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गलवान घाटी संघर्ष: भारत और चीन अब यहां से कहां?
दोनों देश मित्रवत पड़ोसी के रूप में रह सकते हैं, जैसा कि ये ऐतिहासिक रूप रहते आये हैं। तीसरे पक्ष के प्रेरित हस्तक्षेप से सिर्फ़ परेशानी ही पैदा होगी।
के एस सुब्रमण्यन
18 Jul 2020
गलवान घाटी संघर्ष
Image Courtesy: PTI

भारत और चीन के रणनीतिक जानकार पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी की वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर दोनों देशों के बीच हुए 15 जून के सैन्य टकराव के निहितार्थ और परिणामों पर बहस करने को लेकर सर्तक हैं।

हालांकि, भारत और चीन के बीच की सीमा पर शांति को प्रभावित करने वाले जो प्रमुख मुद्दे हैं, और जिनमें दिलचस्पी रखने वाले जानकार इन मुद्दों पर पूरी चर्चा करने की मांग करते हैं, इन मुद्दों में जो सबसे पहला मुद्दा है, वह है- दोनों देशों के बीच सीमा विवाद की प्रकृति; और दूसरा, दो सबसे बड़े परमाणु-सशस्त्र एशियाई पड़ोसियों के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का भविष्य है। रणनीतिक विशेषज्ञ इन मुद्दों को इस तरह दरकिनार करते हैं, जैसे कि वे मायने ही नहीं रखते और इनका सिर्फ़ रणनीति महत्व है।

राष्ट्रपति शी चिनपिंग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच 2018 और 2019 में अपने अनौपचारिक शिखर सम्मेलन में संवाद की सकारात्मक प्रकृति को अतिराष्ट्रवाद और अंधराष्ट्रीयता से बचाने और नये जोश और आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ने की ज़रूरत है। दोनों देशों के बीच अगर युद्ध होता है, तो महज़ बाहरी निहित स्वार्थों के चलते होगा, जैसा कि अतीत में भी हुआ है।

गलवान घाटी में 15 जून की झड़प में भारतीय जवानों की जानें चली गयीं, जिसकी जांच की ज़रूरत है। एक दूसरे के उलट दावे उचित परिसीमन और एलएसी के निर्धारण की ज़रूरत को रेखांकित करते हैं, यह एक ऐसा मुद्दा है, जो लंबे समय से लटका हुआ है। एक किताब इसी बात पर लिखी गयी है कि म्यांमार और चीन ने किस तरह अपने सीमा से जुड़े सवाल को सुलझाया था। अहम और बड़े-बड़े मामलों को हल करते समय समझौता और लेन-देन दोनों की ज़रूरत होती है। भारत को दुर्भाग्य से जवाहरलाल नेहरू द्वारा दिखाई गई "हठधर्मिता" से बचना चाहिए और चीन के साथ शांति वार्ता का रास्ता अपनाने का साहस करना चाहिए। हम म्यांमार-चीन के अनुभव से सीख सकते हैं।

भारत और चीन शांति से पड़ोसी के रूप में रह सकते हैं,जैसा कि ये दोनों ऐतिहासिक रूप से ऐसा करते रहे हैं। तीसरे पक्ष के प्रेरित हस्तक्षेप का मतलब सिर्फ़ और सिर्फ़ परेशानी है।

हालिया अवधि में इस संघर्ष को बढ़ावा देने वाली जो अहम घटना हुई है, वह है- भारत में दिसंबर 2019 में जम्मू-कश्मीर राज्य के स्वायत्त दर्जे को ख़त्म कर देना और उसकी जगह जम्मू-कश्मीर और लद्दाख नाम से दो केंद्र शासित प्रदेशों को स्थापित किया जाना। लद्दाख क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले अक्साई चीन और गिलगित-बाल्तिस्तान क्षेत्रों पर भारत, चीन और पाकिस्तान, तीनों के अपने-अपने दावे हैं। सीमा विवाद का हल इन प्रतिद्वंद्वी दावों के शांतिपूर्ण समाधान पर निर्भर करता है। ज़रूरत इस बात की है कि भारत इन परस्पर विरोधी हितों के अस्तित्व को स्वीकार करे और अपने गंवा चुके क्षेत्रों को फिर से हासिल करने की कोशिश के बजाय प्रतिद्वंद्वियों के दावों से निपटने के लिए एक समझौता फ़ॉर्मूले को तैयार करे।

जैसा कि नीचे सुधींद्र कुलकर्णी बताते हैं कि युद्ध कोई व्यावहारिक विकल्प नहीं होता है।

चार प्रमुख लेखक

नीचे दिये गये चार महत्वपूर्ण लेखकों के विचार चीन के साथ भारत के सीमा विवाद पर संतुलित फ़ैसला लेने को लेकर बेहद प्रासंगिक हैं। ये चार लेखक हैं- पत्रकार सुधींद्र कुलकर्णी;  इतिहासकार,बीआर दीपक; राजनीतिक विश्लेषक, नेविल मैक्सवेल और तकनीकी वशेषज्ञ डेव लुईस।

सुधींद्र कुलकर्णी :

19 जून को इंडियन एक्सप्रेस में एक तर्कसम्मत आलेख में कुलकर्णी ने लिखा है," वास्तविक नियंत्रण रेखा का कोई अर्थ नहीं रह गया है और भारत-चीन को एक नयी सुनिश्चित नियंत्रण सीमा रेखा पर नये तरीक़े से विचार करना चाहिए।"

कुलकर्णी आगे कहते हैं: मोदी के लिए कठिन विकल्प है। उन्हें नेहरू पर बार-बार दोष नहीं मढ़ना चाहिए, चीन के साथ एक जीती नहीं जा सकने वाली जंग का जोखिम उठा लेना चाहिए और भारत-चीन सीमा विवाद को हल किए बिना अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल पूरा कर लेना चाहिए। हक़ीक़त तो यह है कि दोनों देशों को आपसी सहमति से अपने क्षेत्रीय दावों में सामंजस्य बनाना चाहिए। ऐसा करने का मौका 1960 में उस समय आया था, जब चीनी प्रधानमंत्री चाउ एनलाई ने भारत के पश्चिम में अक्साई चीन के चीनी नियंत्रण और पूर्वी भाग में अरुणाचल प्रदेश पर भारत के नियंत्रण की चीनी मान्यता के आदान-प्रदान वाले "पैकेज डील" के साथ भारत का दौरा किया था। लेकिन,कड़े विरोध का सामना करने की आशंका से नेहरू ने उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। इसका नतीजा 1962 का युद्ध था।

अक्साई चिन 1954 तक ब्रिटिश रिकॉर्ड में "अनिर्धारित क्षेत्र" बना रहा

अगर नेहरू ने चाउ एनलाई के उस पैकेज डील को मंज़ूर कर लिया होता, तो सीमा का स्थायी समाधान मुमकिन था; जंग को रोका जा सकता था; विवादित वास्तविक नियंत्रण रेखा के साथ किसी तरह का कोई सामना नहीं करना होता; और शायद जम्मू और कश्मीर की संवैधानिक स्थिति पर भारत के दावे को लेकर चीन की मान्यता भी हासिल हो चुकी होती।

यह एक सच्चाई है कि भारत सेना की मदद से चीन को अक्साई चिन से बाहर नहीं कर सकता। ऐसे में मोदी को साहस दिखाना चाहिए, संयुक्त राज्य अमेरिका से सैन्य मदद की अनदेखी करनी चाहिए और संसद और जनता को चीन के साथ सीमा विवाद के किसी समझौते पर आधारित समाधान पर प्रहार करने और वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) को अपने मन मुताबिक़ नियंत्रण रेखा में बदलने के लिए संसद और विपक्ष को विश्वास में लेना चाहिए। (बीएसी)।

इतिहासकार बीआर दीपक

लेखक ने 11 जुलाई को संडे गार्जियन, नई दिल्ली में लिखा है कि भारत की अदूरदर्शी चीन नीति को बदलने की ज़रूरत है।

सबसे पहले तो भारत को चीन की बढ़ती शक्ति, रिश्ते में ग़ैर-बराबरी, वैश्विक और क्षेत्रीय संतुलन शक्ति और प्रमुख शक्ति सम्बन्धों में हर पल हो रहे बदलाव की हक़ीक़त को स्वीकार करना चाहिए। भारत को इस बात पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि क्या कुछ व्यावहारिक और साध्य है और क्या नहीं है, और "व्यावहारिक रचनावाद" की बुनियाद पर चीन के साथ अपने जुड़ाव को फिर से एक नया रूप और आकार देने की भी ज़रूरत है।

विदेश नीति और सैन्य मामलों को राष्ट्रीय भावनाओं के छिटपुट आवेग से नियंत्रित होने देने से बचाना चाहिए; उन्हें लक्ष्य-उन्मुख, दीर्घकालिक और स्थायी होने की ज़रूरत है। इसके लिए दिखावटी बदलावों, बिना सोच विचार वाली प्रतिक्रियाओं, उठाये गये दिखावटी क़दमों और एकांगी दृष्टिकोण के लिए कोई जगह नहीं होती है।

दूसरी बात कि चीन ने कभी भी अपने आधुनिक और समकालीन इतिहास में भारत को अपने बराबर नहीं माना है। क्षेत्रीय संतुलन साफ़ तौर पर चीन के पक्ष में झुका हुआ है। भारत चीन से एनएसजी, यूएनएससी और सीमा जैसे मुद्दों पर नरम होने की उम्मीद नहीं कर सकता है। भारत के लिए वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर सवाल उठाना निरर्थक है; क्योंकि इसे सुनिश्चित करने में चीन की कोई दिलचस्पी ही नहीं है। टकराहट वाले इन जगहों के साथ-साथ "बफ़र जोन" को बनाये रखना और चीन की अपनी शर्तों पर वास्तविक नियंत्रण रेखा का असैन्यीकृत करना उसकी दीर्घावधि रणनीति के बिल्कुल अनुकूल है।

स्थापित बड़ी शक्ति (संयुक्त राज्य अमेरिका) को चुनौती देने के लिए चीन इस क्षेत्र और इस क्षेत्र के बाहर के दूसरे देशों को संकेत देता रहता है। इस प्रकार, इसने G2 (संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन) की मौजूदगी का ऐलान कर दिया है और बाक़ी देशों को इन दोनों देशों के बीच किसी एक को चुनने के लिए मजबूर कर दिया है, (जो कि) शायद रणनीतिक रूप से एक ग़लत आकलन है। चीन इस समय उस दक्षिण का नेतृत्व करने के लिए तैयार है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका और उत्तर में उसके सहयोगियों के बीच अवरोध बना हुआ है, और जो चीनी व्यवस्था के लिए ख़तरे के तौर पर माना जाता है, हालांकि चीन उस उदार वैश्विक व्यवस्था को बदलना नहीं चाहता है,जिसने अब तक इसके पक्ष में काम किया है।

तीसरी बात कि चूंकि चीन एशिया की केन्द्र बना रहने वाला है और यह स्थिति इस क्षेत्र में भारत की हैसियत और भूमिका दोनों को और कमज़ोर करेगी। भारत का नीतिगत मूल्यांकन पाकिस्तान की जगह चीन पर केंद्रित होना चाहिए। भारत के साथ पाकिस्तान की ग़ैरबराबरी चीन के साथ भारत की तुलना में कहीं ज़्यादा हैं; भारत की जीडीपी पाकिस्तान से दस गुना ज़्यादा है। चीन के साथ भारत की वास्तविक नियंत्रण रेखा, पाकिस्तान के साथ भारत की वास्तविक नियंत्रण रेखा की तुलना में क़रीब पांच गुना ज़्यादा है। सवाल है कि महज़ कुछ नज़दीकी चुनावी फ़ायदे के लिए पाकिस्तान पर ध्यान केन्द्रित क्यों किया जाए? सच्चाई तो यही है कि अगर भारत एक महाशक्ति बनना चाहता है, तो उसे पाकिस्तान को नज़रअंदाज़ करना चाहिए। भारत पाकिस्तान के साथ संघर्ष में उलझकर चीन की बनायी रणनीति के हिसाब से ही संघर्ष के इस खेल को खेल रहा है।

चौथी बात कि चीन से पूरी तरह अलग हो पाना नामुमकिन है। भारत को एक ऐसी व्यावहारिक व्यापार और निवेश नीति तैयार करनी चाहिए, जो अब तक अव्यवस्थित, दिशाहीन और बेहद बेरतरतीब रही है। चीनी तकनीकी कंपनियों के खिलाफ़ एक बड़ी दीवार खड़ी करने के बारे में बात करने, चीनी अनुबंधों को रद्द करने और हमारी व्यावसायिक गतिविधियों में उन कंपनियों की भागीदारी पर प्रतिबंध लगाने का कोई मतलब नहीं होगा। 1998 में भारत के परमाणु विस्फ़ोटों के ठीक बाद भारत के दूरसंचार क्षेत्र में चीनी दखलंदाज़ी शुरू हो गयी थी।

भारत 2009-10 में चीनी दूरसंचार कंपनियों को सुरक्षा ख़तरों के कारण भारत के सेवा प्रदाताओं को दूरसंचार उपकरण बेचने से रोकने में नाकाम रहा, हालांकि जब उनके अधिकारियों ने प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय, संचार मंत्रालय और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के अधिकारियों से मुलाकातें कीं, तो अचानक चीज़ें सामान्य हो गयीं। इसके कुछ सालों बाद ज़्यादातर चीनी एफ़डीआई को डिजिटल इंडिया अभियान की ओर मोड़ दिया गया है। भारत का ‘बैक-ऑफ़-द-वर्ल्ड’ टैग अचानक सार्वजनिक चर्चा से ग़ायब हो गया। अपने ख़ुद के ऐप और सम्बन्धित प्लेटफ़ॉर्म को विकसित करने के बजाय, भारत चीनी स्मार्टफ़ोन और ई-कॉमर्स पोर्टल्स पर चीनी ऐप्स की बाढ़ से अटा-पड़ा है। भारत को ऐसे क्षेत्रों को चिह्नित करना चाहिए,जहां चीन के साथ व्यावहारिक सहयोग को धरातल पर लाया जा सके।

पांचवीं बात कि भारत का संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ सुरक्षा सहयोग, हिंद-प्रशांत रणनीति में भारत की भागीदारी, और क्वाड को चीन ख़ुद के सामने किसी अवरोध पैदा करने के प्रयास के रूप में देखता है। सुरक्षा मामले को एक ठोस आर्थिक सहभागिता की ज़रूरत होती है, क्योंकि द्विपक्षीय स्तर पर कुछ क्षेत्रों में सुरक्षा का मामला मुमकिन हो सकता है, लेकिन बहुपक्षीय स्तर पर यह एक चुनौती भी बन सकता है। संयुक्त राज्य अमेरिका की तरफ़ से हिंद-प्रशांत के लिए आवंटित सुरक्षा बजट अगले एक वर्ष के लिए उसके कुल सैन्य ख़र्च का 0.3% जैसी मामूली राशि है। भारत की विदेश नीति में हिंद-प्रशांत को लेकर किस तरह की कोई रणनीति नहीं है और हिंद-प्रशांत में उसकी आर्थिक, सैन्य और राजनयिक जुड़ाव बहुत ही कम है।

आख़िरकार घरेलू और बाहरी चुनौतियों से निपटने को लेकर भारत का आर्थिक विकास और इसकी क्षमतायें भारत की सीमाओं और इसकी क्षेत्रीय और वैश्विक आकांक्षाओं के साथ चीन से समझ हासिल करने में सक्षम होंगे। जब तक भारत के विकास की रफ़्तार कमज़ोर रहती है, तब तक इसका सामाजिक सामंजस्य और सांप्रदायिक सद्भाव अव्यवस्था के शिकार रहेंगे, ऐसे में भारत को तबतक वैश्विक घटकों से स्वीकार्यता हासिल नहीं हो सकता है।

राजनीतिक विश्लेषक, नेविल मैक्सवेल:

मैक्सवेल का कहना है कि 1986 में व्लादिवोस्तोक में एक महत्वपूर्ण भाषण में गोर्बाचेव ने स्पष्ट कहा था कि चीन और यूएसएसआर के बीच के सीमा विवाद को लेकर यूएसएसआर ने शुरुआत में बीजिंग पर आक्रामक विस्तारवाद का आरोप लगाने के बाद चीनी दृष्टिकोण को स्वीकार कर लिया था। मैक्सवेल, इस लेख में भारत और चीन के बीच सीमा विवाद के सिलसिले में इसी रूसी दृष्टिकोण की वक़ालत करते हैं। अपनी पुस्तक,चाइनाज़ बॉर्डर्स: सेट्लमेंट्स एण्ड कन्फ़्लिक्ट्स के पहले भाग में लिखे गये "हाऊ टू सेट्ल शिनो-इंडियन बॉर्डर्स " पर नज़र डालें, तो इसी खंड की पृष्ठ संख्या 171 से लिये गये तथ्य को उन्होंने  वर्ल्ड अफ़ेयर के जुलाई-सितंबर 2000 के अंक में प्रकाशित अपने लेख में उद्धृत किया है।

तकनीकी जानकार डेव लुईस :

लुईस पेकिंग विश्वविद्यालय स्थित डिजिटल एशिया हब और येनचिंग स्कॉलर के फ़ेलो हैं। उनके द्वारा प्रकाशित ‘चाइनाइंडिया नेटवर्क्ड’ नामक एक न्यूज़ लेटर में वे "प्रौद्योगिकी, समाज और राजनीति के चौराहे पर" खड़े इन दो क्षेत्रों के बीच के नेटवर्क सम्बन्ध की पड़ताल करते हैं।

लुईस भारत और चीन के बीच एकमात्र संचार चैनल, टिकटॉक और वीचैट सहित 59 चीनी ऐप पर 29 जून को प्रतिबंध लगाने के भारत के फ़ैसले के निहितार्थों की पड़ताल करते हैं। चीन की नीति की यही ख़ासियत है कि वह फ़ायदे की बनिस्पत परेशानी ज़्यादा पैदा करती है। यह नीति एक आशाजनक तकनीकी साझेदारी का प्लग खींच लेती है, जो चीन-भारत विनिमय और सीखने के लिए एक नया डोमेन था (पायल अरोड़ा के लेख भी देखें)। टिकटॉक के बाहर खड़ी की गयी दीवार भारत के 200 मिलियन उपयोगकर्ताओं को इसके इस्तेमाल से रोक दिया है और इससे ये उपयोगकर्ता वैश्विक मीडिया सूचना के विस्तार में भाग लेने से भी वंचित रह हो गये हैं।

लुईस इस बात का ज़िक़्र करते हैं कि वीचैट पर प्रतिबंध के लग जाने से चीनी और भारतीयों के बीच के एकमात्र संचार चैनल बंद हो गया है। असल में यह किसी पैतृक दबंगई जैसी निवारक एजेंसी की मिसाल है,जो लोगों को ख़ुद से इस बात को तय करने से रोक देती है कि लोगों के लिए क्या अच्छा है। यह आपस में जुड़ने को लेकर लोगों को पहली ही जैसी हालत में ले आने जैसा है।

(केएस सुब्रमण्यन एक स्वतंत्र जानकार और एक पूर्व सिविल सर्वेंट है। विचार व्यक्तिगत हैं।)

इस आलेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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