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वे कौन लोग हैं जो गोडसे की ज़िंदाबाद करते हैं?

देश के भीतर ऐसी परस्पर विरोधी प्रवृत्तियां क्या हैं और क्यों हैं? यह इस समाज का पाखंड है, हमारी राजनीति का पाखंड है या फिर संघ परिवार का पाखंड है? आखिर वे कौन लोग हैं जो नाथूराम गोडसे जिंदाबाद के हैशटैग को दिन भर टॉप ट्रेंड कराते रहे?
Hey Raam

दो अक्टूबर यानी गांधी जयंती के मौके पर देश ने दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियां देखीं। एक ओर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल जैसे संघ और हिंदुत्व की विचारधारा से जुड़े देश के कई उच्च पदाधिकारी राजघाट से लेकर लखनऊ, गुवाहाटी तक महात्मा गांधी की समाधि और प्रतिमा के आगे नमन कर रहे थे तो दूसरी ओर ट्विटर पर #NathuramGodseZindabad का हैशटैग कई घंटे तक टॉप ट्रेंड करता रहा। इससे दो साल पहले महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत लोगों से महात्मा गांधी को जीवन में उतारने की अपील कर चुके हैं।

देश के भीतर ऐसी परस्पर विरोधी प्रवृत्तियां क्या हैं और क्यों हैं? यह इस समाज का पाखंड है, हमारी राजनीति का पाखंड है या फिर संघ परिवार का पाखंड है? आखिर वे कौन लोग हैं जो नाथूराम गोडसे जिंदाबाद के हैशटैग को दिन भर टॉप ट्रेंड कराते रहे?

इस देश में गांधी को न मानने वाले बहुत सारे लोग हैं। गांधी की आलोचना करने वाले भी हैं। उनमें कम्युनिस्ट हैं, आंबेडकरवादी हैं और सोशलिस्ट और कांग्रेसी भी हैं। संघ वाले तो लंबे समय तक करते ही रहे हैं। लेकिन गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को जिंदाबाद कहने की धृष्टता न तो आंबेडकरवादी कर सकते हैं और न ही कम्युनिस्ट। गांधी की गाहे बगाहे आलोचना करने वाले सोशलिस्ट और कांग्रेसी तो ऐसा नहीं ही कर सकते। ऐसा करने वाले या तो हिंदू महासभाई हो सकते हैं या कट्टर हिंदुत्ववादी हो सकते हैं। वे ऐसे लोग हैं जिन्हें गांधी विरोध और सत्य अहिंसा का विरोध घुट्टी में पिलाया जाता है। शायद यही वजह भी है कि ट्विटर पर चलने वाले इस तरह के ट्रेंड पर किसी तरह की कोई कार्रवाई की नहीं गई।

सवाल उठता है कि जब संघ परिवार महात्मा गांधी को समझने और उन्हें अपनाने में लगा है तो इस तरह की हरकत उससे जुड़े या हिंदुत्व की विचारधारा वाले संगठन क्यों करेंगे?  इस सवाल का एक जवाब तो साजिश वाले सिद्धांत की तरफ से दिया जा सकता है कि संघ के लोग हर उस चीज को अपना लेना चाहते हैं जिससे राजनीतिक फायदा मिले। चूंकि महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव आंबेडकर राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर के ब्रांड हैं इसलिए संघ उन्हें अपने भीतर समायोजित करने में लगा है। लेकिन वह उन्हें उनकी विचारधारा के साथ नहीं उनकी उस छवि के साथ अपनाना चाहता है। वह उन्हें बदल कर उनकी हिंदूवादी छवि पेश करना चाहता है। यानी वह इन लोगों की मार्केटिंग करना चाहता है लेकिन उनके रास्ते पर चलना नहीं चाहता। यही कारण है कि उसके नेताओं का प्रदर्शन कुछ और है और उसके समर्थकों के दिल में कुछ और है। यानी कथनी और करनी का यह अंतर बहुत गहरा है और उसी का नतीजा है यह परस्पर विरोधी घटना और प्रवृत्तियां।

लेकिन अगर यह मान भी लिया जाए कि संघ परिवार के लोग महात्मा गांधी को पूरी तरह अपनाना चाहते हैं और उनका आदर करना चाहते हैं तो सवाल उठता है कि इतना अनुशासित बताया जाने वाला संगठन इस तरह के विरोधाभास वाले आचरण क्यों करता है? इसकी वजह है गांधी को न समझ पाना। भले ही केरल भाजपा के पूर्व अध्यक्ष पीके कृष्णदास कहें कि महात्मा गांधी आज अगर होते तो भाजपा में होते और पंडित जवाहर लाल नेहरू ने गांधी को दफनाने का काम किया और नरेंद्र मोदी ने उन्हें जीवित कर दिया। वे यह भी कहते हैं कि गांधी को हिंदू होने पर गर्व था और वे भगवतगीता को अपनी मां मानते थे। गांधी अगर होते तो अपनी छड़ी का इस्तेमाल नकली गांधी (नेहरू) के विरुद्ध (पीटने के लिए) करते। या फिर सांसद वरुण गांधी नाथूराम गोडसे जिंदाबाद की आलोचना करते हैं। लेकिन वह आलोचना उच्च स्तर से क्यों नहीं आती? स्पष्ट है कि संघ परिवार एक ओर महात्मा गांधी को अपनाना तो चाहता है लेकिन वह उन्हें समझ नहीं पा रहा है। संघ परिवार ने महात्मा गांधी को समझने के लिए अपने तमाम बौद्धिक लगा रखे हैं और अगर वे पर्याप्त नहीं हैं तो बाहर से भी आयात कर रहे हैं लेकिन गांधी उनके लिए वैसे ही हैं जैसे अंधों के गांव में कोई हाथी चला गया था। इस बौद्ध जातक कथा के अनुसार जब उस गांव के लोगों ने हाथी को समझना चाहा तो किसी ने उसे सूप जैसा बताया, किसी ने खंभे जैसा, किसी ने रस्सी जैसा तो किसी ने कोठार जैसा पाया।

जिस प्रकार पूरी तरह डॉ. भीमराव आंबेडकर का हिंदूकरण संभव नहीं है उसी तरह महात्मा गांधी का भी हिंदूकरण संभव नहीं है। जबकि महात्मा गांधी अपने को एक सनातनी हिंदू कहते थे और डॉ. आंबेडकर ने हिंदू धर्म की कड़ी आलोचना करते हुए उसे त्याग कर बौद्ध धर्म अपना लिया था। संघ के लोग महात्मा गांधी को समझने के लिए कभी वेद से उद्धरण लाते हैं तो कभी गीता तो कभी उपनिषद से। वे कभी कभी रामचरित मानस के बहाने भी गांधी को बांधने की कोशिश करते हैं। वे गांधी को समझने के लिए ईसावास्य उपनिषद और महोपनिषद से दिए जाने वाले उनके उद्धरणों के हवाले से दावा करने लगते हैं कि गांधी तो अपने ही हैं। यानी हिंदू ही हैं। वे गांधी और नेहरू से असहमतियों को भी साथ रखकर ऐसा दिखाते हैं जैसे गांधी नेहरू के शत्रु थे।

दरअसल संघ के लोग गांधी का पाठ गांधी को समझने के लिए नहीं करते बल्कि गांधी के जीवन के बाह्य रूपों से अपनी सोच और अपने कर्मों की छाया दिखा कर उसे सही ठहराने के लिए करते हैं। लेकिन वे जब भी गांधी को अपनी मुट्ठी में कैद करने की कोशिश करते हैं वैसे ही गांधी या तो फिसल कर निकल जाते है या उसके सत्य के तेज से उनकी मुट्ठी जलने लगती है। इसी कोशिश की प्रतिक्रिया में निकलता है नाथूराम गोडसे जिंदाबाद। वास्तव में गांधी सिर्फ हिंदू नहीं हैं। वे श्रेष्ठ हिंदू हैं। बल्कि अगर कहें कि श्रेष्ठतम हिंदू हैं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। लेकिन इसके अलावा वे मुसलमान भी हैं, सिख भी हैं, ईसाई भी हैं और यहूदी भी हैं। वे सेवाग्राम आश्रम से जिन्ना से मुलाकात करने बंबई जा रहे थे। उस समय हमला करने और विरोध करने आए हिंदुत्ववादियों से उन्होंने कहा भी था कि मैं मुसलमान हूं, सिख हूं, ईसाई हूं और हिंदू भी हूं और जो मैं हूं वही तुम लोग भी हो। लेकिन वे जानते थे कि कोई एक धर्म अपने में पूरा नहीं है। सभी ईश्वर तक पहुंचने के भिन्न भिन्न मार्ग हैं। इसलिए कोई धर्म दूसरे को हीन और अपने को श्रेष्ठ कह नहीं सकता। उन्होंने यह भी कहा था कि हमें अपने धर्म की आलोचना करनी चाहिए न कि दूसरे धर्म की। किसी भी धर्म में सुधार करने का तरीका यही है कि उस काम में उसी धर्म के लोग लगें। इस रहस्य को संघ के लोग आज तक नहीं समझ पाए और हमेशा दूसरों के धर्म में कमियां निकालने और सुधार करने में लगे रहते हैं।

गांधी ने हिंदू होते हुए भी हिंदू धर्म छुआछूत और पवित्रता की लंबी परंपरा के विरुद्ध विद्रोह किया और यह साबित करने की कोशिश की कि यह परंपरा धर्मशास्त्र सम्मत नहीं है। गांधी ने पूना समझौते से पहले येरवदा जेल मे जो उपवास किया था वह सिर्फ अंग्रेजों और डॉ. आंबेडकर का विरोध करने के लिए नहीं था। वह सदियों से चली आ रही छुआछूत की परंपरा पर देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता और सबसे बड़े हिंदू का हिंदू धर्म की कुरीति पर सबसे कठोर प्रहार था। उससे संवेदनशील सवर्ण समाज तो झुक गया था लेकिन कट्टर हिंदू समाज गांधी का दुश्मन हो गया था। यही कारण था जब वे छुआछूत मिटाने के लिए यात्रा पर निकले तो उनके काफिले पर सबसे बड़ा हमला पुणे में हुआ। संयोग से पुणे के ही रहने वाले नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या की एक वजह उसे भी बताया था। इस बात को डॉ. राम मनोहर लोहिया भी कहते हैं कि गांधी की हत्या हिंदू मुस्लिम विवाद से ज्यादा हिंदू बनाम हिंदू विवाद के कारण हुई। गांधी वास्तव में भारत के इतिहास के सबसे उदार हिंदू कहे जाएंगे और उन्हें एक कट्टर हिंदू ने मारा। यहीं पर गांधी की वह बात प्रासंगिक हो जाती है कि मैं समस्त हिंदू धर्मग्रंथों में विश्वास करता हूं लेकिन विवेक के अनुसार उसमें परिवर्तन की छूट चाहता हूं।

गांधी पर `लीड काइंडली द लाइट’ जैसी प्रसिद्ध पुस्तक लिखने वाले जाने माने अमेरिकी पत्रकार विलियम शरर ने कहा है कि गांधी की विशेषता यह है कि वे असाधारण काम करते हुए भी अपने को साधारण व्यक्ति ही मानते हैं। लेकिन यहीं उनकी कमी भी है क्योंकि वे सोचते हैं कि जो काम वे कर सकते हैं उसे कोई सामान्य व्यक्ति भी कर सकता है। यह कमी बुद्ध, सुकरात और ईसा मसीह सभी की है और यही कारण है कि उनके सपनों का अहिंसक और सत्यवादी समाज निर्मित नहीं हो पाया। विलियम शरर इस पुस्तक में यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि गांधी ने अहिंसा का संदेश बाइबल के `सरमन आन द माउंट’ से लिया है। हालांकि वे यह भी देखते हैं कि गांधी इसका श्रेय गीता को दे रहे हैं।

लेकिन गांधी के इस चरित्र को समझ पाना तो लगभग असंभव लगता है कि आप जिससे लड़ रहे हैं, जिसे अपने देश से निकालने का आंदोलन चला रहे हैं और जो आप और आपके लोगों का कठोर रूप से दमन कर रहा है उसे भी आप शत्रु नहीं मान रहे हैं। बल्कि वे अपनी हत्या की कोशिश करने वालों को भी दुश्मन मानने को तैयार नहीं थे। राष्ट्रवाद के विचार में निरंतर उग्र होते जाने वाले देश या विदेश के किसी भी नेता या संगठन को यह बात आसानी से समझ में नहीं आ सकती। गांधी जो थे वैसा संगठन वे नहीं बना पाए थे। उनके संगठन पर उनकी छाया जरूर थी। लेकिन वे संगठन के साथ अच्छे मनुष्य बनाने पर जोर देते थे। क्या संघ इस रूप में गांधी को समझने की कोशिश कर रहा है? अगर कर रहा होता तो देश पर उसके इतने प्रभाव के बावजूद नाथूराम गोडसे जिंदाबाद का हैशटैग तो न ट्रेंड करता। इस आलोचना का यह मतलब नहीं कि यह लेखक गांधी को अच्छी तरह से समझता है या उन्हें जी रहा है। या जो संगठन नाथूराम गोडसे जिंदाबाद नहीं कह रहे हैं वे गांधी को समझ रहे हैं और उनके मार्ग पर चल रहे हैं। लेकिन उनसे तो ज्यादा ही समझ रहे हैं और अनुकरण कर रहे हैं जो गोडसे जिंदाबाद कर रहे हैं।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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