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जंगल और ज़मीन पर हक़ के लिए आदिवासी किसानों का संघर्ष आख़िर कब तक?

"पहले अंग्रेज़ अफ़सर हमें खेती करने से रोकते थे, हमने उनसे संघर्ष किया और अब आज़ादी के बाद भी हम लगातार अपनी ज़मीन के मालिकाना हक़ के लिए संघर्ष कर रहे हैं।"
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फाइल फ़ोटो,किसान लॉन्ग मार्च की फ़ोटो, कैमरा मोहित सौदा

देशभर के आदिवासी किसान, वन अधिकार अधिनियम के तहत अपनी ज़मीन के मालिकाना हक़ की मांग लंबे समय से करते रहे हैं। इन किसानों का आरोप है कि वन संरक्षण के नाम पर इन्हें इनकी ज़मीन से बेदख़ल करने की कोशिश की जा रही है। इस पूरे मसले पर हमने इन आदिवासी किसानों के पक्ष को समझते हुए ज़मीनी हक़ीक़त समझने की कोशिश की।

"हमारे गांवों में आजतक बिजली नहीं है, हम आज भी बिना बिजली के जी रहे हैं। सड़क नहीं है, पीने का पानी भी नहीं है, हम बहुत तकलीफ़ में रहते हैं। मोदी जी ने कहा था कि हर घर नल से जल मिलेगा लेकिन हमरे यहां पानी नहीं मिलता है। बिजली के लिए एक बार गड्ढे भी खोदे गए लेकिन फिर वन अधिकारियों ने उस पर रोक लगा दी और आज भी हम अंधेरे में रहते हैं और घासलेट से दीपक जलाते हैं। खेती के लिए पूरी तरह से हम बारिश पर निर्भर रहते हैं। ये सब झेलने को हम मजबूर हैं लेकिन इसके बाद भी सरकारी अफसर हमें परेशान करते हैं।"

ये कहना है किसान लॉन्ग मार्च में शामिल महिला आदिवासी किसान निकिता नितिन काकड़ा का जिनकी उम्र लगभग 30 साल है। वो अपने गांव के अन्य पुरुषों व महिलाओं के समूह के साथ लगातार शुरुआत से ही 12 मार्च 2023 से शुरू हुए लॉन्ग मार्च का हिस्सा रहीं। लगभग दस से अधिक महिलाओं के समूह में केवल निकिता ही हिंदी बोलने में सक्षम थीं लेकिन जब वो हमसे बात कर रही थीं तो बाक़ी महिलाएं भी उनकी बातों से सहमति जता रही थीं।

निकिता की ये बातें सरकार के हर उस दावे की पोल खोल रहे थे जिन दावों के तहत सरकार हर घर बिजली और पानी पहुंचाने की बात कर रही थी। बता दें कि ये जिस पुश्तैनी ज़मीन पर रहते हैं या खेती करते है वो सरकारी कागज़ों में वन भूमि है। आरोप है कि सरकार व प्रशासन उन्हें वहां से हटाना चाहता है या उन्हें वहां रहने नहीं देना चाहता है जबकि आदिवासियों का दावा है कि ये वन भूमि उनकी है और ये उस पर आज़ादी के पहले से रह रहे हैं।

हालांकि भारत सरकार ने अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 बनाया है जिसे आमतौर पर वन अधिकार अधिनियम (FRA) के रूप में जाना जाता है, जो वनों में रहने वाले समुदायों और व्यक्तिगत निवासियों के वन अधिकारों और वन भूमि पर कब्ज़े को पहचानने और मान्यता प्रदान करने के लिए लाया गया है। पीढ़ियों से ये लोग ऐसे जंगलों में निवास कर रहे हैं लेकिन उनके अधिकार दर्ज नहीं हो सके हैं। यह अधिनियम वन क्षेत्रों में उनकी पैतृक भूमि और आवास आदि को मान्यता प्रदान करता है लेकिन वन अधिकारों को मान्यता देने के काम को पर्याप्त रूप से लागू नहीं किया जा सका है, जिसके परिणामस्वरूप ये उन वनवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ, जो वन पारिस्थितिकी तंत्र के अस्तित्व और स्थिरता के अभिन्न अंग हैं।

वन अधिकार अधिनियम में ये गारंटी है कि आदिवासी जिस ज़मीन पर रहते या खेती करते हैं अगर उसकी सीमा दस एकड़ या उससे कम है तो उसपर उनका मालिकाना हक़ होगा लेकिन आजतक देश में इसे ढंग से लागू नहीं किया गया है जिस वजह से अलग-अलग समय पर किसानों को अपने हक़ लिए लगातार संघर्ष करना पड़ता है। महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में आदिवासी किसान रहते हैं। उनके बीच में वाम दल सीपीआई(एम) और उसकी समर्थित किसान सभा काम करती है जिसने कई बार किसानों के हक़ों को लेकर सड़क पर संघर्ष किया और सरकार को आदिवासी हितों में निर्णय लेने पर मजबूर किया है।

वाम किसान संगठन के नेतृत्व में किसानों ने साल 2018 में भी एक बड़ा किसान लॉन्ग मार्च निकाला था जिसमें 50 हज़ार से अधिक किसान नासिक से मुंबई पैदल मार्च करते हुए पहुंचे थे। इस मार्च का नतीजा ये रहा कि सरकार ने किसानों की सबसे बड़ी मांग में से एक वन अधिकार अधिनियम के तहत किसानों को उनकी ज़मीनों का मालिकाना हक़ देने की बात मान ली थी लेकिन आरोप है कि वादा आजतक पूरा नहीं हुआ। इसके बाद एक बार फिर किसान 12 मार्च 2023 को पैदल मुंबई कूच के लिए निकल पड़े थे लेकिन सरकार इनके आंदोलन को पहले देख चुकी थी और उनकी एकजुटता और ताकत को भी समझती थी इसलिए सरकार ने मुंबई से लगभग 60 किलोमीटर दूर ही किसानों को रुकने का आग्रह किया और उनकी सभी मांगों को मान लिया लेकिन किसानों का कहना है कि वे पिछले कई बार सरकार से धोखा खा चुके हैं और कहावत भी है कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है इसलिए किसान भी इस बार सरकार के किसी लुभावने वादे या आश्वासन पर विश्वास करने को तैयार नहीं थे ।

किसानों की मांग थी कि वो वापस तभी जाएंगे जब सरकार उनकी मांगों को विधानसभा में प्रस्ताव के तौर पर पास करेगी और अधिकारी ज़मीन पर उसे लागू करने लगेंगे। हालांकि 18 मार्च को किसानों ने अपना मार्च वापस ले लिया क्योंकि सरकार ने उनकी मांगों को पूरा करने का वादा किया और इसे लागू करने के लिए एक कमेटी बनाई जिसमें किसानों के नेता जेपी गावित को भी शामिल किया और सीपीआई(एम) के एकमात्र आमदार यानी विधायक विनोद निकोले को भी कमेटी का हिस्सा बनाया। जहां तक किसानों की बात है तो उन्हें गावित और निकोले पर पूरा विश्वास है कि वो उनके हक़ के लिए काम करेंगे। ये कमेटी एक महीने में सर्वे करके इसे सरकार को देगी कि किसानों के पास कितनी वन भूमि है और उसे कैसे आदिवासी किसानों को सौंपा जा सकता है।

ये सिर्फ़ महाराष्ट्र के आदिवासी किसानों का सवाल नहीं है बल्कि पूरे देश में ही आदिवासी जो वन भूमि पर कई दशकों से रहते हैं उनकी भी बात है। आरोप है कि सरकार उन्हें वन संरक्षण के नाम पर बेदख़ल कर रही है। अभी हाल ही में हमने मणिपुर में देखा कि कैसे आदिवासी किसानों के घर पर बुलडोज़र चलाया गया यह कहकर कि वो वन भूमि पर अतिक्रमण कर रहे हैं जबकि इसके विपरीत उनका दावा है कि वो वर्तमान की भारत सरकार के अस्तित्व यानी आज़ादी के पहले से वहां रहते हैं। इसी तरह से आरोप है कि हिमाचल में आदिवासी भूमिहीन किसान जो वन भूमि पर खेती करते आ रहे हैं उन्हें भी परेशान किया जाता है। वहां भी उनके ख़िलाफ़ समय-समय पर बेदख़ली के अभियान चलाए गए हैं।

जबकि वनअधिकार अधिनियम स्पष्ट तौर पर कहता है कि वन भूमि जिस पर इस कानून के पहले से आदिवासी किसान रहते थे या किसानी करते थे, उन्हें उसका मालिकाना हक़ दिया जाएगा। इस कानून के तहत ही देश में लाखों किसानों ने वन भूमि पर अपने दावे किए लेकिन इनमें से आधों की ज़मीनों को सरकारों ने या तो खारिज़ कर दिया या पेंडिग में डाल रखा है। किसानों का कहना है कि आधे ही दावों को मान्यता देकर उन्हें मालिकाना हक़ दिया गया है।

वर्तमान में उपलब्ध आकड़ों के हिसाब से देखें तो 44 लाख 67 हज़ार से अधिक आदिवासी किसानों ने वन भूमि के मालिकाना हक़ के लिए दावा किया है जबकि अभी तक केवल 22 लाख 50 हज़ार आदिवासियों को ही ज़मीन का मालिकाना हक़ मिला है। जबकि 17 लाख 29 हज़ार से अधिक लोगों के दावों को खारिज़ कर दिया गया है और 4 लाख 87 हज़ार से अधिक दावों को पेंडिंग में रखा गया है। ये आंकड़ें दिसंबर 2022 तक हैं जो सरकारी वेबसाइट पर मौजूद है।

साभार : Ministry of Tribal Affairs

अगर सिर्फ़ महाराष्ट्र की बात करें तो यहां कुल 3 लाख 75 हज़ार आदिवासी किसानों ने वन भूमि के मालिकाना हक़ के लिए दावा किया है जिसमें से 1 लाख 72 हज़ार लोगों को ही ज़मीन का मालिकाना हक़ दिया गया है जबकि 45 हज़ार से अधिक दावों को खारिज़ कर दिया गया है। 1 लाख 57 हज़ार से अधिक दावों को पेंडिंग में रखा हुआ है। महाराष्ट्र में मालिकाना हक़ केवल 46% आदिवासियों को दिया गया जबकि 42% मामलों को पेंडिंग में रखा है।

साभार : Ministry of Tribal Affairs

आरोप है कि ज़मीनों पर मालिकाना हक़ न मिलने के कारण इन आदिवासी किसानों का रोज़ाना शोषण होता है और उन्हें परेशान किया जाता है। उनकी खेती को उजाड़ा जाता है, उनके गांवों में सड़कों का निर्माण नहीं होने दिया जाता और अगर कोई विकास का काम करता है तो वन अधिकारी उसके ख़िलाफ़ मुक़दमे दर्ज करती है।

ये पूरा सिस्टम किस तरह से काम करता है और आदिवासी किस प्रताड़ना से जूझ रहे हैं। इसे समझने के लिए हमने महाराष्ट्र के आदिवासी किसानों से बात की जो 12 मार्च से 18 मार्च तक नासिक-मुंबई किसान लॉन्ग मार्च का हिस्सा थे और पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी ज़मीन के मालिकाना हक़ के लिए लड़ रहे हैं। हमारी ये बातचीत लॉन्ग मार्च के वाशिंद पड़ाव के दौरान 17 मार्च को हुई थी।

उर्मिला जीवा गावित जो पेशे से शिक्षक हैं लेकिन वो अपने बचपन से ही आदिवासी किसानों के संघर्षों का अभिन्न हिस्सा रही हैं क्योंकि उनके पिता जेपी गावित नासिक और उसके आस-पास के ज़िले के बड़े किसान नेता हैं, उनके नेतृत्व में ही ये किसान लॉन्ग मार्च निकाला जा रहा था।

वो कहती हैं, "सरकार ने एक तो अधिकतर आदिवासियों को ज़मीन दी नहीं है और जिन कुछ आदिवासियों को ज़मीन दी भी है उन्हें आधा एकड़, एक एकड़ या उससे भी कम ज़मीन दी है जबकि वो तीन से पांच एकड़ तक की वन भूमि पर किसानी करते हैं। वन अधिकार अधिनियम के मुताबिक़ दस एकड़ तक की ज़मीन, किसानों को दी जा सकती है लेकिन सरकार और उसके अधिकारी किसानों को ज़मीन देना ही नहीं चाहते हैं।"

इसके अलावा उन्होंने बताया कि कैसे वन अधिकारी किसानों को परेशान करते हैं। वो कहती हैं, "हमारी खड़ी फसल जो अब कटने को तैयार रहती है उसे वन अधिकारी उजाड़ देते हैं और वहां गड्ढे करके पेड़ लगाने लगते हैं। इन ज़मीनों पर हम पीढ़ी दर पीढ़ी काम करते रहे हैं लेकिन अब सरकार कानून बनाकर हमें हमारी ज़मीन से बेदख़ल करना चाहती है।"

फसल बर्बाद करने की इस बात का ज़िक्र अधिकांश आदिवासी किसानों ने किया और आरोप लगाते हुए बताया कि कैसे खड़ी फसलों को अधिकारी बर्बाद करते हैं और आदिवासियों के साथ बदसलूकी करते हैं।

नासिक ज़िले के किसान राम चंद्र गंगवाड़ कहते हैं, "हमारा जो नुकसान होता है वो किसी को नहीं दिखता है। हम अपनी ज़मीन पर मालिकाना हक़ के लिए आज़ादी के पहले से लड़ाई लड़ रहे हैं। पहले अंग्रेज़ अफ़सर हमें खेती करने से रोकते थे, हमने उनसे संघर्ष किया और अब आज़ादी के बाद भी हम लगातार अपनी ज़मीन के मालिकाना हक़ के लिए संघर्ष कर रहे हैं।"

पालघर से इस लॉन्ग मार्च का हिस्सा बने जॉन कहते हैं, "सरकार हमें खेती करने के लिए ज़मीन नहीं दे रही जबकि विकास के नाम पर बड़ी संख्या में जंगल को काटा जा रहा है। वहीं दूसरी ओर बुलेट ट्रेन और हाइवे के लिए सरकार ज़मीन दे रही है और उसका फायदा बड़े पूंजीपतियों को दिया जा रहा है। हम विकास के ख़िलाफ़ नहीं हैं लेकिन हमें हमारी ज़मीन से क्यों निकाला जा रहा है?"

कृष्ण संतु भंवर जो शपुर के आदिवासी किसान और स्थानीय सीपीआई(एम) नेता हैं। वो कहते हैं, "वन अधिकार अधिनियम को ढंग से लागू नहीं किया गया है। इस अधिनियम के तहत जहां आदिवासी रहते हैं वहां सड़क, स्कूल और अस्पताल जैसे प्रोजेक्ट लग सकते हैं और इसे अधिकारी रोक भी नहीं सकते लेकिन इसके उलट अधिकारी इन इलाकों में कोई काम नहीं होने दे रहे हैं। हमारे गांवों में सड़क नहीं है। हमनें बड़े संघर्ष के बाद ख़ुद ही श्रम दान करके सड़क निर्माण शुरू किया लेकिन वन अधिकारियों को ये पसंद नहीं आया और उन्होंने काम बंद कराकर हम पर ही मुक़दमा कर दिया जो आजतक चल रहा है। आज मेंरे ऊपर पांच से अधिक मुक़दमे चल रहे हैं और सभी वन क्षेत्र विकास कार्य करने को लेकर हैं।"

वो आगे बताते हैं, "जब हम उनसे कहते हैं कि पानी सप्लाई तो आप कर नहीं रहे हैं, हमें कुआं बनाने दो तो वो कहते हैं कि मिट्टी का कुआं बना लो। आप ही बताइए आपने कहीं मिट्टी का कुआं देखा है? इसी तरह वो हमें हमारे खेतों में ट्रैक्टर नहीं चलाने देते और कहते हैं कि बैलों से खेती करो। आप ही बताइए क्या आज के समय में ये सब संभव है? इसलिए संघर्ष ही एक रास्ता है।"

महाराष्ट्र के पेड़ तालुक्का के लगभग 65 वर्षीय आदिवासी किसान देवराम गायकवाड़ कहते हैं कि उनके पिता भी इस ज़मीन के लिए संघर्ष करते-करते मर गए और अब वो भी बुज़ुर्ग हो गए हैं और उनके बच्चे भी इस संघर्ष का हिस्सा हैं। वो चाहते हैं कि कम-से-कम उनके पोता-पोती को अपने हक़ की ज़मीन के लिए लड़ना न पड़े और सरकार उन्हें उनका हक़ दे दे। उनकी बातचीत से ऐसा लग रहा था मानो वो सरकारों से लड़ते-लड़ते थक चुके हैं।

हालांकि इसके बाद भी गायकवाड़ ने हौसला नहीं छोड़ा है। वो कहते हैं कि जब तक वो ज़िंदा हैं तब तक लड़ेंगे और अपना हक़ नहीं छोड़ेंगे।

महाराष्ट्र के किसानों ने तो अपनी मांगे सरकार से मनवा ली हैं लेकिन ये बात भी सच है कि सरकारों को कई बार हमने ऐसे मामलों में पलटते देखा है। ख़ैर ये सिर्फ़ एक ज़िले या राज्य का मसला नहीं है बल्कि पूरे देश के आदिवासी किसान इस दर्द और पीड़ा से जूझ रहे हैं इसलिए आने वाली 5 अप्रैल को देशभर के किसान और मज़दूर, किसान सभा के नेतृत्व में दिल्ली आ रहे हैं जिसमें वो अन्य मांगो के साथ ही बड़ी प्रमुखता से वन अधिकार अधिनियम को लागू करने की मांग कर रहे हैं।

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