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कोविड-19 का वैश्विक दुष्प्रभाव और रूस पर आर्थिक युद्ध 

विकासशील देशों को घनिष्ठ रूप से आपस में सहयोग करना होगा, महामारी के आर्थिक एवं सार्वजनिक दुष्परिणामों का मुकाबला करना होगा और रूस पर लगाए गए आर्थिक युद्ध के नतीजों से मिलकर निपटना होगा।
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तीन अन्तर्सम्बंधित झटकों ने 2007 में शुरू हुई “महान मंदी” से विश्व अर्थव्यवस्था को असमान रूप से उभरने को प्रभावित किया है। कोविड-19 महामारी यूक्रेन में जारी संघर्ष के जरिये संयुक्त राज्य अमेरिका अपनी प्रभुत्वकारी स्थिति को बरकरार रखने के लिए प्रयासरत है। इन तीनों का अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा है।

कोविड-19 का चिकित्सकीय रूप में जनवरी 2020 में पता चला था, लेकिन अधिकांश विकसित देशों के द्वारा महामारी से निपटने के लिए चीन की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था से सबक सीखने को अवहेलना की गई। इसका नतीजा यह निकला कि उन्हें अपरिहार्य रूप से आर्थिक एवं स्वास्थ्य की बर्बादी से दो-चार होना पड़ा। उन्होंने अपनी अपेक्षाकृत उच्च प्रति व्यक्ति आय और सार्वजनिक स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे का इस्तेमाल नहीं किया, जो इस बर्बादी हो कम से कम करने में मददगार साबित हो सकता था, क्योंकि यह उनके नव-उदारवादी परियोजना के आधिपत्य के साथ मेल नहीं खाता था। इसके बजाय इन देशों के अभिजात्य वर्ग ने चीन को बलि का बकरा बनाया और महामारी से निपटने के लिए नव-उदारवादी नीति की विफलता को डोनाल्ड ट्रम्प जैसे कुछ नेताओं की “मूर्खतापूर्ण विशिष्टता” के जरिये गलत रूप से जिम्मेदार ठहरा दिया गया।

वहीं दूसरी तरफ नव-उदारवादी परियोजना में उलझे अधिकांश विकासशील देश कोविड-19 से प्रभावी ढंग से निपटने को वहन करने की स्थिति में नहीं थे। पूँजी पर उनके नियंत्रण की अनुपस्थिति का अर्थ था कि उनकी सरकारें सार्वजनिक स्वास्थ्य की जरूरतों और श्रमिकों, किसानों और छोटे उद्यमों की जरूरत के मुताबिक अपने राजकोषीय घाटे को नहीं बढ़ा सकते थे। इसके बजाय, उनके राजकोषीय घाटे को (निचले) स्तरों पर बनाए रखा गया, जिसे अंतरराष्ट्रीय वित्त ने “स्वीकार्य” स्तर का पाया।

भारत जैसे कई विकासशील देशों के लिए तो यहाँ तक कहा जा सकता है कि उनके यहाँ तो सीमित “राजकोषीय स्थान” का भी अपर्याप्त तौर पर इस्तेमाल किया गया। जिसका नतीजा यह निकला कि भारत की आर्थिक गतिविधि और सार्वजनिक स्वास्थ्य को व्यापक पैमाने पर धक्का पहुंचा। उत्तरार्ध ने भारत के द्वारा महामारी के कारण सबसे अधिक मौतों के एक उदाहरण के रूप में पेश किया है।

जब तक टीके उपलब्ध नहीं हो गये, तो उस दौरान गैर-फार्मास्युटिकल हस्तक्षेपों को अपनाया गया, जैसे कि लॉकडाउन, मास्क लगाना, हाथों को सैनिटाइज करना, यात्रा पर प्रतिबंध जैसे उपायों को लागू करना पड़ा था। इसने कोविड-19 से होने वाली कुछ मौतों को अवश्य रोका, लेकिन अधिकांश देशों के द्वारा लॉकडाउन जैसे उपायों को अपनाने के कारण वैश्विक मंदी की स्थिति उत्पन्न हो गई। ऐसा इसलिए क्योंकि नव-उदारवादी परियोजना के दायरे में रहकर काम करने वाली अधिकांश सरकारें वैश्विक स्तर पर समन्वित राजकोषीय नीति के संवर्धन के लिए कारपोरेट पर कर लगा पाने में असमर्थ थी। हालांकि, असंगठित राजकोषीय प्रोत्साहन के कारण, जिसे विकसित देशों में अपेक्षाकृत ज्यादा व्यापक तौर पर लागू किया गया, जिसने मंदी की स्थिति को एक पूर्ण अवसाद में बिगड़ने से रोक दिया।

कोविड-19 के चलते होने वाले अल्पकालिक विपरीत आर्थिक प्रभाव ने उत्पादन से कहीं अधिक रोजगार और मजदूरी की दरों को प्रभावित किया, यद्यपि इस चरण के दौरान सभी तीनों आर्थिक घटकों में गिरावट का रुख रहा। दूसरे शब्दों में कहें तो अधिकांश (लेकिन सभी नहीं) देशों में नीतियां के परिणामस्वरूप मजदूरों, किसानों और छोटे उद्यमों की कीमत पर कारपोरेट क्षेत्र को जमकर लाभ हुआ। आय के वितरण में इस प्रकार के प्रतिकूल परिवर्तन की वजह से मांग, उत्पादन और अंततः निवेश को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया। यही कारण है जब कभी भी कोविड-19 संक्रमण और मौतों में गिरावट आई, तो विश्व अर्थव्यवस्था महामारी के पूर्व के स्तर पर तेजी से “वापस” क्यों नहीं आ पाई।

टीके की उपलब्धता के बाद, कोविड-19 से निपटने के लिए दो नीतिगत रणनीतियां सामने आईं: एक था “कोविड के साथ जीना” और दूसरा था चीन की जीरो-कोविड रणनीति। पहला बिना किसी वाजिब तर्क के टीके से लेकर मास्क लगाने एवं अन्य गैर-फार्मास्यूटिकल हस्तक्षेपों का प्रतिकार करता है। इसमें पहली बात तो यह है कि टीकाकरण संक्रमित व्यक्ति को दूसरों को संक्रमित करने से नहीं रोकता है। यह टीका लगाने वालों में गंभीर रूप से बीमार होने और मौत कि संभावना को कम करता है। दूसरा, कई देशों ने टीकाकरण के सार्वभौमिक होने से पहले ही मास्क लगाने और अन्य गैर-फार्मास्यूटिकल हस्तक्षेपों पर जोर देना बंद कर दिया था। इसका परिणाम यह हुआ कि “कोविड के साथ जी रहे” देशों में, जहाँ पर आर्थिक गतिविधियाँ, संक्रमण और मौतों का चक्रीय स्वरुप बना हटा था, वहां पर कोविड-19 की लहरें बार-बार आती रहीं।

वैज्ञानिक सोच में असंगति और नव-उदारवादी परियोजना के वर्चस्व के कारण वैक्सीन को लेकर हिचकिचाहट ने इन तरंगों को और बढ़ाने का काम किया, जैसा कि वैक्सीन की खुराक, म्यूटेशन एवं वायरस के पुनर्संयोजन (अधिक संचरण के कारण) और समय से पहले श्रमिकों, किसानों और छोटे उद्यमों को मिलने वाले (सीमित) सरकारी समर्थन को वापस ले लेने के चलते हुई। इसके अलावा लंबे काल तक कोविड ने “कोविड के साथ जीने” वाले देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य की उपलब्धियों को कमतर बना दिया है।

इसके विपरीत, गतिशील जीरो-कोविड रणनीति ने रोग के खात्मे के लिए तेजी से एक बिंदु की तरफ प्रगति हासिल की। इसके चलते वहां पर उच्च संचयी आर्थिक गतिविधि के साथ-साथ कुल संक्रमण एवं कोविड-19 के कारण कम मौतें हुईं। हालाँकि, नव-उदारवादी परियोजना के आधिपत्य में “कोविड के साथ जीने” वाली घटिया रणनीति अधिकांश देशों में आदर्श बन गई, जबकि इसके विनाशकारी आर्थिक एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य के दुष्परिणाम भुगतने पड़े। 

जैसे ही कोविड-19 महामारी ने दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया, कुछ मुख्यधारा की मीडिया और संबंधित नीतिगत हलकों ने दावा किया कि वैश्विक मूल्य श्रृंखला (मुख्य रूप से पूर्वी एशिया में) चीन जैसे देशों से दूर हो जायेगी। अमेरिकी अभिजात वर्ग का एक हिस्सा चीन के ऊपर अपनी “निर्भरता” को लेकर चिंतित था, जो कि महामारी के दौरान पूरी तरह से स्पष्ट हो गया था। इस प्रकार के दावे उन कारकों की गलत समझ पर आधारित होते हैं जो वैश्विक मूल्य श्रृंखला के भूगोल को रेखांकित करते हैं। ये कारक प्राथमिक रूप से उद्यमों के लाभ-आधारित फैसलों पर निर्भर करते हैं और इसमें उत्पादन लागत, मांग स्रोतों तक पहुँच और वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं में अन्य हिस्सों से निकटता के पहलू भी शामिल होते हैं।

वास्तव में चीन और विकसित देशों के बीच में कोविड-19 से निपटने के लियए अलग-अलग दृष्टिकोण ने मांग और लागत के संबंध में दोनों स्थानों के बीच की खाई को हो सकता है और चौड़ा कर दिया हो। संतुलन पर, वर्तमान में पूर्वी एशिया में वैश्विक मूल्यों को केंद्रित करने का कोई सार्थक विकल्प नहीं है। इसके विपरीत जो दावे किये जा रहे हैं, वे काफी हद तक मात्र “आकांक्षा” जगाने वाले हैं।

संयुक्त राज्य अमेरिका के अभिजात वर्ग के नेतृत्व में रूस के खिलाफ़ आर्थिक युद्ध का विश्व अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण प्रभाव होने जा रहा है। सर्वप्रथम, बैंक ऑफ रशिया (रूसी संघ का केंद्रीय बैंक) के विदेशी मुद्रा भंडार के एक हिस्से को “अवरुद्ध” कर दिया गया है। इन भंडारों को संयुक्त राज्य अमेरिका के “सहयोगियों” के द्वारा, या स्वयं अमेरिका के द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों के तौर पर जब्त कर लिया गया है। इसलिए, फ्रीज करने का अर्थ हुआ इन प्रतिभूतियों पर ब्याज और मूलधन पर डिफ़ॉल्ट की स्थिति आ गई। दूसरे शब्दों में कहें तो यह एक मनमाना समायोजन है। दूसरा, कई रूसी बैंकों को स्विफ्ट सिस्टम से काट दिया गया है। तीसरा, कई (हालांकि सभी नहीं) और बहुराष्ट्रीय निम्तों ने रूस से बाहर निकलने की    योजना।बनाई है। चौथा, रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका या उसके “सहयोगियों” के बीच कई वस्तुओं के व्यापार को प्रतिबंधित कर दिया गया है।

पाँचवाँ, रूसी अभिजात वर्ग और सरकार की संपत्तियों को, जो संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके “सहयोगियों” के क्षेत्र में स्थिति थी, को कुल मिलाकर जब्त कर लिया गया है। अमेरिका के अभिजात वर्ग के विचार में इस प्रकार के “अधिकतम दबाव” की रणनीति रूसी सरकार को यूक्रेन में संघर्ष में किसी समझौते के लिए सहमत करा सकती है, जो कि संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए स्वीकार्य होगा। इस भरोसे को अभी तक मान्यता नहीं मिल पाई है।आंशिक रूप से इसलिए, क्योंकि रूसी सरकार के जखीरे में इस आर्थिक युद्ध के लिए कई प्रतिवाद के उपाय मौजूद हैं।

सबसे पहले, बैंक ऑफ रूस ने रूबल की चालू खाते की परिवर्तनीयता को प्रभावी रूप से अस्वीकार करते हुए पूंजी नियंत्रण को लागू कर रखा है। दूसरा, इसने शुरू से ही वित्तीय पूंजी को बनाये रखने के लिए नीतिगत दर को बढ़ाकर 20% कर दिया था। तीसरा, इसके द्वारा एक निश्चित मूल्य पर रूबल का निर्धारण कर दिया गया है, यानि 5,000 रूबल प्रति ग्राम के हिसाब से सोना खरीदने की पेशकश की है। चौथा, अमेरिका के यूरोपीय “सहयोगियों” के पास गैस, तेल, यूरेनियम और टाइटेनियम जैसी कई वस्तुओं की अबाध आपूर्ति के लिए रूस का कोई सार्थक विकल्प मौजूद नहीं है। इसलिए अपनी आर्थिक आक्रामकता को “रचनात्मक रूप से संशोधित” करते हुए उनके द्वारा रूस  के साथ लगातार ऐसे वस्तुओं में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष व्यापार का क्रम बना हुआ है। उदाहरण के लिए, एक “प्रतिबन्ध के अनुरूप” लातिवियाई तेल परिशोधन को तैयार किया गया है, जिसमें अन्य स्रोतों से तेल के साथ रुसी तेल का मिश्रण शामिल है। इसी प्रकार से जापानी सरकार ने कहा है कि वह अपनी उर्जा स्वतंत्रता को बरकरार रखेगा, और इसके लिए वह रूस के साथ संयुक्त प्राकृतिक गैस परियोजनाओं से बाहर नहीं निकलेगा।

पांचवा, रूसी सरकार ने अमेरिकी डॉलर को दरकिनार करते हुए “मित्र” देशों के साथ राष्ट्रीय मुद्राओं में अपने व्यापार को शुरू कर दिया है। “अमित्र देशों” (अमेरिका और उसके सहयोगी देशों) के संबंध में रुसी सरकार ने मांग की है कि आयात के लिए वे रुसी मुद्रा रूबल में भुगतान करें। छठा, रुसी सरकार ने अमित्र देशों से प्रतिबंधित आयात को बदलने के लिए “अनब्रांडेड” वस्तुओं के आयात पर रोक लगा दी है। सातवाँ, रूस में अमित्र देशों के वे बहुराष्ट्रीय निगम जो देश से बाहर जाना चाहते हैं, की सम्पत्तियों का घरेलू अधिग्रहण को लागू कर दिया है। आठवाँ, चूँकि संयुक्त राज्य अमेरिका अमेरिकी डॉलर में गैर-रूसी संस्थाओं को रुसी सरकारी ऋण सेवा के भुगतान कि अनुमति देने के लिए अनिच्छुक है, ऐसे में रुसी सरकार ने इन लेनदारों को रूबल में भुगतान करने की पेशकश की है, जिसे तकनीकी रूप से एक डिफ़ॉल्ट के रूप में व्य्ख्यायित किया जा रहा है। हालांकि, इस आर्थिक युद्ध के वृहद आकार और प्रतिवादों को देखते हुए, ऐसे “डिफ़ॉल्ट” के रूस के लिए संभावित परिणाम प्रतिकूल हो सकते हैं, किंतु ये रुसी नीतियों को बदलने के लिए पर्याप्त रूप से मजबूत नहीं हो सकते हैं, जिन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका के अभिजात वर्ग अपने लिए अनुकूल मानते हैं।

नतीजे के तौर पर, रूस ने रूबल-अमेरिकी डॉलर विनिमय में जो शुरुआती गिरावट आई थी, उसे पूरी तरह से उलट दिया है। इसके लिए बैंक ऑफ रूस ने ब्याज की नीतिगत दर को घटाकर 17% तक कम कर दिया है। इसी प्रकार, रूबल में एक निश्चित मूल्य पर सोने की खरीद को “तय” मूल्य पर खरीदने के लिए संशोधित कर दिया है। नव-उदारवादी अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि यह एक “धांधली” वाली विनिमय दर है। उनका कहना है कि एक बार जब रूस के द्वारा इन नीतिगत उपायों को वापस ले लिया जायेगा, तो रूबल फिर से डॉलर की तुलना में गिर जायेगा।यह बताने की जरूरत नहीं है कि, “बिना धांधली” वाली विनिमय दरें वे हैं जो अंतर्राष्ट्रीय वित्त की सीमाओं द्वारा निर्धारित की जाती हैं।नव-उदारवादी अर्थशास्त्रियों के द्वारा इस बात पर भी शोक व्यक्त किया गया है कि बैंक ऑफ़ रूस अब “स्वतंत्र” नहीं रह गया है, क्योंकि यह सक्रिय रूप से अंतर्राष्ट्रीय वित्त के हितों को आगे नहीं बढ़ा पा रहा है।और इस प्रकार संयुक्त राज्य अमेरिका के अभिजात वर्ग की सेवा कर पाने में अक्षम है।

हालांकि, रुसी सरकार मजबूरीवश ही केवल आंशिक रूप से ही खुद को नव-उदारवादी परियोजना से अलग कर पाई है। रूस में, मुद्रास्फीति की दर 20% हो चुकी है, लेकिन सरकार पर्याप्त मूल्य नियंत्रण को स्थापित करने या घरेलू मुद्रास्फीति को बढ़ाने वाले सट्टा स्टॉक होल्डिंग्स से निपटने के मामले में अनिच्छुक दिख रही है। यह गारंटीशुदा रोजगार प्रदान करने या सार्वजनिक निवेश को बढ़ाने के लिए भी हीला-हवाली करती नजर आ रही है, जो उन घरेलू क्षेत्रों को स्थिर करने में सहायक सिद्ध हो सकती है जो मांग कि कमी को बना रहे हैं। निश्चित रूप से, यह मित्र देशों से आयात प्रतिस्थापन के साथ अमित्र देशों से आवक की अपर्याप्त उपलब्धता से बाधित घरेलू उत्पादन क्षेत्रों की समस्याओं को दूर कर सकता है। लेकिन यह अभी भी स्पष्ट नहीं है कि रूसी सरकार इस प्रकार के दूरगामी औद्योगिक नीतियों को आने वाले दिनों में अपनाने जा रही है या नहीं।

इस आर्थिक युद्ध से पहले भी, कई देशों में मुद्रास्फीति बढ़ चुकी थी - इसलिए नहीं कि महामारी के दौरान राजकोषीय प्रोत्साहन की वजह से मजदूरी की दर में वृद्धि हुई, बल्कि एक मजदूरी-मूल्य सर्पिल शुरू हुआ, और कॉर्पोरेट के द्वारा इसका जवाब मूल्यवृद्धि के द्वारा दिया गया। मजदूरी, किसानों एवं छोटे उद्यमों कि उत्पादन में हिस्सेदारी असल में पहले से गिर गई है। इसके बजाय, स्पष्ट रूप से महामारी से निपटने वाली नीतियों में विकसित देशों में केंद्रीय बैंक शामिल हैं, जिन्होंने कॉर्पोरेट-वित्तीय कुलीनतंत्र को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर वित्त की असीमित आपूर्ति की पेशकश की है। यह पैसा उन गतिविधियों में चला गया जहाँ पर कॉर्पोरेट वित्तीय कुलीन वर्ग को सर्वाधिक मुनाफे की उम्मीद थी।

“कोविड के साथ जीने” की रणनीति के कारण वैश्विक मूल्य श्रृंखला के ध्वस्त हो जाने से (मुख्यतया) कुछ प्राथमिक वस्तुओं में कमी आ गई है. जैसा कि अपेक्षित था। कॉर्पोरेट वित्तीय कुलीनतंत्र ने इन वस्तुओं के बारे में अनुमान लगा रखा था, और यह मुद्रास्फीति का यह प्रमुख कारक था। एक अतिरिक्त कारक, छोटे उद्यमों पर चुनिंदा रूप में दबाव भी था।महामारी की विषम प्रतिक्रिया ने कीमतों के निर्धारण को लेकर कॉर्पोरेट के एकाधिकार को बढ़ा दिया है। आर्थिक युद्ध की अव्यवस्था और कमी ने प्राथमिक वस्तुओं की कीमतों में बढोत्तरी की उम्मीदों को और बढ़ा दिया है जिसके कारण अटकलों का एक नया दौर शुरू हो गया है। मुद्रास्फीति पर लगाम लगाने के लिए ब्याज की नीतिगत दरों में बढ़ोतरी से मांग, उत्पादन, रोजगार और इसके परिणामस्वरूप मजदूरी में भी कमी आने की उम्मीद है।लेकिन इस सबसे निवेश में भी कमी आने की संभावना है।

यदि निवेश में गिरावट मांग में कमी की तुलना में आपूर्ति की प्रतिकिया को प्रभावित करती है, तो इससे मद्रास्फीति कम नहीं होने जा रही है। उदाहरण के लिए, यदि बढ़ती ब्याज दरें, संयुक्त राज्य अमेरिका के यूरोपीय “सहयोगियों” के लिए रूसी ऊर्जा के विकल्पों में निवेश को धीमा कर देती है, तो सट्टा-संचालित वस्तुओं की स्टॉक-होल्डिंग मुद्रास्फीति को अधिक समय के लिए उच्च स्तर पर बनाए रखेगी। इसके साथ ही, यदि संयुक्त राज्य अमेरिका को यदि लगता है की यूक्रेन संघर्ष ऐसी दिशा की ओर बढ़ रहा है, जो उसके लिए अस्वीकार्य है, तो उस स्थिति में यह आर्थिक युद्ध को तेज कर सकता है, जो मुद्रास्फीति की गति को तेज कर देगा।

चूँकि यूक्रेन के साथ रूस भी उर्वरकों का एक महत्वपूर्ण निर्यातक देश है। और इसके साथ ही कृषि उपज का एक बड़ा निर्यातक देश भी है, ऐसे में आर्थिक युद्ध के चलते वित्तीय संकट और खाद्य असुरक्षा में इजाफा होगा, विशेषकर विकासशील देशों में। यहाँ तक कि संयुक्त राज्य अमेरिका तक ने रूसी उर्वरक निर्यात को अपने आर्थिक युद्ध के दायरे से बाहर रखा हुआ है। हालांकि, विकासशील देशों के बीच में बढ़ा हुआ कृषि व्यापार केवल खाद्य असुरक्षा का ही पुनर्वितरण करेगा जब तक कि विश्व कृषि उत्पादन में इजाफा न हो जाये। यदि सरकारों को अपने आकस्मिक खाद्य भंडारण को बढ़ाने की चाहत है तो इससे वैश्विक खाद्य असुरक्षा में ही इजाफा होने जा रहा है।

आर्थिक युद्ध के चलते इस बात की संभावना बनी हुई है कि चीन और विकसित देशों के बीच में उत्पादन लागत, मांग इत्यादि में अंतर के बढ़ने की संभावना है। संयुक्त राज्य अमेरिका ने बड़े पैमाने पर जर्मनी और जापान को अपने आर्थिक युद्ध में शामिल होने के लिए राजी कर लिया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि उनके अल्पावधि में उर्जा और खनिज जैसे रुसी आवक तक पहुँच के कम हो जाने की संभावना है। उन्हें लंबे समय तक के लिए कुछ इनपुट के महंगे विकल्पों की तलाश करने के लिए बाध्य होना पड़ सकता है। इस प्रकार से, चीन और जर्मनी और जापान के बीच में उत्पादन लागत का अंतर बढ़ सकता है।

इसके अलावा, चूँकि अधिकांश देश (चीन और भारत सहित) रूस के साथ सामान्य आर्थिक संबध बनाये रखना चाहते हैं, जिसमें रक्षा उत्पाद सहित अन्य वस्तुएं (मुख्य रूप से इनपुट) शामिल हैं। इसलिए, उनके लिए रूस से इन वस्तुओं की रियायती दरों पर प्राप्त करने की संभावना बनी हुई है। संयुक्त राज्य अमेरिका के कई यूरोपीय एवं कुछ एशियाई “सहयोगियों” को रूस के साथ संबंध-विच्छेद करने के लिए राजी कर लिया गया है, जिसके चलते वे रियायती दरों के माध्यम से अपनी वस्तुओं के लिए वैकल्पिक खरीदार को ढूंढने के लिए मजबूर कर दिए गए हैं। इसका नतीजा चीन, जर्मनी और जापान के बीच में उत्पादन लागत में अंतर को बढ़ाने में होगा।

यदि जर्मनी और जापान के द्वारा मजदूरी को कम करके उत्पादन की लागत को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया तो चीन और उनके बीच मांग में अंतर बढ़ जायेगा। इसके साथ ही यदि चीन ने सार्वजनिक निवेश के जरिए तकनीकी सीढ़ी को गे बढ़ाने की प्रक्रिया को तेज किया तो आर्थिक गतिविधि के मौजूदा भूगोल में और भी बड़े बुनियादी बदलाव की संभावना बलवती हो जाती है।

इस आलोक में, यह समझना संभव है कि रूस को अलग-थलग करने के प्रयास में संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रयास क्यों विफल हो रहे हैं? रूस अपने आप में रक्षा उत्पादों, ऊर्जा, खनीज पदार्थों एवं अन्य प्राथमिक वस्तुओं का एक अविभाज्य आपूर्तिकर्ता रहा है। कोई सार्थक वैकल्पिक स्रोत के अभाव में, रूस के साथ आर्थिक संबंधों को समाप्त करने से इंकार करने वाले देशों के ऊपर द्वितीयक प्रतिबंधों का खतरा लगातार बढ़ रहा है। इसके साथ ही, उसने ताइवान पर तनाव को बढ़ाने की कोशिश की है, जो संघर्ष को बढ़ा सकता है। ऐसा जान पड़ता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि “एकध्रुवीय क्षण” वास्तव में अपने समापन की ओर है। अमेरिकी डॉलर की रिज़र्व करेंसी के तौर पर काम करने की क्षमता एक बार फिर से सवालों के घेरे में आ गई है।

डॉलर आधारित स्वर्ण मानक की समाप्ति के बाद ऐसे कई कारक थे जिन्होंने अमेरिकी डॉलर को वैश्विक रिज़र्व करेंसी बनाने में अपनी भूमिका अदा की थी। सर्वप्रथम, अधिक बार नहीं किंतु संयुक्त राज्य सरकार ने इस बात को सुनिश्चित किया कि तेल जैसी महत्वपूर्ण वस्तु की डॉलर की कीमत दोनों दिशाओं में सीमित है। यदि तेल की डॉलर की कीमत बढती है तो उस स्थिति में संयुक्त राज्य अमेरिका में अपेक्षाकृत उच्च लागत वाले शेल की आपूर्ति की जायेगी, जो उपर से सीमित अमेरिकी डॉलर की शर्तों पर तेल की कीमतों को बनाये रखेगा। इसके अलावा, सऊदी अरब  सुरक्षा के लिए तेल का व्यपार कर (संयुक्त राज्य अमेरिका के सैन्य समर्थन) से स्विंग उत्पादक के तौर पर अपनी भूमिका निभाएगा। दूसरे शब्दों में कहें तो संयुक्त राज्य सरकार डॉलर की कीमत को बढ़ने या गिरने से बचाने के लिए सऊदी सरकार को तेल की आपूर्ति में बदलाव लाने के लिए राजी कर सकता है। दूसरा, तेल जैसी आवश्यक वस्तुओं के व्यापार में मुख्य रूप से डॉलर की प्रधानता है। तीसरा, पश्चिमी एशिया के कई देशों के द्वारा तेल की बिक्री से होने वाली आय को संयुक्त राज्य अमेरिका के बैंको में जमा किया जाता है या संयुक्त राज्य सरकार की प्रतिभूतियों के तौर पर रखा जाता है।

चौथा, संयुक्त राज्य की अर्थव्यवस्था अभी हाल के दिनों तक वैश्विक मूल्य श्रृंखला में आविष्कार के स्रोत, उन्नत प्रौद्योगिकी-आधारित वस्तुओं के डिजाइन के निर्माण स्थल के तौर पर एक महत्वपूर्ण बाजार के रूप में गहराई से गुंथी हुई थी। इस तीसरी भूमिका को सरकार के द्वारा एक निर्यात अधिसेश के साथ वित्त पोषित किया गया था, जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका के द्वारा अपनी सरकार को उधार दिया जाता था।

हालांकि, अगल-अलग मात्रा के लिए, चीन के उदय और अधिकांश अर्थव्यवस्थाओं के साथ बाद के महत्वपूर्ण व्यापार और निवेश में एकीकरण के कारण वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं में संयुक्त राज्य अमेरिका में इन तीनों भूमिकाओं में गिरावट आई है। वस्तुओं के वैश्विक व्यापार के मामले में संयुक्त राज्य अमेरिका की अब केंद्रीय भूमिका नहीं रही। हालाँकि अभी भी अंतर्राष्ट्रीय वित्त के मामले में इसकी केंद्रीय भूमिका बनी हुई है। बैंक ऑफ़ रूस के भंडार के एक हिस्से को नाहक हड़पने के जरिये, उन देशों को एक चेतावनी दी गई है, जो इसके “सहयोगी” नहीं हैं। ये देश अब अमेरिकी डॉलर के अलावा अन्य मुद्राओं की ओर अपने केंद्रीय बैंक के रिज़र्व को विविधता लाने की कोशिश करना चाहेंगे (और अन्य मुद्राओं में अंतरराष्ट्रीय व्यापार करने की कोशिश करेंगे)। यदि चीन शोध एवं डिजाइन के क्षेत्र में संयुक्त राज्य अमेरिका के विकल्प के तौर पर उभरता है, तो यह अमेरिकी डॉलर को वैश्विक आर्थिक गतिविधियों में और भी कमजोर कर सकता है। हालांकि, जब तक प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं अंतर्राष्ट्रीय वित्त पर पूंजी नियंत्रण को लागू नहीं कर पाती हैं, तब तक रिज़र्व करेंसी के रूप में अमेरिकी डॉलर के विकल्प के उभरने की संभावना नहीं है।

यदि कोविड-19 एक बार फिर से उभरता है, और विकसित देशों के द्वारा “कोविड के साथ जीने” की राह पर चलना जारी रखा जाता है, तो ऐसी अवस्था में पूर्वी एशिया की ओर वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं का बदलाव हो सकता है और अमेरिका के आधिपत्य वाली स्थिति में तेजी से कमी आ सकती है। इसकी सीमा चीन और रूस के बीच के रणनीतिक संधि के  भंग होने की दहलीज पर निर्भर करेगी। यूक्रेन में संघर्ष का नतीजा भी निर्णायक भूमिका निभाएगा।  आर्थिक, राजनीतिक एवं सैन्य संसाधनों के संयोजन के जरिये संयुक्त राज्य अपने आधिपत्य की स्थिति के नुकसान को पूरा करने की कोशिश में मुकाबले में लगा है। इस प्रतियोगिता के लोकतांत्रिक निष्कर्ष के उभरने के लिए, विकासशील देशों को आपस में निकटतम सहयोग करना होगा, कोविड-19 महामारी के आर्थिक एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य परिणामों का मुकाबला करना होगा, और रूस पर आर्थिक युद्ध के नतीजों से एक साथ मिलकर निपटना होगा।

इस लेख के लेखक, सत्यवती कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे के लिंक पर क्लिक करें

Global Implications of Covid-19 and the Economic War on Russia

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