ख समझते हैं, लेकिन ये लोग अपनी ‘कुई’ भाषा में शहरी लोगों का खूब मज़ा लेते हैं। अगर इनकी भाषा समझ में आने लगे, तो इनकी दार्शनिकता से भरी बौद्धिक बातों से ‘मुख्यधारा का समाज’ कुंठित भी हो सकता है। हर बात को कहने का दार्शनिक और कवितामय अंदाज। इनके लिए जंगल-पहाड़ का मोल पैसे के मोल से कई गुना अधिक है। ये लोग ही उड़ीसा में बॉक्साइड के पहाड़ के रखवाले हैं, प्रकृति के रखवाले हैं, इसीलिए मुनाफे पर पलने वाली कम्पनियों और इसकी दलाल सरकारों से इनकी ठनी हुई है। लादो सिकोका अपनी काव्यात्मक भाषा में इन दोनों को ‘एक ही फल के दो बीज’ बताते हैं, जिनका गुण एक ही है, प्रकृति को लूटना, लोगों को मारना। यहां रहकर लगा कि इस ‘मुख्यधारा’ के समाज को इनसे काफी कुछ सीखने की ज़रूरत है।

उड़ीसा अपने बॉक्साइट पहाड़ों के लिए विख्यात है, देश का 60 प्रतिशत बॉक्साइट अकेले उड़ीसा में मौजूद है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की लार इन पर टपकती रहती है। हम शहरी और मुनाफे के सांचे में सोचने वाले लोग भी यह सोचते हैं कि भारत के पास जब इतनी अधिक मात्रा में प्राकृतिक संसाधन है, तो इसकी खुदाई कर पूंजी अर्जित करने में क्या दिक्कत है, आखिर इससे देश का विकास ही तो होगा! लेकिन यहां आने के बाद समझ में आता है कि इस क्षेत्र में बाक्साइट के अलावा जितना और जितने तरीके का प्राकृतिक संसाधन मौजूद है, वह सबसे महत्वपूर्ण हैं। और यह भी समझ में आता है कि बॉक्साइट समेत ये सभी प्राकृतिक संसाधन एक-दूसरे से इतने अधिक जुड़े हैं, कि एक को नष्ट करने से दूसरे संसाधन भी अपने आप नष्ट होने लगेंगे। वास्तव में इस पर बसे इंसान और जीव-जंतुओ समेत यह पूरा पहाड़ एक इंसान के शरीर की तरह है, जिसका हर अंग उसके अस्तित्व के लिए ज़रूरी है, उसके जीवित रहने की आवश्यक शर्त।

‘नियमगिरी सुरक्षा समिति’ के लादो सिकोका इस बात को इस तरह कहते हैं-‘‘पल्ली सभा (ग्रामसभा) के समय जज ने हमसे कहा था कि कम्पनी रोजगार देगी, लेकिन हमने कहा कि कम्पनी ज्यादा से ज्यादा 100 लोगों को रोजगार देगी, हमारा नियमराजा तो सभी मनुष्य ही नहीं, यहां बसे पशु-पक्षी, जीव-जन्तु सबका पेट पालता है।’’

लाखपदर गांव के गोतिया यानी मुखिया वयोवृद्ध काणू सिकोका जीवन की उत्पत्ति के बारे में बताते हुए कहते हैं- ‘‘धरती बनी, तो नियमराजा पहाड़ खड़ा हो गया, पहाड़ की वजह से धरती पर बारिश हुई, बारिश हुई, तो उससे पेड़-पौधा हो गया। पेड़-पौधा होने के बाद हमारे पुरखे इधर रहने लगे।...तुम उधर काम करते हो, हम इधर... हम सब भाई-बन्धु हैं, एक ही माटी के पेट से निकले हुए हैं हम सब...।’’ काणू सिकोका वेदान्ता के बारे में पूछने पर कहते हैं-‘‘हमारे पुरखे आकर यह गांव बसाये हैं, जब वो आये तो यहां सांप थे, भालू थे।....जब तब नहीं भागे, तो कम्पनी के आने से क्यों भागेंगे?’’

हम जब शाम के समय लाखपदर पहुंचे थे, तो शाम के 4 बज रहे थे। यह समय वहां गांव में औरतों के चूल्हे जलाने का और पुरुषों के ‘ऑफिस’ जाने का है। ‘ऑफिस’ यानी ‘शलप’ पीने का अड्डा। शलप ताड़ी जैसा पेड़ का पेय है, जिसमें नशा होता है। यह इन्हीं तीन महीनों में होता है। सुबह शाम हर उम्र के पुरुष ऑफिस पर इकट्ठे होकर बराबरी के भाव से शलप पीते है, जो यहां नहीं पहुंच पाता, उसके लिए बोतल में भर कर पहुंचा दिया जाता है। ‘कोल्ड ड्रिंक’ और ‘बिसलरी’ का पानी तो यहां नहीं पहुंचा है, लेकिन उसकी प्लास्टिक बोतलें यहां आवश्यक वस्तु के रूप में पहुंच गयी हैं। शलप पीने से लेकर कई आवश्यक काम इससे ही निपटाये जाते हैं। बोतलें यहां आने के पहले शलप और पानी पीने का काम सूखी लौकी के खोखले खोल यानी ‘तुमड़ी’ से किया जाता है, इसके बीच में एक जगह गोल काट दिया जाता है, जिससे पेय पदार्थ उठाते हैं, फिर खोखली डण्डी से उसे मुंह में पलट लिया जाता है।

सुबह ‘पेजो’ पीकर (रागी का उबला घोल) भात बना-खाकर पूरे गांव के लोग डाँगर पर चले जाते हैं। गांव खाली हो जाता है। केवल बहुत छोटे बच्चे और बूढ़े और बीमार लोग ही घर-गांव में रहते हैं। इनके अलावा पालतू मुर्गियां रह जाती हैं। गांव खाली होने के बावजूद किसी घर में ताला नहीं लगता। सबकी भिड़ी किवाड़ पर एक बांस लगा दिया जाता है, ताकि जानवर अन्दर न जा सकें।

दोपहर दो बजे तक लोग लौटते हैं, फिर पास के झरने पर नहाने जाते हैं। औरतें नहाने के लिए हल्दी का इस्तेमाल करती हैं। हल्दी यहां की मुख्य पैदावार भी है। नहाकर कपड़े वहीं झाड़ियों-पेड़ पौधों पर सूखने के लिए छोड़ दिये जाते हैं। फिर से आकर लोग खाना खाकर आराम करते हैं, और चार बजे से फिर चहल-पहल शुरू हो जाती है। नौजवान झुण्ड बनाकर आपस में बतियाते हैं, हंसी-मजाक करते हैं। गांव में हर घर में सरकार का दिया गया सोलर पैनल लगा है, जिससे लगभग हर घर में दो बल्ब चलते हैं, और कहीं-कहीं मोबाइल भी चार्ज हो जाते हैं। मोबाइल का नेटवर्क तो नहीं है, लेकिन मोबाइल लगभग हर घर में पहुंच चुका है। वे उसमें गाने सुनते हैं। ऊपर पहाड़ पर कुछ पॉइंट्स पर नेटवर्क मिलता है, लोगों को ज़रूरी बात करने के लिए वहीं जाना पड़ता है। वैसे डोंगरिया लोग तकनीक को ग्रहण करने के मामले में काफी आगे लगते हैं, वे उससे भागते नहीं, बल्कि उसे तेजी से सीखते हैं।

हमारे रहते एक दिन गांव में प्रोजेक्टर लगाकर पूरे गांव ने फिल्म भी देखी। कई घरों में ‘म्यूजिक सिस्टम’ है, जिसमें हिन्दी शब्दों वाले उड़िया गाने बजते हैं। झरनों के पानी को पाइप लगाकर टंकी में इकट्ठा करने का उपाय भी किया गया है। यह पानी सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए होता है। लगभग सभी घरों के पीछे की तरफ झरने का पानी पाइप से होकर नल से आता है। यह पानी काफी मीठा होता है, पीने के लिए भी इसी पानी का इस्तेमाल होता है।

डोंगरिया लोग मुर्गी, बकरी, सूअर और गाय पालते हैं। लेकिन गाय आपको किसी घर के सामने या गांव में कहीं नहीं दिखेगी। वे पहाड़ों में समूह बनाकर चरती रहती हैं। यह जानकर और भी आश्चर्य होता है कि डोंगरिया कोंध दूध के लिए गाय नहीं पालते, बल्कि गोबर के लिए और मांस के लिए पालते हैं। गाय का दूध पीना उनकी तर्कपद्धत्ति से बाहर की चीज़ है। उनके तर्क के हिसाब से ‘दूध तो गाय के बछड़े के पीने के लिए होता है, हमारे लिए थोड़ी न।’ यहां के बच्चे भी केवल मां के दूध पर पलते हैं। गायों को वे कटे हुए जंगल यानी खेतों में छोड़ देते हैं, ताकि वे वहां गोबर करें और धरती खेती लायक हो जाय। गायों की बलि देने की भी परम्परा है, लेकिन भैंसों, मुर्गे, भेड़ों और बकरों की बलि अधिक दी जाती है।

बातों-बातों में यह बात भी पता चली कि तीन-चार साल पहले जब पूरे भारत में ‘बीफ बैन’ का फरमान जारी किया गया था, यहां पर भी इसके प्रतिरोध में ‘बीफ पार्टी’ की गयी थी। जिस दिन हम वहां पहुंचे, हमारे मेजबान के घर जंगली चूहे का मांस पका था, जो भात के साथ हमें भी परोसा गया। पड़ोस के घर से भी पत्ते में हमारे लिए कुछ भेजा गया, जो कि मांस ही था। दूसरे आश्चर्य की बात यह थी, कि यहां मुर्गियां पाली जाती हैं, लेकिन उनके अण्डे खाये या बेचे नहीं जाते, क्योंकि उनका तर्क है- ‘उनसे तो बच्चे होंगे’।

‘नियमगिरी सुरक्षा समिति’ के एक और महत्वपूर्ण नौजवान सदस्य द्रेंज्यू क्रुसुका से जब इस बारे में हमने पूछा तो उन्होंने कहा-‘‘हां पता है कि दूध और अण्डा लोग खाते हैं, लेकिन हमारे पुरखों ने हमें खिलाया नहीं, सिखाया नहीं, अब खायेंगे तो उल्टी हो जायेगा।’’

द्रेंज्यू गांव के ‘बेजेन’ यानी पुजारी और ‘दिसारी’ यानी जड़ी-बूटी देने वाले वैद्य हैं, इसलिए वे केवल मुर्गे का मांस खाते हैं। गांव का ‘बेजेन’ औरत या मर्द कोई भी हो सकता है। ‘मुख्यधारा’ के समाज की तरह यह अधिकार केवल पुरुषों के ही पास सुरक्षित नहीं है। द्रेंज्यू के घर पर घर के लोगों की कई तस्वीर लगी हैं। एक तस्वीर में द्रेंज्यू की बहन ‘सुक्को’ (यानी तोता) मोटरसाइकिल पर उसे चलाने वाले अंदाज में बैठी है, उसके बारे में पूछने पर खूब हंसती है। सुक्को के घर में हमें चाय की पत्ती मिल गयी, जिसकी हमने काली चाय बना कर पी। अगले दिन हम द्रेंज्यू के एक मित्र से मिले और द्रेंज्यू को बुलाने को कहा, तो उसने मना कर दिया और बताया कि द्रेंज्यू उसका ‘मित्रो’ है, एक थाली में खाना खाया हुआ, इसलिए वो उसका नाम लेकर नहीं बुला सकता। यह बात दिलचस्प लगी, तो आगे भी बढ़ी। आगे पता चला कि अगर किसी वजह से दो मित्रों में झगड़ा हो गया, तो गांव के लोग एक अनुष्ठान कर दोनों मित्रों को बुलायेंगे, अनुष्ठान का भात पत्ते में दोनों मित्रों को देंगे, अगर दोनों ने भात खा लिया, तो वे फिर से मित्र हो जायेंगे, नहीं खाया तो दोस्ती नहीं हुई मानी जायेगी, हर चीज़ का सरल उपाय।

पति-पत्नी के झगड़ों को सुलटाने के लिए पंचायत होती है। दोनों पक्षों को समझाया जाता है, नहीं माने तो दोनों अलग होने के लिए स्वतंत्र हैं। बच्चे शादी होने तक ही मां-पिता के साथ रहते हैं, शादी होने के बाद वे अपनी नई गिरस्थी बना लेते हैं। ऐसे लोग भी मिले, जिनकी दो पत्नियां थीं। लेकिन ऐसी महिलायें नहीं थीं, जिनके दो पति हों। यह सवाल भी उनके लिए थोड़ा अटपटा सा था, जिसका जवाब नहीं दिया गया। शादी के समय लड़के का पिता लड़की के पिता को भोज के लिए भैंसा या बकरा देता है। अधिकांश शादियां लड़के-लड़की की अपनी पसंद से ही होती है, लेकिन कुछ शादियां मां-बाप भी तय करते हैं।

नियमगिरी कई साल पुराने पेड़ों से भरा हुआ है। आश्चर्य तो ये भी है कि डोंगरिया कोंध झूम खेती (कुछ-कुछ साल पर जंगल साफ करके खेत बदलते रहना) करते आये हैं, फिर भी जंगल के बहुत पुराने आदिम पेड़ बने हुए हैं। यहां आम, कटहल, महुआ केला, अदरक, हल्दी, अनन्नास, केला सन्तरा कई तरह के साग बहुतायत मे होते हैं। लेकिन डोंगरिया कोंध लोग अदरक का इस्तेमाल नहीं जानते। वे बहुत कम मसालों का इस्तेमाल करते हैं, तेल का इस्तेमाल भी बेहद कम करते है। ‘जड़िया’ के बीज को सुखाकर उससे तेल निकालते हैं, जिसे ज्यादातर बाल में ही लगाते हैं। नमक भी खड़ा देसी ‘नून’ है, जो वो बाजार से खरीदते हैं।

पूंजी का लालच तो लाखपदर में अब तक नहीं पहुंच सका है, लेकिन बाजार धीरे-धीरे घुसपैठ कर रहा है। वो मोबाइल फोन के रूप में है, लड़कों के आधुनिक कपड़ों के रूप में है, उनकी नई हेयरस्टाइल के रूप में है, साड़ी पहनने के ‘मुख्यधारा के ढंग’ के रूप में है।

इत्तेफाकन जिस दिन हम यहां पहुंचे, उसी दिन पहाड़ों को रौंदती और पेड़ों को उखाड़ती चौड़ी सड़क लाखपदर गांव तक पहुंची थी। गांव की सीमा पर बच्चे मिट्टी हटाने वाली क्रेन के आसपास खेल रहे थे और कौतुहल के साथ इसे देख रहे थे। अगले दिन ही शाम को लाल मिट्टी वाली इसी सड़क से होकर वन विभाग के तीन कारिन्दे गांव में घुसकर मोटरसाईकिल खड़ी करके पहाड़ चढ़ गये थे। गांव के लोग उस वक्त पहाड़ पर ही थे। वापस लौटे तो गांव में पूछताछ शुरू हो गयी, किसी को नहीं पता था कि गांव की सीमा पर खड़ी मोटरसाइकिल किसकी है? सभी लोग उसे घेर कर घण्टों बात करते रहे, तरह-तरह की आशंका व्यक्त करते रहे। एक टीम पहाड़ पर अजनबियों को खोजने के लिए गयी। दूसरी टीम ने यह तय किया कि मोटरसाइकिल को उठाकर रख लिया जाय, ताकि अजनबी उनसे बात किये बगैर न जाने पायें। एक डेढ़ घण्टे की अफरातफरी के बाद तीनों सामने आये तो पता चला कि वन विभाग ने सेटलाइट से देख लिया था कि ऊपर जंगल में आग लगी है, वे उसकी गंभीरता का पता लगाने आये हैं। वे वन विभाग के ही हैं- गांव वालों ने पहले इसका प्रमाण मांगा, जिसे देने दूसरे गांव के एक और आदमी को मोटरसाइकिल से आना पड़ा। फिर वन विभाग के तीनों आदमियों को यह कह कर छोड़ा गया कि ‘आगे से गांव में हमसे बिना पूछे नहीं घुसोगे।’ उन्हें सबने मिलकर राजनीतिक भाषण भी पिलाया कि ‘जब कम्पनी जंगल उजाड़ रही थी, तब तो कहीं नहीं दिखाई दिये, अब हमने जंगल बचा लिया है, तो आये हो जंगल बचाने?’

वे तीनों आदमी पास के गांव के ही डोम समाज के थे। उन्हें अपना भाई बताकर जंगल को कम्पनी से बचाने की अपील भी की गयी फिर छोड़ा गया। लेकिन उस दिन लोग इस सड़क बनने से काफी चिन्तित दिखे, कि सरकार के लोगों की पहुंच गांव तक आसान हो गयी है, अब अधिक सतर्क रहने की जरूरत है, वरना इसी सड़क से होकर कम्पनी के बुलडोजर गांव तक पहुंच जायेंगे।

इसी दिन ‘नियमगिरी सुरक्षा समिति’ के नेता लादो सिकोका ने बताया गांव के लोग केवल 5 फीट चौड़ी सड़क चाहते थे, उनके आने-जाने के लिए इतना ही काफी था, लेकिन कहा गया कि इतनी पतली सड़क का बजट ऊपर से पास ही नहीं होगा, इसलिए चौड़ी सड़क के लिए मानना पड़ा। यह एक ऐसा तथ्य था, जो हर जगह विकास के एक ही मॉडल को थोपने के विनाशक मॉडल की पोल खोलता है। जरूरत की 5 फीट सड़क के बदले 20 फीट चौड़ी सड़क बनान के लिए कितने पेड़ काटे गये होंगे, जंगल का कितना नुकसान हुआ होगा, सोचा जा सकता है। और यह किसके फायदे के लिए है, समझना मुश्किल नहीं है। लादो सिकोका ने उस दिन गांव के बीच में कहा- ‘‘अब सतर्क रहना होगा, एकजुट रहना होगा, क्योंकि कम्पनी अभी भी लांजीगढ़ में है, वह गयी नहीं है और आने की तैयारी कर रही है।’’

कम्पनी तो पता नहीं इस सड़क से आयेगी या नहीं, लेकिन बाजार इस अनचाही चौड़ी सड़क से तेजी से गांव में आयेगा, यह तय हैं। अभी तो कोकाकोला और बिसलरी की खाली बोतलें ही गांव में पहुंची हैं, जल्दी ही यहां इनकी भरी बोतले इन सड़कों से होकर आ सकती हैं। और फिर बाजार की एकाधिकारी संस्कृति पूरे गांव को ‘मुख्यधारा’ के गांव में बदल सकती है, यह काम पहले से भी जारी है।

काफी हद तक मातृप्रधानता को बचाये इस समाज में पितृसत्तात्मक/सामंती मनोरंजन करने वाले गाने पहले ही पहुंच गये है, जो कि उड़िया और हिन्दी में हैं। बालों का ‘बॉलीवुडीकरण’ हो चुका है। लड़कियां इससे बची हुई हैं, लेकिन लड़कों के बालों का रंग और ‘स्टाइल’ दोनों बदल रहा है।

लाखपदर में तो स्कूल नहीं है, लेकिन त्रिलोचनपुर समेत कई गांवों में स्कूल हैं, जिनमें अध्यापक उड़िया है। जाने-अनजाने बाहर से गये ये अध्यापक एकाधिकारी संस्कृति को यहां तक पहुंचाने का काम कर रहे हैं। कोई डोंगरिया कोंध बच्चा जब इन स्कूलों में प्रवेश लेने जाता है, तो अध्यापक उनका नाम बदलकर कृष्णा, राम, लखन भरत, धर्मेंन्द्र कुछ भी ‘मुख्यधारा’ का नाम रख देते हैं। शिक्षा तो खैर एकीकृत है ही, जिसमें वहां का जीवन नहीं ही है।

हमें मुनिगुड़ा में हमारे साथ चलने वाला ‘लास्के’ मिला। नाम पूछने पर उसने ‘कृष्णा’ बताया। यह नाम कुछ अटपटा लगा, तो तहकीकात की। तब पता चला कि असली नाम ‘लास्के’ है, (जिसका अर्थ ‘चांद’ है) स्कूल में टीचर ने उसका नाम ‘कृष्णा’ रख दिया है। लास्के के भाई का नाम ‘बास्के सिकोका’ है, उसका नाम स्कूल में बदलकर ‘रामचन्द्र सिकोका’ कर दिया गया। यह विविध संस्कृति को एक संस्कृति तले रौंद डालना नहीं, तो और क्या है? लेकिन ‘मुख्यधारा की संस्कृति’ विविधता को रौंदने में विश्वास रखती है।

लादो सिकोका की चिंता में शायद यह है, तभी वे गांव में सरकारी स्कूल की मांग पर बोलते हैं-‘‘सरकार से हम क्या स्कूल मांगेगे, खुद स्कूल बनायेंगे, जिसमें राजनीति और संस्कृति की शिक्षा दी जायेगी।’’ गांव के आखिर में मिट्टी की ईंट वाला एक हॉल बनकर तैयार हो रहा है, हमने भी उसे सामूहिक श्रम से बनते हुए देखा। ये पूछने पर कि ‘इसमें पढ़ायेगा कौन? यहां तो कोई पढ़ा लिखा नहीं है’, लादो सिकोका तुरन्त बताते हैं- ‘‘हमारा समर्थन करने वाले लोग आकर हमको पढ़ायेंगे।’’

स्कूल के साथ गांव के आस-पास कोई भी अस्पताल नहीं है, हां वेदान्ता का एक अस्पताल ज़रूर है, लेकिन यह दिलचस्प है कि उसमें लड़ाई के उसूल के चलते वहां कोई इलाज के लिए नहीं जाता, छोटी बीमारी में जड़ी-बूटी से काम चलता है, बड़ी बीमारी के लिए लांजीगढ़ के सरकारी अस्पताल या किसी भी शहर के सरकारी अस्पताल में इलाज कराते हैं। वैसे कोरोना के समय में कुछ सामाजिक कार्यकर्ता यहां आकर एक ‘मेडिकल किट’ और छोटी सी ट्रेनिंग कुछ नौजवानों को देकर गये हैं। हमारे सामने भी एक बीमार आदमी की मलेरिया जांच अपने किट से एक नौजवान ने की।

आइये अब नियमगिरी के इस गांव से निकलकर खण्डुआलमाली चलते हैं, जो बाक्साइड से भरा  दूसरा पहाड़ है। और इसे बेचने की प्रक्रिया सरकार ने शुरू कर दी है। इसके खिलाफ खंडुआलमाली ही नहीं, उड़ीसा भर के लोग सक्रिय हो गये हैं। 28-29 मार्च को खंडुआलमाली पर्व था, इसमें शामिल होने के लिए हम भी नियमगिरी के लोगों के साथ निकले थे।

पूरे रास्ते नियमगिरी सांस्कृतिक टीम का मुखिया ‘पेटा’ नगाड़ा बजाता रहा, और लोगों को उत्साहित करता रहा। उसके शरीर की एक-एक हरकत में लय है। वह गाता भी अच्छा है, तालों का ज्ञान भी है और नाचता भी है। बालों में दो फूल लगाये पर्व वाले दिन वो और भी खूबसूरत और संगीतमय दिख रहा था। जैसाकि पहले बताया कि कंचनमुही से खंडुआलमाली पहाड़ की जंगलों की चढ़ाई के बाद खुला मैदान आश्चर्य में डालता है। 4-5 किलोमीटर तक फैला ऐसा विशाल मैदान जिस पर एक भी पेड़ नहीं है। इसकी गुत्थी पर्व में शामिल होने आये प्रफुल्ल सामंतरा ने सुलझाई। उन्होंने बताया ये बॉक्साइड का पहाड़ है। बाक्साइड आसमान से मिलने वाला सारा पानी सोखकर नीचे ढकेल देता है, इसलिए इसके ऊपर वनस्पति नहीं मिलेगी, लेकिन नीचे गया पानी किनारों पर झरना, नदी, नाला बन कर फूटता है, जिससे किनारों पर वनस्पतियों से भरा जंगल है। सरकार हमें बेवकूफ बनाने के लिए कहती है कि हम तो उस जगह पर खुदाई करेंगे, जहां वनस्पति नहीं है, बंजर है। लेकिन वह यह नहीं देखती कि किनारों का हरा-भरा जंगल और पानी इसी बंजर के कारण ही है। यह बॉक्साइड के पहाड़ की खूबी है। अगर इसका ‘बंजर’ कहलाने वाला क्षेत्र खत्म किया गया, तो किनारों की हरियाली और पानी के सोते भी सूख जायेंगे। इस बात को समझना बहुत जरूरी है।

खंडुआलमाली उड़ीसा के प्रसिद्ध ‘कार्लापट वाइल्ड लाइफ सेन्चुरी’ का विस्तार है। इसमें लगभग 300 नदिया बहती हैं, लगभग 10 लाख पेड़, प्राचीन वनस्पति पौधे-झाड़ियां, हाथी, बाघ, चीतों का निवास स्थान है। इन सबका जीवन मिलाकर अगर ‘नफा-नुकसान के गणित वाली भाषा में ही आकलन किया जाय, तो बॉक्साइड के खनन से होने वाला मुनाफा इस पहाड़ के बने रहने से होने वाले प्राकृतिक मुनाफे, मानवीय जीवन के सामने कुछ भी नहीं है। लेकिन हमारी सरकार को ऐसी गणित नहीं आती, वह पूंजीपतियों के मुनाफे के गणित को ही समझती है। इसलिए ही खंडुआलमाली में बॉक्साइट खनन के लिए टेंडर निकाल रही है, मिट्टी की जांच का काम जारी है। यह सुखद है कि इसे बचाने का आंदोलन भी पहले से ही जारी है।

पर्व में 28 मार्च को उड़ीसा भर से पहुंचे सामाजिक कार्यकर्ताओं ने खंडुआलमाली को बचाने के लिए कमर कसने की अपील की। खंडुआलमाली सुरक्षा समिति के ‘ब्रिटिश कुमार’ ने उड़ीसा भर से आये लोगों का स्वागत किया और समर्थन के लिए शुक्रिया भी कहा। रात भर नाच-गाना हुआ, जिसमें नौजवानों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। लेकिन पर्व में भी आदिवासी संस्कृति के गानों की बजाय डीजे पर बजने वाले उड़िया गानों को ही तरजीह दी गयी। सुबह सुक्का इस बात से दुखी थी, कि वह ज्यादा नाच नहीं सकी, वह थोड़ी गुस्से में भी थी। आदिवासियों के पर्व को आन्दोलन के पर्व में बदलना जैसे एक सकारात्मक हस्तक्षेप है, वैसे ही आदिवासी संस्कृति को बचाये रखने का हस्तक्षेप भी यहां ज़रूरी लगा। सुबह पर्व की पुरानी परम्परा का निर्वाह करते हुए दो बकरों और एक भेड़ की बलि दी गयी। उसे पकाया गया और खाकर लोग खंडुआलमाली से विदा हुए। इस संकल्प के साथ कि इसे बचाने के लिए हर मैदान में साथ होंगे।   

यहां से पलंगपादर की उतराई काफी मुश्किल है, हमारी साधारण चप्पलों के साथ यह उतराई और भी मुश्किल थी, लेकिन पलंगपादर के नौजवान कवि रघु ने मेरा बैग लेकर मुझे उतरने में भी मदद की। उसने बताया कि उसके लिए यह रास्ता मात्र 15 मिनट का है, जबकि हमने उसे डेढ़ घण्टे में पार किया। पलंगपादर कोंध जनजाति का गांव है, और भाषा भी कुई है, लेकिन घर की बनावट और रहन-सहन में डोंगरिया कोंध से अलग हैं ये लोग। यहां साफ-सफाई अधिक है और गांव में समृद्धि भी अधिक है। पूरा गांव महुये की खुशबू से भरा हुआ था। कई घरों में सूरजमुखी की खेती भी दिखी, तो आश्चर्य हुआ। खंडुआलमाली के दूसरी ओर यानी कंचनमुही, जहां से हम पहाड़ चढ़े थे, वहां भी सूरजमुखी के बहुत से खेत दिखे। पूछने पर रघु ने बताया कि इसी साल से इसकी खेती शुरू की है। यानी बाजार यहां घुसपैठ कर पारम्परिक खेती को बदलने लगा है। ‘खाने के लिए खेती’, ‘नकद पैसे के लिए खेती’ की ओर बढ़ रही है।

पलंगपादर पहुंचकर हमने झरने के ठण्डे पानी से स्नान किया और सारी थकान उतर गयी, पांच दिनों में पहली बार यहां अपना चेहरा आइने में देखा, जो कांसे के रंग का हो गया था। साथ चलने वाली स्वाति जो कि 10 दिनों से इसी क्षेत्र में पदयात्रा में थी, का चेहरा और भी तांबई हो गया था। उसने बताया कि यह बॉक्साइट का इलाका होने के नाते शरीर का रंग बदल जाता है। हमें हमारा रंग सुंदर लगा, सो फिर से तस्वीरें ली गयीं। यात्रा समाप्त होने को थी। यहां हमें चाय आसानी से मिल गयी, चाय पीकर हम भवानीपटना की बस पकड़ने के लिए पैदल निकल गये। बस के रास्ते में जंगल-पहाड़ हमारे साथ चलते रहे, कार्लापेट अभयारण्य वाले रास्ते में जगह-जगह पर बोर्ड लगा दिखा-‘‘हाथियों के गुजरने का रास्ता, कृपया गाड़ी धीरे चलायें।’’ रास्ते भर पलाश के फूलों से लदे हुए पेड़ दिखे। यह सब नहीं बचेगा, यदि खंडुआलमाली पर बॉक्साइट खनन होने दिया गया। भवानीपटना से आगे ट्रेन में भी जंगल-पहाड़ साथ चलता रहा, फिर हम दोनों थककर सो गये। सुबह जंगल नहीं था, मैं भी जंगल से गायब थी। लेकिन अभी हम दोनों एक-दूसरे के ख्वाबों में हैं। अगर प्रकृति को नहीं बचाया गया, तो जंगल हमारे ख्वाब से भी खत्म हो जायेगा, और जंगल के खत्म होने से हम भी कहां बचने वाले हैं। नियमगिरी से खंडुआलमाली की इस यात्रा ने इसे अच्छे से समझा दिया।

कैमरे की नज़र से 

सभी तस्वीरें- सीमा आज़ाद

(लेखिका एक सामाजिक कार्यकर्ता और 'दस्तक  नये समय की ' पत्रिका की संपादक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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