गांधी जयंती विशेष: स्वच्छ भारत बनाम मैला ढोता ‘अदृश्य भारत’
वर्ष 2022 में सबसे बड़ा सवाल हमारे सामने यह है कि हम गांधी को कैसे याद करें और क्यों याद करें? क्या आज भी गांधी प्रासंगिक हैं? अगर हैं तो क्यों? भारतीय लोकतंत्र के लिए और हमारे भारतीय समाज के लिए इस सवाल की सबसे बड़ी वजह यह है कि देश में 2014 के बाद से बड़े पैमाने पर गाँधी के हत्यारे को सम्मान पाते देखा है। देश के अन्दर कोने-कोने में गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की मूर्तियां लग चुकी हैं और गांधी से दक्षिणपंथी विचारधारा की नफरत जगजाहिर है।
यह सवाल इसलिए भी अहम है कि मोहनदास करमचंद गांधी यानी महात्मा गांधी के 145वें जन्म दिन 2 अक्टूबर 2014 को देश भर में एक राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत नई दिल्ली में करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था, “2019 में महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के अवसर पर भारत उन्हें स्वच्छ भारत के रूप में सर्वश्रेष्ठ श्रद्धांजलि दे सकता है।” पर उन्होंने मैला ढोने जैसी अमानवीय प्रथा के खात्मे का न कोई ऐलान किया और न इस बारे में कोई जिक्र किया। जैसे उनके लिए ये कोई मुद्दा ही न हो। जबकि गांधी जी भी मैला प्रथा के विरुद्ध अपना मैला खुद साफ़ करने पर जोर देते थे।
दलित समाज की और खासतौर से बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की गांधी की विचारधारा से गहरी असहमति थी। जाति के समूल नाश में विश्वास करने वाले बाबा साहेब आंबेडकर ने गांधी से गंभीर वैचारिक सवाल और नाराजगी सार्वजानिक रूप से रखी थी।
आज उन असहमतियों और विवादों को ध्यान में रखते हुए जब मैं मोदी सरकार द्वारा महात्मा गांधी को स्वच्छ भारत में समेटने का प्रयास देखता हूँ तो मुझे तकलीफ होती है।
स्वच्छ भारत योजना के तहत सफाई कर्मचारयों की sanitation और जाति के शिकंजे को नेस्तनाबूद करने की कोशिश पर पानी डालने का प्रयास किया गया।
हम सफाई कर्मचारी समाज को मैला ढोना, सीवर सेप्टिक टैंक साफ़ करने से बाहर निकालने का सपना लेकर आगे बढ़ रहे थे। वहीं मोदी सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान के तहत हमारे समाज को वापस सफाई के नरक में ढकेल दिया। आज गांधी जयंती पर स्वच्छता का जो ब्राह्मणवादी आख्यान दलितों के खिलाफ रचा गया उस पर बात करना जरूरी है।
गांधी और आंबेडकर समाज को अपनी अपनी तरह से सच की राह पर चलाने समाज में बंधुत्व को कायम करने और नफरत को ख़त्म करने के हिमायती थे।
आज की सरकारें इन लक्ष्यों के बिल्कुल विरुद्ध काम कर रही हैं।
इस तरह स्पष्ट दिखाई देता है कि स्वच्छ भारत की आड़ में मैला ढोते अदृश्य भारत को गुलामी में ढकेला जा रहा है।
क्या विडंबना है कि यह सब गांधी के नाम पर सरकारें कर रही हैं वही गांधी जो आजीवन ये सीख देते रहे कि अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति के लिए सत्ता को काम करना चाहिए।
यह स्पष्ट करता है कि मैला ढोने जैसी अमानवीय प्रथा जिसमे शुष्क शौचालय से लेकर, मलकुंड, ऐसे नाले जिनमे मल बहता हो, रेलवे ट्रैक, सेप्टिक टैंक और सीवर सफाई सभी शामिल हैं, के प्रति प्रधानमंत्री और सरकारें गंभीर नहीं हैं। जबकि इस कुप्रथा के विरुद्ध 1993 और 2013 में दो-दो कानून बन चुके हैं और इसे क़ानूनन प्रतिबंधित कर दिया गया है। साथ ही इसे दंडनीय अपराध घोषित किया गया है। बाबजूद इसके ये कुप्रथा आज भी जारी है। यह दलितों में भी दलित कहे जाने वाली एक जाति विशेष के ऊपर थोप दी गई है। निश्चित रूप से यह उस जाति के भारतीय नागरिकों के मानव अधिकारों का उल्लंघन है।
हम आए दिन देखते-पढ़ते रहते हैं कि लोगों की सेप्टिक टैंको और सीवर में सफाई के दौरान मौत हो जाती है, जिसे हम हत्या कहते हैं क्योंकि ये प्रशासनिक और सामजिक व्यवस्था उन्हें इन मौत के कुओं में घुसने को विवश करती है। जबकि कानून में इनमें घुस कर सफाई करने का निषेध किया गया है। एक रिपोर्ट के अनुसार इस वर्ष यानी 2022 में अभी तक देश भर में 59 सफाई कर्मचारियों की सीवर-सेप्टिक टैंको की सफाई में मौत हो चुकी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का इस मुद्दे पर उदासीनता का आलम यह है कि दिल्ली में भी सफाई कर्मियों की इन सेप्टिक टैंको-सीवरों में मौत हो जाती है तो वे न तो उन्हें देखने जाते हैं और न ही उन पर कोई ट्वीट ही करते हैं जबकि विदेश में किसी नेता का जन्मदिन भी हो तो वे ट्वीट कर बधाई देना नहीं भूलते।
प्रधानमंत्री ने आज़ादी के 75वीं वर्षगाँठ, जिसे उन्होंने अमृत महोत्सव नाम दिया था, के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से अपने भाषण में देश के विकास के लिए 25 वर्षों की रूप रेखा बताई थी और कुछ संकल्प लेने की बात कही थी। उसमे एक संकल्प था - गुलाम मानसिकता से आज़ादी।
इसमें वे सड़कों के अंग्रेजों द्वारा दिए गए नाम बदलने के बात करते हैं। राजपथ को कर्तव्य पथ कर देते हैं। नौसेना के प्रतीक बदल देते हैं, बजट पेश करने की तारीख बदल देते हैं, रेल बजट को आम बजट में समाहित कर देते हैं, वीआईपी कल्चर को समाप्त करने की बात करते हैं।
पर असली गुलाम मानसिकता है जातिवादी मानसिकता, पितृसत्तात्मक मानसिकता जिनके कारण जातिगत भेदभाव किया जाता है, छूआछूत की जाती है, लैंगिक भेदभाव किया जाता है, स्त्री-पुरुष में भेदभाव किया जाता है, स्त्रियों-लड़कियों को पुरुषों-लड़कों से कमतर समझा जाता है। इस गुलाम मानसिकता को कैसे दूर किया जाए। इस पर फोकस क्यों नहीं किया जाता?
गाँधी जी ने सिर्फ स्वच्छता की ही बात नहीं कही थी। उन्होंने आम इंसान के सशक्तीकरण की भी बात कही थी। उन्होंने कहा था– “जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा। क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा?”
प्रधानमंत्री का देश में डिजिटल बदलाव पर तो जोर रहता है पर समाज की जो जातिगत उच्च-निम्न क्रम और धनी-निर्धन की ऊंची-नीची संरचना है उस में बदलाव की, समानता की बात वे नहीं करते। और असली नेता का मकसद समाज में सकारात्मक बदलाव लाना ही होना चाहिए। महात्मा गांधी कहते हैं –“इंसान महान पैदा नहीं होता है, उसके विचार उसे महान बनाते हैं। विचार और काम की शुद्धता और सरलता ही महान लोगों को आम लोगों से अलग करती है। उनका मकसद समाज में बदलाव लाना होता है।”
हमारे सत्तापक्ष के नेताओं की आदत है कि वे सकारात्मक पक्ष को तो बहुत बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं और नकारात्मक पक्ष पर पर्दा डालने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए हमारी अर्थव्यवस्था पांचवें स्थान पर पहुँची इसका बहुत प्रचार किया गया जबकि देश की बुनियादी समस्याएँ जैसे जातिवाद, छुआछूत, गरीबी, भुखमरी, महंगाई और बेरोजगारी से जनता बेहाल है इस पर सत्तापक्ष बात करने से कतराता है। यहां पर भाजपा के ही नेता नितिन गडकरी का बयान काबिले गौर है।
हाल ही में नागपुर में केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने अपने एक बयान में कहा कि भारत के दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने और एक समृद्ध देश होने के बावजूद इसकी जनसंख्या गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, जातिवाद, छुआछूत और महंगाई का सामना कर रही है। उन्होंने कहा कि देश के भीतर अमीर एवं गरीब के बीच की खाई गहरी हो रही है जिसे पाटने की जरूरत है।
गरीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा और जाति मजबूर करती हैं मौत के कुओं में उतरने के लिए
सफाई कर्मचारी समुदाय को दलितों में भी दलित कहा जाता है। आज भी इस वर्ग का अधिकांश हिस्सा गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और अन्धविश्वास में डूबा हुआ है। अधिकतर अनपढ़ माता-पिता रोटी कमाने के लिए सुबह-सुबह निकल जाते हैं। बच्चों की पढाई पर उनका फोकस नहीं होता। परिणाम यह होता है कि वे अच्छी शिक्षा हासिल नहीं कर पाते। युवा होने पर वे बेरोजगारी का दंश झेलते हैं। ऐसे में उन्हें कोई सेप्टिक टैंक या सीवर साफ़ करने को कहते हुए कुछ रुपये देने को कहता है तो वे चंद रुपयों के लिए इन मौत के कुओं में उतर जाते हैं। अन्दर मीथेन गैस इन्हें अपना शिकार बना लेती है। और कुछ मिनटों में ही इस जहरीली गैस से दम घुटने से इनकी मौत हो जाती है।
और इसका परिणाम इनका पूरा परिवार झेलता है। पत्नी विधवा हो जाती है। बच्चे अनाथ हो जाते हैं। माता-पिता बेसहारा हो जाते हैं। पूरे परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है।
कैसे लगे इस कुप्रथा पर रोक और कैसे बचाएं सेप्टिक और सीवर में मरने वालों को
इन सफाई कर्मचारियों की मौत पर सरकार तो उदासीन है इसलिए चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार सबने चुप्पी साध रखी है। ऐसे में गैर सरकारी संगठनों की भूमिका अहम हो जाती है। वैसे तो कई गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) और आंदोलन इस मुद्दे पर काम कर रहे हैं। पर इसमें सफाई कर्मचारी आंदोलन की मुख्य भूमिका है। यह आंदोलन पिछले 40 सालों से भारत से मैला प्रथा उन्मूलन हेतु काम कर रहा है।
सफाई कर्मचारी आंदोलन ने वर्ष दो हजार बीस में मिशन 2020 शुरू करके शुष्क शौचालयों के ध्वस्तीकरण और उन्हें जल चालित शौचालयों में परिवर्तित करने की अंतिम मुहिम चलाई थी। वर्ष दो हजार बाईस में Action 2022 मुहिम चलाई जिसमे Stop Killing Us (हमें मरना बंद करो) का मुद्दा उठाया। यह अभी भी जारी है। सफाई कर्मचारी आंदोलन का साफ़ मानना है कि सेप्टिक टैंको और सीवरों में हो रही मौतें मात्र मौतें नहीं बल्कि हत्याएं हैं। और इनके लिए सरकार जिम्मेदार है। इस बारे में सफाई कर्मचारी आंदोलन का सरकार से संघर्ष निरंतर संघर्ष जारी है।
सफाई कर्मचारी आंदोलन की प्रमुख मांग है कि सबसे पहले सफाई कर्मचारियों का चिन्हीकरण किया जाए फिर उनका गैर सफाई पेशे में पुनर्वास किया जाए जिससे कि वे गरिमापूर्ण जीवन जी सकें।
दूसरी मांग कि सीवर और सेप्टिक टैंको की सफाई मशीनों से कराई जाए जिससे किसी इंसान की जान इनकी सफाई के दौरान न जाए।
तीसरी मांग सफाई कर्मचारियों के बच्चों उनकी युवा पीढ़ी के लिए शिक्षा और उच्च शिक्षा के साथ ही उनकी पसंद के रोजगार में प्रशिक्षण दिया जाए। प्रशिक्षण के दौरान stipend दिया जाए।
स्वच्छ भारत के साथ भारतीयों की मानसिक स्वच्छता भी है ज़रूरी
जब हम स्वच्छ भारत की बात करते हैं तब सिर्फ कूड़ा-करकट और गन्दगी से ही भारत स्वच्छ नहीं होना चाहिए बल्कि हमारे जिन भारतीयों के दिमागों में जाति और सम्प्रदाय की गन्दगी भरी हुई है वह भी साफ़ होनी चाहिए। हम जब तक जाति की कथित उच्चता-नीचता में विश्वास करते रहेंगे, भेदभाव करते हैं, तब तक हम मानसिक रूप से स्वच्छ नहीं हो सकते। इसी प्रकार जब हम हिन्दू-मुसलमान-सिख-इसाई-बौद्ध-जैन आदि सम्प्रदायों के नाम पर नफरत करते हैं तो भला मानसिक रूप से स्वच्छ कैसे कहे जा सकते हैं। इसलिए मानसिक स्वच्छता भी बहुत जरूरी है। साम्प्रदायिक सौहार्द भी बहुत जरूरी है। महात्मा गांधी इसका सन्देश अपने विचारों में देते हैं। 1947 में जब भारत-पाकिस्तान का विभाजन हुआ था तब इतने दुखी थे कि वे रोये थे। उनका एक लोकप्रिय भजन है जिसे हम सब बचपन से सुनते आए हैं –
रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम...
ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवन...
मैला ढोते भारत को छिपाएं नहीं बल्कि उसका अस्तित्व ही हो ख़त्म : बने सम्पूर्ण स्वच्छ भारत
गांधी जी सम्पूर्ण स्वच्छता में विश्वास रखते थे। वे यहाँ तक कहते थे कि शौचालय को अपने ड्राइंग रूम की तरह साफ़ रखना जरूरी है। मैलाप्रथा का इक्कीसवीं सदी में भी जारी रहना निश्चित रूप से पूरे देश के लिए शर्मनाक है। यहां राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी साफ़ दिखती है। अगर प्रधानमंत्री और राजनीतिक सत्तारूढ़ दल ठान लें तो मैलाप्रथा का उन्मूलन बिल्कुल संभव है। ऐसे में देश के एनजीओ, आंदोलनकर्ताओं, जागरूक नागरिकों, सामजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, शिक्षाविदों और ऐसे ही देश का कल्याण और विकास चाहने वालों का उन्हें साथ मिलेगा। जब देश में मैला प्रथा के सभी रूपों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा और मैला प्रथा से जुड़े सभी सफाई कर्मियों का गैर सफाई गरिमापूर्ण पेशों में पुनर्वास हो जाएगा तो निश्चित रूप से भारत सम्पूर्ण रूप से स्वच्छ भारत कहलाएगा। सवाल है कि क्या गांधी जी के इस जन्म दिन 2 अक्टूबर 2022 को सरकार इस तरह का संकल्प लेगी?
(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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