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क्या भारत और चीन की फिर कभी जुगलबंदी होगी?
हाल के समय में कुछ-कुछ अंतरालों के लिए चीन अमेरिका को पीछे छोड़ते हुए भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक पार्टनर बना है।
बी सिवरामन
28 Nov 2020
भारत और चीन
Image courtesy: New Indian Express

ये सच है कि किसी देश की आर्थिक प्राथमिकताओं को जियोपाॅलिटिक्स (geopolitics) में उसकी भूमिका से पूरी तरह काटा नहीं जा सकता। पर यह भी सत्य है कि उन्हें विदेश नीति की दिनोंदिन टकरावों और उलट-फेर का बंधक नहीं बनाया जा सकता, खासकर उस पड़ोसी देश के संग जो जल्द ही विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बनने वाला है।

भारत के रणनीतिक प्रतिष्ठान और सर्वोच्च व्यापारिक हल्कों के बीच भारतीय सैनिकों की (पीएलए द्वारा, बाॅर्डर पर) हत्याओं पर मोदी की भावोत्तेजक प्रतिक्रिया को लेकर बेचैनी है। इस प्रतिक्रिया के चलते भारत की विदेश नीति में रणनीतिक बदलाव हुआ है, जो भारत के दूरगामी राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल है।

करीब 3 दशक हो गए, जब 1988 में राजीव गांधी की डेंग ज़ियाओपिंग के साथ मुलाकात के दौरान भारत ने समझौता किया था कि द्विपक्षीय संबंधों को कभी भी सीमा विवाद के चलते प्रभावित नहीं होने दिया जाएगा। इस पीरियड में दोनों एशियाई महाशक्तियों में व्यापार, निवेश और अन्य कारोबार के संबंधों का व्यापक विस्तार हुआ।

हाल के समय में कुछ-कुछ अंतरालों के लिए चीन अमेरिका को पीछे छोड़ते हुए भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक पार्टनर बना। करीब तीन दशक ही हुए, 1986-87 में भारत-चीन के बीच सीमा को लेकर अप्रिय झगड़े के बाद चीन राज़ी हुआ कि बातचीत के जरिये शान्तिपूर्ण तरीके से सीमा विवाद हल किया जाएगा। क्या इन सकारात्मक कदमों को पलट दिया जाएगा? यह खतरा निश्चित ही सत्य प्रतीत होता है।

भारत की कुपित प्रतिक्रिया

29 जून 2020 को भारत सरकार ने टिक-टाॅक सहित 59 चीनी ऐप्स को प्रतिबंधित कर दिया। पुनः 2 सितंबर, 2020 को पीयूबीजी सहित 188 और ऐप बैन किये गए। फिर, 24 नवंबर 2020 को (अधिकतर) अलीबाबा ग्रुप के 43 चीनी मोबाइल ऐप प्रतिबंधित किये गए। इस कदम को सही ठहराने के लिए सरकार ने बेशर्मी से बेतुके तर्क गढ़े। इलेक्ट्राॅनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय की एक आधिकारिक घोषणा ने कहा कि इन ऐप्स को इसलिए ब्लाॅक किया गया कि ‘वे भारत की संप्रभुता, अखंडता, रक्षा, सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था के प्रति हानिकारक कार्यवाहियों में लिप्त थे।’

टिक-टाॅक पर कुछ हल्के-फुल्के खेल खेलने और मज़ाक करने से क्या भारतीय राज्य को खतरा पैदा होता है? भारत सरकार कहती है कि उसने बैन का निर्णय केंद्रीय गृह मंत्रालय के साइबर अपराध समन्वय केंद्र की रिपोर्टों के आधार पर लिया, पर उसने भारतीय आवाम के साथ ये रिपोर्ट साझा नहीं किये। यह भी आश्चर्य की बात है कि ऐसी तथाकथित धमकियों के बावजूद इन ऐप कम्पनियों के खिलाफ एक भी प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई, जबकि कई सीईओ के ऑफिस भारत में हैं।

यदि चीनी कम्पनी अलीबाबा भारतीय राज्य के लिए इतना बड़ा खतरा बना हुआ है, तो यह कम्पनी कैसे पेटीएम (Paytm)का सबसे बड़ा निवेशक भी है? पेटीएम भारत में कार्यरत सबसे बड़ी डिजिटल मनी ट्रांस्फर कम्पनी है और भारत के डिजिटल मनी ट्रान्सफर में उसका 50 प्रतिशत मार्केट शेयर है। इससे प्रति माह 40 करोड़ व्यापारिक भुगतान होते हैं; क्या मोदी विमुद्रीकरण की भांति उतावलेपन में पेटीएम को प्रतिबंधित करने की हिम्मत करेंगे? टिक-टाॅक भारत में सबसे बड़े सोशल मीडिया मार्केट के रूप में उभर रहा था और उसके 12 करोड़ सक्रिय यूज़र थे, यहां तक कि अमेजाॅन (Amazon) के दसियों लाख डालर का ई-कामर्स व्यापार इस ऐप के माध्यम से होता था।

मजे़ की बात यह है कि इस बैन के एक माह के भीतर मुकेश अंबानी ने टिक-टाॅक इंडिया को 5 खरब डाॅलर में खरीदने का सौदा पक्का किया। उन्हें बैन से कोई दिक्कत नहीं हुई, बल्कि मुनाफे की डील करने में मदद मिली। जिन लोगों को टिक-टाॅक और लद्दाख में भारतीय सैनिकों की हत्या के बीच संबंध समझ नहीं आया, वे जान लें कि इस रहस्स्योद्घाटन से पता चला कि मोदी अंबानी ब्रांड के राष्ट्रवाद के पक्षपोषक निकले! मीडिया अटकलों के अनुसार अंबानी पीयूबीजी को खरीदने के लिए बातचीत कर रहे हैं। तो बैन का मतलब साफ है!

यकीनन ऐप्स को प्रतिबंधित करना और माल के व्यापार पर बैन न लगाना केवल सांकेतिक कदम हो सकता है। पर इससे हमें सांत्वना कैसे मिलेगी? 2003 में चीन ने हमारे साथ एक औपचारिक समझौता किया था कि सिल्क रूट के माधम से बाॅर्डर ट्रेड होगा। पर अब दोनों तरफ से, प्रमुख तौर पर कोविड-19 के नाम पर लगभग समस्त क्राॅस-बार्डर ट्रेड रूट्स (cross-border trade routes) पर अघोषित प्रतिबंध है।

यद्यपि द्विपक्षीय कूटनीति और वाणिज्यिक संबंधों में देशों का नरम व गरम रुख रह सकता है, पर भारत और चीन के बीच हाल का निरुत्साह केवल आर्थिक कारणों से नहीं है। उसका मूल स्रोत बाह्य राजनीतिक व कूटनीतिक करणों में निहित है। यदि चीन समझता है कि उसके वन-रोड-वन-बेल्ट (OROB) मेगा प्राॅजेक्ट और आरसीईपी (RCEP) का बहिष्कार भारत ने संपूर्ण रूप से अमेरिका के इशारे पर किया है। और वे अमेरिका की ओर भारत के रणनीतिक शिफ्ट को नजर में रखकर भारत के लिए दाम बढ़ाने हेतु सीमा पर तनाव पैदा कर रहे हैं, तो यह रणनीतिक भूल होगी। इसी तरह यदि भारत अपने आप को चीन की घेरेबंदी के लिए अमेरिकी चाल में मोहरा बनाता है, तो यह मोदी की बेवकूफी होगी। यह हमारे बीच संबंधों में हुई ऐतिहासिक प्रगति को निरस्त कर देगा।

द्विपक्षीय आर्थिक संबंधों की स्थिति

यद्यपि 1962 के यु़द्ध के बाद 30 वर्षों तक निष्क्रियता बनी रही, भारत और चीन के बीच औपचारिक व्यापारिक संबंध केवल 1992 से आरंभ हुए और औपचारिेक व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर केवल 2003 में किया गया। पिछले दो दशकों में, जारी तनाव के बावजूद, चीन के संग भारत के आदान-प्रदान निरंतर बढ़ रहा था।

आइये हम भारत-चीन के बीच व्यापार की स्थिति का समग्रता में मूल्यांकन करें। 2019-20 में भारत-चीन के बीच कुल व्यापार 92.89 खरब यूएस डाॅलर था। चीन को भारत के निर्यात 17.97 अरब यूएस डाॅलर के थे जबकि चीन से भारत को आयात 74.93 अरब यूएस डाॅलर के थे; यानि व्यापार घाटा 56.95 अरब डाॅलर का था।

2010-21 में चीन से आयात भारत के कुल आयात का 19 प्रतिशत हिस्सा था और यह पिछले वर्ष के 14 प्रतिशत से बढ़ा था। दूसरी ओर, चीन के 2.07 खरब यूएस डाॅलर के कुल आयात में भारत से आयात केवल 0.87 प्रतिशत था। चीन का भारत को निर्यात, उसके सभी देशों को 2.5 खरब यूएस डाॅलर के कुल निर्यात का मात्र 3 प्रतिशत था।

2019 तक चीन भारत का नं. 1 व्यापारिक पार्टनर रहा और जब अमेरिका ने उसको मात देकर यह स्थान हथिया लिया, उसके बाद भी चीन भारत का दूसरे नंबर का प्रमुख ट्रेडिंग पार्टनर बना हुआ है। पर भारत तो चीन का 12वें नं का ट्रेडिंग पार्टनर है। आर्थिक तौर पर देखें तो चीन भारत के लिए अधिक महत्वपूर्ण है बनिस्पत भारत चीन के लिए।

ऐसी पुष्ठभूमि में ही, बार्डर पर संघर्ष के पश्चात, आरएसएस और उसके घटक तुरंत नारा देने लगे ‘चीनी सामान का बहिष्कार करो’। यह मात्र एक सप्ताह का शब्दाडंबर था। मोदी सरकार को समझ में आ गया था कि इस तरह के बेमतलब के बाॅयकाट से चीन के मुकाबले भारत को अधिक नुकसान पहुंचेगा। उपरलिखित आंकड़ों के आधार पर यह सच्चाई जगजाहिर होती है।

जबकि भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा (trade deficit) 56.95 अरब यूएस डाॅलर पर सबसे अधिक है, यह केवल चीन तक सीमित नहीं है। भारत के शीर्ष 20 व्यापार पार्टनरों में से 18 के साथ उसके ट्रेड डेफिसिट हैं।

ये सारे आंकड़े साबित करते हैं कि भारत को चीन की आवश्यकता अधिक है न कि चीन को भारतीय बाज़ार की इतनी जरूरत है, जैसा कि समझा जाता है।

आपसी आर्थिक एकीकरण अधिकांश रूप से व्यापार तक सीमित है

दोनों देशों के बीच सशक्त आर्थिक एकीकरण इनके बीच शान्ति का आधार बन सकता है। पर भारत और चीन के बीच समग्र आर्थिक एकीकरण कमजोर बना हुआ है। हाल के वक्त में इन दोनों देशों के बीच केवल व्यापार का विस्तार हुआ। इसके समरूप आपसी निवेश नहीं बढ़ा।

चीन के वाणिज्य मंत्रालय के अनुसार, सितंबर 2019 के अंत तक भारत में चीनी गैर-वित्तीय संचयी निवेश 5.08 अरब यूएस डाॅलर तक पहुंचा, जबकि चीन में भारत का गैर-वित्तीय निवेश 17.44 मिलियन यूएस डाॅलर था। दूसरी ओर श्रीलंका में चीन का निवेश 45 अरब यूएस डाॅलर है और चीन-पाकिस्तान आर्थिक काॅरिडाॅर के तहत पाकिस्तान में चीन का अनुमानित निवेश 62 अरब यूएस डाॅलर है।

हाई-एन्ड क्षेत्रों में चीनी कम्पनियां भारतीय बाजार में मुख्य तौर पर टेलीकाॅम में प्रवेश कीं। हाई-टेक क्षेत्रों में साझेदारी काफी पीछे रह गई। अकादमिक क्षेत्र में आदान-प्रदान भी वांछित स्तर तक नहीं पहुचा। भारतीय उद्योग के बड़े हिस्से और व्यापारी भी चीनी बाज़ार से अनभिज्ञ रहे। चीन में अधिकतर भारतीय टीवी चैनेल और अखबारों के नियमित संवाददाता नहीं हैं। कभी-कभी चीन द्वारा भारत में अपने सस्ते माल को डम्प करने की कार्यवाही ने देश के डेरी फार्मरों और छोटे उत्पादकों को, जैसे पटाखे बनाने वालों को नुकसान पहुंचाया है।

पर क्या ये मुद्दे व्यापार व आर्थिक कूटनीति के नियंत्रण में नहीं हैं? जनता-से-जनता के बीच परस्पर क्रिया के विस्तार के जरिये ही भारतीय व्यापारियों को चीनी बाज़ार के बारे में ज्ञान दिया जा सकता है, जिससे वे प्रतिस्पर्धा में उतर सकें। इसलिये, भारत सरकार को कोशिश करनी चाहिये कि हमारा व्यापार चीन में बढ़े, बजाए इसके कि देश को प्रतिशोधी आत्म-अलगाववाद की ओर ले जाए। यदि आज भारत रूढ़िवादी अलगाववाद में सिमट गया, तो कल चीन हमारे लिए प्रतियोगी खतरा बनकर उभरेगा।

सस्ते चीनी माल के आक्रमण के विरुद्ध शिकायतें

भारतीय व्यापारियों का एक हिस्सा भारतीय बाज़ार में सस्ते चीनी माल की बाढ़ का राजनीतिक तौर पर विरोध करता है; यह खासकर घरेलू उपभोग की वस्तुएं हैं। कुछ क्षेत्र हैं जहां चीनी माल भारतीय बाजार में अपना आधिपत्य कायम किये हुए है, मसलन खिलौने, स्मार्टफोन, इलेक्ट्राॅनिक और इलेक्ट्रिकल सामग्री और डेरी उत्पाद। वे इतने मौलिक हैं कि कि दीपावली के रंगीन दीयों से लेकर झालर और गणेशपूजा के लिए गणेशजी की सुन्दर मूर्तियां तक बनाते हैं। पर भारत के उत्पादक चीनी व्यापार-कौशल का मुकाबला नहीं कर पाते।

चीन ने मच्छर मारने वाले बैट का दाम 65 रु रखा, पर अघोशित व्यापार प्रतिबंध के बाद भारतीय व्यापारी उसे 360 रु का बेच रहे हैं। चीन में प्रतिस्पर्धा करना तो दूर रहा, भारत में भी हमारे उत्पादक प्रतिस्पर्धा में न उतर सके। चीन की प्रतिस्पर्धा प्रमुख रूप से भारतीय एमएसएमईज़ (MSMEs) पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। उत्पादकों के अलावा व्यापारियों का एक हिस्सा भी प्रभावित होता है।

व्यापारी को घाटा के मायने हैं उपभोक्ता को लाभ, पर भारत में नीति-निर्धारण में व्यापारियों का ऐसा बोलबाला है कि अन्त में उनके हित ही सुरक्षित रहते हैं। पर चीनी आयात निश्चित ही आयातकों और थोक व्यापारियों के एक हिस्से को लाभ पहुचाते हैं, जो भारत में माल महंगा बेचते हैं। इस कारण भारत में व्यापारिक समुदाय चीन के मामले में विभाजित है।

फिर भारत-चीन आर्थिक आदान-प्रदान केवल खुदरा व्यापार तक सीमित नहीं है। भारतीय उद्योग के कई हिस्से चीन से कच्चे माल और अर्ध-निर्मित सामान पर निर्भर है। उदाहरण के लिए भारतीय फार्मा उद्योग अपने फार्मा उत्पादों के उत्पादन के लिए कच्चे माल के रूप में चीन से 3.5 अरब डाॅलर मूल्य के आयातित फार्मा उत्पादों का प्रयोग करता है।

भारतीय ऑटोमोबाइल उद्योग ने 2018-19 में चीन से 4.75 अरब यूएस डाॅलर मूल्य के ऑटो कम्पोनेंट आयात किये। छोटे व्यापारियों की भांति काॅरपोरेट भारत चीनी सामान पर बैन की मांग को लेकर उतावला नहीं है, जैसा कि भाजपा के पारंपरिक प्रमुख सामाजिक-अवलंब बने छोटे व्यापारी हैं। यह अधिक संभव है कि मोदी बार्डर तनाव का प्रयोग कर चीनी आयातों के प्रति संरक्षणवादी रुख अपनाना चाहते हैं।

क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी या आरसीईपी

भारत ने आरसीईपी के बहिष्कार का निर्णय लिया है, जिसमें चीन प्रमुख पार्टनर है। आरसीईपी में केवल चीन नहीं है, बल्कि जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया भी उसके 15 पार्टनरों में आते हैं। कोई भी क्षेत्रीय मुक्त व्यापार समझौता किसी एक शक्ति को एकतरफा लाभ देकर वहनीय नहीं हो सकता। चीन को कुछ निहित फायदे जरूर मिले हैं पर इसे ‘एकाधिकार’ कहना गलत होगा।

बहुपक्षीय व्यापार और आर्थिक आदान-प्रदान में उसका नेतृत्व किसी काम का नहीं होगा यदि वह सभी के लिए आपसी लाभ की गारंटी नहीं कर सकेगा। ऐसा न होने से कोई भी क्षेत्रीय व्यवस्था संकट झेलेगी, निर्वहनीय बन जाएगी और जल्द ही खात्मे की ओर बढ़ेगी। आरसीईपी ने भारत के लिए द्वार खुला रखा है पर मोदी परस्पर संबंध नहीं बढ़ा रहे, बल्कि हमेशा के लिए द्वार बंद करने पर आमादा लगते हैं।

वन-बेल्ट-वन-रोड

भारत ने चीन के वन-बेल्ट-वन-रोड पहल, जो प्रमुख रूप से एक व्यापार-अवसंरचना काॅरिडाॅर (trade infrastructure corridor) है, का बहिष्कार किया। चीन ने भारत के समक्ष क्या शर्तें रखीं और ओबीओआर में जुड़ने के लिए भारत ने क्या मांगें पेश कीं यह कभी सार्वजनिक नहीं किया गया। भारत को होने वाली संभावित हानि के बारे में भी काई ठोस मूल्यांकन नहीं किया गया। पर ऐसे मेगा व्यापार-अवसंरचना में जुड़ने के फायदे स्पष्ट हैं।

यहां तक कि, यूरोप भी ओआरओबी के प्रति नकारात्मक रुख नहीं रखता, न ही वह अमेरिका की भांति इसे नव-साम्राज्यवादी, नव-औपनिवेशिक विस्तारवाद के रूप में चित्रित करता है। बिना किसी विश्लेषण के भारत ने छुआछूत का रुख अपना लिया है। मोदी का डर और ओबीओआर के प्रति भारत का संपूर्ण विरोध तर्कसंगत नहीं लगता।

एक ही स्थिति में इसे तर्कसंगत कहा जाएगा-यदि आप पहले ही दिमाग बना चुके हैं कि पूरा पश्चिमी जगत नहीं, यूएस और चीन के बीच नए शीत युद्ध में गुटनिरपेक्षता की नीति से रणनीतिक विच्छेद करना है। बल्कि बेहतर होता कि उनके साथ संबंध बनाए रखते हुए भारतीय हितों की सुरक्षा की दृष्टि से सख्त़ सौदेबाज़ी की जाती। यहां तक कि ऐब्स्टेन करने पर भी भारत को संकेत देने चाहिये थे कि वह किसी भी अनुकूल समय में इस पहल से जुड़ सकता है।

यदि भारत का चीनी बाज़ार की अपेक्षा चीन का हमारे बाज़ार में घुसपैठ अधिक गहरा है तो यह भारतीय उद्यमियों व व्यापारियों की कमजोरी और सरकार के उन्हें सहयोग की कमी के कारण है। भारत को भारतीय उत्पादों का निर्यात बढ़ाना होगा। संरक्षणवाद प्रतिस्पर्धा का विकल्प नहीं हो सकता। सरकार को अवसंरचनात्मक समस्याओं और नौकरशाही अवरोधों को दूर करना चाहिये।

पश्चिमी देश हमारे नुकसान की भरपाई नहीं कर सकते

पश्चिम से लाभ लेकर भारत चीन से अलगाव की संभावित हानि की भरपाई नहीं कर सकता। तथाकथित रूप से चीन द्वारा प्रतिपादित ‘‘एशियायी कम्युनिज़्म’’ को रोकने की अपनी रणनीति के हिस्से के बतौर पश्चिम युद्धोत्तर युग में पूर्वी-एशियायी चमत्कार को अंजाम दे सकता था। पर आज, पश्चिम अपने ऐतिहासिक पतन के संकट में घिरा हुआ है। वह ‘ईस्ट एशिया मिरेक्ल’ के संग भारत को केंद्रक बनाकर दक्षिण एशियायी चमत्कार की पुनरावृत्ति नहीं कर सकता। यूएस के रूढ़िवादियों के लिए विकसित भारत विकसित चीन से कम बड़ा खतरा नहीं है। यूरोप भी भारत से डरता है, जैसा कि मुक्त व्यापार समझौतों में उसके द्वारा अंतहीन विलंब दिखा रहा है।

यह भी समझ के परे है कि मोदी, जो आसिआन (ASEAN) के साथ मुक्त व्यापार समझौता करने का दम रखते थे और यूरोप से भी इस बाबत बात करने पर तैयार थे, चीन के मामले में कैसे कतरा गए और चीन से रणनीतिक विच्छेद करना सही मानने लगे। क्या भारतीय कूटनीति इतनी कमजोर है कि सीमा विवाद के चलते इतिहास के पहिये को रोकने के अलावा चारा नहीं निकाल पाएगा?

मोदी का नवरूढ़िवाद

मोदी का व्यापारिक रूढ़िवाद आर्थिक राष्ट्रवाद नहीं है; वे अपने काॅरपोरेट सहयोगियों द्वारा प्रतिपादित नव-उदारवाद और आरएसएस (RSS) द्वारा आरोपित आर्थिक रूढ़िवाद के बीच पिस रहे हैं। जहां तक इंडस्ट्रियल चेम्बर्स की बात है, तो सीआईआई (CII) आरसीईपी से जुड़ने का खुला समर्थन कर रही थी; उसने यहां तक आगाह किया कि ऐसा न करने से भारतीय निर्यात को धक्का लगेगा। 2019 में फिक्की (FICCI) ने आरसीईपी वार्ता को जल्द समाप्त करने और उससे जुड़ने का समर्थन किया।

पर 2020 में, जब मोदी ने बहिष्कार का फैसला लिया, उसने अपनी पिछली बात से न मुकरते हुए राजनीतिक मजबूरी के तहत प्रधानमंत्री का समर्थन किया। ऐसोचैम (ASSOCHAM) ने भी उजागर किया कि आरसीईपी से कृषि और छोटे किसानों को हानि होगी, इसलिए भारत उनके हितों की रक्षा के लिए समझौता-वार्ता में भाग ले। 17 नवम्बर के इकनाॅमिक टाइम्स में संपादकीय ‘‘इंडिया इज़ बेटर ऑफ जाॅयनिंग आरसीईपी’’ (India is better off joining RCEP) से भारतीय व्यापारिक वर्ग का मूड समझ सकते हैं। केवल आरएसएस और स्वदेशी जागरण मंच मुखर विरोधी रहे। अपने पैतृक संगठन के प्रति वफादारी के चलते मोदी भारत के राष्ट्रीय हितों को तिलांजलि दे रहे हैं।

मोदी की बाह्य आर्थिक नीतियां मंदी को हल करने की रणनीति में फिट नहीं बैठती। अमेरिका सहित सभी प्रमुख पश्चिमी देश मंदी झेल रहे हैं। चीन ही महामारी-जनित संकट के इस दौर में ठीक-ठाक विकास दर दर्ज कर रहा है। ऐसे विकास-इंजन (growth engine) से भारत को अलग करना न भारतीय उद्योग और न व्यापार के लिए उचित है। अब आने वाले बजट पर नज़र रखना है कि क्या इन कठिन प्रश्नों पर पुनर्विचार होगा?

अब मोदीजी पर है कि वे नागपुर की ओर देखें या प्रगति के केंद्रों-बेंगलुरु, मुम्बई,एनसीआर, हैदराबाद और चेन्नई की आकांक्षाओं के प्रति न्याय करें।

(लेखक श्रम मामलों के जानकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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