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तमाम दिक्कतों के बावजूद एक साथ आगे बढ़ सकते हैं भारत और चीन

आख़िर भारत और चीन के संबंधों में कौन-कौन से बाधक हैं और कहां कुछ प्रगति की जा सकती है? या फिर मोदी और ट्रंप की ‘हाउडी मोदी’ मुलाकात की तरह यह शिखर सम्मेलन भी बहुत सारे सपनों और बिना किसी ठोस प्रगति के ख़त्म माना जाए।
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image courtesy: The print

धरोहर शहर मामल्लापुरम, जहां भारत और चीन अपने व्यापार संबंधों की प्राचीन जड़ें खोज सकते हैं। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पारंपरिक पोशाक पहनकर, पश्चिमी वेशभूषा में पहुंचे चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग का स्वागत किया। दोनों ने हाथ मिलाया और एक दूसरे की तरफ मुस्कान बिखेरी। कुल मिलाकर दृश्य बेहद शानदार रहा।

दोनों नेताओं की सीधी मुलाकात का यह तीसरा मौका था। इससे पहले गुजरात में साबरमती नदी के किनारे और उसके बाद वुहान मीट में दोनों नेताओं की एक-दूसरे से सीधी मुलाकात हुई थी। हालांकि दोनों नेताओं ने कम से कम दस मौकों पर एक दूसरे का सामना किया है। इसमें रूस-चीन-इंडिया फोरम, एससीओ (शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन) मीट, ब्रिक्स मीट और जी-20 मीट की मुलाकातें शामिल हैं। इन सभी मुलाकातों के बाद विदेश सचिव स्तर के डॉयलॉग होते हैं, इनकी शुरूआत 1988 में हुई थी। तब 2003 से शुरू अधिकार प्रदत्त विशेष प्रतिनिधि स्तर की मुलाकात होती है। 

तो सब कुछ अच्छा है, लेकिन फिर भी कोई बहुत बड़ी खबर सामने नहीं आई। बिना एजेंडा वाले एक अनौपचारिक शिखर सम्मेलन से बड़े नतीजों की उम्मीद नहीं होनी चाहिए। चार दिन पहले तक किसी भी पक्ष ने उपस्थिति की पुष्टि नहीं की थी। जरूरी है कि इस तरह की वैश्विक मेल-जोल से कोई ठोस उन्नति हो। 

प्रगति में बाधक

आखिर भारत और चीन के संबंधों में कौन-कौन से बाधक हैं और कहां कुछ प्रगति की जा सकती है? या फिर मोदी और ट्रंप की हाउडी मोदी मुलाकात की तरह यह शिखर सम्मेलन भी बहुत सारे सपनों और बिना किसी ठोस प्रगति के खत्म माना जाए।

पहला, भारत और चीन में व्यापार अंसतुलन काफी ज्यादा है, भारत का व्यापार घाटा 54 बिलियन डॉलर का है। भारत लगातार इस मुद्दे को उठाता रहा है, लेकिन वुहान की अनौपचारिक मुलाकात तक भी किसी किस्म की प्रगति नहीं हुई। निर्यात में अपने उत्पाद और सेवाओं के लिए भारत बिना बाधा के बराबरी का मैदान चाहता है। वह लगातार चीन से भारत में ज्यादा निवेश करने की भी मांग करता रहा है। लेकिन दोनों मोर्चों पर भारत को कोई खास सफलता हाथ नहीं लगी।

अमेरिका और चीन में जारी ट्रेड वार के चलते भारत, चीन के लिए एक आकर्षक व्यापारिक केंद्र बन जाता है, लेकिन चीन से अगर भारतीय बाजारों में सिर्फ आयात ही होता रहा, तो इससे बस व्यापार घाटा ही बढ़ेगा। चीन की अर्थव्यवस्था, भारत से पांच गुनी (भारत 2.8 ट्रिलियन डॉलर और चीन 14 ट्रिलियन डॉलर) बड़ी है। इसलिए वो हमें नजरंदाज कर सकता है। लेकिन यह भारत के पक्ष में होगा कि वह व्यापार घाटे को 53 बिलियन डॉलर से कम कर अगले पांच सालों में 10-12 बिलियन डॉलर तक ले आए।

दूसरा, भारत इस मुगालते में है कि वह चीन के साथ रणनीतिक क्षमता रखता है, यह बेहद गलत बात है। न केवल चीन की अर्थव्यवस्था बड़ी है, बल्कि उसकी सेना भी ज्यादा ताकतवर और सुनियोजित है। वह अपने ज्यादातर हथियार खुद बनाता है, जबकि भारत दुनिया का सबसे बड़ा हथियार और गोलाबारूद का आयातक  है। दूसरी तरफ चीन भारत की पाकिस्तान से तुलना करता है और पाकिस्तान पर भारत की आर्थिक, सैन्य, लोकतांत्रिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, तकनीकी और शैक्षणिक श्रेष्ठता को नजरंदाज कर देता है। दोनों तरफ से यह खत्म होना चाहिए।

तीसरा, दूसरी बात को ही आगे बढ़ाते हुए कहना होगा कि दोनों देशों को हिमालय सीमा, खासकर अरुणाचल प्रदेश और ट्रांस काराकोरम रेंज में झड़पों को कम करना होगा। एक उच्च स्तरीय प्रणाली बनानी चाहिए और सीमा प्रबंधन के लिए आपसी सैन्य विश्वास को मजबूत करने वाले कदम उठाने चाहिए। ताकि आगे डोकलाम जैसी स्थिति से बचा जा सके। भले ही डोकलाम भारत के संरक्षित राष्ट्र भूटान में हो, लेकिन वहां चीन ने भारत की चिढ़ को बढ़ाते हुए स्थायी निर्माण कर रखा है।

चौथा चीन और भारत को अपने राजनायिक संबंधों की 70वीं सालगिरह मनानी चाहिए, जो माओ के चीन और नेहरू के भारत के बीच 1950 में शुरू हुए थे। यह दुनिया की दो सबसे पुरानी सभ्यताओं और सबसे तेजी से बढ़ती आर्थिक-सैन्य-तकनीकी शक्तियों को पास लाने का काम करेगी। दूसरी तरफ लोगों से लोगों का संबंध और सांस्कृतिक गठजोड़ बढ़ाने के लिए आपसी यात्राएं, फिल्म फेस्टिवल, चीन में इंडिया फेस्ट और भारत में चाइना फेस्ट का आयोजन करना चाहिए। साथ ही शैक्षणिक, औद्योगिक और आधिकारिक यात्राओं को बढ़ाना चाहिए।

पांचवां, कई बार एशिया की शताब्दी कहे जाने वाले युग की दो एशियाई शक्तियों को दुनिया के सामने इज्जत पाने के लिए मध्य-पूर्व संकट, जलवायु परिवर्तन, प्राचीन कला और धरोहरों के संरक्षण जैसे मुद्दों पर कुछ एकरूपता दिखानी चाहिए। एक ऐसा चीन जो भारत को उपमहाद्वीप तक सीमित कर देना चाहता है और एक भारत जो दुनिया के मंचों पर चीन को नजरंदाज कर देता है, ऐसा दोनों देशों के हित में नहीं है।

आज हम कहां खड़े हैं?

मोदी ने 2014 के चुनावी कैंपेन में लगातार चीन को लाल आंखें दिखाने की बात कही थी। लेकिन वो नरमी के साथ डोकलाम से हट गए और कभी अक्साई चीन की भी बात नहीं की। हालांकि आजकल पीओके पर खूब बात होती है।

मोदी सत्ता में आने के बाद शी से 11 बार मिल चुके हैं। लेकिन आज तक एक भी वजनदार समझौता नहीं हुआ। अतीत में भी चीन के मोर्चे पर सतर्कता के चलते भारत अमेरिका, खासकर पश्चिमी देशों के साथ संबंधों में सावधान रहा है। हाल ही में भारत ने हुवावेई की 5G ट्रॉयल्स को भारत में अनुमति दे दी, जबकि कंपनी पर चीन के लिए जासूसी करने का आरोप लगता रहा है। भारत अक्सर अमेरिका और चीन के त्रिकोण में चीन के साथ अपनी सहूलियत या ताकत को जरूरत से ज्यादा मान लेता है।

शी को अपने हाथों में शक्ति केंद्रित करने के लिए जाना जाता है और उन्होंने यह तय कर दिया है कि मरने तक वही अपने देश के सर्वोच्च नेता बने रहें। अब वो दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में चीन का प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं। यही बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव’ है, जिससे क्षेत्र में बड़ी आधारभूत संरचना का निर्माण होगा और इससे चीन का व्यापारिक और सैन्य हित भी आगे बढ़ेंगे। भारत इसका विरोध कर रहा है।

अमेरिका के साथ जारी व्यापारिक युद्ध में शी को नकारात्मक परिणाम मिल रहा है। इसलिए चीन को भारत की आज सबसे ज्यादा जरूरत है। आर्थिक, सैन्य और तकनीकी विकास में केवल अमेरिका से पीछे, एक महाशक्ति के तौर पर उभरते चीन को मित्र भारत’ की जरूरत है। लेकिन पिछले 6 सालों में 11 मुलाकातों के बाद भी सभी उपाय भारत के हितों के लिए हानिकारक रहे हैं। इसमें पाकिस्तान को चीन का मौखिक समर्थन और हाल ही में कश्मीर मुद्दे को सुरक्षा परिषद में ले जाने की कोशिश भी शामिल है।

शी का कश्मीर मुद्दे का हल यूएन प्रस्ताव के हिसाब से करने की बात भी भारत को पसंद नहीं आई। साथ ही चीन ने सक्रिय तौर पर सुरक्षा परिषद और न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में भारत के प्रवेश का विरोध किया है।

आगे क्या?

चीन के साथ कोई बड़ा समझौता लगभग असंभव है। तो छोटी शुरूआत करते हुए ट्रेक-2 डिप्लोमेसी और सांस्कृतिक संबंधों को बनाने के लिए आपसी संबंधों की 70 वीं सालगिरह मनाई जाए। सीमा पर आपसी सैन्य विश्वास को बनाने के लिए छोटे-छोटे उपाय किए जाएं। चीनी निवेशकों को भारत में आने दिया जाए (कई आना चाहते हैं, लेकिन उन्हें आधिकारिक समस्याएं आती हैं)। उनके व्यापार को सुलभ बनाया जाए।

एक दूसरे की संस्कृति, धरोहर, कला, दर्शन, खान-पान और सिनेमा को बढ़ावा दिया जाए। चीन में भारतीय निर्यात को बढ़ावा देने की कोशिश हो। भारत में सार्वजनिक अधारभूत संरचना विकास के लिए चीन की मदद ली जाए। हाल के लिए विवाद के मुद्दे, जैसे- कश्मीर और दक्षिण चीन सागर, इनको दूर रखा जाए। दुनिया के सामने साझा चुनौतियों पर एकराय बनाई जाए, जिससे वैश्विक स्तर पर एशिया का मजबूत चेहरा दिखे। साथ ही इस नाजुक वक्त में बड़बोले प्रचार को भारत और चीन के बीच में नहीं आने देना चाहिए।

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